नेशनल पेंशन स्कीम – कर्मचारियों के हक़ों पर डकैती डालने की नयी स्कीम

प्रसेन

नेशनल पेंशन स्कीम (न्यू पेंशन स्कीम) भाजपा सरकार द्वारा कर्मचारियों के हक़ों पर डकैती डालने की नयी स्कीम है। इसीलिए बहुत सारे कर्मचारी इसे ‘नो पेंशन स्कीम’ भी कहते हैं। पूँजीवादी मीडिया, भाजपा व संघ परिवार की यूनियनें व लगुए-भगुए संगठन एनपीएस को भाजपा सरकार की दूरदर्शी योजना के रूप में पेश कर रहे हैं। अपने हर कुकृत्य को छिपाने के लिए भाजपा हमेशा राष्ट्रहित-देशहित की आड़ लेती है। इस स्कीम को भी वह देशहित, कर्मचारियों के लिए लाभप्रद स्कीम के रूप में प्रचारित कर रही है। ‘नेशनल पेंशन स्कीम’ के बारे में पारदर्शी, सरल प्रक्रिया, अद्वितीय आदि शब्दाडम्बरों का इस्तेमाल सरकारी वेबसाइटों पर देखा जा सकता है। इसे बुढ़ापे की लाठी के रूप में प्रचारित किया जा रहा है और बताया जा रहा है कि हमें वर्तमान समय में जागना होगा और भविष्य के प्रति चिन्ता करते हुए न्यू पेंशन स्कीम से जुड़ना होगा, जिसके लिए आपको समय रहते कुछ इन्वेस्ट करना होगा जो आपको वृद्धावस्था में लाभ दे।

‘नेशनल पेंशन स्कीम’ किस तरीक़े से कर्मचारी-विरोधी स्कीम है – इस पर बात करने से पहले इसके इतिहास पर थोड़ी सी बात ज़रूरी है। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 10 अक्टूबर 2003 को पेंशन फ़ण्ड नियामक एवं विकास प्राधिकरण की स्थापना की थी जिसने 2004 में ‘नेशनल पेंशन स्कीम’ लांच की। ‘नेशनल पेंशन स्कीम’ ने 1 मई 2009 में कार्य शुरू किया (इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि मज़दूरों के हक़ों-अधिकारों की लड़ाई के महत्वपूर्ण दिन – 1 मई को कर्मचारियों को मिलने वाली पेंशन भी छीन ली गयी)। इस स्कीम के अन्तर्गत वे केन्द्रीय कर्मचारी (साथ में राज्य सरकारों के कर्मचारी) आते हैं जिनकी नियुक्ति 1 जनवरी 2004 को या उसके बाद हुई है।

एनपीएस स्कीम एक अंशदायी स्कीम है जिसमें कर्मचारियों के वेतन से 10% काटा जायेगा और 10% सरकार द्वारा अंशदान के रूप में दिया जायेगा। काटे गये पैसे को शेयर मार्केट में लगाया जायेगा। अगर शेयर मार्केट डूब गया तो कर्मचारियों का पैसा डूब जायेगा, लेकिन सरकार इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेगी। पुरानी पेंशन (गारण्टीड पेंशन स्कीम) में कोई कटौती नहीं होती थी, तथा कर्मचारियों के रिटायर होने पर उस समय के अन्तिम वेतन (मूल वेतन और महँगाई भत्ता) का पचास प्रतिशत पेंशन के रूप में देने का प्रावधान था, लेकिन ‘नेशनल पेंशन स्कीम (एनपीएस) में सेवानिवृत्ति पर कुल रक़म जो शेयर मार्केट निर्धारित करेगा, उसका 40% प्रतिशत सरकार आयकर के रूप में कटौती कर लेगी। तथा बची हुई 60% की राशि का ब्याज़ पेंशन के रूप में दी जायेगी, जो बहुत ही कम होगी। इतना ही नहीं, इसमें सेवाकाल के दौरान कर्मचारी की स्थायी अपंगता व मृत्यु के पश्चात परिवार की ज़िम्मेदारी का निर्वहन व भविष्य के लिए कोई उल्लेख नहीं है। कुल मिलाकर यह कि सरकारी कर्मचारियों को सामाजिक सुरक्षा के नाम पर जो कुछ भी मिलता था, उसको भी ख़त्म कर देने की योजना है।

वास्तव में मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था आर्थिक संकट के लाइलाज भँवरजाल में फँस चुकी है। 1990-91 में आर्थिक उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ इसी भँवरजाल से निकल पाने की क़वायद थी। लेकिन जैसा कि हमेशा होता है, पूँजीवादी व्यवस्था अपने तात्कालिक संकट को भविष्य के और बड़े संकट के रूप में टालती है। वास्तव में आज़ादी के बाद जनता के ख़ून-पसीने की कमी से जो पब्लिक सेक्टर खड़े किये गये थे, उन्हें 1990-91 में आर्थिक उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद एक-एक करके औने-पौने दामों पर पूँजीपतियों के हाथों में बेचा जा रहा है। तरह-तरह की तिकड़मों के ज़रिये एक तरफ़ सरकारी विभागों के पदों को ख़त्म किया जा रहा है। परमानेण्ट भर्तियों की तुलना में ठेके और संविदा पर की जाने वाली नौकरियों का प्रतिशत बढ़ाया जा रहा है। कर्मचारियों को मिलने वाले पेंशन-भत्तों जैसे अधिकारों में कटौती की जा रही है। इन कटौतियों के ख़िलाफ़ रेलवे,  बैंक, बिजली, रोडवेज आदि के कर्मचारी लगातार संघर्षरत हैं। अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के पाँच महानगरों की बिजली को निजी हाथों में सौंपने के ख़िलाफ़ बिजली विभाग के कर्मचारी आन्दोलनरत थे। आगामी चुनाव के मद्देनज़र सरकार ने फि़लहाल यह फै़सला वापस ले लिया है, लेकिन कर्मचारियों को भी यह अन्देशा है कि सरकार इस फै़सले को अमल में ले आयेगी। भाजपा सरकार की फासीवादी जनविरोधी नीतियों का विरोध करते हुए हमें यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि कांग्रेस, सपा-बसपा आदि कोई भी चुनावी पार्टी सत्ता में आयेगी तो इन कर्मचारी विरोधी नीतियों को ही आगे बढ़ाने का काम करेगी। वास्तव में पूँजीवादी व्यवस्था में सरकार चाहे जिसकी हो, वह पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के रूप में ही काम करती है। मौजूदा आर्थिक संकट के दौर में पूँजीपतियों के मुनाफ़े की दर में कमी आयी है, जिसकी वजह से वह बिलबिलाये हुए हैं। अपने मुनाफ़े की दर बरक़रार रखने के लिए वो सारे पब्लिक सेक्टर हड़प जाना चाहते हैं। यही वजह है कि पूँजीपतियों ने भाजपा जैसी फासीवादी पार्टी को सत्ता में लाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया। भाजपा पूरी मुस्तैदी से अपने आकाओं की इच्छाओं को पूरा करने में लगी है। छात्र-मज़दूर-कर्मचारी विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष को विघटित करने, कुचलने के लिए भाजपा सरकार दो हथकण्डे इस्तेमाल कर रही है। एक तरफ़ गाय, मन्दिर, धर्म के नाम पर साम्प्रदायिक बँटवारा, दूसरी तरफ़ यूपीकोका जैसे बर्बरतापूर्ण काले क़ानून।

लगभग 50 हज़ार रेलकर्मियों द्वारा एनपीएस के विरोध में 13 मार्च को संसद मार्च करके जन्तर-मन्तर पर प्रदर्शन किया गया। इसी कड़ी में एनपीएस को रद्द करने के लिए एआईआरएफ़ के बैनर तले रेलकर्मियों ने बहत्तर घण्टे (8 मई से 11 मई) का क्रमिक अनशन किया। अटेवा से जुड़े कार्यकर्ता भी इस आन्दोलन के समर्थन में आये (ग़ौरतलब है कि अटेवा के नेतृत्व में हज़ारों कर्मचारियों ने संसद मार्च किया था)।

प्रयाग रेलवे स्टेशन पर प्रयाग मेन्स यूनियन के शाखा मन्त्री एलए जाफ़री के नेतृत्व में क्रमिक अनशन चला, जिसमें लखनऊ मण्डल के कोषाध्यक्ष कामरेड बब्बन भक्त ने रचनात्मक व उत्साहवर्धक उपस्थिति दर्ज करायी। इसके अलावा विजय कुमार मिश्रा, बीबी सिंह, एसके सिंह, बृजेश शुक्ल, रंजीत कुमार, मनोज कुमार, भगवानदीन, ब्रह्मदीन समेत 300 रेलकर्मियों ने हिस्सा लिया।

बिगुल मज़दूर दस्ता ने प्रयाग रेलवे स्टेशन पर चल रहे क्रमिक अनशन के समर्थन में विभिन्न रचनात्मक तरीक़ों से ज़ोरदार भागीदारी की। क्रमिक अनशन में दिशा छात्र संगठन और बिगुल मज़दूर दस्ता द्वारा क्रान्तिकारी गीत, नुक्कड़ नाटक ‘मशीन’ और मई दिवस पर बनी डाक्यूमेण्ट्री फि़ल्म ‘लड़ाई ज़ारी है’, ‘मॉडर्न टाइम्स’, ‘एक ख़ूबसूरत जहाज़’ व ‘लीजेण्ड ऑफ़ भगतसिंह’ फि़ल्मों का प्रदर्शन किया गया। बब्बन भक्त ने बताया कि रेलवे में वर्तमान में  13.26 लाख कर्मचारी कार्यरत हैं, जिनमें से 5.86 लाख कर्मचारी पुरानी पेंशन के अधिकार को खो चुके हैं। इतना ही नहीं, रेलवे में लगभग 4 लाख पद ख़ाली हैं और हर वर्ष लगभग 1 लाख कर्मचारी रिटायर हो रहे हैं, जबकि नयी भर्तियाँ न के बराबर हो रही हैं और बहुत सारे पदों को समाप्त किया जा रहा है और ठेके पर दिया जा रहा है। रेलवे में होने वाली दुर्घटनाओं व देरी के लिए यह भी एक वजह है, लेकिन सारा ठीकरा कर्मचारियों के सिर पर फोड़ दिया जाता है।

बिगुल मज़दूर दस्ता के कार्यकर्ताओं ने कहा कि कर्मचारियों को अपने आन्दोलन को मुक़ाम तक पहुँचाने के लिए कुछ बातों पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है। सबसे पहली बात यह है कि कर्मचारियों के आन्दोलन को चुनावबाज़ पार्टियों और संशोधनवादियों के नेतृत्व से मुक्त करना होगा, क्योंकि तमाम गरम-गरम बातों के बावज़ूद सच्चाई यही है कि वे सरकार के ख़िलाफ़ व्यापक जुझारू आन्दोलन कभी नहीं चलायेंगे। दूसरी बात कर्मचारियों को अपने आन्दोलन को छात्रों और असंगठित क्षेत्र के करोड़ों मज़दूरों के संघर्षों के साथ जोड़ना होगा जो आज निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों की मार से त्रस्त हैं। तमाम विभागों में लाखों पद ख़ाली हैं, लेकिन उन्हें भरा नहीं जा रहा है। यह बात युवाओं के भविष्य से सीधे जाकर जुड़ती है। यही नहीं, तमाम विभागों में बहुत सारे पद ठेके पर दे दिये गये हैं, जिनको न्यूनतम मज़दूरी तक हासिल नहीं होती। अगर इसके ख़िलाफ़ छात्रों-मज़दूरों-कर्मचारियों की व्यापक एकजुटता बने तभी कुछ हासिल किया जा सकता है। तीसरी बात, कर्मचारियों के आन्दोलन में एक चीज़ जो बहुत खटकती है, वह कर्मचारियों में राजनीतिक चेतना का अभाव व सरकार के कर्मचारी विरोधी नीतियों को व्यापक स्तर पर प्रचारित न कर पाने की कमी। 1974 में कर्मचारियों की ऐतिहासिक हड़ताल के बाद बहुत सारे कर्मचारी निकाल बाहर किये गये थे। उनको दुबारा काम पर नहीं रखा गया था। मौजूदा बेरोज़गारी के भयानक संकट के दौर में बहुत सारे कर्मचारी अपने हक़-अधिकारों की कटौती पर भी पुराने अनुभव की वजह से चुप रह जाते हैं। जिसका नतीजा होता है कि पूरी ताक़त के साथ प्रतिरोध खड़ा नहीं हो पाता। वहीं, सरकार के कर्मचारी विरोधी फै़सलों को देश की व्यापक जनता तक पहुँचाने के लिए पर्चे, अख़बार आदि माध्यमों का व्यापक इस्तेमाल नहीं हो पाता। जबकि सरकार पूँजीवादी मीडिया के ज़रिये सच्चाई की एकदम उलटी तस्वीर लगातार जनता तक पहुँचाती रहती है। चूँकि ये नीतियाँ चुनावी पार्टियों की अदला-बदली से ख़त्म नहीं की जा सकतीं, इसलिए कर्मचारियों को लम्बी लड़ाई की तैयारी करनी होगी, इसके लिए कर्मचारियों के अध्ययन चक्र, विचार गोष्ठी, फि़ल्म शो, पुस्तकालयों का निर्माण, गायन-नाटक मण्डली आदि संगठित करने होंगे, ताकि संघर्ष को निरन्तरता, गहराई व व्यापकता दी जा सके। और आख़िरी बात यह कि इन सारी समस्याओं से तब तक निजात नहीं मिल सकता, जब तक कि पूँजीवादी व्यवस्था को उसकी क़ब्र में दफ़्न न कर दिया जाये। इसलिए अपने संघर्ष को इस व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की कड़ी के रूप में जोड़ना होगा।

 

मज़दूर बिगुल, मई 2018


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments