संशोधनवादियों के लिए कार्ल मार्क्स की प्रासंगिकता!

मनजीत चाहर, रोहतक, हरियाणा

प्रिय सम्पादक महोदय, मैं मज़दूर बिगुल पिछले दो साल से पढ़ रहा हूँ तथा बिगुल मज़दूर दस्ता के साथ भी मैनें विभिन्न मौकों पर अभियानों में शिरकत की है। अपना एक अनुभव मैं बिगुल के पाठकों के साथ साझा करना चाहूँगा।

विगत 5 जून को मुझे रोहतक में ‘मौजूदा देश-दुनिया और मार्क्सवाद’ विषय पर सीपीआई (एम) के महासचिव सीताराम येचुरी को सुनने का मौका मिला। संशोधनवादी पार्टी से जुड़े नेता को सुनने का यह मेरा पहला मौका था। हम दो साथी इस मकसद से कार्यक्रम में पहुँचे थे कि वहाँ पर मार्क्सवादी और क्रान्तिकारी साहित्य की पुस्तक प्रदर्शनी लगाते हुए मज़दूर बिगुल अखबार का प्रचार भी लोगों के बीच कर देंगे तथा सीपीआई (एम) महासचिव को सुनते हुए मार्क्सवाद पर आम कार्यकर्त्ताओं के साथ बातचीत भी कर लेंगे। किन्तु हम वहाँ से – जिनकी कि हमें उम्मीद थी – काफ़ी खट्टे अनुभवों के साथ वापस लौटे!

पहले तो जाते ही हमने जैसे ही बिगुल अख़बार सहित मार्क्सवादी साहित्य लगाना शुरू किया तभी एक महाशय प्रकट हुए और प्रदर्शनी लगाने से ही मना करने लगे। कहने लगे कि हमसे अनुमति लेनी चाहिए थी। इस पर हमने कहा कि भाई यह तो मार्क्सवादी साहित्य ही है इससे आपको क्या दिक्कत हो सकती है और जहाँ तक अनुमति की बात है तो वह आप अब दे दीजिये। फ़िर बड़ी ही कुटिल मुस्कान के साथ उन्होंने फ़रमाया कि सम्भव नहीं हो पायेगा। खैर मार्क्सवादी-क्रान्तिकारी साहित्य और बिगुल अख़बार की प्रदर्शनी तो हमने आयोजन स्थल के ठीक बाहर मुख्य सड़क पर लगायी ही किन्तु यह किस्सा बताता है कि संशोधनवादी कितने संकीर्णमना होते हैं तथा अध्ययन से कितना कतराते हैं, कितने घबराये हुए हैं कि कहीं मज़दूर बिगुल उनके कैडर को “तोड़” न ले जाये! इनके लीडरान गाहे-बगाहे बिगुल के बारे में विभिन्न तरह की अफ़वाहें भी फैलाते रहते हैं! कार्यकर्त्ताओं को कूपमण्डूक बनाकर रखा जाता है और उन्हें ऐसा बना दिया जाता है अध्यन के नाम से ही बिदकने लगते हैं। और फ़िर ऐसे नमूने पैदा होते हैं जो बताते हैं कि बंगाल में वाम मोर्चे की हार मार्क्सवादी उसूलों के तहत ही हुई है क्योंकि लेनिन ने खुद ही तो कहा है ‘एक कदम आगे दो कदम पीछे’। जबकि लेनिन की उक्त पुस्तिका का अर्थ और सन्दर्भ दोनों ही बिलकुल अलग हैं। 

बहरहाल, अब आते हैं महासचिव येचुरी जी की ज्ञान की पंजीरी पर। बात की शुरुआत में ही चीन के राष्ट्रपति को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि मार्क्सवाद के उसूलों पर चलते हुए ही आज का चीन तरक्की की राह पर आगे बढ़ रहा है। जबकि‍ असल बात यह है कि चीन मार्क्सवादी सिद्धान्तों को कभी का तिलांजलि‍ दे चुका है। माओ त्से तुंग की मृत्यु के बाद माओ समर्थकों को झूठे मुक़दमे चलाकर जेलों में ठूँस दिया गया और देंग शाओ पिंग का संशोधनवादी धड़ा बाज़ार समाजवाद के नाम पर संशोधनवाद ले आया। यहीं से यानी 1977 के बाद से ही चीन की कम्युनिस्ट पार्टी संशोधनवादी पार्टी बन गयी। ‘फ़ोर मॉडर्नाइजे़शन’ के नाम पर पूँजीवादी नीतियों की शुरुआत हुई और चीन में राज्य का चरित्र समाजवादी न रहकर पूँजीवादी और सामाजिक फ़ासीवादी किस्म का हो गया। 1966-1976 के दौरान चली महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की शिक्षाओं को धूल में मिलाते हुए आम जनता पर शोषण का पाटा चला दिया गया। समाजवादी व्यवस्था चूंकि एक संक्रमणशील व्यवस्था होती है। इस दौरान भी विभिन्न तरह की असमानताएँ समाज में मौजूद रहती हैं। यहीं पर पूँजीवादी पथगामी कम्युनिस्ट पार्टी में घुसपैठ करके न केवल पार्टी के चरित्र को बदल सकते हैं बल्कि उससे राज्य सत्ता का चरित्र भी बदल जाता है।

पहले सोवियत संघ इसका उदाहरण बना जहाँ स्तालिन की मृत्यु के बाद ख्रुश्चेवी संशोधनवादी धड़ा पार्टी पर हावी हो गया और 1956 की बीसवीं पार्टी कांग्रेस के बाद सोवियत संघ लेनिन और स्तालिन कालीन सोवियत संघ नहीं रहा। क्योंकि अब समाजवादी व्यवस्था एक राज्य नियन्त्रित पूँजीवादी व्यवस्था में बदल गयी। 1990 आते-आते राज्य नियन्त्रित पूँजीवाद अपने अन्तर्विरोधों में फंसकर बिखर गया और खुले पूँजीवाद में तब्दील हो गया। यही परिणति देर-सबेर चीन में भी होने वाली है जब वह बाजार समाजवाद के नाम पर अस्तित्वमान राज्य नियन्त्रित पूँजीवाद से खुले पूँजीवाद में बदल जायेगा। मार्क्सवादी शिक्षाओं का जानकार इस बात को जानता है। जनता का खून-पसीना निचोड़कर चीन में पूँजीपतियों की संख्या आज न केवल दिन दूनी रात चौगुनी रफ़्तार से बढ़ रही है बल्कि चीन की कम्पनियाँ दुनिया भर की साम्राज्यवादी कम्पनियों के साथ सांठ-गाँठ करके दुनिया भर में पूँजी निवेश कर रही हैं। चीन में जनता का शोषण अपने चरम पर है। यही कारण है कि बहुत बड़ी मात्रा में चीन में मज़दूरों के विद्रोह उठते हैं जिन्हें दबा दिया जाता है। 2008 ओलम्पिक के समय सड़कों पर दीवारें खड़ी करके आम जनता के हालात को ढांपने के प्रयास किये गये थे। अमेरिकी-यूरोप के साम्राज्यवादी धड़े के सामने आज रूसी-चीनी साम्राज्यवादी धड़ा चुनौती तक पेश कर रहा है किन्तु भारत के संशोधनवादी चीन में मार्क्सवादी शिक्षाओं के अमल का गलत पाठ पढ़ाकर अपने कैडर को उल्लू बना रहे हैं। कैडर के स्तर पर बहुत से इमानदार लोग भी कुटिल नेतृत्व द्वारा बहला-फुसला कर चेले मूंड लिए जाते हैं। भारत में फ़ासीवाद के चरित्र और इससे मुक़ाबले की “रणनीति” को लेकर सीपीआई (एम) में येचुरी धड़े और करात धड़े के बीच बहस है किन्तु भाजपा के प्रतिक्रियावादी-दक्षिणपन्थी होने पर तो सभी एकमत हैं ही तो फ़िर क्या कारण है कि “चीनी समाजवादी लोकगणराज्य” का राष्ट्रपति मोदी के साथ गलबहियाँ करता नज़र आ रहा है?! भारत में करोड़ों-अरबों के चीनी निवेश पर इनकी क्या राय है? संशोधनवादियों की ये फ़ितरत होती है कि वे नाम तो मार्क्स का लेते हैं किन्तु सत्तासीन होने के बाद नीतियाँ पूँजीवाद की ही आगे बढ़ाते हैं। भारत की तथाकथित वामपन्थी पार्टियाँ भी नेहरू के समय खड़े किये गये पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद के लिए आँसू तो खूब बहाती हैं किन्तु जब सत्ता में भागीदारी की बात आती है तो उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों की शुरुआत करने वाली और लम्बे समय तक इन नीतियों की सबसे बड़ी पक्षपोषक रहने वाली पार्टी कांग्रेस के साथ गलबहियाँ कर लेते हैं। जिन राज्यों में  वाम मोर्चे की सरकारें रही हैं वहाँ भी निजीकरण और विदेशी निवेश के मामले में कमोबेश ‘वही ढाक के तीन पात’ वाली स्थिति रही है। फ़ासीवाद के हव्वे के सामने माकूल रणनीति और रणकौशल विकसित करने की बजाय कांग्रेस की गोद में बैठना भी भारतीय संशोधनवादियों की फ़ितरत रही है।संशोधनवादी मार्क्सवाद को कर्मों के मार्गदर्शन सिद्धान्त के तौर पर नहीं मानते और न ही लागू करते हैं। अतः मेरा तो सभी युवा कैडर से आग्रह है कि स्वयं मार्क्सवाद की क्लासिकीय रचनाओं का अध्ययन करें और संशोधनवादियों के झूठ और पाखण्ड को समझें।               

 

मज़दूर बिगुल, जून 2018


 

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