Tag Archives: मनजीत चाहर

बेरोज़गारी का गहराता संकट

बेरोज़गारी की समस्या साल दर साल विकराल रूप लेती जा रही है। स्थाई रोज़गार पाना तो जैसे शेख़चिल्ली के सपने जैसा हो गया है। देश में करोड़ों पढ़े-लिखे डिग्रीधारक युवा नौकरी ना मिलने के चलते अवसाद का शिकार हो रहे हैं। रोज़ ही नौजवानों की आत्महत्या की ख़बरें आ रही हैं। आज देश के नौजवानों के बीच रोज़गार सबसे ज्वलन्त मुद्दा है। विश्वविद्यालय और कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्रों, दिल्ली व कोटा जैसे महानगरों में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में लगे युवाओं, छोटे क़स्बों और गाँव तक में नौजवानों का बस एक ही लक्ष्य होता है कि किसी भी तरीक़े से कोई छोटी-मोटी सरकारी नौकरी मिल जाये ताकि उनकी और उनके परिवार की दाल-रोटी का काम चलता रहे। आप सभी अपने अनुभव से यह बात जानते ही हैं कि स्थायी नौकरियाँ साल दर साल कम हो रही हैं। एक-एक नौकरी के पीछे हज़ारों हज़ार आवेदन किये जाते हैं, पर नौकरी तो मुट्ठीभर लोगों को ही मिलती है। इस प्रकार हर साल लाखों क़ाबिल नौजवान बेरोज़गारों की भीड़ में शामिल हो रहे हैं और सिवाय अपने भाग्य को कोसने के अलावा उन्हें कोई दूसरा विकल्प नही दिखाई पड़ता।

संशोधनवादियों के लिए कार्ल मार्क्स की प्रासंगिकता!

कैडर के स्तर पर बहुत से इमानदार लोग भी कुटिल नेतृत्व द्वारा बहला-फुसला कर चेले मूंड लिए जाते हैं। भारत में फ़ासीवाद के चरित्र और इससे मुक़ाबले की “रणनीति” को लेकर सीपीआई (एम) में येचुरी धड़े और करात धड़े के बीच बहस है किन्तु भाजपा के प्रतिक्रियावादी-दक्षिणपन्थी होने पर तो सभी एकमत हैं ही तो फ़िर क्या कारण है कि “चीनी समाजवादी लोकगणराज्य” का राष्ट्रपति मोदी के साथ गलबहियाँ करता नज़र आ रहा है?! भारत में करोड़ों-अरबों के चीनी निवेश पर इनकी क्या राय है? संशोधनवादियों की ये फ़ितरत होती है कि वे नाम तो मार्क्स का लेते हैं किन्तु सत्तासीन होने के बाद नीतियाँ पूँजीवाद की ही आगे बढ़ाते हैं। भारत की तथाकथित वामपन्थी पार्टियाँ भी नेहरू के समय खड़े किये गये पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद के लिए आँसू तो खूब बहाती हैं किन्तु जब सत्ता में भागीदारी की बात आती है तो उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों की शुरुआत करने वाली और लम्बे समय तक इन नीतियों की सबसे बड़ी पक्षपोषक रहने वाली पार्टी कांग्रेस के साथ गलबहियाँ कर लेते हैं।