वाचन संस्‍कृति – मेहनतकशों और मुनाफाखोरों के शासन में फर्क

मानव

किसी समाज के सांस्कृतिक स्तर का पैमाना वहाँ के सांस्कृतिक केन्द्रों की हालत देखकर भी लगाया जा सकता है। ऐसे ही केन्द्रों में से एक है पुस्तकालय। सोवियत यूनियन में क्रांतिकारी दौर के समय में पुस्तकालयों और किताबों की संस्कृति को बहुत प्रोत्‍साहित किया गया था। सोवियत यूनियन में सब प्रकार के पुस्तकालयों (सरकारी पुस्तकालय, सामूहिक -फार्मों के, ट्रेड -यूनियन संस्थाओं के, बच्चों के अन्य विभागों के पुस्तकालय) की संख्या 1935 में 1,15,542 थी जिन के पास कुल किताबों की संख्या 29,88,95,000 थी। 1954 तक यह संख्या बढ़कर 3,88,127 पुस्तकालय तक हो गई जिन के पास अब कुल किताबों की संख्या 1,17,07,72,000 थी, यानि कुल किताबों की संख्या 117 करोड़ से ऊपर थी। और ऐसा नहीं था कि यह पुस्तकालय अकेले रूस में ही केन्द्रित थे, बल्कि भौगोलिक तौर पर और आबादी के लिहाज़ से भी वह सोवियत यूनियन के सब हिस्सों में थे। कम विकसित हिस्सों (जैसे कि एशियाई क्षेत्र जिस में अज़रबैजान, तुर्कमेनिस्तान, उज़बेकिसतान. किरग़ीस्तान जैसे मुल्क आते थे) में भी उनके अनुपात के मुताबिक पुस्‍तकलाय विकसित किये गए थे। सोवियत यूनियन में पढ़ने की संस्कृति का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि साल 1955 में अकेले सरकारी पुस्तकालयों में पढ़ने वाले पाठकों की संख्या 3,97,36,000 थी। 1954 में सोवियत यूनियन में मौजूद कुल पुस्तकालयों में से सरकारी पुस्तकालयों की संख्या 40% से कम थी। बाकी अन्य प्रकार के पुस्तकालय थे (जो कि निजी नहीं, सरकारी ही थे बस इन का कंट्रोल सीधे सरकार की बजाय संबंधित संस्थाएं करती थीं) | सोवियत यूनियन की आबादी साल 1959 की जनगणना के मुताबिक 20 करोड़ से कुछ ही ज़्यादा थी। सो, कुल पुस्तकालयों का 40% से कम होने के बावजूद भी इन सरकारी पुस्तकालयों में पाठकों की संख्या तकरीबन 4 करोड़ के नज़दीक थी। बाकी पुस्तकालयों के पाठकों की संख्या मिला ली जाये तो हमें सोवियत यूनियन में पढ़ने की संस्कृति का अंदाज़ा हो जाता है।

लेकिन यदि हम इस की तुलना भारत के साथ करें तो हमें दोनों देशों की व्‍यवस्‍थाओं के बीच फ़र्क पता चल जाएगा। हालाँकि आधिकारिक आंकड़े नहीं मिलते (यह भी इस ओर सरकारी अनदेखी का ही एक प्रमाण है) लेकिन अन्य स्रोतों के मुताबिक भारत में कुल सरकारी पुस्तकालयों की संख्या 50,000-70,000 है | यह सोवियत यूनियन से (1959 की जनगणना के मुताबिक) 6 गुना ज्यादा आबादी होने के बावजूद भी आधी ही है (सोवियत यूनियन के 1955 के आंकड़े मुताबिक)। भारत में पुस्तकालयों का वितरण भी बहुत असामान्‍य है – जैसे कि भारत में 20 करोड़ की आबादी वाले राज्य यू.पी में कुल 75 सरकारी पुस्तकालय ही हैं (यू.पी सरकार इन के लिए नई किताबें खरीदने के लिए साल में सिर्फ़ 2 करोड़ ही ख़र्च करती है) जबकि 7 करोड़ से कम आबादी वाले तमिलनाडु में सरकारी पुस्तकालयों की संख्या 4,000 से ऊपर है। भारत में इस समय सरकार सरकारी पुस्तकालयों पर प्रति व्यक्ति सिर्फ़ 7 पैसे ही ख़र्च कर रही है।

आखिरकार इतना फ़र्क क्यों है? क्यों एक ऐसा देश जहाँ 1917 की क्रांति से पहले 83% लोग अनपढ़ थे वह महज़ 3 दशकों के अंदर ही दुनिया का सब से पढ़ने-लिखने वाला देश बन गया और क्यों भारत, जिस को कि आज़ाद हुए 70 साल हो गए हैं, वहाँ अभी भी पढ़ने की संस्कृति बेहद कम है?
फ़र्क दोनों देशों की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक  व्‍यवस्‍था का है। फ़र्क भारत के पूंजीवाद और सोवियत यूनियन के समाजवाद का है।


 

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