ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों के बीच माँगपत्रक आन्दोलन की शुरुआत

बिगुल संवाददाता

27 मई 2018 से गुड़गाँव में ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों के माँगपत्रक आन्दोेलन की शुरुआत की गयी। सबसे पहले गुड़गाँव में ऑटो पार्ट्स बनाने वाली वेण्डर कम्पनी रिको, मदर कम्पनी मारुति पर ऑटोमोबाइल इण्डस्ट्री कॉण्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन की तरफ़़ से पर्चा वितरण किया गया, और माँगपत्रक आन्दोलन से जुड़ने तथा यूनियन की सदस्यता के लिए मज़दूरों से सम्पर्क किया। इसी कड़ी में फिर गुड़गाँव सेक्टर 10 के बाला पार्क में बैठक भी हुई। यूनियन के साथी अनन्त और शाम ने हर जगह ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों के माँगपत्रक की मुख्य माँगों को रेखांकित किया और आन्दोलन की ज़रूरत और इससे जुड़ने का आह्वान किया गया। मज़दूर साथियों को सम्बोधित करते हुए हर जगह इस बात को स्पष्ट‍ किया गया कि दिन-रात कोल्हू के बैल की तरह खटने के बाद बस किसी तरह जि़न्दा रहना हमारी ज़िन्दगी की निर्मम सच्चाई है। आज कारख़ाने में असेम्बली लाइन पर गाड़ी या उसके पुर्जे बनाने वाले हम मज़दूरों को मशीन का सबसे फ़ालतू हिस्सा समझा जाता है, जिसे ज़रूरत-भर निचोड़कर सड़क पर फेंक दिया जाता है। 17-18 साल की उम्र से काम की शुरुआत करने के बाद लगभग 25-30 साल तक की उम्र तक आते-आते एक मज़दूर इन कारख़ानेदारों के लिए बेकार हो जाता है। यही कारण है कि ऑटोमोबाइल सेक्टर में मज़दूरों की भर्ती 25-30 साल के बाद आमतौर पर बन्द कर दी जाती है। कारख़ाने में काम के वक़्त हादसा एक आम बात है। अंग-भंग होने से लेकर ज़िन्दगी खोने तक एक मज़दूर हमेशा इस खौफ़ के साये में जीता है। आखि़र ऐसा कब तक चलेगा कि हम अपना हाड़-मांस कारख़ाने में गलाये और इसके बदले हमारे बच्चे भूखों मरे?

ऑटोमोबाइल सेक्टर की चमक के पीछे मज़दूरों का अन्धकारमय जीवन

देश के विकास का बखान करते वक़्त सबसे पहले ऑटोमोबाइल पट्टी की बात आती है और हो भी क्यों न? देश के सकल घरेलू उत्पाद का क़रीब 7.1 फ़ीसदी हिस्सा ऑटोमोबाइल सेक्टर से ही आता है। ऑटोमोबाइल सेक्टर के उत्पादन का आधा से अधिक हिस्सा गुडगाँव-मानेसर-धारुहेड़ा–बावल से लेकर भिवाड़ी-ख़ुशखेड़ा-नीमराना में फैली औद्योगिक पट्टी से आता है। यह पट्टी देशी-विदेशी पूँजी के लिए अकूत मुनाफ़़ा लूटने का चारागाह है। किन्तु, यहाँ पर काम कर रहे मज़दूरों का जीवन नर्क से बदतर है। यहाँ हज़ारों कारख़ाना इकाइयों में काम कर रहे लाखों मज़दूर प्रतिदिन 10-12 घण्टा कमरतोड़ मेहनत करने के बावजूद बमुश्किल किसी तरह 8-10 हज़ार रुपये  प्रतिमाह कमा पाते हैं। काम के हालात इस तरह हैं कि मज़दूरों को एक मिनट के अन्दर 13 प्रक्रियाओं से गुज़रना होता है। मुनाफ़़े़ की हवस में कारख़ानेदार सुरक्षा उपकरणों से समझौता करता है, जिसका नुक़सान मज़दूर को अपनी ज़िन्दगी तक देकर चुकाना पड़ता है। पूरे ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों के ऊपर ठेका प्रथा की मार पड़ रही है। इस सेक्टर में काम कर रहा 85 से 90 फ़ीसदी हिस्सा ठेका मज़दूरों का है। कारख़ानेदार मज़दूरों से अपनी देख-रेख में मुख्य उत्पादन पट्टी पर स्थायी प्रकृति का काम करवाता है, लेकिन उसकी नियुक्ति से लेकर पगार तक की ज़िम्मेदारी ठेकेदार को सौंप देता है। इस तरह कारख़ाना प्रबन्धन मज़दूरों के प्रति अपनी जवाबदेही से बच जाता है, और जब चाहे तब मज़दूर को एक झटके में काम से निकल सकता है। इसके बाद श्रम-विभाग से लेकर जि़ला-प्रशासन तक मज़दूर दौड़ता रहता है, किन्तु हर जगह उसे ठेका श्रमिक कह कर पल्ला झाड़ लिया जाता है। मोदी सरकार “श्रम सुधारों” ‘मेक-इन-इण्डिया’ और ‘स्टार्ट-अप’ के नाम पर श्रम क़ानूनों में संशोधन कर सभी सेक्टरों में (रेडिमेड गारमेण्ट और चमड़ा उद्योग के बाद) ‘फि़क्स्ड टर्म नियुक्ति’ का प्रावधान लागू करने की तैयारी कर रही है, जिसके तहत न तो कारख़ानेदारों को ठेकेदारों की ज़रूरत रहेगी, और न ही पक्का करने की ज़रूरत रहेगी। कारख़ाना प्रबन्धन मज़दूरों को जब चाहे तब बिना किसी पूर्वसूचना के काम से निकाल सकता है। अप्रेण्टिस एक्ट (प्रशिक्षु अधिनियम) में संशोधन कर सरकार ने एक तरफ़़ बड़ी संख्या  में स्थायी मज़दूरों की जगह ट्रेनी मज़दूरों को भर्ती करने का क़दम भी उठा लिया है, वहीं दूसरी तरफ़़ अकुशल मज़दूरों को कुशल बनाने के नाम पर बहुत कम वेतन पर ट्रेनी मज़दूरों को फ़ैक्टरियों में निचोड़ने का गोरखधन्धा ज़ोरों पर है। जिसकी बाद में कोई रोज़गार की गारण्टीं नहीं है। मज़दूरों की एकता को तोड़ने के लिए उन्हें स्थायी व अस्थायी की विभिन्न श्रेि‍णयों में बाँटा जाता है। स्थायी मज़दूरों की अाि‍र्थक स्थिति तुलनात्मक रूप से ठीक होने के बावजूद, उनके हितों पर लगातार हमला किया जाता है। ‘ठेका प्रथा’ तथा ‘फि़क्स्ड टर्म नियुक्ति’, अप्रेण्टिस व ट्रेनी जैसे हथकण्डों से सीधा स्थायी श्रमिकों की संख्या घटायी जाती है। कारख़ानेदार जब-तब उनके निलम्बन, निष्कासन की ताक में लगा रहता है। मालिकों के फ़ायदे के लिए कारख़ाने के अन्दर हमारा ख़ून-पसीना निचोड़ने का जो काम मैनेजर, पर्सनल विभाग, लाइन इंचार्ज का गिरोह मिलकर करता है; वही काम पूरे देश में मालिक वर्ग के लिए मोदी सरकार कर रही है। गद्दी सँभालते ही मोदी ने पूँजीपतियों के वफ़ादार की भूमिका निभायी है।

सत्ता में बैठी पिछली कांग्रेसी सरकार जहाँ श्रम क़ानूनों को ताक पर रखकर पूँजीपतियों की चाकरी कर रही थी, वहीं फ़ासीवादी भाजपा सरकार धर्मोन्माद की आँधी के पीछे अपने असल काम यानी मज़दूरों के बचे-कुचे श्रम क़ानूनों पर हमला कर रही है। ‘श्रमेव जयते’ का नारा लगाने वाली मोदी सरकार मज़दूर विरोधी क़ानून  बिना देर किये 31 जुलाई 2014 को फ़ैक्टरी एक्ट 1948, ट्रेड यूनियन एक्ट 1926, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1948, ठेका मज़दूरी क़ानून 1971, एप्रेण्टिस एक्ट 1961 से लेकर तमाम श्रम क़ानूनों को कमज़ोर करने और ढीला करने की कवायद शुरू कर दी थी। और बीते साल – मज़दूरी संहिता विधेयक (कोड ऑफ़़ वेज़ेस बिल) 2017 (जिसके तहत 44 केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को 4 नियमावलियों में समेटना) नामक एक अहम विधेयक लोक सभा की केबिनेट में पास करवा चुकी है और आगामी संसद के मानसून सेशन में लागू करवाने के लिए प्रस्तुत करने वाली है। इस विधेयक में मज़दूरों की मज़दूरी कम करने, मालिकों को बोनस से छुटकारा दिलाने, ट्रेड यूनियन की कार्रवाइयों पर रोक लगाने, फ़ैक्टरियों के निरीक्षण में ढील देने और न्यूनतम मज़दूरी न देने पर रोक लगाने सहित ढेरों मज़दूर विरोधी प्रावधान हैं। मोदी सरकार के “अच्छे दिनों” का सच यही है! भाजपा ने केन्द्र  में और हरियाणा प्रदेश में हुड्डा से लेकर खट्टर, राजस्थान में वसुन्धरा सरकार तक मज़दूरों को लूटने-उगने का काम वहीं से आगे बढ़ाया है, जहाँ पर कांग्रेस ने छोड़ा था। वहीं कारख़ानेदार मज़दूरों के शोषण-उत्पीड़न को अंजाम देने के लिए लम्पट हथियारबन्द बाउंसरों की एक फ़ौज पालता है। श्रम-विभाग, जि़ला-प्रशासन, सरकार, पुलिस, मीडिया का पूरा तन्त्र मज़दूरों के संघर्ष को दबाने के लिए मिलकर काम करता है। इनका प्रतिरोध कैसे किया जाये? केन्द्रीय ट्रेड यूनियन इस प्रतिरोध को नेतृत्व देने में अक्षम हैं। बीते दो दशकों से अलग-अलग संघर्षों में तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की समझौतापरस्ती और ग़द्दारी लगातार सामने आती रही है। इनकी मौक़ापरस्ती के चलते ही कई सम्भावनासम्पन्न आन्दोलन मज़दूरों की वीरता के बावजूद असफल हो गये। ऑटोमोबाइल सेक्टर के अस्सी फ़ीसदी अस्थायी मज़दूरों की माँगें इनके एजेण्डे से ही गायब हैं। ज़ाहिर है, चुनावबाज़ पार्टियों की इन दूमछल्ली यूनियनों से उम्मीद करना बेमानी है। इनके अलावा कुछ ने मज़दूरों के ‘सहायता केन्द्र’ व ‘इंक़लाबी केन्द्र’ खोले रखे हैं, जिनकी अराजकतावादी व संकीर्णतावादी भूमिका की वजह से मारुति से लेकर तमाम संघर्ष बर्बाद हो चुके हैं और बस केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों का पिछलग्गू बन रहे हैं। मज़दूरों की शानदार कुर्बानी और लड़ाकू तेवर में कई सम्भावनासम्पन्न आन्दोलन एक कारख़ाने की चौहद्दी तोड़कर सेक्टरगत व इलाक़ाई मज़दूर आन्दोेलन के उभार का रूप नहीं ले पाया। ऑटोसेक्टर के भीतर सक्रिय विभिन्न विजातीय प्रवृतियों के कारण ऐसा न हो सका।

मज़दूर माँगपत्रक के साथ सेक्टरगत आधार पर क्रान्तिकारी संघर्ष संगठित करने की ज़रूरत पर बल देते हुए अनन्त ने कहा कि आज ऑटोमोबाइल सेक्टर में हुए पिछले संघर्षों के निचोड़ के तौर पर यह बात कही जा सकती है कि क्रान्तिकारी संघर्ष एक कारख़ाने की चौहद्दी के बाहर पूरे सेक्टर की तर्ज पर ही संगठित किया जा सकता है। अलग-अलग फ़ैक्टरियों के आधार पर बनी स्वतन्त्र ट्रेड यूनियनें भी बहादुरी व ईमानदारी के बावजूद कैजुअल और ठेका मज़दूरों के संघर्ष को लड़ने में नाकाम रही हैं, क्योंकि एक कारख़ाने के दायरे में ठेका मज़दूरों का संघर्ष बेहद कमज़ोर होता है। आज पूरे सेक्टर के चाहे (वे मदर कम्पनी के हों या वेण्डर कम्पनी के) लाखों श्रमिकों की समस्याएँ एक-सी हैं। इस पूरे औद्योगिक क्षेत्र के मज़दूरों के मुद्दे एक हैं, समस्याएँ एक हैं, माँगें एक हैं इसीलिए हमें पूरे सेक्टर के मज़दूरों को अपने साझा माँगपत्रक के गिर्द लामबन्द करके क्रान्तिकारी संघर्ष संगठित करने की ज़रूरत है। जब हम मज़दूर अपनी मेहनत के दम पर इन कारख़ानेदारों की तिजोरियों को भरते हैं, तो क्यूँ नहीं हम अपने हक़-अधिकार के लिए अपना सर्वस्व लगाकर संघर्ष करें। सबकुछ हमारे दम पर है और हमारे लिए कुछ भी नहीं, इसलिए हम लड़ें और लड़कर जीतें।

मज़दूर बिगुल, जून 2018


 

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