गोरखपुर में फ़र्टिलाइज़र कारख़ाने का गोरखधन्धा

राजू कुमार

आज़ादी के बाद जब भारत सरकार जनता की गाढ़ी कमाई से सार्वजनिक उपक्रम खड़ा कर रही थी, उसी समय कम्पनी अधिनियम 1956 के तहत वर्ष 1961 में गोरखपुर में खाद कारख़ाना (फ़र्टिलाइज़र कार्पोरेशन ऑफ़ इण्डिया लिमिटेड) यूनिट को पंजीकृत किया गया। उस समय देशभर में सबसे अच्छी किस्म की खाद आपूर्ति गोरखपुर फ़र्टिलाइज़र यूनिट करती थी। नब्बे के दशक में जब उदारीकरण-निजीकरण किया जा रहा था और निजी पूँजी अपने पाँव पसार रही थी, सरकार भी पूँजीपतियों को फलने-फूलने का साधन उपलब्ध करा रही थी, उसी दौरान खाद कारख़ाना बन्द करने की घोषणा कर दी गयी। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि सरकार के पास कम्पनी बन्द करने की कोई वाजिब वजह नहीं थी, फिर भी 10 जून 1990 को कम्पनी को बन्द कर दिया गया। कम्पनी बन्द होने तक उत्पादन बहुत ज़्यादा हो रहा था और कम्पनी लगातार मुनाफ़े में चल रही थी। उस समय गोरखपुर फ़र्टिलाइज़र खाद आपूर्ति के मामले में भारत ही नहीं, एशिया भर में ऊँचा स्थान रखती थी।

सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि फ़र्टिलाइज़र प्रबन्धन ने कम्पनी बन्द होने का मुख्य कारण मज़दूरों-कर्मचारियों की लापरवाही बताया जोकि एक सफ़ेद झूठ है। सरकार आज तक गोएबल्स की शैली में इसी झूठ को दोहराकर इसे सच साबित करने में लगी हुई है। खाद कारख़ाने से निकाले गये कर्मचारी अरुण कुमार, जो वर्तमान में कारख़ाने से सम्बन्धित कई माँगों को लेकर आन्दोलन चला रहे हैं, उन्होने बताया कि बन्द होने से पूर्व कम्पनी में लम्बे समय से ऐसी पाइपलाइन का इस्तेमाल किया जा रहा था जिसके इस्तेमाल की समय-सीमा समाप्त हो चुकी थी। पाइपलाइन की उम्र 12 से 15 वर्ष ही थी, लेकिन 25 वर्ष तक उसे इस्तेमाल किया गया, जिस वजह से पाइपलाइन फट गयी और इस दुर्घटना में कई मज़दूर घायल हुए और एक मज़दूर की मौत हो गयी। उत्पादन न रुके, इसके लिए सरकार ने तुरन्त नयी पाइपलाइन के लिए धनराशि आवंटित की। लेकिन प्रबन्धन ने पाइपलाइन नहीं लगवायी बल्कि प्राप्त धनराशि को प्रबन्धन और दलाल ट्रेड-यूनियन के नेताओं ने मिल-बाँटकर खा लिया। बाद में फ़र्टिलाइज़र प्रबन्धन कहने लगा कि मज़दूरों की हड़तालों की वजह से कम्पनी घाटे में जा रही है, इसलिए इसे बन्द किया जा रहा है।

कारख़ाना प्रबन्धन से जब कारख़ाने में काम करने वाले कर्मचारियों की संख्या के बारे में सूचना माँगी गयी तो जवाब में 5100 मज़दूर होने की जानकारी मिली। वर्ष 2002 में कर्मचारियों के लिए धमकी भरा पत्र जारी किया गया, जिसमें निर्देश दिया गया था कि तीन माह के भीतर सभी कर्मचारी वीएसएस (वालण्टियरी सेप्रेशन स्कीम) ले लें नहीं तो न लेने वाले कर्मचारियों की सेवा समाप्त कर दी जायेगी। इस फ़र्जी स्कीम के अन्तर्गत 5100 में से 4394 कर्मचारियों को ज़बरदस्ती वीएसएस देकर कम्पनी से बाहर कर दिया गया।

सवाल यह उठता है कि शेष 706 कर्मचारी बिना सेवा समाप्त हुए कहाँ गये? इन कर्मचारियों ने न तो वीएसएस लिया और न ही उनकी सेवा समाप्त की गयी और न ही वो फ़र्टिलाइज़र में कार्यरत हैं, और न ही इन कर्मचारियों का कोई रेकॉर्ड उपलब्ध है।

वीएसएस के बारे में सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार मन्त्रालय ने साफ़ कहा कि मन्त्रालय में वीएसएस जैसा कोई नियम है ही नहीं। इसकी जगह कर्मचारियों को सेवामुक्त होने के लिए वीआरएस 1972 से लागू है। सुप्रीम कोर्ट की फ़ाइल से प्राप्त सूचना में वीएसएस जैसा कोई नियम नहीं है, जबकि वीआरएस का प्रावधान ज़रूर है। कर्मचारियों के मुकदमे से सम्बन्धित फ़ाइल में भी प्रबन्धन से वीएसएस की जगह वीआरएस ही लिखा था। फिर सवाल उठता है कि प्रबन्धन ने कर्मचारियों को किस आधार पर वीएसएस दिया है?

फ़र्टिलाइज़र के दस्तावेज़ में वर्ष 1990 को अन्तिम खाद उत्पादन का वर्ष बताया गया है। कर्मचारियों के लिए कम्पनी 28 वर्ष पहले ही बन्द हो चुकी है, लेकिन व्यवहार में इसका उल्टा ही है। सरकारी काग़ज़ों में कम्पनी आज भी चल रही है और उत्पादन प्रक्रिया भी जारी है।

भारत सरकार के रसायन व उर्वरक मन्त्रालय ने अपनी सूचना में बताया कि अभी भी कारख़ाने की मशीनों का बीमा होता है और उत्पादन के एवज़ में टैक्स जमा होता है और अभी भी महाप्रबन्धक ड्यूटी बजाते हैं। इसके अलावा अभी भी उत्पादन शुल्क जमा होता है। बीमा कम्पनी लिमिटेड ने वर्ष 2004-05 में कारख़ाने की खाद का बीमा किया था और प्रीमियम के रूप में क्रमशः 13860 और 12960 रुपये की रसीद काटी गयी थी।

फ़र्जी स्कीम वीएसएस लागू कर वर्ष 2002 में कर्मचारियों को जबरन रिटायर कर दिया गया। रिटायर होने वाले कर्मचारियों को वर्ष 2002 के वेतनमान की जगह 15 वर्ष पहले 1987 का वेतनमान दिया गया। इस अन्याय के खि़लाफ़ लम्बे समय तक आन्दोलन चला, लेकिन कर्मचारियों की कोई सुनवाई नहीं हुई।

सूचना के अधिकार के तहत 26 जून 2016 को महाप्रबन्धक जगदीश प्रसाद से भ्रष्टाचार के आरोप में बर्ख़ास्त वित्त प्रबन्धक चन्द्रप्रकाश के बारे में सवाल पूछा गया जिसका जवाब मिला कि चन्द्रप्रकाश को 1982 में बतौर ट्रेनी पंच वेरिफ़ायर ऑपरेटर पद पर रखा गया था। एक वर्ष बार 9 फ़रवरी 1983 को इस पद पर उनकी स्थायी नियुक्ति कर दी गयी, लेकिन खाद कारख़ाने में भ्रष्टाचार की शिकायत के बाद जाँच में उनको दोषी पाया गया और 1988 में कारख़ाने से निकाल दिया गया। आश्चर्य की बात यह है कि गम्भीर आरोपों में बर्ख़ास्त किये गये चन्द्रप्रकाश को 17 अक्टूबर 1989 को फिर से वित्तप्रबन्धक के पद पर नियुक्ति दी गयी।

इस नियुक्ति के सम्बन्ध में सफ़ाई देते हुए महाप्रबन्धक ने बताया कि चन्द्रप्रकाश ने 25 अप्रैल 1989 को आवेदन किया था, उसी आधार पर उनकी नियुक्ति की गयी है। इस फ़र्जी नियुक्ति के लिए न तो इण्टरव्यू हुआ और न ही कोई अन्य प्रक्रिया चलायी गयी।

खाद कारख़ाना के कर्मचारी और उनके परिजन फ़र्टिलाइज़र परिसर में 21 अक्टूबर 2013 से अनवरत धरने पर बैठे हैं। उनकी मुख्य माँगे हैं –

  1. कर्मचारी पेंशन को बन्द कर दिया गया है, उसे बहाल किया जाये।
  2. गोरखपुर खाद कारख़ाने को वीएसएस स्कीम के तहत बन्द किया गया था तो अभी तक बन्द की न्यायिक प्रक्रिया क्यों नहीं पूरी की गयी, इसका स्पष्टीकरण दिया जाये।
  3. गोरखपुर खाद कारख़ाने के कर्मचारियों को वीएसएस के तहत 2002 में निकाल दिया गया था, लेकिन उनमें से 9 कर्मचारियों ने 58 वर्ष तक सेवा की और 3 कर्मचारी अभी भी कार्यरत हैं। यह स्पष्ट किया जाये कि कार्यरत कर्मचारी किस प्रावधान के तहत अभी भी कार्य कर रहे हैं। छँटनीग्रस्त सभी कर्मचारियों को वर्तमान आधार पर भुगतान दिया जाये या सेवा में रखा जाये।
  4. फ़र्टिलाइज़र कर्मचारियों को वीएसएस स्कीम के तहत निकाला गया, तो उसे सुप्रीम कोर्ट की वेज फ़ाइल में क्यों वीआरएस कहा गया है, इसका स्पष्टीकरण दिया जाये।
  5. गोरखपुर फ़र्टिलाइज़र के निर्माण के लिए स्थानीय किसानों से जो ज़मीन ली गयी थी, उसमें यह तय किया गया था कि परिवार के एक सदस्य को नौकरी मिलेगी। लेकिन वीएसएस के तहत कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया गया।
  6. सर्विस पीरियड में जो कर्मचारी दुर्घटनाग्रस्त हुए उनके बच्चों को नौकरी दी जाये।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2018


 

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