नोएडा की एक्सपोर्ट कम्पनियों में मज़दूरों की बदतर हालत

बिगुल संवाददाता

तमाम बुर्जुआ अर्थशास्त्री और सरकारी भोंपू जिन श्रम क़ानूनों को देश की आर्थिक प्रगति की राह का रोड़ा बताते रहते हैं उनकी असलियत जानने के लिए राजधानी से सटे औद्योगिक महानगर नोएडा में मज़दूरों की हालत को देखना ही काफ़ी है। राजधानी दिल्ली के बगल में स्थित नोएडा देश के सबसे बड़े औद्योगिक क्षेत्रों में से एक है। यहाँ सैकड़ों अत्याधुनिक फ़ैक्टरियों में लाखों मज़दूर काम करते हैं। इन फ़ैक्टरियों में मज़दूरों का शोषण और उत्पीड़न कोई नयी बात नहीं है। मगर हाल के दिनों में विभिन्न एक्सपोर्ट कम्पनियों में मज़दूरों के साथ होने वाली बदसलूकी बढ़ती जा रही है जिसके कारण मज़दूरों में मालिकों के ख़िलाफ़ आक्रोश भी गहराता जा रहा है। इन कम्पनियों में काम कर रही महिलाओं की हालत तो और भी बदतर तथा असहनीय है।

चौड़ी जगमगाती सड़कें जिन पर महँगी गाड़ियों की रेलमपेल मची रहती हैं, ऊँची-ऊँची जगमग इमारतों और बड़े-बड़े शॉपिंग मालों के बीच नोएडा की लाखों मेहनतकश आबादी अपने अस्तित्व का आभास भी नहीं दिला पाती। एक तरफ़ समृद्धि के टापू और ऐश्वर्य की मीनारें हैं तो दूसरी तरफ़ तलछट में रेंगती ज़िन्दगी। बजबजाती नालियों, सीलन भरे दड़बेनुमा कमरों में चिपचिपाती उमस, पोर-पोर में बसी अथाह थकान और कभी न ख़त्म होने वाली रूटीन की घुटन, यह तस्वीर है रसातल में रहने वाली उस भारी आबादी की ज़िन्दगी की जिसकी मेहनत की लूट पर यह व्यवस्था टिकी हुई है।

नोएडा में रहने वाले मेहनतकशों में ज़्यादातर युवा मज़दूर हैं जिनका भारी हिस्सा अनेक एक्सपोर्ट कम्पनियों में काम करता है। नियमों के पालन का हाल यह है कि जिन कम्पनियों में 2000 से अधिक मज़दूर काम करते हैं उनमें भी कम्पनी के पेरोल पर बहुत कम मज़दूरों के ही नाम होते हैं क्योंकि ज़्यादातर काम ठेके पर करवाया जाता है। काम के घण्टों की यहाँ कोई सीमा नहीं है और सामान्य दिनों में सुबह 9 से रात 12 बजे तक काम चलता है, इसके अतिरिक्त नाइट शिफ़्ट की भी बहुतायत होती है जिसके कारण काम अधिक होने पर कभी-कभी मज़दूर लगातार 20-21 घण्टे तक काम करते रहते हैं। इसके बाद यदि रविवार का अवकाश दे दिया गया तो इसे कम्पनी की तरफ़ से मज़दूरों पर उपकार माना जाता है।

सभी कारख़ानों में मज़दूर 12-14 घण्टे काम करते हैं और कहीं भी ओवरटाइम की मज़दूरी डबल रेट से नहीं मिलती। अनेक कारख़ानों में महिलाओं को रात साढ़े आठ-नौ बजे तक ओवरटाइम करना पड़ जाता है। महिलाएँ जब काम से निकलती हैं तो गेटकीपर उनके बैग और टिफिन तक चेक करता है। एक दिन एक कारख़ाने में छुट्टी के वक़्त रात आठ बजे गेटकीपर ने कुछ महिलाओं पर फब्तियाँ कसीं व उनसे छेड़छाड़ की कोशिश की तो सभी महिलाओं ने एकजुट होकर उसे जमकर लताड़ लगायी। ऐसे में उस गेटकीपर पर कार्रवाई करने के बजाय अगले दिन मालिकान ने महिलाओं पर ही चोरी का आरोप लगा दिया और फ़रमान जारी कर दिया कि – ‘अगले दिन से महिलाएँ शॉल ओढ़कर नहीं आयेंगी क्योंकि वे शॉल में कपड़े का पीस चुराकर ले जाती हैं।’ महिलाओं ने इसका कड़ा विरोध किया मगर मालिकान अपने इस वाहियात नियम पर अड़े रहे। ज़्यादातर फ़ैक्टरियों में आयेदिन महिलाओं को ऐसी कठिन स्थितियों का सामना करना पड़ता है।

कुछ ऐसी भी कम्पनियाँ हैं जिसमें अधिकांश मज़दूरों को कम्पनी की तरफ़ से काम पर रखा जाता है। उन्हें कुछ लुभावनी सहूलियतें दी जाती हैं। जैसे, महीने के अन्त तक पेमेण्ट मिल जाना, बस की सेवा जो कम्पनी से घर तथा घर से कम्पनी तक छोड़ती है और कम्पनी का कार्ड दे दिया जाता है। हालाँकि वेतन इन्हें भी सरकार द्वारा तय न्यूनतम मज़दूरी से कम ही मिलता है। मज़दूरों को ख़ुश करने के लिए यहाँ-वहाँ सुविधाओं के चार्ट टाँग दिये गये हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि इन कम्पनियों में भी वही मज़दूर विरोधी रवैया होता है जैसा अन्य कम्पनियों में रहता है। इन कम्पनियों में इतनी बारीकी से मज़दूरों की श्रमशक्ति का दोहन तथा शोषण होता है कि आम मज़दूर इसे समझ नहीं पाते। उनके मिनट-मिनट का हिसाब रखा जाता है, चप्पे-चप्पे पर लगे कैमरों से उन पर हर समय नज़र रखी जाती है। वे ज़रा-सी देर के लिए भी अगर काम में थोड़े ढीले पड़े या आपस में बोलने-बतियाने लगे तो सुपरवाइज़र सिर पर सवार हो जाता है और पैसे काट लिये जाते हैं। कम्पनी की बस में भी आते-जाते समय महिलाओं को तमाम तरह की दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है। कुछ ही ऐसी कम्पनियाँ हैं जिनमें मज़दूर बैठकर काम कर सकते हैं। अधिकांश में तो सुबह से शाम तक खड़े होकर काम करना पड़ता है। आधे से अधिक मज़दूरों की सेहत अच्छी न होने से खड़े होकर काम करना मुश्किल हो जाता है। ख़ासकर महिला मज़दूरों को 10-12 घण्टे खड़े रहने के कारण कई तरह के गम्भीर रोग हो जाते हैं। वे अपनी मर्ज़ी से शौचालय भी नहीं जा सकतीं, जिसके कारण बहुतेरी महिलाएँ प्यास लगने पर भी पानी नहीं पीती हैं। जिन कम्पनियों में बैठकर काम करना हो, वहाँ वेतन कम मिलता है। ऐसे में मजबूरीवश ऐसी कम्पनियों में मज़दूरों को खटना पड़ता है। बैठकर काम करने वाली फ़ैक्टरियों में मज़दूरों से हर समय ज़्यादा प्रोडक्शन की माँग की जाती है। सुपरवाइज़र चिल्लाता रहता है – ‘जल्दी करो, तेज़ हाथ चलाओ’। इन कम्पनियों में पर्दे के छल्ले, रिंग, पर्दे के पट्टे, चूड़ी-कब्ज़े आदि बनाये जाते हैं। इनमें हाथों की उँगलियों का छिल जाना, कट-फट जाना और हाथों में जगह-जगह तार की छोटी-छोटी कीलों का धँस जाना आम बात है। अगर प्रोडक्शन में कमी हुई तो मज़दूरों को कम्पनी से बाहर कर दिया जाता है।

काम के दौरान मज़दूरों के साथ चूहे-बिल्ली का खेल खेला जाता है। काम पर यह कहकर रखा जाता है कि वेतन 9000 रुपये मिलेगा, कुछ दिन काम कर लेने के बाद अन्य मज़दूरों से पता चलता है कि 7000 ही मिलेगा। वह भी दो महीने बाद मिलता है। अगर कोई मज़दूर तंग आकर बीच में काम छोड़ दे तो उसकी उतने दिन की मज़दूरी मार लेते हैं। ठेकेदार-मालिक झूठ बोलकर मज़दूरों की भर्ती करते हैं – ख़ासकर महिलाओं की। महिलाओं से ज़्यादातर बारीक काम कराया जाता है। जब पेमेण्ट मिलने का दिन आता है तो ठेकेदार कहता है – ‘इस महीने नहीं अगले महीने मिलेगा। काम करना है तो करो, नहीं तो जाओ’। मज़दूरों की यही स्थिति रहती है कि कभी इस फ़ैक्टरी का तो कभी उस फ़ैक्टरी का चक्कर लगाना पड़ता है। किसी फ़ैक्टरी में ज़्यादा संख्या में एक साथ मज़दूरों से ज़्यादा दिन काम नहीं कराते हैं जिससे उनमें एकता न बनने पाये।

मज़दूरों की वर्गीय चेतना को कुन्द करने और उन्हें आपस में बाँटने के लिए कम्पनी का मैनेजमेण्ट कई तरह के हथकण्डे अपनाता है। जिनमें से एक यह है कि मज़दूरों के कई संस्तर बना दिये गये हैं। इसलिए रात की पाली में काम करने वाले मज़दूरों को रात के भोजन के लिए अलग-अलग भुगतान किया जाता है जो 25 रुपये से लेकर 50 रुपये तक हो सकता है। कपड़े धोने, शौचालय की सफ़ाई और पीने का पानी एक ही स्रोत से लिया जाता है। वैसे तो ज़्यादातर कम्पनियों में चाय नहीं मिलती मगर जहाँ मिलती है वहाँ के मज़दूर भी उसे पीना पसन्द नहीं करते। मज़दूरों को गुलामों की तरह निचोड़ा जा सके, इसके लिए पानी पीने की जगहों के अलावा शौचालय तक में कैमरे लगे रहते हैं ताकि मज़दूरों की गतिविधियों पर नज़र रखी जा सके। हालाँकि इसकी ज़्यादा ज़रूरत नहीं पड़ती है क्योंकि मज़दूरों के सामने उत्पादन का लक्ष्य इतना ऊँचा रखा जाता है कि वे अपनी जगह से हिल भी नहीं पाते हैं। मैनेजमेण्ट का एक आदमी लगातार कटखने कुत्ते की तरह उन पर उत्पादन बढ़ाने के लिए भौंकता रहता है। रात की पाली में अक्सर ही ये ऐसे शख्स नशे में धुत्त पाये जाते हैं और मज़दूरों पर गालियों की बौछार करते रहते हैं।

मज़दूरों का शोषण करने के अतिरिक्त मालिकान और किसी चीज़ की गारण्टी नहीं लेते, न मज़दूरों की सुरक्षा की, न उनके स्वास्थ्य की, यहाँ तक कि कम्पनी के गेट के बाहर मज़दूर अपनी साइकिलें भी अपने ही रिस्क पर खड़ी करते हैं। कम्पनी के मालिक काग़ज़ पर सारा रिकार्ड दुरुस्त रखते हैं और उसकी सारी फ़ाइलें क़ानून का पालन करती हैं। प्रशासन भी सन्तुष्ट रहता है और काम भी चलता रहता है। साल-दो साल में कोई लेबर डिपार्टमेण्ट का कोई इंस्पेक्टर मालिक को पहले से फोन करके ”औचक जाँच” के लिए आ जाता है और चाय-पानी लेकर खानापूरी करके चला जाता है। ऊपर से जले पर नमक छिड़ने के लिए कम्पनी के गेट पर एक सुझाव पेटिका लटका दी जाती है जिसके मार्फ़त मैनेजमेण्ट मज़दूरों से सुझाव माँगता है कि कम्पनी को बेहतर ढंग से कैसे चलाया जाये, यानी उनको और अच्छी तरह से कैसे लूटा जाये!

ज़्यादातर कारख़ानों में यूनियन नहीं है और जहाँ हैं उनमें से अधिकांश किसी चुनावबाज़ पार्टी की केन्द्रीय यूनियन से जुड़ी हुई हैं जो मज़दूरों को बहकाने तथा उनके संघर्षों की धार कुन्द करके मालिकों की मदद करने के अलावा कुछ नहीं करते। निकाले गये, दुर्घटना का शिकार हुए या मालिकों के किसी भी ज़ुल्म का शिकार हुए मज़दूरों के ”केस” का समाधान करवाने का धन्धा करने वाले दल्ले भी यूनियन नेताओं के नाम पर भरे पड़े हैं। लेकिन मज़दूरों के अन्दर आक्रोश लगातार सुलग रहा है। तीन वर्ष पहले भारत बन्द के दौरान मज़दूरों का यही आक्रोश सड़कों पर फूट पड़ा था। लेकिन मज़दूर बिखरे हुए हैं और उनमें वर्ग चेतना तथा अपने अधिकारों की चेतना की कमी है। उनके बीच इस चेतना का प्रसार करना और उनमें संगठित संघर्ष की चेतना देना सबसे ज़रूरी काम है। उन्हें यह समझाने की ज़रूरत है कि इलाक़ाई पैमाने की क्रान्तिकारी यूनियनों और उद्योग के सेक्टरवार गठित क्रान्तिकारी यूनियनों में संगठित होकर ही वे अपने शोषण- उत्पीड़न और बदहाली के विरुद्ध असरदार ढंग से लड़ सकते हैं।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2018


 

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