फ़्रांस की सड़कों पर फूटा पूँजीवाद के ख़िलाफ़ जनता का गुस्सा

आनन्द सिंह

फ़्रांस के लगभग सभी बड़े शहरों में मज़दूर, छात्र-युवा और आम नागरिक राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की पूँजीपरस्त नीतियों के विरोध में सड़कों पर हैं और विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। यह लेख लिखे जाते समय ‘येलो वेस्ट मूवमेण्ट’ नाम से मशहूर इस स्वत:स्फूर्त जुझारू आन्दोलन को शुरू हुए एक महीने से भी अधिक का समय बीत चुका है। मैक्रों सरकार द्वारा ईंधन कर में बढ़ोतरी करने के फ़ैसले के विरोध से शुरू हुआ यह आन्दोलन देखते ही देखते संकटग्रस्त पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा आम जनता की ज़िन्दगी की बढ़ती कठिनाइयों के ख़िलाफ़ एक व्यापक जनउभार का रूप धारण करने लगा और आन्दोलन द्वारा उठायी जा रही माँगों में न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाने, करों का बोझ कम करने, अमीरों पर कर बढ़ाने और यहाँ तक कि राष्ट्रपति मैक्रों के इस्तीफ़े जैसी माँगें शामिल हो गयीं। आन्दोलन की शुरुआत में मैक्रों ने इस बहादुराना जनविद्रोह को नज़रअन्दाज़ किया और उसे सशस्त्र बलों द्वारा बर्बरतापूर्वक दमन के सहारे कुचलने की कोशिश की। कई जगहों पर प्रदर्शनकारियों और सुरक्षा बलों की झड़पें भी हुईं। इस आन्दोलन के दौरान अब तक क़रीब 2000 प्रदर्शनकारियों को गिरफ़्तार किया जा चुका है। परन्तु जैसाकि अक्सर होता है पुलिसिया दमन की हर कार्रवाई से आन्दोलन बिखरने की बजाय और ज़्यादा फैलता गया और जल्द ही यह जनबग़ावत जंगल की आग की तरह फ़्रांस के कोने-कोने तक फैल गयी।

इस आन्दोलन की व्यापकता का अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पूँजीवादी मीडिया द्वारा आन्दोलन को बदनाम करने की तमाम कोशिशों के बावजूद विभिन्न सर्वेक्षणों के मुताबिक़ इसे फ़्रांस की दो-तिहाई से अधिक आबादी का समर्थन प्राप्त है। यह इस आन्दोलन के जुझारूपन का ही नतीजा था कि जनान्दोलनों का बर्बरतापूर्वक दमन करने की नवउदारवादी निरंकुशता के हिमायती राष्ट्रपति मैक्रों को घुटने टेकने पड़े और उसे न सिर्फ़ ईंधन कर में बढ़ोतरी के फ़ैसले को वापस लेना पड़ा बल्कि न्यूनतम मज़दूरी में 100 यूरो की बढ़ोतरी करनी पड़ी, विभिन्न करों में कटौती करनी पड़ी और बोनस तथा पेंशन के प्रावधान विस्तारित करने पड़े।

फ़्रांस की जनता का स्वत:स्फूर्त जनउभार यह दिखा रहा है कि संकटग्रस्त विश्व पूँजीवाद में मुनाफ़े की गिरती दर को रोकने के लिए जो उपाय किए जा रहे हैं, वे मेहनतकशों की ज़िन्दगी पर कहर बरपा कर रहे हैं। यह फ़्रांस में आम लोगों की ज़िन्दगी की बढ़ती जद्दोजहद से पैदा हुए आक्रोश का ही नतीजा था कि पिछले राष्ट्रपति ओलान्दे को राष्ट्रपति चुनाव में बुरी तरह मुँह की खानी पड़ी थी। परन्तु नये राष्ट्रपति मैक्रों ने भी नवउदारवादी नीतियों को निर्लज्ज ढंग से लागू करना जारी रखा जिससे आम लोगों की ज़िन्दगी बद से बदतर होती गयी। दुनिया के तमाम देशों की ही तरह फ़्रांस में हाल के वर्षों में जहाँ एक ओर मज़दूरी स्थिर रही, वहीं दूसरी ओर करों का बोझ बढ़ता गया है और किफ़ायतसारी की नीतियों के तहत कल्याणकारी नीतियों में कटौती होने से सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा बढ़ती जा रही है। फ़्रांस के मौजूदा जनउभार को इसी पृष्ठभूमि में ही देखने की ज़रूरत है।

मैक्रों द्वारा धड़ल्ले से लागू की जाने वाली नवउदारवादी नीतियों के ख़िलाफ़ पल रहे जनता के गुस्से के फूट पड़ने की तात्कालिक वजह ईंधन कर में बढ़ोत्तरी थी जो जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए 2015 में हुए पेरिस समझौते के तहत की गयी थी। मुनाफ़े की अन्तहीन हवस के लिए प्रकृति को तबाह करने के बाद पूँजीपति वर्ग द्वारा प्रकृति को बचाने की पूरी जि़म्मेदारी मेहनतकशों पर डालने की घृणित चाल उल्टी पड़ गयी। ईंधन कर में बढ़ोत्तरी का सीधा असर उन मज़दूरों और निम्न मध्यवर्ग के लोगों की ज़िन्दगी पर हुआ जिन्हें मोटरसाइकिल या अन्य छोटे वाहनों से अपने काम पर जाने के लिए लम्बा सफ़र तय करना पड़ता है। यही वजह है कि फ़्रांस का मौजूदा जनउभार बड़े शहरों की परिधि पर बसे क़स्बों और गाँवों से शुरू हुआ जहाँ से लोग रोज़ जीविका के लिए वाहनों से बड़े शहरों की ओर जाते हैं। लेकिन जल्द ही बड़े शहरों के लोग भी इस आन्दोलन में शामिल होने लगे और यह आन्दोलन ईंधन कर में बढ़ोतरी वापस लेने की माँग तक सीमित न रहकर पूँजीवाद के ख़िलाफ़ एक व्यापक जनउभार की शक्ल अख़्त‍ियार करने लगा। बढ़ती महँगाई और सामाजिक असुरक्षा की मार झेल रहे मज़दूरों और निम्न मध्यवर्ग के लोगों के अलावा इस आन्दोलन में लगातार बढ़ती फ़ीसों और शिक्षा व्यवस्था पर सरकारी ख़र्च में कटौती से परेशान छात्र और बेरोज़गारी से जूझ रहे युवा, आम महिलाएँ एवं पेंशन में कटौती से त्रस्त बुजुर्ग भी शामिल होने लगे।

फ़्रांस के इस जुझारू जनान्दोलन से पूँजीपति शासक वर्ग की नींद उड़ गयी। पूँजीवादी मीडिया ने इस आन्दोलन को ”हिंसक” और ”दंगाइयों की करतूत” घोषित करने और सशस्त्र बलों की बर्बरता को जायज़ ठहराने की पुरज़ोर कोशिश की, परन्तु सोशल मीडिया पर वायरल हुई तमाम वीडियो से मैक्रों सरकार का निरंकुश जनविरोधी चरित्र खुलकर सामने आ गया जिसने आन्दोलन की आग में घी डालने का काम किया। पेरिस में 1968 के रैडिकल छात्र आन्दोलन के बाद के 50 वर्षों में यह आन्दोलन सबसे बड़ा और सबसे जुझारू जनान्दोलन बन चुका है।

हालाँकि यह भी सच है कि इस आन्दोलन में सरकार की नीतियों के विरोध और सत्ता परिवर्तन से आगे बढ़कर व्यवस्था परिवर्तन की ओर जाने की सम्भावना नहीं दिखती। इसकी वजह यह है कि पूँजीवादी लूटेरी नीतियों के ख़िलाफ़ जनता के गुस्से की स्वत: स्फूर्त अभिव्यक्ति के रूप में उठ खड़ा हुआ यह आन्दोलन नेतृत्वविहीन है। इस आन्दोलन के प्रवक्ता इसे ‘अराजनीतिक’ घोषित करते हैं और इसे सभी विचारधाराओं से ऊपर बता रहे हैं। इस प्रकार वे फ़्रांसीसी समाज में जारी तीखे वर्ग संघर्ष में मेहनतकशों को शस्त्रविहीन कर रहे हैं। इस आन्दोलन के निशाने पर पूँजीपतियों के राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में मैक्रों सरकार और उसकी जनविरोधी नीतियाँ तो हैं परन्तु समूची पूँजीवादी व्यवस्था पर कोई सवाल नहीं उठाया जा रहा है। ऐसे में यह क़तई आश्चर्य की बात नहीं है कि इस आन्दोलन में धुर दक्षिणपन्थी ताक़तें भी घुसपैठ कर रही हैं और अपनी लोकरंजक बातों से जनता का ध्यान भटकाने में सफल हो रही हैं। हालाँकि ट्रेड यूनियनों के कार्यकर्ता इस आन्दोलन में बढ़चढ़कर भागीदारी कर रहे हैं, लेकिन इन यूनियनों का संशोधनवादी नेतृत्व लोगों के गुस्से की आग में पानी के छींटे फेंकने का काम कर रहा है। फ़्रांस की छह बड़ी ट्रेड यूनियनों ने मैक्रों सरकार से एक समझौते पर हस्ताक्षर किया जिसमें हर प्रकार की हिंसा का पुरज़ोर विरोध किया गया और विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व करने की बजाय मैक्रों सरकार से बातचीत करके शान्तिपूर्वक ढंग से मामले का निपटारा करने की बात कही गयी है। दूसरे शब्दों में कहें तो संशोधनवादियों ने आन्दोलन की हवा निकालने की पूरी तैयारी कर ली है। फ़्रांसीसी समाज में जारी इस वर्ग संघर्ष में जब पूँजीपति वर्ग की प्रतिनिधि मैक्रों सरकार को यह समझ में आया कि दमन से काम नहीं चलेगा तो वह अब अपना पैंतरा बदलकर बातचीत करके शान्तिपूर्ण ढंग से आन्दोलन को ख़त्म करने की चाल चल रही है और इसमें संशोधनवादी हमेशा की तरह पूँजीवाद की तीसरी रक्षापंक्ति का काम मुस्तैदी से करते दिखायी दे रहे हैं।

फ़्रांस में जारी इस स्वत:स्फूर्त जुझारू जनान्दोलन को 2007-08 से जारी पूँजीवाद के विश्वव्यापी संकट से उबरने के लिए शासकों द्वारा आम जनता पर डाले जाने वाले बोझ की प्रतिक्रिया में उपजे आक्रोश और मोहभंग की अभिव्यक्ति के रूप में ही देखा जा सकता है। बीसवीं सदी में पश्चिम के साम्राज्यवादी मुल्क़ों के शासक वर्गों ने दुनिया भर में जारी साम्राज्यवादी लूट के एक हिस्से से वहाँ के मेहनतकशों को रियायत देकर वर्ग संघर्ष मज़दूर वर्ग की धार को भोथरा करने का काम किया था। लेकिन आज साम्राज्यवाद इतना जर्जर हो चुका है कि वह विकसित पूँजीवादी देशों के मेहनतकशों को भी इंसानी ज़िन्दगी जीने के लिए ज़रूरी बुनियादी सुविधाएँ तक मुहैया करा पाने में सक्षम नहीं है। यही वजह है कि 2007-08 के बाद से कई साम्राज्यवादी मुल्क़ों में पूँजीवाद-विरोधी जनान्दोलन हुए हैं। आज फ़्रांस जैसे साम्राज्यवादी मुल्क़ में परिस्थितियाँ क्रान्तिकारी संकट की ओर भले ही न जाती दिख रही हों, परन्तु यदि पूँजीवाद-विरोधी जनान्दोलन का क्रान्तिकारी नेतृत्त्व होता तो यह जनान्दोलन विश्व पूँजीवाद के संकट को और भी ज़्यादा घनीभूत करने और तीसरी दुनिया के उत्तर-औपनिवेशिक देशों में क्रान्तिकारी परिस्थिति तक पहुँचाने में उत्प्रेरण का काम कर सकता था।

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2018


 

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