लेसनर कारख़ाने में हड़ताल और बोल्शेविकों का काम  (ज़ार की दूमा में बोल्शेविकों का काम-2)

प्रसिद्ध पुस्तक ‘ज़ार की दूमा में बोल्शेविकों का काम’ के कुछ हिस्सों की श्रृंखला में दूसरी कड़ी प्रस्तुत है। दूमा रूस की संसद को कहते थे। एक साधारण मज़दूर से दूमा में बोल्शेविक पार्टी के सदस्य बने ए. बादायेव द्वारा क़रीब 100 साल पहले लिखी इस किताब से आज भी बहुत–सी चीज़़ें सीखी जा सकती हैं। बोल्शेविकों ने अपनी बात लोगों तक पहुँचाने और पूँजीवादी लोकतन्त्र की असलियत का भण्डाफोड़ करने के लिए संसद के मंच का किस तरह से इस्तेमाल किया इसे लेखक ने अपने अनुभवों के ज़रिए बख़ूबी दिखाया है। यहाँ हम जो अंश प्रस्तुत कर रहे हैं उनमें उस वक़्त रूस में जारी मज़दूर संघर्षों का दिलचस्प वर्णन होने के साथ ही श्रम विभाग तथा पूँजीवादी संसद की मालिक–परस्ती का पर्दाफ़ाश किया गया है जिससे यह साफ़ हो जाता है कि मज़दूरों को अपने हक़ पाने के लिए किसी क़ानूनी भ्रम में नहीं रहना चाहिए बल्कि अपनी एकजुटता और संघर्ष पर ही भरोसा करना चाहिए। इसे पढ़ते हुए पाठकों को लगेगा कि मानो इसमें जिन स्थितियों का वर्णन किया गया है वे हज़ारों मील दूर रूस में नहीं बल्कि हमारे आसपास की ही हैं। ‘मज़दूर बिगुल’ के लिए इस श्रृंखला को सत्यम ने तैयार किया है।

प्रथम विश्वयुद्ध के ठीक पहले के वर्षों में ऐसी अनेक घटनाएँ हुईं जब पीटर्सबर्ग शहर के मज़दूरों ने अपनी मज़बूत एकजुटता और संगठित ताक़त का परिचय दिया। लेकिन सघन और बहादुराना संघर्षों के इस दौर में लेसनर के कारख़ाने में हुई हड़ताल का ख़ास महत्व था। यह हड़ताल 1913 की पूरी गर्मियों के दौरान चली थी। इस हड़ताल के कारण, इसकी लम्बी अवधि और आम लोगों के बीच इसने जो व्यापक हमदर्दी हासिल की उसने इसे युद्ध से पहले के वर्षों में मज़दूर आन्दोलन की सबसे शानदार घटनाओं में से एक बना दिया।

लेसनर फ़ैक्टरी में हुई हड़ताल को न तो पूरी तरह राजनीतिक कहा जा सकता है और न ही पूरी तरह आर्थिक। यह उन हड़तालों में से एक थी जो क्रान्तिकारी उभार के दौर में होती हैं। मज़दूरों की एकमात्र माँग – उनके एक साथी की मौत के लिए ज़िम्मेदार फ़ोरमैन को हटाने की माँग – पहली नज़र में मामूली लगती थी, लेकिन यह एक ऐसी लम्बी और दृढ़निश्चयी लड़ाई का कारण बन गयी जो केवल उन्हीं स्थितियों में हो सकती है जब मज़दूर वर्ग एक आम और खुली जंग में पूँजीपतियों के आमने-सामने होता है।

हड़ताल के कारण

”न्यू लेसनर” कारख़ाने में हड़ताल इस तरीक़े से शुरू हुई। एक मशीन शॉप के फ़ोरमैन ने स्त्रोंगिन नाम के मज़दूर को चूड़ियाँ काटने के लिए कई सौ स्क्रू नट दिये। काम के दौरान कई नट ग़ायब हो गये; या तो वे अनजाने में कचरे में फेंक दिये गये या ग़लती से किसी दूसरी शॉप में चले गये। स्त्रोंगिन ने फ़ोरमैन को इसकी जानकारी दी तो उसने उसे भद्दी-भद्दी गालियाँ देते हुए धमकी दी कि दो दिन के भीतर नट वापस कर दे नहीं तो ”तुझे काम से निकाल दूँगा और तेरे ख़िलाफ़ चोरी की रिपोर्ट दर्ज कराऊँगा”। स्त्रोंगिन न तो वे नट ढूँढ़ सका और न ही ये साबित कर सका कि उसने चोरी नहीं की थी। चोर कहकर काम से निकाले जाने के अपमान की बात सोचकर वह परेशान था। उसने देर तक काम करने की इजाज़त माँगी और उस रात वह कारख़ाने के एक ख़ाली पड़े हिस्से में गया और एक सीढ़ी से लटककर जान दे दी।

उसकी लाश को 23 अप्रैल की सुबह एक वॉचमैन ने देखा और जैसे ही कारख़ाने में इसकी ख़बर फैली, सारे मज़दूर अपना काम छोड़कर अपने मृत साथी के आसपास इकट्ठा हो गये। मज़दूरों ने माँग की मैनेजमेण्‍ट को तुरन्त मामले की जाँच करनी चाहिए। इसके बजाय, मैनेजमेण्‍ट ने पुलिस बुला ली जिसकी मौजूदगी में स्त्रोंगिन के कपड़ों की तलाशी ली गयी। उसकी जेब में एक चिट्ठी मिली जिसे पढ़ने के बाद मैनेजर ने छुपाने की कोशिश की। मज़दूरों ने इसका विरोध किया और माँग की कि चिट्ठी सबके सामने पढ़ी जाये। कारख़ाने के अपने साथी मज़दूरों के नाम उस चिट्ठी में लिखा था:

साथियो, पता नहीं मुझे आपको लिखना चाहिए या नहीं। लेकिन फिर भी मैं लिख रहा हूँ… फ़ोरमैन ने मुझ पर चोरी का इल्ज़ाम लगाया है। अपनी जान लेने से पहले मैं आपको बता देना चाहता हूँ साथियो, मैं निर्दोष हूँ। मेरी अन्तरात्मा, मेरा दिल, एक मज़दूर के रूप में मेरी ईमानदारी इसके गवाह हैं, लेकिन मैं इसे साबित नहीं कर सकता। इस कारख़ाने से मुझे फ़ोरमैन द्वारा चोर कहकर निकाला जाये, ये मैं नहीं सह सकता, इसलिए मैंने सबकुछ ख़त्म करने का फ़ैसला किया है… अलविदा, प्यारे साथियो और याद रखना – मैं बेगुनाह हूँ। – याकोव स्त्रोंगिन

मज़दूरों की भीड़ कई मिनट तक चुपचाप खड़ी रही। मैनेजमेण्‍ट की धमकियों से मौत के मुँह में धकेल दिये गये अपने एक साथी के अन्तिम शब्दों ने उन्हें स्तब्ध कर दिया था। फिर कुछ आवाज़ें सुनायी दीं: ”टोपियाँ उतार लो, भाइयो,” और एक क्रान्तिकारी शोक गान समवेत स्वरों में गाया गया। जब स्त्रोंगिन की मौत का ज़िम्मेदार फ़ोरमैन वहाँ आया तो उसे ”ग़द्दार”, ”हत्यारा” और ”जल्लाद” कहकर पुकारा गया। मज़दूरों ने कहा, ”ताबूत के पीछे-पीछे चलो और दोबारा कारख़ाने में दिखायी नहीं देना।” सारे मज़दूर शव के साथ मुर्दाघर तक गये।

अगली सुबह काम पर आने पर उन्होंने देखा कि फ़ोरमैन वहाँ मौजूद है। जब मैनेजर ने जवाब दिया कि बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स ने उसे हटाने से इंकार कर दिया है तो मज़दूरों ने फ़ौरन तब तक हड़ताल करने का फ़ैसला किया जब तक उस हत्यारे को कारख़ाने से हटाया नहीं जाता। फ़ैक्टरी बन्द हो गयी और ”न्यू लेसनर” में काम करने वाले सभी मज़दूर यह सोचकर घर चले गये कि जब तक उनकी माँग नहीं मानी जायेगी तब तक वापस नहीं आयेंगे।

स्त्रोंगिन की अन्त्येष्टि

स्त्रोंगिन की अन्त्येष्टि पर एक विशाल प्रदर्शन हुआ। जैसाकि ऐसे मामलों में आम तौर पर होता है, पुलिस और मालिकों ने लोगों को इकट्ठा होने से रोकने की हरचन्द कोशिशें कीं। अन्त्येष्टि का दिन और समय आख़िरी समय तक गुप्त रखने की कोशिश की गयी; लेकिन एक दिन पहले ‘प्राव्दा’ (मज़दूर अख़बार) को इसका पता चल गया। ‘छपते-छपते’ कॉलम में इसकी घोषणा छापी गयी, लेकिन चूँकि मज़दूरों के काम शुरू करने से पहले तक अख़बार उनके पास नहीं पहुँच सका था, इसलिए कुछ ही मज़दूरों को पता चल पाया कि अन्त्येष्टि सुबह 9 बजे होने वाली है। फिर भी उस समय तक 1,000 से ज़्यादा लोग मुर्दाघर पर इकट्ठा हो चुके थे। न्यू लेसनर के मज़दूर वहाँ पूरी तादाद में थे, और दूसरे कारख़ानों के प्रतिनिधि भी थे। जल्दी-जल्दी तैयार करके फूलमालाएँ लायी गयी थीं, और उनके पास श्रद्धांजलि पत्र छपाने का समय नहीं था तो काले रिबन पर खड़िया से और सफ़ेद रिबन पर कोयले से श्रद्धांजलि सन्देश लिखे गये थे। इनमें से कुछ रिबन पुलिस ने काट दिये क्योंकि उन पर क्रान्तिकारी सन्देश लिखे थे। हज़ारों लोग स्त्रोंगिन की शवयात्रा के साथ कब्रिस्तान के प्रवेशद्वार तक गये। वहाँ घुड़सवार पुलिस ने जुलूस को रोक दिया और सिर्फ़ ताबूत और कुछ नज़दीकी रिश्तेदारों को ही अन्दर जाने दिया।…

लेसनर कारख़ाने में मज़दूरों का संघर्ष

हड़ताल के जवाब में, मैनेजमेण्‍ट ने सभी पुराने मज़दूरों को बर्ख़ास्त करने की घोषणा कर दी। साथ ही, पूँजीवादी अख़बारों में फ़ैक्टरी में काम का आवेदन मँगाने के लिए विज्ञापन छापे जाने लगे। लेकिन हड़ताली मज़दूर दृढ़ बने रहे और हड़ताल तोड़ने के लिए की गयी इन घोषणाओं का कोई असर नहीं हुआ। मज़दूर बहुत अच्छी तरह संगठित थे। लेकिन वे जान गये कि अकेले-अकेले वे लम्बे समय तक नहीं टिके रह पायेंगे, और उन्होंने सेंट पीटर्सबर्ग के तमाम मज़दूरों से इस संघर्ष में उनका साथ देने की अपील की।

थोड़े ही समय बाद, लेसनर के दूसरे कारख़ाने ”ओल्ड लेसनर” के मज़दूर अपने हड़ताली साथियों के समर्थन में आ गये। अब दोनों लेसनर कारख़ाने बन्द पड़े थे। मैनेजमेण्‍ट ”ओल्ड” कारख़ाने के बहाने से ”न्यू लेसनर” के लिए मज़दूरों की भरती नहीं कर सकता था। वह बकाया ऑर्डरों को एक हद तक भी पूरा नहीं कर सकता था। काण्ट्रैक्ट पूरा न करने पर अक्सर जुर्माना भरना पड़ता था, इसलिए मालिकों को ख़ासा नुक़सान होता दिख रहा था।

फिर मैनेजमेण्‍ट ने डिज़ाइन, नक्शे और अधूरे माल दूसरे कारख़ानों में भेजकर अपने ऑर्डर पूरे कराने की कोशिश की। इसे छुपाने की तिकड़मों के बावजूद हड़तालियों को जल्दी ही इसका पता चल गया। उन्होंने पीटर्सबर्ग के सभी धातु मज़दूरों से ऐसे किसी भी काम को न करने की अपील की। दूसरे मज़दूरों ने एक आवाज़ में इसका समर्थन किया और लेसनर का कोई भी काम दूसरे कारख़ानों में पूरा नहीं हो पाया।

मज़दूरों की एकजुटता

ऐसे हर समर्थन, दूसरी फ़ैक्टरियों से मिले हर सन्देश से हड़ताली मज़दूरों का उत्साह बढ़ता था और जीत की उम्मीद पक्की हो जाती थी। हड़ताल कोष में मज़दूर जिस तरह बढ़चढ़ कर और नियमित रूप से योगदान कर रहे थे वैसा पहले नहीं देखा गया था। कई जगहों पर सिर्फ़ एक ही बार चन्दा नहीं इकट्ठा किया गया, बल्कि मज़दूर नियमित रूप से अपनी मज़दूरी का एक हिस्सा देते थे। एक कारख़ाने में इस शर्त पर ओवरटाइम करने की मंज़ूरी दी गयी कि आधे दिन की मज़दूरी लेसनर फण्ड में दी जायेगी। इस फ़ैक्टरी के परिवार वाले मज़दूरों ने यह भी प्रस्ताव किया कि लेसनर के जो मज़दूर ज़्यादा मुश्किल में हैं उनके बच्चे उनके घरों पर खाना खा सकते हैं।

हड़ताल के दौरान 18,000 रूबल इकट्ठा हुए – यह किसी भी हड़ताल में इकट्ठा सबसे बड़ी रक़म थी। सारा पैसा पहले दूमा धड़े को भेजा जाता था, जो हड़तालियों की ज़रूरतों के अनुसार इसके बँटवारे की व्यवस्था करता था। यह हड़ताल पूरे रूस में मशहूर हो गयी और हमारे पास दूर-दराज़ के शहरों से भी सहयोग के पैसे आने लगे। मैं कोष का इंचार्ज था और सारी सहयोग राशियों का पूरा ब्यौरा ‘प्राव्दा’ में प्रकाशित करता था।

लेसनर के कारख़ानों का संघर्ष 1913 के मज़दूर आन्दोलन की सबसे ज़ोरदार घटना थी। पार्टी इससे क़रीबी से जुड़ी हुई थी। वह हर तरह से हड़तालियों की मदद कर रही थी और हड़ताल के बारे में जानकारी को ज़्यादा से ज़्यादा मज़दूरों के बीच प्रचार-प्रसार करती थी। ‘प्राव्दा’ संघर्ष के बारे में रोज़ाना रिपोर्टें प्रकाशित करता था और दूसरे मज़दूरों के नाम हड़तालियों की अपीलें और उनकी चिट्ठियाँ आदि छापता था।

तीन महीने तक जारी संघर्ष

पूरी गर्मियों के दौरान हड़ताल जारी रही। जून की शुरुआत में पुलिस ने नेताओं को गिरफ़्तार करना शुरू कर दिया। उन्हें उम्मीद थी कि इस तरह से वे मज़दूरों के प्रतिरोध को तोड़ देंगे। गिरफ़्तार लोगों में से कई को सेंट पीटर्सबर्ग से बाहर भेज दिया गया और 52 स्थानों में रहने की मनाही कर दी गयी। दूसरी तरफ़ मैनेजमेण्‍ट ने मज़दूरों के घरों पर चिट्ठियाँ भेजकर उन्हें ”पुरानी शर्तों” पर काम करने के लिए आमन्त्रित किया। लेकिन मज़दूर डटे रहे।

आख़िरकार, अड़सठ दिनों के बाद ”ओल्ड लेसनर” के मज़दूर काम पर लौट गये। ”न्यू लेसनर” में हड़ताल दो हफ़्ते तक और जारी रही। कुल मिलाकर मज़दूर 102 दिनों तक बाहर रहे थे जो उस समय तक अभूतपूर्व था। हालाँकि उसका अन्त हार के साथ हुआ था, लेकिन मज़दूर आन्दोलन के इतिहास में इस हड़ताल का ज़बर्दस्त महत्व था। इसने मज़दूर वर्ग के नये हिस्सों को समेटा और प्रेरित किया और सर्वहारा की संगठित एकजुटता की ताक़त को अमल में लाकर दिखा दिया।

जिस दौरान लेसनर के मज़दूर बाहर थे, उसी समय दूसरी हड़तालें भी चल रही थीं और उन्हें मज़दूरों का समर्थन मिल रहा था। गर्मियों के महीनों में आम तौर पर हड़ताल आन्दोलन तेज़ हो जाता था। सर्दी के महीनों के मुकाबले गर्मियों में कारख़ानों में छोटी सभाएँ करना ज़्यादा सुविधाजनक होता था और ग़ैरक़ानूनी बैठकें करना (जो आम तौर पर शहर के बाहर के जंगलों में होती थीं) आसान होता था।

आन्दोलन के फैलने के साथ ही, जनसाधारण के साथ हमारे फ्रैक्शन के रिश्ते और घनिष्ठ हो गये। गर्मियों में दूमा के अवकाश के दौरान, अन्य छुट्टियों की ही तरह, प्रतिनिधि अपने-अपने इलाक़ों में लौट गये और सेंट पीटर्सबर्ग में मैं अकेला रह गया। उस समय मुझे वह सारा काम करना पड़ता था जो आम तौर पर हम छह प्रतिनिधियों के बीच बँटा रहता था।

मज़दूर मेरे पास तमाम तरह के सवाल लेकर आते रहते थे, ख़ासकर मज़दूरी मिलने वाले दिन जब हड़ताली मज़दूरों की मदद के लिए पैसे लाये जाते थे। सहयोग की राशि लेकर आने वाला हर मज़दूर बहुत से सवाल पूछता था। मुझे ”ग़ैरक़ानूनी” हो जाने वाले लोगों के लिए पासपोर्ट और छिपने की जगहों का इन्तज़ाम करना पड़ता था, हड़तालों के दौरान निकाल दिये गये मज़दूरों के लिए काम ढूँढ़ने में मदद करनी पड़ती थी, गिरफ़्तार मज़दूरों की ओर से मन्त्रियों को अर्ज़ी देनी पड़ती थी, निर्वासित कार्यकर्ताओं के लिए मदद का इन्तज़ाम करना पड़ता था, आदि। जहाँ ऐसा लगता था कि हड़ताल कमज़ोर पड़ रही है, वहाँ हड़तालियों में जोश भरने के लिए क़दम उठाने, ज़रूरी मदद मुहैया कराने और पर्चे छपाकर भेजने की ज़रूरत पड़ती थी। इसके अलावा, मुझसे लगातार निजी मामलों में सलाह-मशविरा करने के लिए मज़दूर आते रहते थे।

छोटी से छोटी भी कोई ऐसी फ़ैक्टरी नहीं थी जिससे मैं किसी न किसी तरीक़े से नहीं जुड़ा था। अक्सर मुझसे मिलने आने वाले इतने ज़्यादा होते थे कि मेरा घर छोटा पड़ जाता था और उन्हें सीढ़ियों पर कतार में इन्तज़ार करना पड़ता था। संघर्ष में हर अगला चरण, हर नयी हड़ताल के साथ ये कतारें बढ़ जाती थीं जो मज़दूरों और पार्टी फ्रैक्शन के बीच बढ़ती एकजुटता को दिखाती थीं और साथ ही जनता की संगठनबद्धता को विकसित करती थीं।

रेलवे रिपेयर शेड में संघर्ष

1913 के वसन्त में, उस रेल इंजन मरम्मत कारख़ाने में एक विवाद उठ खड़ा हुआ जहाँ मैं प्रतिनिधि बनने से पहले काम करता था। इस घटना से जनता के ठोस संगठन और एकता का पता चलता था। दूमा के प्रतिनिधियों के चुनाव के समय मज़दूरों ने एकमत से चुनाव किया था, और उनका जोश और आत्म-निर्भरता बढ़ गयी थी। और जब उनमें से एक मज़दूर सेंट पीटर्सबर्ग का प्रतिनिधि चुन लिया गया, तो क्रान्तिकारी भावनाओं का और फैलाव हुआ।

खुफ़िया पुलिस कारख़ानों में होने वाली गतिविधियों पर बहुत ध्यान दे रही थी और मौक़ा पाते ही मज़दूरों का उत्साह ठण्डा कर देना चाहती थी। कार्रवाई के लिए 13 फ़रवरी को रोमानोव वंश की त्रिशताब्दी समारोह का समय चुना गया था। कुछ समय पहले से पुलिस सभी कारख़ानों में धरपकड़ करने में जुटी हुई थी, ताकि तमाम सक्रिय मज़दूरों को ‘हटाया’ जा सके जिससे समारोह के दौरान कोई क्रान्तिकारी प्रदर्शन न हो पाये। गिरफ़्तारियाँ और बर्ख़ास्तगियाँ टुकड़ों में की जा रही थीं। एक-एक करके सारे सन्दिग्धों को हटा दिया गया।

13 फ़रवरी के पहले वाली रात को कई रेलवे मज़दूर गिरफ़्तार कर लिये गये। उनकी गिरफ़्तारी जिस वजह से की गयी थी, वह मौक़ा बीत जाने के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया लेकिन काम पर वापस नहीं लिया गया। जनरल मैनेजर ने उनसे कहा, ”मेरे पास अर्ज़ी भेजो। हम पुलिस से सलाह करके तय करेंगे कि तुम्हें लिया जा सकता है या नहीं।”

शॉप के मज़दूर छूटे मज़दूरों को बहाल करने पर अड़ गये। मैनेजर ने उन्हें डराने की कोशिश की: ”तुम लोग क्रान्तिकारी माँगें उठा रहे हो। भूलो मत कि तुम भी ज़िम्मेदार ठहराये जाओगे। मज़दूरों को भड़काओ नहीं।”

इस रवैये से नाराज़ सारे मज़दूर एक शॉप में इकट्ठा हुए और स्थिति परद चर्चा करने के बाद उन्होंने माँग की कि उनके साथियों को बहाल किया जाये। माँग पूरे दृढ़ निश्चय के साथ की गयी थी: सन्तोषजनक जवाब नहीं मिला, तो तुरन्त हड़ताल की घोषणा की जायेगी।

कारख़ाने के मैनेजमेण्‍ट ने टालने के लिए कहा कि उसे मामले पर विचार करने के लिए समय दिया जाये। लेकिन इकट्ठा मज़दूरों ने इसका जवाब हिकारत से दिया। ”तुम्हारे पास दस्तावेज़ों पर विचार करने के लिए पूरे हफ़्ते का समय था”; ”उनको फ़ौरन बहाल करो”; ”जब तक हमारे पाँचों साथी बहाल नहीं होंगे हम यहाँ से नहीं हटेंगे।”

मज़दूरों के दृढ़ रवैये का असर हुआ। ऐसी एकजुटता का सामना होने पर, मैनेजमेण्‍ट को पीछे हटना पड़ा। जनरल मैनेजर ने घोषणा की कि भोजनावकाश के बाद पाँचों मज़दूरों को अपने काम पर लौटने दिया जायेगा। यह घटना एकजुटता की ताक़त दर्शाती थी और मुझे लगा कि इसका लोगों के बीच व्यापक प्रचार होना चाहिए। इसलिए मैंने रेलवे रिपेयर शॉपों के मज़दूरों के नाम निम्नलिखित अपील ‘प्राव्दा’ में प्रकाशित की:

प्रिय साथियो, मैं 4 मार्च को आपकी कामयाब एकजुट कार्रवाई के लिए आपको बधाई देता हूँ, जब आपने साहस के साथ अपने पाँच साथियों की रोज़ी-रोटी छीने जाने से रोक दिया और उनकी बहाली की माँग की। मज़दूरों के हालात हर जगह बहुत कठिन हैं, लेकिन निकोलाइयेव्स्काया रेलवे के रिपेयर शॉपों में तो उनकी हालत बहुत ही बुरी है। दूमा के लिए चुने जाने से पहले, मैंने कई साल तक इन शॉपों में काम किया है और मैं व्यक्तिगत रूप से मैनेजमेण्‍ट के उत्पीड़क क़दमों के बारे में जानता हूँ। बुरा बर्ताव, बिना नोटिस या कारण बताये निकाल देना, आदि। लगता है कि नया मैनेजर पुराने वाले के ही नक्शे-क़दम पर चल रहा है और शायद उससे भी ज़्यादा तानाशाह है। कई प्राइवेट कारख़ानों के मुक़ाबले रेलवे में हालात ज़्यादा ख़राब हैं। कोई सोच सकता है कि सरकारी उपक्रमों में, जो बाज़ार के उतार-चढ़ावों पर कम निर्भर रहते हैं, काम के हालात प्राइवेट कम्पनियों के मुक़ाबले बेहतर होंगे। उन्हें तकनीकी उपकरणों और मज़दूरों के साथ बर्ताव के मामले में मॉडल की तरह होना चाहिए। सरकारी कारख़ानों में मज़दूरों के काम के घण्टे कम होने चाहिए, मज़दूरी बेहतर होनी चाहिए और बेवजह काम से नहीं निकाले जाने का आश्वासन होना चाहिए।

लेकिन सरकारी रेलवे वर्कशॉपों में हम क्या देखते हैं? ओवरटाइम के कारण काम का सामान्य दिन 9 के बजाय 12 घण्टे का होता है। इतने घण्टे काम के बदले मज़दूरी भी इतनी कम मिलती है जो मुश्किल से गुज़ारे के लायक़ होती है।

इन वर्कशॉपों से आये हुए प्रतिनिधि के रूप में, आपकी कार्रवाई से मुझे ख़ास ख़ुशी हुई है। अपनी एकजुटता और दृढ़ता से आपने मैनेजमेण्‍ट को शिकस्त दी और अपने साथियों की आजीविका बचाने में सफल रहे। याद रखो, साथियो, एकता और वर्गीय चेतना हमारी ताक़त है और सिर्फ़ एकजुट, वर्ग-सचेत कार्रवाई से ही हम अपनी हालत में सुधार ला सकते हैं।

शहर के गवर्नर के आदेश से मेरी यह अपील छापने के लिए अख़बार पर 500 रूबल का जुर्माना लगा दिया गया। हालाँकि हम जानते थे कि इसके कारण जुर्माना लगाया जा सकता है या ज़ब्ती भी हो सकती है और ‘प्राव्दा’ की माली हालत क़तई अच्छी नहीं थी, फिर भी हमने जोखिम उठाने का फ़ैसला किया था। रेलवे रिपेयर शॉपों के मज़दूरों के नाम अपील दरअसल पूरे मज़दूर वर्ग के नाम एक ऐलान था और उसे ज़्यादा से ज़्यादा वितरित किया जाना था। ”अण्डरग्राउण्ड” प्रेस से छपे पर्चे के रूप में छपे होने के मुक़ाबले ‘प्राव्दा’ में छपे होने पर यह कहीं ज़्यादा कारगर होती।

अपील का वही असर हुआ जिसका हमें अनुमान था – इसने मज़दूरों के संकल्प को और मज़बूत बनाया। कुछ समय तक मज़दूरों की कामयाबी और उनकी क्रान्तिकारी भावना ने ख़ुफ़िया पुलिस को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। हालाँकि बाद में पुलिस ने फिर से छापा मारने का फ़ैसला कर लिया।

ईस्टर की छुट्टियों के बाद की पहली सुबह (अप्रैल 1913 में), पुलिस की कई टुकड़ियाँ कारख़ाने पर पहुँच गयीं। हर शॉप में कई आदमी तैनात कर दिये गये और मज़दूर एक शॉप से दूसरी शॉप में तब तक नहीं जा सकते थे जब तक काम के लिए ज़रूरी न हो और तब भी उन्हें पहरे में जाना होता था।

इन तैयारियों के बाद चार पहले से चुने हुए मज़दूरों को बताया गया कि वे बर्ख़ास्त कर दिये गये हैं। कॉमरेड मेल्निकोव को फिर से इनमें शामिल किया गया था जो अभी-अभी मेटल वर्कर्स यूनियन की कार्यकारिणी के सदस्य चुने गये थे। बर्ख़ास्त मज़दूरों ने माँग की कि उन्हें हटाये जाने का कारण बताया जाये, लेकिन पुलिस ने उन्हें जनरल मैनेजर के पास जाने से रोक दिया। बाद में मैनेजमेण्‍ट ने शॉप के प्रतिनिधियों को बताया कि ख़ुफ़िया के कहने पर उन मज़दूरों को निकाला गया है। उसके बाद निकाले गये चार मज़दूरों को गिरफ़्तार करके सेंट पीटर्सबर्ग से बाहर भेज दिया गया और ”52 जगहों”, यानी रूस के किसी भी महत्वपूर्ण शहर में रहने से मनाही कर दी गयी।

उसी दिन मज़दूर भागे हुए मेरे पास यह अनुरोध लेकर आये कि मैं अधिकारियों के पास इस कार्रवाई का विरोध करते हुए पत्र भेजूँ। ज़ाहिर था कि किसी याचिका या विरोध पत्र से कुछ नहीं होगा। पाँच मज़दूरों पर अपने पहले हमले की नाकामी से बौखलायी ख़ुफ़िया पुलिस इस बार अपने शिकारों को कठोर सज़ा देने पर आमादा थी।

मैंने ‘प्राव्दा’ में एक और अपील प्रकाशित करके मज़दूरों से कहा कि इस नये हमले के जवाब में वे पार्टी के साथ एकजुट हों और अपने संगठन को मज़बूत बनायें। बेशक, इसे खुले तौर पर नहीं कहा जा सकता था और मैंने अपनी अपील ऐसी शब्दावली में लिखी थी कि सभी वर्ग-सचेत मज़दूर उसे समझ जायें:

मज़दूर मुझसे अनुरोध करते हैं कि मैं इन बर्बर तरीक़ों की ओर अधिकारियों का ध्यान दिलाऊँ। ठीक है, मैं मन्त्री के पास जाऊँगा। लेकिन साथियो, मुझे यह कहना होगा कि इसका कोई ख़ास फ़ायदा नहीं होगा। हम सबको अपनी स्थिति पर विचार करना चाहिए, हमारे मज़दूर अख़बार को और नियमित रूप से पढ़ना चाहिए और यह जानना चाहिए कि तमाम दूसरे मज़दूर अपनी हालत में बदलाव लाने के लिए कैसे लड़ रहे हैं।

 

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2018


 

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