जनता के पास नौकरी नहीं और सरकार बहादुर के पास नौकरियों के आँकड़े नहीं!

इन्द्रजीत

आज देश के नौजवानों के सामने सबसे बड़ी समस्या रोज़गार की है। इतना तो हम सभी जानते हैं कि किसी भी क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा की कोई कमी नहीं है। एक-एक नौकरी के पीछे हज़ारों-हज़ार आवेदन किये जाते हैं। पर नौकरी तो कुछ थोड़े ही लोगों को मिलती है। हर साल इन आवेदन करने वालों की संख्या बढ़ती जाती है। इस तरीक़े से बेरोज़गारी साल दर साल भयंकर रूप से बढ़ रही है। कांग्रेस के समय में बेरोज़गारी यदि दुलकी चाल से चल रही थी तो अब भाजपा के समय में सरपट दौड़ रही है।

इसके कुछ उदाहरण हैं जैसे कि रेलवे में 10 हज़ार पदों के लिए 95 लाख  से ज़्यादा आवेदन भरे गये थे। इससे थोड़े दिन पहले रेलवे में ही तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के मात्र 90 हज़ार पदों के लिए 2 करोड़ 80 लाख से भी ज़्यादा आवेदन किये गये थे। उत्तरप्रदेश में चपड़ासी के 368 पदों के लिए 23 लाख से ज़्यादा आवेदन आये थे। हाल ही में हरियाणा में चतुर्थ श्रेणी के 18,212 पदों के लिए 18 लाख से ज़्यादा आवेदन किये गये थे। आवेदन करने वालों में पीएचडी, एमटेक, एमफि़ल, बीटेक, एमबीए जैसे डिग्रीधारक भी शामिल थे। जबकि इन पदों के लिए योग्यता 5वीं या 10वीं ही है और ऐसे अनेकों उदाहरण आज हमारे सामने हैं। जो बेरोज़गारी की भयंकरता को दर्शाते हैं।

लेकिन प्रधानमन्त्री आज भी कह रहे हैं कि देश में रोज़गार की कोई कमी नहीं है, बस आँकड़ों की कमी है। आँकड़ों की इस कमी को पूरा किया 31 जनवरी को आयी नेशनल सैम्पल सर्वे ऑफ़ि़स (एनएसएसओ) की रिपोर्ट ने, जिसके अनुसार भारत में बेरोज़गारी की दर 6.1% हो गयी है। सेण्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग इण्डियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की 4 मार्च जनवरी, 2019 को आयी रिपोर्ट ने भी सरकारी दावों की पोल खोली। उक्त रिपोर्ट बताती है कि दिसम्बर 2017 से दिसम्बर 2018 सिर्फ़ एक वर्ष में 1 करोड़ 10 लाख लोगों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है। सीएमआईई की मार्च 2019 की रिपोर्ट के अनुसार फ़रवरी 2019 में बेरोज़गारी की दर 7.2% हो गयी है। मोदी सरकार रोज़गार से जुड़े आँकड़ों को सार्वजनिक नहीं होने दे रही है। पहले एनएसएसओ के आँकड़े, उसके बाद केन्द्र सरकार की माइक्रो यूनिट्स डेवलपमेण्ट एण्ड रिफ़ाइनरी एजेंसी (मुद्रा) योजना के तहत कितनी नौकरियाँ पैदा की गयीं, इससे जुड़े लेबर ब्यूरो के सर्वे के आँकड़ों को सार्वजनिक नहीं होने दिया। स्थिति इतनी बुरी हो गयी है कि दुनिया भर के जाने-माने 108 अर्थशास्त्रियों और समाज वैज्ञानिकों ने प्रधानमन्त्री को चिट्ठी लिखकर केन्द्र सरकार पर आरोप लगाया है कि सरकार जानबूझकर रोज़गार के आँकड़ों को छुपा रही है और आँकड़ों के साथ छेड़छाड़ कर रही है। सच्चाई को लोगों के सामने आने से रोका जा रहा है। इससे अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय सांख्यिकी संस्थानों की साख भी धूमिल हो रही है। ये तथ्य साबित कर रहे हैं कि सरकार जो छाती पीट-पीटकर करोड़ों रोज़गार देने का दावा कर रही है, सब झूठ है और इस झूठ की जनता में पोल ना खुल जाये इसीलिए रोज़गार से जुड़े आँकड़े सार्वजनिक नहीं कर रही है। हमारे देश में 28-29 करोड़ युवा बेरोज़गार हैं। जिनमें से 6 करोड़ डिग्रीधारक हैं। ऐसा तब है जब देश की जीडीपी बढ़ रही है यानी कि देश विकास कर रहा है! पर नौकरियाँ जनसंख्या के अनुपात में ही नहीं, संख्या के आधार पर भी साल दर साल घट रही हैं। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने 2014 के चुनाव के समय हर साल 2 करोड़ नये रोज़गार देने का वायदा किया था। पर आँकड़े यह बताते हैं कि पिछले साढ़े चार साल के बीजेपी कार्यकाल में सिर्फ़ कुछ लाख नयी नौकरियाँ सृजित हुई हैं। जबकि नोटबन्दी और जीएसटी जैसी जनविरोधी नीतियों के कारण संगठित और असंगठित क्षेत्र में सिर्फ़ अकेले 2018 वर्ष में 1.10 करोड़ नौकरियाँ छिन गयी हैं और जिनके पास रोज़गार है भी उनमें से ज़्यादातर की तनख़्वाह इतनी कम है कि उनकी मूलभूत ज़रूरत भी पूरी नहीं हो रही है। इकोनॉमिक टाइम्स में 25 सितम्बर 2018 को छपे आर्टिकल के अनुसार भारत में 82% पुरुष और 92% महिलाओं की तनख़्वाह 10,000 रुपये से कम है। बेरोज़गारी के लगातार बढ़ने के असल कारणों पर हम बाद में आयेंगे, पहले इस व्यवस्था के पैरोकारों द्वारा फैलाये जाने वाले विभ्रमों पर बात करते हैं। पहला विभ्रम ये लोग फैलाते हैं कि संसाधनों की तुलना में जनसंख्या तेज़ गति से बढ़ रही है। इसलिए जनसंख्या बेरोज़गारी का कारण है। पर 1950-51 से 2010-11 तक के आँकड़ों का अगर हम अध्ययन करें तो हम पायेंगे की संसाधनों (खाद्य उत्पादन और औद्योगिक उत्पादन) के बढ़ने की दर जनसंख्या के बढ़ने की दर से बहुत ज़्यादा है। ख़ुद सरकारी थिंकटैंक नीति आयोग भी यह बात मानता है कि जनसंख्या की तुलना में हमारे पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है। इसलिए यह तर्क निराधार है। दूसरा विभ्रम ये लोग फैलाते हैं कि बेरोज़गारी के लिए आरक्षण जि़म्मेदार है। पर ख़ुद भारत सरकार के केन्द्रीय परिवहन मन्त्री नितिन गड़करी तक यह स्वीकार करते हैं कि जब नौकरियाँ ही नहीं हैं तो आरक्षण मिलने या न मिलने से क्या फ़र्क़ पड़ता है और यह एक व्यावहारिक सच्चाई है। अब हम बेरोज़गारी के बढ़ने के असल कारणों पर आते हैं। संसद में एक सवाल के जवाब में कैबिनेट राज्यमन्त्री जितेन्द्र प्रसाद ने ख़ुद माना कि कुल 4,20,547 पद तो अकेले केन्द्र में ख़ाली हैं। विभिन्न विश्वसनीय रिपोर्टों के अनुसार देशभर में स्कूल अध्यापकों के 10 लाख पद, पुलिस विभाग में 5,49,025 पद, राज्य और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफे़सरों के 70 हज़ार पद और सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों के 5 लाख पद ख़ाली हैं। कुल-मिलाकर तक़रीबन 24 लाख पद ख़ाली पड़े हैं। अब सवाल ये उठता है कि सरकार इन ख़ाली पड़े पदों को क्यों नहीं भर रही है। इसका कारण सरकार पैसे की कमी बताती है। अगर ऐसा होता तो बीजेपी के कार्यकाल में 21 सरकारी बैंकों ने पूँजीपतियों के 3,16,000 करोड़ रुपये कैसे माफ़ कर दिये। इन्हीं के कार्यकाल में एनपीए 3.2 लाख करोड़ से बढ़कर 8.41 लाख करोड़ रुपये हो गया। विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी जैसे चोर हजारों करोड़ रुपये डकार जाने के बाद भी देश से बाहर क्यों जाने दिये? विज्ञापनों और बड़ी-बड़ी मूर्तियों को खड़ा करने के लिए हज़ारों करोड़ रुपये कहाँ से आ जाते हैं! दरअसल युवाओं को रोज़गार मुहैया न कराने के पीछे असल कारण ये हैं : पहला, अगर सरकार लोगों को रोज़गार मुहैया कराती है तो बजट का एक हिस्सा इसके लिए आवण्टित करना होगा। जिसके चलते पूँजीपतियों को दिये जाने वाले राहत पैकेज में कमी करनी पड़ेगी। दूसरा, बेरोज़गारों की भीड़ में कमी होगी, जिससे कि उनकी मोल भाव करने की ताक़त बढ़ जायेगी और मजबूरन पूँजीपतियों को न्यूनतम मज़दूरी बढ़ानी पड़ेगी। दोनों ही सूरत में पूँजीपति वर्ग की मुनाफ़े़ की दर गिरेगी। 2008 से पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाएँ भयंकर मन्दी से गुज़र रही हैं। जिसका सीधा सा कारण उत्पादन का सार्वजनिक स्वरूप और मालिकाने का निजी स्वरूप है। उत्पादन में मन्दी छा जाती है क्योंकि पहले का ही उत्पादन बचा रहता है जिसका कारण होता है काम न होने के कारण लोगों की क्रय शक्ति का ही कम हो जाना! अर्थव्यवस्था में मन्दी का कारण यही तथाकथित अति उत्पादन है। इसलिए इस दौर में पूँजीपतियों के मुनाफ़े को सुरक्षित रखने के लिए सरकारें जनता की बुनियादी सुविधाओं जैसे शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य आदि पर होने वाले ख़र्च में लगातार कटौती कर रही हैं। जिसके कारण बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी ने लोगों का जीना मुश्किल कर दिया है। इन भयंकर समस्याओं के चलते लोगों का ग़ुस्सा इस व्यवस्था के खि़लाफ़ ना फूट पड़े इसी कारण सरकारें आम जनता को धर्म, जाति और क्षेत्र के नाम पर आपस में लड़वा रही हैं। फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद के मुद्दे को हवा दी जा रही है। लोगों के सामने एक नक़ली दुश्मन खड़ा किया रहा है।

 

 

मज़दूर बिगुल, मार्च 2019


 

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