हरियाणा के ईंट-भट्ठों में ग़ुलामों की तरह काम करते बिहार के मज़दूर

अनुपम

कहने को देश से बँधुआ मज़दूरी का ख़ात्मा हो चुका है, लेकिन देश के अनेक इलाक़ों में ईंट-भट्ठों, धनी किसानों के खेतों और कारख़ानों में आज भी हज़ारों मज़दूर बँधुआ की तरह काम करने पर मजबूर हैं। कई जगहों पर तो पूरे के पूरे परिवार बँधुआ बनाकर रखे गये हैं। बीच-बीच में जब कुछ मज़दूर मालिकों के चंगुल से निकल जाते हैं, तब उनकी भयानक दशा लोगों के सामने आती है। ऐसे मामलों में भी प्रशासन का रवैया अक्सर बेहद घटिया होता है। बँधुआ मज़दूरों को “मुक्त कराने” की नुमाइश की जाती है, अख़बारों में फ़ोटो आदि छप जाती है, और उसके बाद इन मज़दूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। कई ऐसे मामले भी सामने आये हैं, जब छुड़ाये गये मज़दूर फिर से बँधुआ बनने को मजबूर हो गये। दूसरी ओर, बँधुआ बनाने वालों के ख़ि‍लाफ़ अक्सर कोई कार्रवाई नहीं होती।

ऐसे ही एक मामले में अभी बिहार राज्य के 70 बँधुआ मज़दूर हरियाणा के कुरुक्षेत्र में आज़ाद कराये गये हैं। इनमें गर्भवती स्त्रियाँ और 12 साल तक के बच्चे भी हैं, जो लगभग एक साल से वहाँ ईंट-भट्ठे पर काम कर रहे थे। उन्हें काम की मज़दूरी नहीं दी जाती थी, घटिया और बहुत कम खाना मिलता था, मारपीट की जाती थी और दासों की तरह 12-13 घण्टे काम करवाया जाता था। वे उस जगह को छोड़कर कहीं जा भी नहीं सकते थे।

पिछले 28 जून को एक सामाजिक कार्यकर्ता की कोशिशों से कुरुक्षेत्र के दिवाना गाँव से इन मज़दूरों को छुड़ाया गया, लेकिन पुलिस ने न तो किसी पर केस दर्ज किया और न ही कोई गिरफ़्तारी की, जबकि बँधुआ मज़दूरी उन्मूलन क़ानून के तहत बँधुआ मज़दूर रखना एक गम्भीर अपराध है। कुरुक्षेत्र प्रशासन ने मालिकों के चंगुल से छूटे मज़दूरों को क़ानून के तहत छुड़ाये जाने का प्रमाणपत्र भी नहीं दिया है। इस प्रमाणपत्र के बिना ये लोग ‘बँधुआ मज़दूर पुनर्वास योजना’ के तहत मुआवज़े का दावा भी नहीं कर सकते और न ही बँधुआ मज़दूरों के लिए बनी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उन्हें मिल सकता है। योजना के तहत छुड़ाये गये पुरुष मज़दूरों को बकाया मज़दूरी के अलावा एक-एक लाख रुपये और औरतों तथा बच्चों को दो-दो लाख रुपये मुआवज़ा देने का नियम है।

मज़दूरों के प्रति प्रशासन का रवैया कैसा होता है, इसे समझने के लिए भी यह घटना काफ़ी है। कुरुक्षेत्र की पेहोवा तहसील के परगना मजिस्ट्रेट से जब सर्टिफ़िकेट और मुआवज़े के बारे में पूछा गया तो पहले उन्होंने जवाब दिया कि वे मामले को देखेंगे। फिर उन्होंने 21 परिवारों को एक-एक हज़ार रुपये दिलवा दिये और कहा कि अब और कुछ नहीं हो सकता, इसलिए उन्हें इस पैसे से टिकट कटाकर अपने गाँव लौट जाना चाहिए।  बेशर्मी की हद देखिए कि उसने बोला, “खाना भी तो खिलाया है।”

इन परिवारों में कुल 23 पुरुष, 21 स्त्रियाँ और 40 बच्चे थे जिनमें से कुछ गोद के शिशु भी थे। भट्ठे में काम करने वाले मज़दूरों से आधार कार्ड या अन्य सभी काग़ज़ात ले लिये जाते थे, ताकि वे कहीं जा न सकें। बाल-मज़दूर अजय ने बताया कि “हम पूरे दिन ईंटा पाथते थे और हमको ज़्यादातर खाने के लिए केवल खिचड़ी मिलती थी। अगर हम कुछ भी माँगते थे तो हमें पीटा जाता था। कभी-कभी हमें बिना किसी कारण के पीटा जाता था। मैं छोटा था, तो मुझे हाथ से ही मारते थे, लेकिन हमारे माँ-बाप को लाठी से पीटते थे।

भट्ठे पर काम करने वाली कई महिलाएँ रतौंधी की शिकार हो गयी हैं और बच्चों को कुपोषण के कारण चमड़ी की बीमारी हो गयी है। गर्भवती महिलाओं को भी नहीं बख़्शा जाता था और उनसे भी काम कराया जाता था। उन्हें धमकी दी जाती थी कि अगर उन्होंने काम नहीं किया तो वे उसके पेट पर लात मारकर बच्चे को मार डालेंगे। इतना कठिन काम करने पर भी कोई मेहनताना उन्हें नहीं मिलता था। उनसे रोज़ 1500 ईंटें बनवायी जाती। मालिक हर 1000 ईंटों पर 5,000 रुपये मुनाफ़ा कमाता था, पर मज़दूरों को भरपूट खाना तक नहीं देता था। ठेकेदार ने इन मज़दूर परिवारों को शुरू में 10,000 से 15,000 रुपये दिये थे, पर उसके बाद उन्हें पूरे साल कुछ नहीं मिला। उनके पास जो पैसे थे, वही नहीं, बल्कि उनके मोबाइल फ़ोन तक रखवा लिये गये। एक मज़दूर औरत ने छिपाकर रखे एक मोबाइल से किसी तरह बाहर ख़बर पहुँचायी तब उन्हें छुड़ाया जा सका।

बिहार ऐसा राज्य है जहाँ के लोग शायद रोज़गार की तलाश में सबसे अधिक प्रवास करते हैं। वे पेट की आग बुझाने के लिए कश्मीर से कन्याकुमारी तक की खाक़ छानते हैं। वे खदानों में, कपड़ों की फ़ैक्टरियों में, तटीय इलाक़ों में काम करते हैं। वे हर तरीक़े के ख़तरनाक काम भी करते हैं। बहुत बड़ी संख्या में वहाँ के ग़रीब मज़दूर देश के ईंट-भट्ठों पर भी काम करते हैं। बिहार के बांका ज़ि‍ले के इन मुसहिर दलित परिवारों के लोगों को एक ठेकेदार यह बताकर लाया था कि उन्हें प्रति एक हज़ार ईंटों पर 660 रुपये मिलेंगे। हर रोज़ बस आठ घण्टा काम करना होगा और रोज़ 500 ईंट हर किसी को बनानी होंगी। मगर यहाँ पहुँचने के बाद उन्हें बँधुआ बना दिया गया।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2019


 

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