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सरकारी दावों की पोल खोलती शिक्षा बजट में भारी कटौती

संसद में पेश किये गये हालिया बजट में शिक्षा बजट में की गयी कटौती ने नयी शिक्षा नीति के वादों-दावों की पोल खोलकर रख दी है। कहाँ तो कहा गया था कि आनेवाले दस साल में शिक्षा पर ख़र्च दोगुना हो जायेगा, लेकिन उसके पहले ही साल में यहाँ बजट में हज़ार-हज़ार करोड़ रुपये तक की कटौती होनी शुरू हो गयी है। पिछले साल 2020-21 के बजट में 38,751 करोड़ रुपये समग्र शिक्षा अभियान को आवण्टित हुए थे,लेकिन इस साल उसे घटाकर 31,050 करोड़ कर दिया गया है।

योगीराज में उत्तर प्रदेश पुलिस की बेलगाम गुण्डागर्दी

अराजकता, असामाजिक तत्त्व, आतंकवादी गतिविधि…इन शब्दों का सहारा लेकर जनता पर काले क़ानूनों का शिकंजा कसना, सत्ता में आने के बाद से ही योगी सरकार का पुराना रवैया रहा है। अभी पिछले साल इन्होंने बिकरू काण्ड के बाद से जनवरी में पहली बार राज्य की राजधानी लखनऊ में पुलिस कमिश्नरेट लागू किया। और उसके बाद अभी फिर से दोबारा पिछले हफ़्ते योगी सरकार ने दावा किया कि वह राज्य के अन्य दो शहरों वाराणसी और कानपुर में भी यही व्यवस्था लागू करेगी। और हुआ भी यही।

फ़ूड डिलीवरी कम्पनियों में कर्मचारियों के नारकीय हालात

कोरोना लॉकडाउन के दौरान फ़ूड डिलीवरी कम्पनियों ने जमकर मुनाफ़ा कमाया। महामारी के दौरान घरों में बन्द लोगों को खाने-पीने की चीज़ें पहुँचाने के काम पर सरकार द्वारा रोक नहीं लगायी गयी थी इसलिए अपनी रोज़ी कमाते रहने के लिए अप्रैल-मई की चिलचिलाती धूप में भी फ़ूड डिलीवरी कर्मचारी कोरोना महामारी के साये में यह काम करते रहे। सरकार और कम्पनी दोनों की तरफ़ से ही उनके इस कठिन काम की तारीफ़ की जाती रही। मोदी ने उन्हें ‘फ़्रण्टलाइन वर्कर’ कहा तो वहीं कम्पनियों ने उन्हें ‘हीरो’ कहा।

आपदा कैसी भी हो, उसकी मार सबसे ज़्यादा मज़दूर वर्ग पर ही पड़ती है

तालकटोरा इण्डस्ट्रियल एरिया में स्थित रेलवे के पुर्जे़ बनाने वाली फ़ैक्ट्री ‘प्राग’ में काम करने वाले सौरभ ने ‘मज़दूर बिगुल’ के वितरण अभियान के दौरान हमें बताया कि उन्हें लॉकडाउन के बाद फिर से खुली फ़ैक्ट्री में दोबारा बुला तो लिया गया लेकिन नये जूते और पोशाक नहीं दी गयी। और अब वे लोहा ढोने का काम करने के जोखिमों को उठाकर फटे जूतों के साथ ही अपना काम जैसे-तैसे चला रहे हैं।
साथ ही कम्पनी ने एक नया नियम यह लगाया कि किसी भी मज़दूर की उपस्थिति बिना स्मार्टफ़ोन के दर्ज नहीं हो सकेगी। और इसलिए उन्होंने क़िस्तों पर एक नया मोबाइल फ़ोन ख़रीदा।

महामारी और संकट के बीच पूँजीपतियों के मुनाफ़े में हो गयी 13 लाख करोड़ की बढ़ोत्तरी!

कोरोना महामारी की वजह से आजकल सभी काम-धन्धे बन्द हुए मालूम पड़ते हैं। लगभग हर गली-मोहल्ले में तो ही रोज़गार का अकाल ही पड़ा हुआ है। वहीं, दूसरी तरफ़, कोरोना काल में अम्बानी-अडानी आदि थैलीशाहों के चेहरे पहले से भी ज़्यादा खिले हुए हैं। करोड़ों-करोड़ का मुनाफ़ा खसोटकर वे अपनी महँगी पार्टियों में जश्न मना रहे हैं।

मोदी सरकार की अय्याशी और भ्रष्टाचार का नया कीर्तिमान : सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट

कोरोना महामारी के इस दौर में जब लोगों की बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं हो पा रहीं हैं, स्वास्थ्य सेवाएँ लचर हैं, करोड़ों लोग रोज़गार खो चुके हैं और भारी आबादी दो वक़्त की रोटी के लिए मुहताज है, वहीं ख़ुद को देश का प्रधानसेवक कहने वाले प्रधानमंत्री ने 20 हजार करोड़ रूपये का एक ऐसा प्रोजेक्ट लाँच किया है जिससे जनता को कुछ नहीं मिलने वाला।

कोरोना काल में मनरेगा के बजट में वृद्धि के सरकारी ढोल की पोल

अब यह दिन के उजाले की तरह साफ़ हो चुका है कि पहले से ही संकट के भँवर में फँसी भारतीय अर्थव्यवस्था की कमर कोरोना महामारी के दौर में पूरी तरह से टूट चुकी है। अब सरकारी आँकड़े भी इसकी गवाही दे रहे हैं। लेकिन भयंकर मन्दी और बेरोज़गारी के इस दौर में भी चाटुकार मीडिया मोदी सरकार का चरण-चुम्बन करने से बाज़ नहीं आ रही है। कोरोना संक्रमण को रोकने के नाम पर आनन-फ़ानन में थोपे गये लॉकडाउन के बाद जब मज़दूरों के पलायन को लेकर दुनियाभर में मोदी सरकार की छीछालेदर होने लगी थी तब भी अधिकांश मीडिया घराने सरकार की वाहवाही में जुटे थे।

प्रधानमंत्री आवास योजना की असलियत : जुमले ले लो, थोक के भाव जुमले…

प्रधानमंत्री आवास योजना के पाँच साल पूरे हो चुके हैं। इस योजना की शुरुआत साल 2015 में की गयी थी और इसके तहत 2022 तक देश में दो करोड़ मकान बनाने का लक्ष्य रखा गया था। कुछ समय पहले केन्द्रीय वित्त मंत्री ने दावा किया कि इस योजना के तहत 12 लाख नये घर बनेंगे और 18,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त आवंटन होगा ताकि हाउसिंग और रियल एस्टेट सेक्टर में तेज़ी आये और लाखों बेरोज़गारों को रोज़गार मिल जाये।

हरियाणा के ईंट-भट्ठों में ग़ुलामों की तरह काम करते बिहार के मज़दूर

भट्ठे पर काम करने वाली कई महिलाएँ रतौंधी की शिकार हो गयी हैं और बच्चों को कुपोषण के कारण चमड़ी की बीमारी हो गयी है। गर्भवती महिलाओं को भी नहीं बख़्शा जाता था और उनसे भी काम कराया जाता था। उन्हें धमकी दी जाती थी कि अगर उन्होंने काम नहीं किया तो वे उसके पेट पर लात मारकर बच्चे को मार डालेंगे। इतना कठिन काम करने पर भी कोई मेहनताना उन्हें नहीं मिलता था। उनसे रोज़ 1500 ईंटें बनवायी जाती। मालिक हर 1000 ईंटों पर 5,000 रुपये मुनाफ़ा कमाता था, पर मज़दूरों को भरपूट खाना तक नहीं देता था। ठेकेदार ने इन मज़दूर परिवारों को शुरू में 10,000 से 15,000 रुपये दिये थे, पर उसके बाद उन्हें पूरे साल कुछ नहीं मिला। उनके पास जो पैसे थे, वही नहीं, बल्कि उनके मोबाइल फ़ोन तक रखवा लिये गये। एक मज़दूर औरत ने छिपाकर रखे एक मोबाइल से किसी तरह बाहर ख़बर पहुँचायी तब उन्हें छुड़ाया जा सका।

लखनऊ मेट्रो की जगमग के पीछे मज़दूरों की अँधेरी ज़िन्दगी‍

जिन टीन के घरों में मज़दूर रहते हैं, वहाँ गर्मी के दिनों में रहना तो नरक से भी बदतर होता है, फिर भी मज़दूर चार साल से रह रहे हैं। यहाँ पानी 24 घण्टों में एक बार आता है, उसी में मज़दूरों को काम चलाना पड़ता है। इन मज़दूरों के रहने की जगह को देखकर मन में यह ख़याल आता है कि इससे अच्छी जगह तो लोग जानवरों को रखते हैं। एक 10 बार्इ 10 की झुग्गी में 5-8 लोग रहते हैं। कई झुग्गियों में तो 12-17 लोग रहते हैं।