मज़दूर-विरोधी नीतियों को धड़ल्ले से लागू करने में जुटी मोदी सरकार का पूँजीपतियों को नया तोहफ़ा!
औद्योगिक सम्बन्ध श्रम संहिता को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की मंज़ूरी! फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेंट के नाम पर ठेकेदारी प्रथा को क़ानूनी मान्यता!

श्रम क़ानूनों पर मोदी सरकार के हमले जारी हैं। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने 20 नवम्बर को औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता (लेबर कोड ऑन इण्डस्ट्रियल रिलेशन्स) को मंज़ूरी दे दी है जिससे अब कम्पनियों को मज़दूरों को किसी भी अवधि के लिए ठेके पर नियुक्त करने का अधिकार मिल गया है। इसे फ़िक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेण्ट का नाम दिया गया है। मतलब साफ़ है कि अब ठेका प्रथा को पूरी तरह से क़ानूनी जामा पहनाने की तैयारी हो चुकी है, यानी कि अब पूँजीपति मज़दूरों को क़ानूनी तरीके़ से 3 महीने, 6 महीने या सालभर के लिए ठेके पर रख सकता है और फिर उसके बाद उसे काम से बाहर निकाल सकता है।

सरकार ने तीन पुराने श्रम क़ानूनों—औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947, ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926 और औद्योगिक रोज़गार अधिनियम 1946 को हटाकर उनकी जगह औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता 2019 लागू किया है। प्रधानमंत्री मोदी का कहना है कि औद्योगिक विवाद सही शब्द नहीं है क्योंकि मज़दूरों और पूँजीपतियों के बीच तो कोई विवाद वास्तव में है ही नहीं! उनके बीच दोस्ताना सम्बन्ध है जहाँ पूँजीपति मज़दूरों के अभिभावक के समान हैं और उनकी हर फ़िक्र को अपना समझते हैं! इसी से साफ़ है कि अपने पूँजीपति-आक़ाओं को ख़ुश करने में प्रधानमंत्री कितने तल्लीन हैं। वैसे भी सच को झूठ और झूठ को सच कहना फ़ासीवादियों की पुरानी आदत है।

यहाँ बताने की ज़रूरत नहीं है कि क़ागज़ पर मौजूद श्रम क़ानून पहले ही इतने लचीले और निष्प्रभावी थे कि आम तौर पर इनका फ़ायदा मज़दूरों को कम, मालिकों को ही ज़्यादा मिलता था। लेकिन फिर भी ये क़ानून पूँजीपतियों के लिए कभी-कभार सरदर्दी का सबब बन जाते थे, ख़ासकर जब मज़दूर इन्हें लागू कराने के लिए संघर्ष छेड़ देते थे। नरेन्द्र मोदी ने सत्ता में आते “कारोबार की आसानी” के नाम पर पूँजीपतियों को मज़दूरों की श्रम-शक्ति लूटने की खुली छूट देने का ऐलान कर दिया था। यही कारण है कि वर्षों के वर्ग संघर्ष के बल पर मज़दूरों ने जो भी अधिकार श्रम क़ानूनों के रूप में हासिल किये थे उसे फ़ासीवादी मोदी सरकार पूरी तरह से छीन लेना चाहती है ताकि मन्दी की मार से पूँजीपतियों के मुनाफ़े में जो भी रोड़ा है उसे हटाकर पूँजीपतियों को मज़दूरों की हड्डी-हड्डी निचोड़ लेने की छूट दी जा सके।

चुनाव में हज़ारों करोड़ का खर्च उठा कर अम्बानी-अडानी आदि ने मोदी को दोबारा सत्ता में इसीलिए पहुँचाया है ताकि जनता को झूठे मुद्दों पर बाँटकर पूँजीपतियों के मुनाफ़े के रास्ते में आने वाले हर स्पीडब्रेकर को पूरी तरह से हटाया जा सके। इसलिए वर्षों से जनता के पैसे पर खड़े सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को कौड़ियों के भाव इन पूँजीपतियों को सौंपा जा रहा है, सार्वजानिक शिक्षण संस्थानों और चिकित्सा संस्थानों को बर्बाद किया जा रहा है ताकि पूँजीपतियों को यहाँ भी लूटने में खुला हाथ दिया जा सके। और इसके साथ ही देश में 60 करोड़ मज़दूरों-मेहनतकशों की लूट को बेहिसाब बढ़ाने, उनके यूनियन बनाने के अधिकार यानी उनके सामूहिक मोलभाव की क्षमता को कमज़ोर करने और उनके संघर्ष को कुचलने की तैयारी को मोदी सरकार बड़े ज़ोर-शोर से अन्जाम दे रही है।

इसी मक़सद से 44 मौजूदा केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर चार संहिताएँ बनायी गयी हैं—मज़दूरी पर श्रम संहिता, औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता, सामाजिक सुरक्षा पर श्रम संहिता और औद्योगिक सुरक्षा एवं कल्याण पर श्रम संहिता। इनमें से एक को आज मंत्रिमण्डल की मंज़ूरी भी मिल गयी। कहने के लिए तो श्रम क़ानूनों को तर्कसंगत और सरल बनाने के लिए ऐसा किया जा रहा है। लेकिन इसका एक ही मक़सद है, देशी-विदेशी कम्पनियों के लिए मज़दूरों के श्रम को सस्ती से सस्ती दरों पर और मनमानी शर्तों पर निचोड़ना आसान बनाना।

पिछली सरकार में श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने पहले ही यह कहकर सरकार की नीयत साफ़ कर दी थी कि “श्रम क़ानूनों का मौजूदा स्वरूप विकास में बाधा बन रहा है, इसीलिए सुधारों की आवश्यकता है।” कहने की ज़रूरत नहीं कि विकास का मतलब पूँजीपतियों का मुनाफ़ा बढ़ना ही माना जाता है। मज़दूरों को बेहतर मज़दूरी मिले, उनकी नौकरी सुरक्षित हो, उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा और परिवार को सुकून की ज़िन्दगी मिले, इसे विकास का पैमाना नहीं माना जाता। इसलिए, विकास के लिए ज़रूरी है कि थैलीशाहों को अपनी शर्तों पर कारोबार शुरू करने, बन्द करने, लोगों को काम पर रखने, निकालने, मनचाही मज़दूरी तय करने आदि की पूरी छूट दी जाये और मज़दूरों को यूनियन बनाने, एकजुट होने जैसी “विकास-विरोधी” कार्रवाइयों से दूर रखा जाये।

यह तो महज़ ट्रेलर है, पूरी पिक्चर जल्दी ही सामने आ जायेगी। बुर्जुआ और संसदमार्गी वामपन्थी दलों से जुड़ी यूनियनें मज़दूरों के अतिसीमित आर्थिक हितों की हिफ़ाज़त के लिए भी सड़क पर उतरने की हिम्मत और ताक़त दुअन्नी-चवन्नी की सौदेबाज़ी करते-करते खो चुकी हैं। वैसे भी देश की कुल मज़दूर आबादी में 90 फ़ीसदी से अधिक जो असंगठित मज़दूर हैं, उनमें इनकी मौजूदगी बस दिखावे भर की ही है। अब सफ़ेद कॉलर वाले मज़दूरों, कुलीन मज़दूरों और सर्विस सेक्टर के मध्यवर्गीय कर्मचारियों के बीच ही इन यूनियनों का वास्तविक आधार बचा हुआ है और सच्चाई यह है कि नवउदारवाद की मार जब समाज के इस संस्तर पर भी पड़ रही है तो ये यूनियनें इनकी माँगों को लेकर भी प्रभावी विरोध दर्ज करा पाने में अक्षम होती जा रही हैं। बहरहाल, रास्ता अब एक ही बचा है। गाँवों और शहरों की व्यापक मेहनतकश आबादी को सघन राजनीतिक कार्रवाइयों के ज़रिये, जीने के अधिकार सहित सभी जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष करने के उद्देश्य से, उनके विशिष्ट पेशों की चौहद्दियों से आगे बढ़कर, इला़क़ाई पैमाने पर संगठित करना होगा। साथ ही, अलग-अलग सेक्टरों की ऐसी पेशागत यूनियनें संगठित करनी होगी, जिसके अन्तर्गत ठेका मज़दूर और सभी श्रेणी के अनियमित मज़दूर मुख्य ताक़त के तौर पर शामिल हों। पुराने ट्रेड यूनियन आन्दोलन के क्रान्तिकारी नवोन्मेष की सम्भावनाएँ अब अत्यधिक क्षीण हो चुकी हैं। अब एक नयी क्रान्तिकारी शुरुआत पर ही सारी आशाएँ टिकी हैं, चाहे इसका रास्ता जितना भी लम्बा और कठिन क्यों न हो।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2019


 

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