मोदी राज में मज़दूरों के ऊपर बढ़ती बेरोज़गारी और महँगाई की मार

– लालचन्द्र

2014 में अच्छे दिन के नारे के साथ भाजपा सत्ता में आयी और प्रधानमंत्री मोदी ख़ुद को मज़दूर नम्बर एक कहते थे। अब उनका दूसरा कार्यकाल चल रहा है। उसके पहले कार्यकाल में नोटबन्दी के फ़ैसले की सबसे ज़्यादा मार मज़दूर वर्ग पर पड़ी थी। नोटबन्दी के कारण देशभर में बहुत-से छोटे-मझोले उद्योगों पर ताला लटक गया और भारी तादाद में मज़दूरों को अपने काम से हाथ धोना पड़ा।

मन्दी की मार से मज़दूरों में बेरोज़गारी भयंकर रूप से बढ़ गयी है। इसे झारखण्ड के एक उदाहरण से समझा जा सकता है। झारखण्ड के जमशेदपुर में टाटा की टेल्को कम्पनी है जहाँ मोटरवाहनों का उत्पादन होता है, टेल्को के लिए पार्टस बनाने वाली चौदह सौ उत्पादन इकाइयाँ हैं जिनमें हज़ारों मज़दूरों को काम मिलता था। मन्दी के कारण टेल्को के उत्पादन में गिरावट आयी जिससे कई छोटी उत्पादन इकाइयाँ तो बन्द हो गयीं और जो थोड़ी चल भी रही हैं उसमें मज़दूरों को अनियमित काम ही मिल पा रहा है। यही हाल आईएमटी मानेसर में होण्डा मज़दूरों का हो रहा है जिसकी वजह से वे कई हफ़्तों से संघर्ष कर रहे हैं।

टीवी चैनलों और अख़बारों में बेरोज़गारी की ख़बर अगर भी आती भी है तो केवल दफ़्तरी काम तलाश रहे पढ़े-लिखे युवाओं के बारे में होती है। मज़दूरों के बीच बेरोज़गारी का क्या आलम है यह कभी नहीं दिखाया जाता। किसी भी औद्योगिक इलाक़े में जाकर इसे देखा जा सकता है। ऊपर से महँगाई भयांकर बढ़ जाने के बावजूद मज़दूरी में बढ़ोत्तरी नाम के लिए हो रही है। मेनितकश परिवार किन हालात में अपने बच्चों का पेट पाल रहे हैं इसे केवल उनके बीच जाकर ही देखा जा सकता है।

2015 तक हालत यह थी कि कामकाजी 82 फ़ीसदी लोगों की आमदनी दस हज़ार रुपये से कम थी। नियमित कामगारों की मासिक आमदनी थी तेरह हज़ार बासठ रुपये और अनियमित कामगारों की पाँच हज़ार आठ सौ तिरेपन रुपये थी। 2017 में आर्थिक बढ़त का तीन चौथाई हिस्सा महज़ एक फ़ीसदी लोगों के हाथों में पहुँच रहा था। कोई भी इन आँकड़ों से समझ सकता है, इतनी कम आमदनी में कोई मज़दूर परिवार कैसे गुज़र-बसर करेगा, जब प्याज़ के दाम आसमान छू रहे हैं। हरी सब्ज़ियों से लेकर दवा-इलाज का खर्च़ ,कमरे का किराया, इतना भारी पड़ता है कि उनका जीवन बद से बदतर होता जा रहा है।

बेहतर जीवन की तलाश में हर साल दो लाख सत्तर हज़ार लोग मज़दूरी के लिए राजधानी दिल्ली पहुँचते हैं। अस्थायी काम और मँहगाई की वजह से छह महीने भी दिल्ली में नहीं टिक पाते और अपने मूल स्थानों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर हैं। मनरेगा जैसी सरकारी स्कीम से भी उन्हें राहत नहीं मिलती क्योंकि वायदा तो डेढ़ सौ दिन के काम का होता है, लेकिन केवल बमुश्किल पचास दिन ही काम मिल पाता है।

शहरों में मेन्युफ़ैक्चरिंग की जगह सर्विस सेक्टर का उभरना भी कुशल मज़दूरों को रोजगार से दूर करता है। भाजपा सरकार और उसके द्वारा उठाये गये क़दम मज़दूरों का ख़ून निचोड़कर सिक्के में ढ़ालने का भरपूर मौक़ा मालिकों और ठेकेदारों को दे रही है। पूँजीपतियों को मज़दूरों का अभिभावक बताकर मोदी सरकार पूँजीपतियों और मज़दूरों के बीच विवादों को निपटाने के लिए बने क़ानूनों को भी ख़त्म कर रही है। ऐसे में सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास का नारा सौ करोड़ मेहनतकश लोगों के लिए झूठ और फ़रेब के अलावा कुछ भी नहीं है।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2019


 

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