चुनावी बॉण्ड : पूँजीपतियों और चुनावी पार्टियों का अटूट और गुमनाम रिश्‍ता

– पराग

सभी जानते हैं कि भारत में चुनावी दल, चुनाव के दौरान ख़ूब ख़र्च करते आये हैं और ये सवाल हमेशा उठता रहा है कि ख़र्च करने के लिए उनके पास धन कहाँ से आता रहा है। 2017 तक बीस हज़ार रुपये से ऊपर के चन्दे को चेक से लिया जाता था जिसका रिकॉर्ड रहता था पर उससे कम क़ीमत के चन्दे को किसी रसीद की आवश्यकता ही नहीं होती थी। सभी दल इस प्रावधान का ख़ूब इस्तेमाल करते रहे और उनका अधिकांश चन्दा बीस हज़ार रुपये से कम का यानी बिना किसी रसीद का होता था। माना जाता रहा है कि बीस हज़ार रुपये से कम का यह चन्दा करोड़ों में था, जिसका बड़ा हिस्सा कालाधन था। सरकार ने 2017 में चुनावी बॉण्ड की घोषणा कथित तौर पर राजनीतिक दलों के चन्दा जुटाने की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के उद्देश्य से की। घोषणा के मुताबिक़ ये बॉण्ड भारतीय स्टेट बैंक की चुनिन्दा शाखाओं से मिल सकेंगे और इसकी न्यूनतम क़ीमत एक हज़ार रुपये जबकि अधिकतम एक करोड़ रुपये होगी।

कहने को तो चुनावी बॉण्ड की यह योजना चुनावी फ़ण्डिग को साफ़-सुथरा और पारदर्शी बनाने के लिए लायी गयी थी। परन्तु हुआ पारदर्शिता के ठीक उलट और असलियत में ये चुनावी बॉण्ड देशी-विदेशी पूँजीपतियों द्वारा दिये जाने वाले राजनीतिक चन्दे का पूर्णतः गोपनीय और व्यवस्थित साधन साबित हुए। इन बॉण्ड को पूँजीपतियों द्वारा बैंक से ख़रीदने और फिर चुनावी पार्टियों द्वारा इनको भजा लेने की जो प्रक्रिया लायी गयी वो पूरी तरह गोपनीय है। किस पूँजीपति ने कितने रुपये के चुनावी बॉण्ड ख़रीदे, वो बॉण्ड किस चुनावी पार्टी को दिये या वो बॉण्ड किसी और पूँजीपति को बेच दिये, इस तरह की कोई भी ऐसी जानकारी ना तो जनता को पता चल सकती है और ना ही चुनाव आयोग को।

ये सब हासिल करने के लिए मोदी सरकार ने चुनावी बॉण्ड को फ़ाइनेंस एक्ट 2017 द्वारा लागू किया। पर इस एक्ट द्वारा चुनावी बॉण्ड के कार्यान्वयन के लिए पाँच और एक्ट में बदलाव पहले ही कर लिये गये थे। लोक प्रतिनिधित्व एक्ट 1951 में संशोधन किया गया था जिससे चुनावी पार्टियों को चुनावी बॉण्ड से मिले हुए चन्दे के दानदाता का विवरण चुनाव आयोग को बताने की आवश्यकता ही ना रहे। उस वक़्त चुनाव आयोग ने इस पर यह कहते हुए आपत्ति भी जतायी थी कि ऐसे में चुनावी पार्टियाँ, विदेशी कम्पनियों से भी चन्दे ले लेंगी जो कि ग़ैर-क़ानूनी है, पर चुनाव आयोग की इस चेतावनी को दरकिनार कर दिया गया। कम्पनी एक्ट 2013 में भी संशोधन किया गया था जिसमें कम्पनियों द्वारा चन्दा देने की प्रतिबन्धित सीमा को बदल दिया गया। पहले कम्पनियाँ अपने औसत मुनाफ़े का केवल 7.5 प्रतिशत ही चन्दे के रूप में दे सकती थीं और ये उनकी बैलेंस शीट में चुनावी पार्टी के नाम के साथ दर्ज होता था पर इस संशोधन के बाद ये प्रतिबन्धित सीमा हटा दी गयी जिसका मतलब है कि अब कम्पनियाँ राजनीतिक पार्टियों को बेलगाम चन्दा दे सकती हैं और उन्हें अपने रिकॉर्ड में केवल बॉण्ड ख़रीद की राशि के रूप में दिखाना होगा। चुनाव आयोग ने इस संशोधन पर भी आपत्ति जतायी थी और कहा था की इससे “मुखौटा” कम्पनियाँ या “छद्म” कम्पनियाँ स्थापित की जायेंगी जिनके माध्यम से बेहिसाब विदेशी चन्दा चुनावी पार्टियों को चुनावी बॉण्ड द्वारा दिया जायेगा, पर चुनाव आयोग के इस इशारे को भी नज़रअन्दाज़ कर दिया गया। फ़ॉरेन कण्ट्रीब्यूशन (रेगुलेशन) एक्ट में भी संशोधनों से विदेशी स्रोत से राजनीतिक दलों को चन्दा मिलना आसान किया गया। इन्कम टैक्स ऐक्ट में संशोधन से इन चन्दों को टैक्स प्रणाली के बाहर रखा गया और रिज़र्व बैंक ऑफ़ इण्डिया ऐक्ट में संशोधन द्वारा चुनावी बॉण्ड को धारक बॉण्ड बना दिया गया है जिससे उसमें लगने वाले पैसे के स्त्रोत और रास्ते का कोई पता ना चल सके। इन पाँचों संशोधनों से साफ़ ज़ाहिर है कि भाजपा की मंशा इस ऐक्ट के माध्यम से साफ़ यही थी कि वो पूँजीपतियों से मिलने वाले चन्दे पर कोई रोकथाम नहीं चाहती थी बल्कि इसके माध्यम से उसने असीमित राशि के चन्दे और देशी-विदेशी सभी चंदों के लिए पूरे रास्ते खोल दिये।

आरटीआई के माध्यम से मिले कुछ तथ्यों के अध्ययन से पूँजीपतियों और राजनीतिक पार्टियों के गँठजोड़ की और परतें उजागर हो जाती हैं। जनवरी 2018 से अब तक 12 चरणों में 6000 करोड़ से भी ज़्यादा रुपये चुनावी बॉण्ड के रूप में चुनावी पार्टियों के खाते में जा चुके हैं। इन बॉण्ड के माध्यम से पार्टियों को मिलने वाले चन्दे का आम जनता को ना तो दानदाता पता चल सकता है और ना ही ये पता चल सकता है कि कौन-सा चन्दा किस पार्टी को गया। मई 2019 में हुए लोकसभा चुनावों के समय केवल तीन महीने के अन्दर ही 4444 करोड़ रूपये का चन्दा, चुनावी बॉण्ड के रूप में दिया गया। यानि कुल चन्दे का 73% चन्दा केवल लोक सभा चुनाव के समय दे दिया गया। मई 2019 में लोकसभा चुनाव थे और मार्च 2019 में चन्दे की रक़म 1365 करोड़ हुई, जो अप्रैल 2019 में बढ़कर 2256 करोड़ हो गयी और मई 2019 के एक हफ़्ते की विण्डो में 822 करोड़ का चन्दा दिया गया। आँकड़े साफ़ बताते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था में चुनाव में किस तरह पैसा झोंक दिया जाता है जिससे पार्टियाँ अपनी जीत सुनिश्चित करती हैं। 2018-19 के वित्तीय वर्ष में कुल चन्दे की रक़म 2550 करोड़ थी और वही रक़म 2019-20 के वित्तीय वर्ष के आठ महीनों में ही 3355 करोड़ हो चुकी है। यानि चुनावी चन्दे का आकार बढ़ रहा है और ये जैसे-जैसे बढ़ेगा वैसे-वैसे ही पूँजीपतियों के हित में नीतियाँ बनती जायेंगी और आम मेहनतकश जनता को दबाने और कुचलने का सिलसिला भी बढ़ता जायेगा। 91.7% चुनावी बॉण्ड 1 करोड़ मूल्य के लिये गये और 7.9% चुनावी बॉण्ड दस लाख मूल्य के लिये गये। मतलब कुल 99.6% चुनावी बॉण्ड एक करोड़ या दस लाख मूल्यवर्ग में लिये गये। ज़ाहिर सी बात है कि इतना बड़ा चन्दा केवल पूँजीपतियों की कम्पनियों ने ही दिया होगा। चुनावी बॉण्ड सरकार द्वारा निर्धारित एसबीआई बैंक से ही ख़रीदे जा सकते हैं और ये सुविधा कुल 29 शहरों में मौजूद है पर सबसे ज़्यादा चुनावी बॉण्ड मुम्बई में ख़रीदे गये और उसके बाद कोलकाता व दिल्ली में। इनमें लगभग 80 फ़ीसदी बॉण्डों को केवल दिल्ली में भजाया गया। इसका मतलब है विभिन्न मेट्रोपोलिटन शहरों से ज़्यादातर चन्दा मिला और कुल 6000 करोड़ के चन्दे में से 4917 करोड़ रूपये के चन्दे को केवल दिल्ली में ही भुनाया गया। उसके बाद हैदराबाद और भुवनेश्वर में भुनाया गया।

एडीआर की एक रिपोर्ट बतलाती है कि 2012-13 और 2015-16 के बीच ही भाजपा को कॉरपोरेट घरानों द्वारा अधिकतम राशि 706 करोड़ रूपये प्राप्त हुई थी जबकि कांग्रेस को 199 करोड़ के साथ दूसरा सबसे ज़्यादा चन्दा मिला था। उसके बाद चुनावी बॉण्ड के पहले चरण की बिक्री 2017-18 के वित्तीय वर्ष में हुई थी जिसमें कुल 220 करोड़ की राशि का चन्दा दिया गया था और उस वित्तीय वर्ष में जब राजनीतिक पार्टियों का ऑडिट किया गया तो पता चला कि केवल भाजपा को ही 95% चन्दे की राशि मिली है। इससे साफ़ पता चलता है कि क्यों चुनावी बॉण्ड वाले वित्तीय विधेयक को लोक सभा में मनी बिल बनाकर जल्दी से जल्दी पास करवाया गया। भाजपा कुछ भी करके 2019 लोकसभा चुनावों के पहले चुनावी बॉण्ड लागू करना चाहती थी। 2018-19 वित्तीय वर्ष के 2550 करोड़ के चुनावी चन्दे का 450 करोड़ क्षेत्रीय पार्टी जैसे बीजू जनता दल, टीआरएस और वाईएसआर कांग्रेस को मिला है जो इनकी ऑडिट रिपोर्टों से पता चला है पर भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियों ने अब तक अपनी ऑडिट रिपोर्ट भी जमा नहीं की हैं जो अक्टूबर 2019 तक हो जानी चाहिए थीं इसलिए केवल अनुमान लगाया जा सकता है कि 2550 करोड़ का बड़ा हिस्सा इन दो पार्टियों को ही गया होगा जिसमें भाजपा का हिस्सा कांग्रेस से कहीं ज़्यादा होगा। 2019-20 वित्तीय वर्ष के और बड़े 3355 करोड़ के चुनावी चन्दे का कितना हिस्सा किस पार्टी को मिला ये जानने के लिए एक साल और रुकना पड़ेगा। पर इस सब से एक बात तो निश्चित है कि पूँजीपतियों द्वारा दिया जाने वाला चन्दा ज्यों-ज्यों बढ़ रहा है वैसे ही भाजपा द्वारा कॉर्पोरेट टैक्स में छूट, श्रम क़ानूनों में बदलाव, प्राकृतिक सम्पदा का आसानी से निजी हाथों में सौंपना और सरकारी उपक्रमों का कौड़ियों के दाम पूँजीपतियों को बेचना भी बढ़ता रहा है।

आरटीआई के माध्यम से पता चला है कि जनवरी 2017 में ही भारतीय रिज़र्व बैंक ने चुनावी बॉण्ड को लेकर ये आशंका जतायी थी कि इसके माध्यम से पूँजीपति काले धन को सफ़ेद धन में तब्दील कर देंगे और इसे लागू करने से गोपनीय धन के स्त्रोत का भी कुछ पता नहीं चलेगा। इसी प्रकार चुनाव आयोग ने भी मुखौटा कम्पनियों (फ़र्ज़ी कम्पनियों) द्वारा बॉण्ड की ख़रीद को अनुमति देने पर चिन्ता व्यक्त की थी। परन्तु फिर भी मोदी सरकार ने रिज़र्व बैंक और चुनाव आयोग की इन चेतावनियों को दरकिनार कर दिया और चुनावी बॉण्ड को तेज़ी से लागू करवाया।

तथाकथित लोकतांत्रिक चुनाव पूँजीपतियों द्वारा दिये इस चन्दे के दम पर ही होते हैं। यही चन्दा चुनावी रैलियों में लोगों को बाँटा भी जाता है, मीडिया ख़रीदा जाता है, आई.टी. सेल द्वारा सोशल मीडिया पर झूठ फैलाये जाते हैं, इससे ही नेता भी ख़रीदे जाते हैं और इससे ही सीबीआई से लेकर जजों तक को अपने हक़ में किया जाता है। असली में ये पूँजीतंत्र है जिसको लोकतंत्र का मुखौटा पहनाया गया है। यह भी जानना ज़रूरी है कि ये कुल चन्दे का केवल बॉण्ड द्वारा लिया गया हिस्सा है। इसके अलावा चुनावी ट्रस्ट द्वारा दिया जाने वाला चन्दा अलग है। 2019 में भाजपा को चुनावी ट्रस्ट द्वारा 800 करोड़ और कांग्रेस को 146 करोड़ प्राप्त हुए। बड़े उद्योग घराने जैसे टाटा, एयरटेल, डीएलएफ़, हीरो इत्यादि ने अपने-अपने ट्रस्ट स्थापित किये हुए हैं और ये इनके माध्यम से सभी चुनावी पार्टियों को मौक़े के हिसाब से चन्दा देते हैं। चुनावी बॉण्ड और चुनावी ट्रस्ट के अलावा एक कम्पनी से दूसरी कम्पनी को किये गये अवैध कारोबार में से भी राजनीतिक पार्टियों को चन्दा दिया जाता है जिसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है। राजनीतिक पार्टियाँ, पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी होती हैं। ये चन्दा लेकर पूँजीपतियों के पक्ष में नीतियाँ बनाती हैं और आम मेहनतकश जनता को बाँटने, उलझाने और भटकाने का काम करती हैं। आम मेहनतकश जनता एक ऐसे तथाकथित लोकतंत्र में रह रही है जो वास्तव में कुछ मुट्ठी भर लोगों का ही लोकतंत्र है। इन मुट्ठी भर लोगों में आते हैं बड़े उद्योगपति, अमीर सेठ, नेता और उन्हीं के तलवे चाटता उच्च मध्य वर्ग। बाक़ी बची ग़रीब मेहनतकश जनता के लिए ये कॉरपोरेट और वित्तीय पूँजी की तानाशाही है।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2019


 

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