विश्‍वव्‍यापी कोरोना संकट के बीच कश्मीर में डोमिसाइल नियमों में बदलाव
मोदी सरकार का यह कदम भारतीय राज्य के प्रति कश्मीरी अवाम के अविश्वास को और भी बढ़ायेगा!

– भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) के वक्‍तव्‍य के आधार पर प्रस्‍तुत

इतिहास यह याद रखेगा कि जिस समय पूरी दुनिया और तमाम सरकारें कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ अपना दिमाग खपा रही थी ठीक उसी समय मोदी की फ़ासीवादी सरकार कश्मीरी जनता के साथ नये विश्वासघात का सूत्रपात कर रही थी। इस एहसास को बार-बार पुष्ट किया जा रहा है कि भारतीय राज्यसत्ता के लिए कश्मीरी जनता के सन्दर्भ में लोकतन्त्र के कोई मायने नहीं हैं। नेहरू के समय से ही कांग्रेस द्वारा कश्मीरी अवाम के साथ शुरू हुआ विश्वासघात का सिलसिला मोदी सरकार के दौर में अपने चरम पर पहुँचता दिखायी दे रहा है। बिना किसी चर्चा के पिछली एक अप्रैल को केन्द्र सरकार द्वारा जारी राजपत्र में जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन आदेश 2020 अधिवास अधिनियम के अन्तर्गत वहाँ के डोमिसाइल नियमों में बदलाव कर दिये गये। अब जम्मू-कश्मीर में 15 वर्ष रहने वाले अथवा 7 साल की अवधि तक प्रदेश में पढ़ाई करने वाले (जो कक्षा 10वीं या 12वीं में जम्मू-कश्मीर में स्थित किसी शैक्षणिक संस्थान में उपस्थित रहे हों) यहाँ के स्थायी निवासी प्रमाणपत्र या डोमिसाइल के अधिकारी होंगे। इसके अलावा केन्द्र सरकार के तहत काम कर रहे उन कर्मचारियों के बच्चे भी अधिवास या डोमिसाइल के योग्य होंगे जिन्होंने 10 साल तक राज्य में सेवाएँ दी हों।

पिछली 5 अगस्त से पहले धारा 35-ए के तहत जम्मू-कश्मीर के स्थायी नागरिक के अतिरिक्त किसी को भी यहाँ (स्थायी तौर पर) बसने और ज़मीन खरीदने का अधिकार नहीं था। 14 मई 1954 से पहले कश्मीर में बसे हुओं को ही यहाँ के स्थायी नागरिक होने की मान्यता थी। जो जम्मू-कश्मीर का स्थायी निवासी नहीं था वह राज्य में सम्पत्ति नहीं ख़रीद सकता था, राज्य सरकार की नौकरियों के लिए आवेदन नहीं कर सकता था, वहाँ के राज्य विश्वविद्यालयों में दाखिला नहीं ले सकता था और न ही राज्य सरकार की कोई वित्तीय सहायता प्राप्त कर सकता था। इस तरह से ये अधिकार जम्मू-कश्मीर के लोगों को अपनी अलग कश्मीरी पहचान को सुरक्षित रखने हेतु संरक्षण प्रदान करते थे।

ऐसा नहीं है कि इस तरह के विशेष अधिकार सिर्फ़ जम्मू-कश्मीर के लोगों को ही प्राप्त थे। भारत के दूसरे कई राज्यों और कुछ राज्यों के कई क्षेत्रों के नागरिकों को ठीक ऐसे ही विशेषाधिकार प्राप्त हैं। भारत एक बहुराष्ट्रीय और बहुसांस्कृतिक देश है। देश का संविधान अपनी तमाम लफ़्फ़ाज़ि‍यों और घुमावदार भाषा के बावजूद जनता को कई प्रकार के नागरिक अधिकार और संरक्षण प्रदान करता है। जम्मू-कश्मीर के लोगों से छीन लिये गये और देश के तमाम हिस्सों की जनता को अभी भी प्राप्त विशेषाधिकार इसी श्रेणी में आते हैं। भारत में कई राज्यों और भू-भागों की आबादी को भी सीमित स्वायत्तता और विशेषाधिकार प्राप्त हैं। संविधान की 5वीं और 6ठी अनुसूची के तहत आने वाले राज्यों या राज्यों के कुछ खास क्षेत्रों के नागरिकों को इस तरह का संरक्षण प्राप्त है। पूर्वोत्तर राज्यों, असम, सिक्किम, त्रिपुरा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड और मेघालय में भी बाहर के लोग ना ज़मीन ख़रीद सकते हैं और ना ज़मीन ख़रीदकर उद्योग लगा सकते हैं। इसी प्रकार का संरक्षण हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना और झारखण्ड जैसे राज्यों या इनके कुछ क्षेत्रों की जनता को भी प्राप्त है। इस तरह के विशेषाधिकार में कुछ ग़लत नहीं है लेकिन यदि कोई इसी को आधार बनाकर प्रवासियों पर हमले करने लगे, राज्य में कार्यरत मज़दूरों को निशाना बनाये तो गलत होगा। डोमिसाइल नहीं होने का मतलब यह नहीं होता कि कोई उस सम्बन्धित राज्य में जा ही न सके, वहाँ काम ही नहीं कर सके या श्रमिकों की आवाजाही पर ही रोक लग जाये। राष्ट्रीय पहचान को सहेजने की तत्परता और संकीर्ण या अन्धराष्ट्रवादी रुझान अपनाने में भेद करना ज़रूरी है।

असल में धारा 370 (जिसमें जम्मू एवं कश्मीर को विशेष स्वायत्तता हासिल थी) और धारा 35-ए (जो जम्मू-कश्मीर राज्य विधानमण्डल को यहाँ का ‘स्थायी निवासी’ परिभाषित करके राज्य में उन्हें विशेषाधिकार प्रदान करने का हक़ देती थी) को मोदी सरकार द्वारा 5 अगस्त 2019 को निरस्त किये जाने के साथ ही वहाँ की जनसांख्यिकी में बदलाव के रास्ते खुल गये थे। मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर की जनसांख्यिकी को अस्त-व्यस्त करने पर आमादा है ताकि इस बहाने एक तो हिन्दू मुक्तिदाता की फ़र्ज़ी छवि को पुष्ट किया जा सके और दूसरा, पाकिस्तान के साथ नूरांकुश्ती में रणनीतिक बढ़त हासिल की जा सके। भले ही इसके लिए कश्मीरी अवाम के हक़ों को बूटों तले क्यों न रौंद दिया जाये।

जम्मू-कश्मीर में भाजपा और पीडीपी की गठबन्धन सरकार टूटने के बाद 21 नवम्बर 2018 से ही विधानसभा का अस्तित्व नहीं था। राज्यपाल शासन लागू होने के बाद आगामी चुनाव का भी कोई अता-पता नहीं था। इसी बीच 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर की जनता की सहमति के बिना ही इसके विशेष राज्य के दर्जे को ख़त्म करके इसको तीन टुकड़ों में बाँट दिया गया। जनता ने करीब 6 महीने लम्बा लॉकडाउन झेला। हज़ारों कश्मीरियों को दूसरे राज्यों की जेलों में ठूँस दिया गया। इस दौरान मीडिया का भी ब्लैकआउट कर दिया गया, फ़ोन और इण्‍टरनेट बन्‍द कर दिये गये और पूरे कश्मीर को ही जेलखाने में तब्दील कर दिया गया। इससे राज्य के जनजीवन, बागवानी, व्यापार और पर्यटन उद्योग को गहरा आघात पहुँचा। लाखों लोगों का रोज़गार गया और जनता का जीवन गहरे अँधेरे में धकेल दिया गया। बन्द की आंशिक समाप्ति के बाद जन-जीवन कुछ पटरी पर आने लगा था तो लोगों पर कोरोना का संकट आन पड़ा। वैसे तो मोदी सरकार की आपराधिक लापरवाही और नाकाबिलियत ने पूरे देश की ही जनता के जीवन को संकट में डाल दिया है किन्तु पहले से ही परेशानहाल कश्मीरी जनता पर आपदा का भार और भी अधिक पड़ा है।

सच तो यह है कि पूँजीवाद में लोकतन्त्र का चरित्र कागज़ी ही अधिक होता है किन्तु जो कुछ कागज़ पर मौजूद है वह भी अपने होने का एक एहसास तो देता ही है तथा साथ ही जनता कागज़ी अधिकारों को संघर्ष के द्वारा वास्तविक भी बना सकती है और बनाती भी है। यह दीगर बात है कि हक़-अधिकार कागज़ों पर भी जन-संघर्षों की बदौलत ही दर्ज हो पाये हैं। कुल जमा बात यह है कि कश्मीर के विशेष राज्य के दर्जे का कोई ज़्यादा मतलब पहले भी नहीं था। कांग्रेस से लेकर मौजूदा भाजपा तक की तमाम सरकारों ने समय-ब-समय कश्मीरी जनता के विशेषाधिकारों में सेंधमारी की और अधिकतर समय वहाँ की जनता के भविष्य पर अनिश्चितता की तलवार ही लटकती रही है। कश्मीरी राष्ट्रीयता को कोई आँच नहीं आने देने की गारण्टी और कश्मीर को सीमित स्वायत्तता देने के वायदे को संविधान की धारा 370 के तहत अभिव्यक्ति मिली थी। नेहरू काल से लेकर ही धारा 370 को कमज़ोर किया जाता रहा तथा हाल तक इसकी मौजूदगी कागज़ी प्रावधान से अधिक की नहीं रह गयी थी। इसके बावज़ूद भी कश्मीरी आबादी की भावनाएँ इससे जुड़ी थी तथा इसे कश्मीरी अवाम अपनी अलग पहचान के प्रतीक के तौर पर महसूस करती थी।

भारतीय राज्यसत्ता की कारगुज़ारियाँ कश्मीर की अवाम के अन्दर लगातार अविश्वास को बढ़ावा देने का काम करती रही हैं। इतिहास गवाह है कि फौजी बूटों के दम पर किसी राष्ट्रीयता के सवाल को हल नहीं किया जा सकता है। कश्मीरी जनता के उठान का केन्द्रीय बिन्दु हमेशा से कश्मीरी राष्ट्रीयता के इर्दगिर्द घूमता रहा है। वहाँ पर सबसे ज़्यादा बोला जाने वाला शब्द है “आज़ादी”। राष्ट्रीय अस्मिता के सवाल को न तो डण्डे के दम पर हल किया जा सका है और न ही लोगों को बरगलाकर। जब भी ऐसा हुआ है तो लोगों ने प्रतिरोध किया है और इन्हीं हालात में आम आबादी आतंकवाद नामक भस्मासुर की भेंट भी चढ़ी है। इन्हीं हालात में अलगाववादियों और आतंकवादियों को फलने-फूलने का मौका भी मिला है! किसी भी संघीय गणराज्य में शामिल विभिन्न राष्ट्रीयताओं का विश्वास जीतकर ही उन्हें साथ रखा जा सकता है। सोवियत संघ का उदाहरण हमारे सामने है जब पूरी तरह से अलग हो जाने सहित आत्मनिर्णय का अधिकार मिल जाने के बावजूद किर्गिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, बेलारूस, जॉर्जिया, अज़रबैजान, यूक्रेन, एस्तोनिया, लातविया, लिथुआनिया इत्यादि भिन्न राष्ट्रीयताएँ स्वेच्छा से सोवियत संघ में शामिल हुई थीं।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल-मई 2020


 

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