बिहार विधानसभा चुनाव में मज़दूर वर्ग के पास क्या विकल्प है?

बिहार विधान सभा चुनावों की घोषणा हो चुकी है। चुनाव तीन चरणों में होंगे जिसमें पहले, दूसरे और तीसरे चरण का मतदान क्रमशः 28 अक्टूबर, 3 नवम्बर और 7 नवम्बर को होगा। बिहार चुनाव एक ऐसे वक़्त में हो रहा है जब कोरोना के मामले में देश नंबर वन पर पहुँचने वाला है। यदि बिहार में कोरोना की हालत पर बात करें तो स्थिति और भी गम्भीर है। बिहार की पहले से ही लचर स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत कोरोना के बाद से बिलकुल दयनीय हो चुकी है।
एक तरफ़ कोरोना और स्वास्थ्य व्यवस्था की पंगु हालत थी और दूसरी ओर क़रीब 30 लाख आबादी सितम्बर के महीने में बाढ़ के ख़तरे से जूझ रही थी और नितीश सरकार तमाशबीन बने बैठी थी! आनन-फ़ानन में लगाये गये लॉकडाउन में लोगों के रोज़ी-रोज़गार का क्या होगा। इस कारण एक बड़ी आबादी के सामने भोजन का संकट हो गया। इस संकट के वक़्त में बिहार में चुनाव की घोषणा भी कर दी गयी है। चुनाव में अभी तक यह ऐलान हो चुका है कि एक तरफ़ राजद, कांग्रेस और संसदमार्गी वामपन्थी पार्टियाँ एक साथ गठबन्धन में उतरेंगी और दूसरी तरफ़ भाजपा और जदयू कस गठबन्धन है। लोजपा ने भाजपा के साथ साँठगाँठ करके अकेले चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया है।
कोरोना काल और लॉकडाउन के दौर में केन्द्र में शासन करने वाली न सिर्फ़ भाजपा सरकार नंगी हुई है बल्कि पूरी व्यवस्था बेनक़ाब हुई है। अचानक से लागू किये लॉकडाउन के कारण मज़दूर आबादी का बड़ा हुजूम शहरों से गाँव की तरफ़ बिना कोई साधन के पैदल वापस आने को मजबूर हुआ और राह चलते कई मज़दूरों की मौतें होने के बावजूद केन्द्र और सरकारें के कान में जूँ तक नहीं रेंगी। शुरुआत में राज्य सरकारों ख़ासकर यू.पी. और बिहार की सरकारों द्वारा मज़दूरों को राज्य की सीमाएँ पार कर गाँव जाने की अनुमति नहीं प्रदान की गयी थी। एक तरफ़ मज़दूरों के प्रति सरकार के इस रवैये से मज़दूर वर्ग के भ्रम भी टूटे वहीं दूसरी तरफ़ कोरोना काल में स्वास्थ्य व्यवस्था ने बिहार सरकार के विकास की पोल पट्टी खोल के रख दी! इस समय राशन को लेकर, रोज़गार, बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था हर चीज़ को लेकर लोगों का ग़ुस्सा सड़कों पर दिख रहा है, लेकिन अक्सर होता है यह है कि ग़ुस्से में जनता सत्तासीन पार्टी को सबक़ सिखाने के मक़सद से वोट देती है और किसी क्रान्तिकारी विकल्प के अभाव में दूसरी विपक्षी पूँजीवादी पार्टी को चुन लेती है।
नीतीश कुमार की अगुवाई में लगभग 15 वर्षों से बिहार में भाजपा-जदयू गठबंधन का शासन रहा है मगर उनके पास ‘सुशासन’ और ‘विकास’ के फ़र्ज़ी दावों के सिवा कुछ नहीं है। चुनाव के समय ग़रीबों की बातें करने वाले नीतीश कुमार ने हज़ारों किलोमीटर पैदल चलकर बिहार लौटने वाले मज़दूरों के बारे में कहा था कि उन्‍हें “बिहार में घुसने नहीं देगे!” उप मुख्‍यमंत्री सुशील मोदी 15 साल तक रोज़गार के लिए कुछ न करने के बाद बेशर्मी से कह रहे हैं कि सत्ता में लौटने पर रोज़गार की कमी नहीं रहने देंगे। एक और निर्लज्‍ज मंत्री कह रहा है कि बिहार के लोग मज़े के लिए दूसरे राज्‍यों में जाते हैं। हक़ीक़त यह है कि बिहार में बेरोज़गारी की दर देश की औसत बेरोजगारी दर से करीब दोगुनी हो चुकी है। यहाँ केन्द्र व राज्य सरकार के हज़ारों पद ख़ाली पड़े हैं। एक ओर बिजली, नगर निकाय, स्वास्थ्य व अन्य विभागों में निजीकरण बढ़ाया जा रहा है, दूसरी ओर ठेका, संविदा, मानदेय, प्रोत्साहन आदि के तहत लाखों कर्मचारियों को न्यूनतम मजदूरी से भी कम वेतन देकर 12-12 घण्‍टे काम कराया जा रहा है।
कोरोना महामारी ने यह भी दिखा दिया कि देश की सबसे घटिया स्वास्थ्य व्यवस्था बिहार में है। कोविड-19 मामलों की जाँच के मामले में भी बिहार सबसे पिछड़ा हुआ है। नीतीश कुमार यह दावा करते फिर रहे हैं कि कोविड से मृत्यु दर बिहार में सबसे कम है लेकिन सच्‍चाई यह है कि मामले दबाये जा रहे हैं। इसका अन्‍दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कोविड से डॉक्टरों की मृत्यु दर बिहार में राष्ट्रीय औसत से नौगुना है।
निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों को ज़ोर-शोर से लागू करते हुए केन्द्र में सत्तासीन भाजपा सरकार बीएसएनएल, रेल, एयर इण्डिया आदि ऐसे तमाम सरकारी संस्थानों को बेचने पर उतारू हो गई है। इसका सीधा नतीजा यह होगा कि मँहगाई बढ़ेगी जिसका असर आम मेहनतकश तबक़े से आने वाले लोगों पर सबसे ज़्यादा होगा! बेरोज़गारी का ऐसा आलम है कि नरेन्द्र मोदी के जन्म दिवस पर नौजवान बेरोज़गारी दिवस मना रहे हैं। मोदी सरकार की निजीकरण की नीतियों से रही-सही नौकरियाँ भी जा रही हैं। देश की जनता इन नीतियों के कारण पैदा होने वाली ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई के ख़िलाफ़ एकजुट और गोलबन्द ना हो पाएँ इसके लिए फ़ासीवादी मोदी सरकार और उसके पीछे खड़ा संघ परिवार देश को दंगों और युद्ध की आग में झोंकने की कोशिश में लगा है, हालाँकि फिर भी संघ परिवार और मोदी सरकार जनता के असन्तोष को शान्त करने में विफल रही है।
कांग्रेस की बात करें तो हम सभी जानते हैं कि आज जिन पूँजीपरस्त नीतियों को मोदी सरकार मुस्तैदी से लागू कर रही है, दरअसल उनकी शुरुआत कांग्रेस ने 1990 के काल में की थी। कांग्रेस ने ही तमाम सरकारी संस्थानों का निजीकरण करके उसको जनता की पहुँच से दूर करना शुरू किया था। साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर भी कांग्रेस ने हमेशा दोहरी नीति अपनायी है और कांग्रेस ने हमेशा साम्प्रदायिक फ़ासीवाद को खाद-पानी देने का ही काम किया है। कांग्रेस हमेशा से सॉफ़्ट हिन्दुत्व का कार्ड खेलते आयी है। वास्तव में कांग्रेस एक प्रतिक्रियावादी मध्य मार्गी पूँजीवादी पार्टी है और वह बड़े पूँजीपति वर्ग की ही नुमाइन्दगी करती है और उन्हीं के लिए नीतियाँ बनाती है। भाजपा कांग्रेस में फ़र्क़ बस इतना है कि कांग्रेस थोड़ी सुधारवाद की नौटंकी के साथ पूँजीपरस्त नीतियों को लागू करती है। यह दोनों ही मुख्य पार्टियां बड़ी देशी और विदेशी पूँजी के हितों की ही नुमाइन्दगी करती हैं। बेशक अलग-अलग समयों और परिस्थितियों में पूँजीपति वर्ग अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा को अपना मुख्य समर्थन देता है।
बिहार में मौजूद अन्य छोटी क्षेत्रीय पार्टियों जैसे जदयू, राजद, सपा, बसपा, वी.आई.पी. पार्टी, लोजपा, रालोसपा आदि की बात करें तो ये पार्टियाँ भी आमतौर पर मध्य जातियों व पिछड़ी जातियों या दलित जातियों से आने वाले धनी व खाते-पीते फ़ार्मर, मँझोले व बड़े उद्यमी, ठेकेदार, बिल्डर, डीलरों की नुमाइन्दगी करती हैं क्योंकि इनके भी आर्थिक संसाधन मुख्यतः इन्हीं वर्गों से आते हैं। यह सभी कॉरर्पोरेट पूँजीपति वर्ग की भी सेवा करते हैं और उनसे भी चन्दा लेते हैं। ये किसी भी रूप में मज़दूरों मेहनतकशो, ग़रीब किसानों के हित की नुमाइन्दगी नहीं करती और न कर सकती हैं।
बिहार के सन्दर्भ में हम लोग राजद के उभार को इसी रूप में देख सकते हैं और राजद के जंगल राज के शासनकाल में भी हम लोगों ने देख रखा है कि किस तरीक़े से जनता के हिस्से कुछ भी हासिल नहीं हुआ। दूसरी तरफ़ नीतीश सरकार के 15 सालों के कार्यकाल में हमने बिहार की अर्थव्यवस्था व शिक्षा व्यवस्था आदि में कोई सुधार नहीं देखा। उल्टे कोरोना काल में लोगों की आँखों पर बँधी पट्टी भी हटा चुकी है और बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था की असली तस्वीर लोगों के सामने आ गयी। उसके साथ ही लॉकडाउन के काल में बड़े स्तर पर बेरोज़गारी की हालत ने नीतीश सरकार की नाक़ामयाबी को जग-जाहिर कर दिया है ।
संसदीय वामपन्थी यानी नकली कम्युनिस्ट पार्टियाँ जैसे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माले) लिबरेशन आदि की बात करें तो इस बार के चुनाव में इन तीनों ही पार्टियों का राजद और कांग्रेस के साथ एक गठबन्धन बना है। इसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि फ़ासीवाद को परास्त करने के लिए और बीजेपी को चुनावों में हराने के लिए हमें एक ऐसे गठबन्धन की ज़रूरत है। सीट की अपनी लड़ाई और सत्ता हासिल करने की अपनी महत्वाकांक्षा और अपने अवसरवाद को छुपाने के लिए यह पार्टियाँ कुछ भी बेतुके तर्क गढ़ कर जनता को बरगलाने का काम कर रही है। जहाँ तक फ़ासीवाद को परास्त करने की बात है, तो चुनावों में भाजपा को हराने से आप फ़ासीवादी ताक़तों को परास्त नहीं कर सकते! लेकिन आज यही चुनावबाज़ संसदमार्गी नामधारी कम्युनिस्ट पार्टियाँ जमीन पर फ़ासीवादी ताक़तों को चुनौती देने के काम को तिलांजलि दे सिर्फ़ चुनावों में बीजेपी को हराकर फ़ासीवादी ताकतों का मुक़ाबला करने की बात करती हैं। लेकिन इतिहास गवाह है की चुनावों से फ़ासीवादी ताक़तों को हराया नहीं जा सकता।
ये पार्टियाँ बात तो मज़दूर वर्ग की करती हैं लेकिन वास्तव में यह सेवा छोटे मालिकों, छोटे उद्यमियों, छोटे व्यापारियों, बड़े और मझोले किसानों और मज़दूरों के एक बेहद छोटे से हिस्से यानी कि संगठित क्षेत्र में काम करने वाले पक्के कर्मचारी के वर्ग की करती हैं। साथ ही, जिन जगहों पर इनकी सरकारें सत्ता में रहीं, इन्होंने बड़े पूँजीपति वर्ग की सेवा में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। पश्चिम बंगाल में अपने भूतपूर्व सरकार के दौरान इन्होंने टाटा की नैनो कार का कारख़ाना लगवाने के लिए मज़दूरों, गरीब किसानों पर बर्बरता से हमला किया और उनके विरोध को क्रूरता से कुचला। यही काम इन नामधारी कम्युनिस्ट पार्टियों ने नंदीग्राम और सिंगूर में भी किया। लेकिन ये तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टियाँ आज मज़दूरों को मालिकों से वर्ग सहयोग करने की नसीहत देती हैं। इनके मुँह से यदि कॉर्पोरेट पूँजीपति वर्ग के खिलाफ कुछ शब्द निकलते भी हैं तो इसलिए क्योंकि यह छोटे पूँजीपति वर्ग, व्यापारी वर्ग की नुमाइन्दगी करती हैं।
भाकपा (माले) लिबरेशन भी भाकपा व माकपा के समान ही एक नकली कम्युनिस्ट पार्टी है जिसने मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी की है और इंक़लाबी रास्ते को छोड़कर संसदवादी बन चुकी है। यह भी उन्हीं वर्गों की नुमाइन्दगी करती है जिनकी भाकपा व माकपा करते हैं। बस फ़र्क़ यह है कि यह ज़्यादा गर्म जुमलों का इस्तेमाल करती है। छोटे पूँजीपति वर्ग, छोटे व्यापारी, छोटे उद्यमी, धनी व मँझौले किसान और संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों में से स्थायी कर्मचारियों के हितों की नुमाइन्दगी करने के बावजूद भी इन नामधारी संसदमार्गी कम्युनिस्ट पार्टियों को आम मज़दूर मेहनतकश वर्ग का एक हिस्सा वोट देता है, जिसका एकमात्र कारण किसी सही विकल्प का अभाव है। इसके साथ ही इन पार्टियों के सुधारवादी, अर्थवादी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन अपने मज़दूर आन्दोलन के ज़रिये मज़दूरों के एक हिस्से पर अपना प्रभाव बनाये रखते हैं, यह भी एक कारण है कि मज़दूर तबक़े का एक हिस्सा इन्हें वोट करता है।

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2020


 

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