“लव जिहाद” का झूठ संघ परिवार के दुष्प्रचार का हथियार है!
ध्वस्त अर्थव्यवस्था, लूट की खुली छूट, बढ़ती बेरोज़गारी, महँगाई और महामारी जैसे मुद्दों से ध्यान भटकाने की एक और साज़ि‍श

– अरविन्द

देश के पाँच राज्यों में तथाकथित लव जिहाद के विरोध के नाम पर क़ानून बनाने के ऐलान हो चुके हैं। जिन पाँच राज्यों में “लव जिहाद” के नाम पर क़ानून बनाने को लेकर देश की सियासत गरमायी हुई है वे हैं: उत्तरप्रदेश, हरियाणा, मध्यप्रदेश, असम और कर्नाटक। कहने की ज़रूरत नहीं है कि उपरोक्त पाँचों राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की ख़ुद की या इसके गठबन्धन से बनी सरकारें क़ायम हैं। उत्तरप्रदेश की योगी सरकार तो नया क़ानून ला भी चुकी है लेकिन इसने बड़े ही शातिराना ढंग से इसका नाम ‘उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध क़ानून – 2020’ रखा है जिसमें लव जिहाद शब्द का कोई ज़िक्र तक नहीं है। बाक़ी राज्य भी ऐसे क़ानून लाने के लिए क़दम आगे बढ़ाने वाले हैं। धोखा देकर विवाह करने, बलात्कार और ज़बरन धर्म परिवर्तन जैसे जिन अपराधों की बात करके नये क़ानून लाने की बात की जा रही है उन अपराधों के ख़िलाफ़ पहले से ही पर्याप्त क़ानूनी प्रावधान मौजूद हैं। असल में भाजपाई शासन-सत्ता की मंशा कुछ और ही है। वैसे यह सवाल उठाना भी लाज़िमी है कि स्त्री-विरोधी सड़ी हुई सोच के वाहक और स्त्री-विरोधी अपराधियों को प्रश्रय देने वाले कब से स्त्रि‍यों के मुक्तिदाता हो गये हैं!? फ़ासीवादी दुष्प्रचार किस तरह से किसी झूठ को हज़ार बार बोलकर सच में बदलता है “लव जिहाद” प्रकरण इसका सटीक उदाहरण है। इसी विषय में संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को लेकर सुप्रीम कोर्ट, इलाहाबाद हाईकोर्ट और अब दिल्ली हाईकोर्ट के फ़ैसलों और टिप्पणियों को भी सत्ताधारी फ़ासिस्ट कुछ भी नहीं समझ रहे हैं। तबलीगी जमात के ख़िलाफ़ कुत्साप्रचार और इसके अनुयायियों के दमन से लेकर डॉ. कफ़ील ख़ान तक के मामलों में न्याय व्यवस्था की तन्द्रा तब टूटी थी जब पानी सिर के काफ़ी ऊपर से गुज़र चुका था। जेलों में बन्द बहुत से निर्दोष जनवादी अधिकार कर्मियों से जुड़े मामलों में तो न्यायपालिका अभी भी कुम्भकर्ण की नींद सो रही है । “लव जिहाद” पर क़ानून के प्रकरण में भी यही हुआ है और हो रहा है। होना तो यह चाहिए कि न्यायपालिका झूठ के नाम पर नफ़रत फैलाने वालों का स्वतः संज्ञान ले चाहे वे सरकारों के मुखिया ही क्यों न हों, उन्हें तय सज़ा दे। लेकिन एक प्रक्रिया के तहत न्यायपालिका को जिस क़दर पंगु कर दिया गया है वह हमारे सामने है।
इस समय देश की अर्थव्यवस्था अपने भयंकरतम दौर से गुज़र रही है। मोदी सरकार द्वारा देश पर लादे गये नोटबन्दी जैसे कुकर्मों के बाद से अर्थव्यवस्था अभी सम्भली भी नहीं थी कि अब कोरोना महामारी के दौर की मोदी सरकार की नाकामियों ने अर्थव्यवस्था का और भी बेड़ा गर्क कर दिया है। आर्थिक संकट की सबसे बड़ी मार देश की ग़रीब जनता के ऊपर पड़ रही है। लोगों के रोज़गार पर सरकारी पाटा चल रहा है, उनके तमाम तरह के हक़ लगातार छीने जा रहे हैं, टैक्सों का पहाड़ बढ़ता जा रहा है, महँगाई कमर तोड़ रही है, युवाओं के पास रोज़गार के अवसर नहीं हैं, शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद किया जा रहा है और चिकित्सा व्यवस्था बेहाल होती जा रही है। कुल-मिलाकर जनता का जीवन नरक बना हुआ है।
दूसरी ओर देश के धन्नासेठ मन्दी के इस दौर में भी तिजोरियाँ भरने में लगे हुए हैं। ऐसा होगा भी कैसे नहीं, भाजपा के चुनावी अभियानों में पूँजीपति जमात रुपयों की बोरियों के जो मुँह खोलते हैं उस पैसे को इनके हक़ में नीतियाँ बनाकर सूद समेत लौटाना भी तो है। पूँजीपतियों की लूट जारी रह सके इसके लिए भाजपा की फ़ासीवादी सरकार जनता को बाँटने और झूठे मुद्दों पर उलझाये रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। और असल में संकट की यह स्थिति पूँजीवादी व्यवस्था के लिए कोई संकट न बन जाये इसीलिए जाति-मज़हब, मन्दिर-मस्जिद, गाय और लव जिहाद जैसे झूठे मुद्दों पर राजनीति की जाती है। जनता अपने जीवन की बर्बादी के असल कारणों को न पहचान जाये इसीलिए उसे बरगलाकर आपस में ही सिर फुटव्वल के लिए तैयार किया जा रहा है। लव जिहाद जैसा जुमला भी नफ़रत की राजनीति को बढ़ाने का एक हथियार मात्र ही है।

जाँच एजेंसियों को “लव जिहाद” जैसे संगठित षड्यंत्र का कोई भी मामला नहीं मिला

साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताक़तों के लिए मुस्लिमों के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार करने के रूप में तमाम दूसरे झूठों की तरह “लव जिहाद” भी एक ख़ास जुमला रहा है। पिछले एक दशक से भी लम्बे समय से संघ परिवार और गोदी मीडिया “लव जिहाद” का झूठ फैलाने में लगे हुए थे। लेकिन अभी तक भी इस शब्द को वैधानिक और सरकारी तौर पर मान्यता प्राप्त नहीं हुई थी। सबसे पहले 2007 के आसपास कर्नाटक और केरल में “लव जिहाद” के मुद्दे को उछाला गया था और 2009 में हिन्दू जनजागरण समिति ने इस झूठ को फैलाने के लिए संगठित प्रयास शुरू किये। 2014 के आम चुनाव से पहले 2013 में “लव जिहाद” के प्रचार का इस्तेमाल मुज़फ़्फ़रनगर में दंगे भड़काने के लिए किया और यहाँ संघ परिवार ने वोट बैंक के ध्रुवीकरण का सफल प्रयास किया। अब तक “लव जिहाद” जनता को बाँटने का एक सफल प्रयोग साबित हो चुका था।
लेकिन विभिन्न जाँच एजेंसियाँ, विशेष पुलिस जाँच दल और कई न्यायालय तक शुरू से ही “लव जिहाद” जैसे किसी संगठित षड्यंत्र के अस्तित्व को नकारते रहे हैं। केरल पुलिस के डीजीपी जैकब पुन्नोस, केरल और कर्नाटक पुलिस, उत्तरप्रदेश पुलिस की एस. आई. टी. और तो और एन. आई. ए. (नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी) जैसी सुरक्षा एजेंसी तक ने अपनी-अपनी तहक़ीक़ातों में अन्तरधार्मिक विवाहों के मद्देनज़र “लव जिहाद” जैसे किसी भी संगठित प्रयास से इन्कार किया है। 4 फ़रवरी 2020 में भाजपा सरकार के गृह मंत्रालय से जब लव जिहाद के मामलों के विषय में पूछा गया था तो गृह राज्यमंत्री जी. किशन रेड्डी का संसद में बयान आया था कि लव जिहाद की कोई क़ानूनी परिभाषा नहीं है तथा किसी भी केन्द्रीय जाँच एजेंसी ने लव जिहाद का कोई मामला नहीं पाया है। इतना सब होने के बावजूद भी अब गलियों के मज़हबी शोहदों और नफ़रती चिण्टुओं वाली भाषा संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोग सरेआम बोल रहे हैं और “लव जिहाद” जैसे कोरे झूठ को सच की तरह पेश कर रहे हैं। सम्प्रदाय विशेष के ख़िलाफ़ मिथकों को यथार्थ बनाकर पेश करना हिटलर और मुसोलिनी के समय से ही फ़ासीवादियों का प्रमुख हथियार रहा है। संघ परिवार और इसकी फ़ासीवादी छत्रछाया में विकसित हुआ भाजपाई मानस “लव जिहाद” के नाम पर दो चीज़ें एक साथ करना चाहता है। पहली, लव जिहाद के झूठ के सहारे आम जनता का ध्यान जीवन से जुड़े असली मुद्दों से भटकाना, मुस्लिमों को निशाना बनाना, उनके प्रति आम ग़रीब हिन्दुओं के दिलों में नफ़रत का ज़हर घोलना और उन्हें प्रताड़ित करके हिन्दू हितरक्षक होने की अपनी फ़र्ज़ी छवि को चमकाना। और दूसरी, अपनी स्त्री-विरोधी सोच के तहत हिन्दू महिलाओं-युवतियों की स्वतंत्र इच्छा और जीवन साथी चुनने की आज़ादी को नकारना और इनसे महरूम करके इन्हें पूरी तरह से हिन्दुत्ववाद व पितृसत्ता की मातहती में तब्दील कर देना।

कैसे होती हैं अन्तरधार्मिक शादियाँ?

“लव जिहाद” का झूठ चूँकि हिन्दू-मुस्लिम के बीच होने वाली शादियों के सन्दर्भ में फैलाया जाता है तो पहले इसी सन्दर्भ में बात करते हैं।
हिन्दू-मुस्लिम पहचान रखने वालों के बीच आमतौर पर तीन तरह से अन्तरधार्मिक शादियाँ होती रही हैं। पहली, स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत, जिसमें प्रेमी जोड़े में से किसी को भी अपना धर्म बदलने की ज़रूरत नहीं होती और कोर्ट में स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत उनकी शादी हो जाती है। इसके अलावा धार्मिक रीति रिवाज़ से भी अन्तरधार्मिक शादियाँ होती हैं । धार्मिक शादियाँ चूँकि समान धर्म वालों के बीच ही हो सकती हैं इसलिए इनमें जोड़े में से किसी एक को अपना धर्म बदलना पड़ता है। इस्लाम धर्म के रीति रिवाज़ से होने वाली शादी में युवक या युवती धर्म परिवर्तन करके इस्लाम के रीतिरिवाज़ से शादी करते हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार होने वाली शादी में प्रेमी जोड़े में से कोई एक अपना धर्म परिवर्तन करता है और आर्यसमाज या किसी हिन्दू रीति‍ से शादी होती है।
उपरोक्त तीनों ही तरह से होने वाली शादियों के हज़ारों प्रमाण आसानी से मिल जायेंगे। ये इस बात के उदाहरण होते हैं कि आम तौर पर धर्म जनता के जीवन में अपने आप में कोई ख़ास मुद्दा नहीं बनता। एक साथ रहने वाले लोग नज़दीक भी आते हैं, उनके पूर्वाग्रह भी टूटते हैं और वे रोटी-बेटी के बन्धन में भी बँधते हैं। यह बेहद सामान्य प्रक्रिया है। और इससे व्यापक जनता को कोई परेशानी भी नहीं होती। परेशानी होती है केवल कुछ कट्टरपन्थियों, फ़ासीवादियों और उनके ज़हरीले प्रचार से डसे हुए लोगों को। स्पेशल मैरिज एक्ट, जिसके तहत विवाह करने पर किसी को अपना धर्म नहीं बदलना पड़ता, लोगों को वह थोड़ा जोखिमभरा लगता है। क्योंकि इसमें समस्या यह होती है कि लड़के-लड़की को शादी के एक महीना पहले से ही अपनी पहचान और फ़ोटो कोर्ट में सार्वजनिक करने पड़ते हैं जिसके चलते संघी गुण्डा गिरोह और प्रेमी जोड़े की राय से असहमत परिजनों को उन्हें प्रताड़ित करने का मौक़ा मिलता है। कहीं-कहीं परिजनों को कोई दिक़्क़त नहीं भी होती किन्तु वहाँ भी बजरंग दल, हिन्दू महासभा और इन्हीं जैसा कोई नफ़रती गिरोह युवक-युवती की जान के पीछे लगा रहता है। आम तौर पर चारों तरफ़ के दबाव से बचने का आसान रास्ता धार्मिक रीति से विवाह करना लगता है जिसमें अग्रिम तौर पर पहचान सार्वजनिक करने की ज़रूरत नहीं पड़ती और इसके बाद कोर्ट से भी शादी को रजिस्टर करा लिया जाता है।
टीना डाबी-अतहर ख़ान, करीना कपूर-सैफ़ अली ख़ान और न जाने कितने पहुँच वाले लोग तक जब “लव जिहाद” के आरोपों से नहीं बच पाये तो फिर साधनहीन लोगों की तो बिसात ही क्या है। ऐसे सैकड़ों मामले मिल जायेंगे जब अन्तरधार्मिक विवाह करने के या साथ रहने के इच्छुक प्रेमी युगलों को मौत के घाट उतार दिया गया। अब यदि तथाकथित लव जिहाद के नाम पर हरेक अन्तरधार्मिक विवाह में स्थानीय प्रशासन को पहचान के साथ अर्ज़ी देना लाज़िमी बना दिया जायेगा तो प्रेमी जोड़े की पहचान सार्वजनिक होने का ख़तरा और भी बढ़ जायेगा। जैसा कि उत्तरप्रदेश के नये बने क़ानून के तहत दो महीने पहले स्थानीय प्रशासन को सूचित करना होगा तथा शादी के लिए धर्मान्तरण साबित होने पर ग़ैरज़मानती धाराओं के तहत 10 साल तक की क़ैद का प्रावधान होगा। कुल-मिलाकर अब जीवनसाथी चुनने के हक़ को कुचलना और भी आसान हो जायेगा और तथाकथित लव जिहाद के नाम पर बने क़ानून के तहत किसी को भी निशाने पर लेना शासन-सत्ता और फ़ासीवादी-साम्प्रदायिक गिरोहों के रहमोकरम पर होगा।

“लव जिहाद” का जुमला अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने और जनता को बाँटने की साज़ि‍श का हिस्सा है

सच्चे मायने में लोकतांत्रिक और जनवादी राज्यसत्ता अपने सभी नागरिकों को बराबरी का दर्जा देती है। यह अन्तरजातीय व अन्तरधार्मिक विवाहों को प्रोत्साहन देती है तथा इसके मार्ग में रुकावट बनने वाले लम्पट तत्त्वों को दण्डित करती है। लेकिन भारत में इसका उल्टा हो रहा है। कहने को हमारा देश एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र है। धर्मनिरपेक्षता का असल मतलब होता है धर्म का राजनीति और सामाजिक जीवन से पूर्ण विलगाव लेकिन हमारे यहाँ सामाजिक जीवन को नरक बनाने के लिए धर्म का राजनीति में खुलकर इस्तेमाल होता आया है। फ़ासीवादी मोदी सरकार के राज में तो साम्प्रदायिक-फ़ासीवादी ज़हरख़ुरानी गिरोह को नफ़रत फैलाने और क़ानून हाथ में लेकर लिंचिंग करने का खुला लाइसेंस ही मिल गया है। एक आँकड़े के अनुसार देश में औसतन तक़रीबन 5.8 प्रतिशत अन्तरजातीय तो केवल 2.2 प्रतिशत अन्तरधार्मिक विवाह होते हैं। ऐसे में सोचा जा सकता है कि भाजपा और संघ परिवार इसके नाम पर वितण्डा खड़ा करके लोगों को मूर्ख ही बना रहे हैं। “लव जिहाद” के नाम पर लाये जाने वाले क़ानून न केवल अन्तरधार्मिक विवाहों को हतोत्साहित करेंगे बल्कि फ़ासीवादी गुण्डा गिरोह के सामने शिकार के माफ़िक़ प्रेमी जोड़ों को फेंकने का काम भी करेंगे। इसलिए हर जनवादी और धर्मनिरपेक्ष इन्सान को फ़ासीवादी सरकार के ऐसे किसी भी षड्यंत्र का विरोध करना चाहिए जो हमारे रहे-सहे जनवादी अधिकारों में सेंध लगाता हो।

“लव जिहाद” के नाम पर ज़हरख़ुरानी गिरोह की फ़ासीवादी साज़ि‍श को नाकाम करो!

“लव जिहाद” के झूठ पर टिका कोई भी क़ानून न सिर्फ़ साम्प्रदायिक नफ़रत को बढ़ावा देने वाला होगा बल्कि यह सम्प्रदाय विशेष के ख़िलाफ़ दमन के एक हथियार के समान होगा। तथाकथित लव जिहाद के नाम पर बनने वाला यह क़ानून स्त्रियों के जीवन साथी चुनने की आज़ादी के ऊपर भी हमला होगा। यही नहीं इस तरह का कोई भी क़ानून देश के संविधान द्वारा प्रदत्त हमारे सीमित जनवादी हक़ों पर भी हमला होगा। संविधान में मौजूद सीमित जनवादी हक़ों की सुरक्षा करते हुए संविधान को अधिकाधिक जनवादी बनाये जाने की लड़ाई भी हमें जुझारू तरीक़े से लड़नी होगी।
तथाकथित लव जिहाद के नाम पर बनने वाले किसी भी क़ानून का आम जनता को पुरज़ोर विरोध करना चाहिए। इस बात की माँग की जानी चाहिए कि “लव जिहाद” जैसे जुमले उछालकर साम्प्रदायिक नफ़रत फैलाने वालों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिले। धर्म को राजनीतिक और सामाजिक जीवन से अलग करके इसे व्यक्तिगत जीवन का मसला बनाया जाना चाहिए। दो व्यक्तियों को चाहे वे किसी भी जाति-मज़हब के हों अपने जीवन का फ़ैसला करने का पूरा-पूरा अधिकार मिलना चाहिए। देश के युवाओं और आम जनता का यह फ़र्ज़ है कि झूठ और नफ़रत पर टिके “लव जिहाद” के नाम पर चलने वाले जैसे घृणित अभियान को सिरे से ख़ारिज करें।
अन्त में, महान जर्मन कवि बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की ये पंक्तियाँ कभी भूलनी नहीं चाहिए:

जिन्होंने नफ़रत फैलायी, क़त्ल किये
और ख़ुद ख़त्म हो गये,
नफ़रत से याद किये जाते हैं।
जिन्होंने मुहब्बत का सबक़ दिया
और क़दम बढ़ाये,
वो ज़ि‍न्दा हैं,
मुहब्बत से याद किये जाते हैं।
जिन्होंने सही वक़्त का इन्तज़ार किया
और शक करते रहे,
वे आख़िर तक हाथ पर हाथ धरे
बैठे थे,
शक के कमज़ोर किलों में क़ातिलों
का इन्तज़ार
उनकी क़िस्मत बन गया।
रास्ते अलग-अलग और साफ़ हैं।
तुम्हें चुनना होगा
नफ़रत, शक और मुहब्बत के बीच।
तुम्हारी आवाज़ बुलन्द और साफ़ होनी चाहिए,
और क़दम सही दिशा में।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2020


 

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