भारत में कोरोना की दूसरी लहर, टीकाकरण के हवाई किले और मोदी सरकार की शगूफ़ेबाज़ी

– मीनाक्षी

आज भारत भी कोरोना की दूसरी लहर के चपेट में है और इस बार भी बिना कोई पुख़्ता इन्तज़ाम किये आंशिक या पूर्ण लॉकडाउन लगाये जाने की क़वायदें शुरू हो गयी हैं। हालाँकि सरकार इस बात से क़तई अनजान नहीं रही है कि इस दूसरी लहर की सम्भावना थी। इस मामले में एक तो दुनिया के अन्य देशों के उदाहरण सामने थे, जहाँ संक्रमण घटने के बाद एकाएक दुबारा तेज़ी से फैला था। अमेरिका में भी कोरोना से संक्रमित लोगों की संख्या शीर्ष पर पहुँचने के बाद उसमें कमी आने लगी थी, पर कुछ समय बाद ही वहाँ फिर से रोज़ 80 हज़ार से ऊपर मामले आने लगे। इंग्लैण्ड व फ़्रांस में भी दूसरी लहर पहले से भी अधिक तेज़ी के साथ आयी थी। कुछ और देशों में भी कोरोना का यही व्यवहार देखा गया। परन्तु देश का प्रधानमंत्री इस संकट से पहले की ही तरह बेख़बर रहा। पहली लहर के समय भी यह प्रधानसेवक शुतुरमुर्ग़ की तरह रेत में सिर धँसाये पड़ा रहा और ग़ुबार के उड़ जाने का इन्तज़ार करता रहा।
बात सिर्फ़ यही नहीं है कि कई देशों में कोरोना के दुबारा बढ़ने के आँकड़े सामने आ चुके थे, ख़ुद भारत में ही स्वास्थ्य महकमे से जुड़े लोगों ने भी इस प्रकार का अन्देशा पहले ही जता दिया था। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के निदेशक सन्दीप गुलेरिया ने मई में ही यह चेतावनी दे दी थी कि कोरोना की दूसरी लहर आ सकती है। इन सबके बाद भी हमारे प्रधानसेवक, जो अपनी छवि चमकाने और अपने काग़ज़ी कामों का ढिंढ़ोरा पीटने में करोड़ों-करोड़ रुपये पानी की तरह बहा देते हैं, ने न तो लोगों को इस ख़तरे से पहले ही आगाह करने की ज़रूरत समझी और न ही उनकी सुरक्षा के लिए वास्तव में कोई ठोस क़दम उठाने के बारे में कुछ सोचा। उल्टे भाजपाई स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने कोरोना फैलने की वजह मास्क पहनने और दूरी बनाये रखने में लापरवाही बरतना बताया और इसके लिए आम लोगों को ही ज़िम्मेदार ठहरा दिया। जैसेकि आम लोग दूरी बनाये रखना ही नहीं चाहते, मानो छ: फीट दूरी के नियम का पालन करना इनके लिए मुमकिन रहा हो। यह सरकार ही अगर कारख़ानों और खेतों के मालिकों को काम की जगहों पर मज़दूरों के लिए मास्क और छ: फीट दूरी रखने के लिए क़ानून बाध्य नहीं कर सकती, न मानने वालों पर दण्डनीय अपराध की धारा नहीं लगा सकती, तो देश की बहुसंख्यक आबादी के लिए भला छ: फ़ीट की दूरी बनाये रखना कैसे मुमकिन हो सकता था। यह आबादी वही आबादी है, जो रोज़ी रोटी कमाने की ख़ातिर कारख़ानों में हाड़ गलाती है, पटरी पर ठेला-रेहड़ी लगाती है, खेतों में मज़दूरी करती है, सड़कों पर रिक्शा खींचती है। ज़ाहिर है कि ऐसी निकम्मी सरकार के पास इससे बेहतर तरीक़ा क्या हो सकता है कि वह अपनी नाकामियों का ठीकरा जनता के सिर फोड़े। एक दूसरा बेहतर और कामयाब तरीक़ा यह भी था कि ऐसे मौक़ों पर ख़ुद मोदी जी ही जनता को बरगलाने के लिए अपनी लच्छेदार भाषा और सन्तई हुलिये के साथ अवतरित होते रहें। और यही हुआ भी। यह भूलना नहीं चाहिए कि संक्रमण के पहले दौर में भी मोदी ने शुरू से ही लोगों को धोखे में रखा था, कोरोना से लड़ाई की तुलना महाभारत के युद्ध से की थी और 21 दिनों तक चले महाभारत युद्ध की तरह कोरोना की अवधि भी 21 दिन तक ही सीमित रहने की किसी नजूमी की तरह भविष्यवाणी भी की थी। साफ़ है, ‘महात्मा’ मोदी के पास कोरोना से निपटने की कोई योजना नहीं थी, सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस पाखण्डी सरकार ने इसकी कोई ज़रूरत ही नहीं समझी। लिहाज़ा बिना किसी तैयारी के आनन-फ़ानन में लॉकडाउन लगा दिया गया। नतीजा सामने था। पीपीई किट और सुरक्षात्मक उपाय के बिना बहुतेरे डाक्टर और स्वास्थ्यकर्मी मौत के जबड़ों में समा रहे थे, सड़कों पर मज़दूर जान गँवा रहे थे, नौकरीपेशा नौजवान रोज़गार खो रहे थे, एक बड़ी आबादी को खाने के लाले पड़े हुए थे। लेकिन उस पूरे दरमियान सरकार निहायत बेशर्मी के साथ हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। मोदी की बसिया भात जैसी बेस्वाद ‘मन की बात’ और थोथी बयानबाज़ियों का सिलसिला चलता रहा।
इस महामारी के सामने मोदी सरकार ने भले ही आम मेहनतकश जनता को निहत्था छोड़ दिया हो पर आपदा को अवसर में बदलने के एजेण्डे पर वह लगातार काम करती रही। अपने पूँजीपति यारों के क़र्ज़े माफ़ किये, सरकारी सेक्टरों को निजी मालिकों के हाथों बेचा, मज़दूर-विरोधी श्रम क़ानून पारित किये, विपक्षी सरकारों को गिराने का काम किया, अपने फ़ासीवादी एजेण्डे के विरोधियों को जेल में ठूँसा। यह फ़ेहरिस्त लम्बी है।
संक्रमण के इस दूसरे दौर में भी, जबकि संक्रमण तेज़ी से अपने पाँव पसार रहा है और ख़ुद सरकारी आँकड़ों के अनुसार लगभग चालीस हज़ार से ज़्यादा लोग रोज़ संक्रमित हो रहे हैं, सरकार के पास पहले दौर की ही तरह कोई ठोस योजना नहीं है। अकेले दिल्ली में ही रोज़ लगभग पाँच हज़ार मामले सामने आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश सहित आठ राज्यों में संक्रमण की रफ़्तार तेज़ी से बढ़ी है। लखनऊ में यह 31 प्रतिशत बढ़ चुका है जबकि ठीक होने की दर में (रिकवरी रेट) 33 प्रतिशत की कमी आयी है। पर सरकार है कि पुराने मोड में चल रही है यानी वही कोरी बयानबाज़ी, आपदा को अवसर में बदलने की वही उठापटक और ऐसा अवसर ढूँढ़ते रहने का वही पुराना जतन।
यह भी संयोग ही रहा कि जब बिहार चुनाव का माहौल बन रहा था उसके पहले कुछ फ़ार्मा कम्पनियाँ टीके के तीसरे चरण का परीक्षण कर रही थीं। तब विशेषज्ञों ने यह सम्भावना जतायी थी कि 2021 के शुरुआती महीनों में टीके की सीमित ख़ुराकें उपलब्ध हो सकती हैं। मोदी की भाजपाई सरकार ने टीकाकरण की इस सम्भावना को लपक लिया, और बिहार में जब चुनावी प्रचार शुरू हुआ, तो मानो बिल्ली के भाग्य से छींका फूटा। चुनावी सभाओं में भाजपाई नेताओं ने अपने सार्वजनिक मंचों से बिहारी जनता को प्राथमिकता में टीका उपलब्ध कराने का ऐलान किया। देखा जाये तो मोदी के नेतृत्ववाली भाजपा सरकार की ज़िम्मेदारी पूरे देश की जनता के प्रति है लेकिन अपनी पार्टी के टुच्चे फ़ायदे के लिए भाजपाइयों ने टीकाकरण को महज़ एक चुनावी हथकण्डा बना डाला था। समझा जा सकता है कि इस महामारी को लेकर मोदी और उनके सिपाहसालार वास्तव में कितने गम्भीर हैं।
इधर एक दिलचस्प बात हुई है। मोदी जी कोरोना टीके को लेकर काफ़ी व्यस्त नज़र आ रहे हैं। पिछले दिनों उन्होंने पुणे के सीरम इंस्टीच्यूट ऑफ़ इण्डिया, हैदराबाद के भारत बायोटेक फ़ैसिलिटी और अहमदाबाद के ज़ाइडस बायोटेक पार्क का दौरा किया। टीकों के परीक्षण में लगे इन तीन संस्थानों को वे राय मशविरा देने गये थे। ऐसा ख़ुद उन संस्थानों के मुख्य अधिकारियों का कहना है। लोगों तक यह महत्वपूर्ण सूचना पहुँचने में कहीं कोई कमी न रह जाये इसलिए मोदी ने इस ख़बर को फ़ोटो सहित ट्वीट भी कर दिया। ज़ाहिर है मीडिया में इसका ख़ूब प्रचार हुआ और टीके को लेकर मोदी जी के सरोकार से बहुतेरे लोग प्रभावित भी हुए। परन्तु असलियत क्या है इसकी पड़ताल भी ज़रूरी है। यहाँ सबसे अहम सवाल तो यही उठता है कि टीके की शुरूआती ख़ुराकें यदि जल्दी आ भी जायें तो मोदी सरकार के पास उसे लोगों तक पहुँचाने की क्या ठोस योजना है! इतने बड़े पैमाने पर टीकाकरण के लिए क्या ज़रूरी ढाँचे को तैयार कर लिया गया है? यह बात तो बिल्कुल आइने की तरह साफ़ है कि कोरोना से संक्रमित लगभग 1 करोड़ लोगों तक सिर्फ़ इसलिए नहीं पहुँचा जा सका था क्योंकि सरकार के पास संसाधनों और स्वास्थ्यकर्मियों की बेहद कमी रही। डॉक्टरों की संख्या भी ज़रूरत से काफ़ी कम है। इस कमी को सरकारी स्तर पर दूर करने का कोई प्रयास तो अबतक कहीं नज़र नहीं आता। अब ऐसी स्थिति में अगर टीकाकरण के लिए एक अरब तीस करोड़ आबादी तक पहुँचना है तो सरकार इसके लिए कौन सा उपाय अपनायेगी, यह जानना कम दिलचस्प न होगा। जब पोलियो का टीका जिसे सिर्फ़ बच्चों तक ही पहुँचाना था, उसे पूरा करने में कई वर्ष लग गये थे तो सोचा जा सकता है कि सीमित संसाधनों के साथ कोरोना के टीकों को पूरी आबादी तक पहुँचाने में दसियों वर्ष लग जायेंगे, शायद इससे भी ज़्यादा, और तब तक बाक़ी लोगों के सिर पर मौत का साया मँडराता रहेगा।
इसके अलावा सरकार को टीकाकरण के पहले टीकों को -70 डिग्री तापमान पर रखने की देशव्यापी व्यवस्था करनी होगी। अभी तक होनेवाली बीमारियों के टीकों के लिए -30 डिग्री तक का तापमान काफ़ी था। दूसरे, कोरोना के टीके चूँकि विशेष प्रकार के टीके हैं, इसलिए डाक्टरों को विशेष रूप से प्रशिक्षित करने की ज़रूरत पड़ेगी। परन्तु इस नज़रिये से अभी तक न तो नयी नियुक्तियाँ हुई हैं, न मौजूदा चिकित्साकर्मियों के लिए किसी प्रकार का प्रशिक्षण शुरू किया गया है और न ही टीकों को कम तापमान पर रखने लायक़ कोई चेन तैयार होता दिख रहा है। कुल मिलाकर टीकाकरण के लिए व्यापक पैमाने पर जिस बुनियादी ढाँचे की ज़रूरत है वह कहीं तैयार होता नहीं दिख रहा। यह साफ़ है कि मोदी और उनके लग्गुओं-भग्गुओं को आम जनता की परवाह नहीं, वह केवल लन्तरानी हाँककर जनता को गुमराह करने में माहिर हैं। ज़रूरत हुई तो मौन रह कर भी वह धोखे की टट्टी खड़ी करने में उस्तादी दिखा सकते हैं। जैसेकि टीके की ख़ुराकों के लिए क़ीमत कौन चुकायेगा, सरकार या आम जनता? इस सवाल पर बड़े शातिराना ढंग से मोदी सरकार ने चुप्पी साध रखी है। अब इसमें कोई सन्देह नहीं कि जिस तरह मोदी सरकार ने कोरोना के पहले हमले के समय ताली-थाली बजवाकर लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया था, उसी तरह इस दूसरी लहर में भी लोगों को और टीकाकरण की तैयारियों को राम-भरोसे छोड़कर वह किसी और शगूफ़ेबाज़ी में लग जायेगी।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2020


 

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