मौजूदा किसान आन्दोलन और लाभकारी मूल्य का सवाल
कुछ बुनियादी बातें और कुछ ग़लत दावों का खण्डन

– अभिनव

किसान आन्दोलन को चलते हुए अब क़रीब डेढ़ महीना बीत चुका है। हज़ारों किसान दिल्ली के बॉर्डरों पर इकट्ठा हैं। हम मज़दूरों और मेहनतकशों को जानना चाहिए कि इस आन्दोलन की माँगें क्या हैं। केवल तभी हम यह तय कर सकते हैं कि हमारा इसके प्रति क्या रवैया हो। हम मज़दूरों और मेहनतकशों के लिए सरकार के उन तीन कृषि क़ानूनों का क्या अर्थ है, जिनके ख़िलाफ़ यह आन्दोलन जारी है? हमारे लिए यह समझना भी ज़रूरी है, क्योंकि तभी हम इन तीन क़ानूनों को अलग-अलग समझ सकते हैं और आन्दोलन के प्रति अपना रुख़ तय कर सकते हैं।
अपनी राजनीतिक चेतना और समझ बनाने के लिए और समाज में जारी वर्ग संघर्ष में अपनी स्वतंत्र अवस्थिति बनाने के लिए अनिवार्य है कि मज़दूर वर्ग हर मसले पर अपनी वर्गीय सोच के साथ और अपने मित्र वर्गों के वर्ग हितों के अनुसार एक ठोस राय बनाये। ये बहुत ही अहम सवाल हैं जिनसे हम अलग-थलग नहीं रह सकते हैं। लेकिन इन्हें समझने के लिए हमें कुछ बेहद बुनियादी बातों के साथ शुरुआत करनी चाहिए।

1. किसान कौन है?

यह सबसे पहला बुनियादी सवाल है। जब हमारे देश में सामन्ती जागीरदारी की व्यवस्था हावी थी, तब हर प्रकार और हर आकार के किसान का एक साझा दुश्मन था। खेतिहर मज़दूरों व बँधुआ मज़दूरों का भी वही साझा दुश्मन था। यह दुश्मन था सामन्ती ज़मीन्दार। सामन्ती ज़मीन्दार कौन होता है? सामन्ती ज़मीन्दार वह ज़मीन्दार होता था, जो कि आम किसान आबादी से लगान वसूल करता था, गाँव में उसके पास सरकार जैसी शक्ति होती थी, वह सिर्फ़़ आर्थिक तौर पर नहीं लूटता, बल्कि उसकी आर्थिक लूट टिकी ही उसके राजनीतिक दबदबे और चौधराहट पर होती थी। वह अपनी ऐयाशी और ऐशो-आराम के मुताबिक़ कितना भी लगान वसूलता था। वह अपनी ज़मीन पर बाज़ार के लिए और मुनाफ़े के लिए खेती नहीं करवाता था, बल्कि वह पूरी तरह से किसानों से वसूले जाने वाले लगान पर निर्भर करता था।
यह सामन्ती ज़मीन्दार धनी किसान, मँझोले किसान, ग़रीब किसान व काश्तकार, और खेतिहर मज़दूर सबको लूटता और दबाता था और इन सभी का साझा दुश्मन था।
आज़ादी के बाद कहने के लिए ज़मीन्दारी उन्मूलन क़ानून बना। लेकिन इसे कुछ बेहतर तरीके़ से जम्मू-कश्मीर और केरल में ही लागू किया गया; बाक़ी राज्यों में इसे बहुत ही गये-बीते ढंग से लागू किया गया और कुछ राज्यों में तो नाममात्र ही लागू किया गया। लेकिन खेती को पूँजीवादी रूप में ढालना भारत के नये हुक़्मरानों, यानी नये औद्योगिक पूँजीपति वर्ग के लिए ज़रूरी था। नतीजतन, उनकी नुमाइन्दगी करने वाली नयी सरकार ने इन सामन्ती ज़मीन्दारों को ही पूँजीवादी भूस्वामी में तब्दील होने का मौक़ा दिया।
पूँजीवादी भूस्वामी कौन होता है? पूँजीवादी भूस्वामी वह होता है, जो पूँजीवादी लगान वसूलता है। पूँजीवादी लगान क्या होता है? इस लगान को पूँजीवादी भूस्वामी अपने मन-मुआफ़िक़ नहीं तय कर सकता है। फिर यह लगान किस प्रकार तय होता है? पूँजीवादी लगान तीन कारकों से तय होता है: पूरी अर्थव्यवस्था में मुनाफ़े की औसत दर, अलग-अलग ज़मीन के प्लाटों की उत्पादकता और मुनाफ़े की दर और खेती का एक ऐसे संसाधन पर निर्भर करना, जो कि कुदरती संसाधन है और सीमित है: यानी ज़मीन। ज़मीन किसी ने बनायी नहीं है। यह कुदरती संसाधन है। लेकिन यह सीमित मात्रा में है और यह पूँजीवादी भूस्वामियों के एक वर्ग की सम्पत्ति है। जैसे-जैसे भोजन व खेती के उत्पादों की माँग बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे कम उपजाऊ ज़मीन पर भी खेती ज़रूरी होती जाती है। खेती के इन उत्पादों की माँग यह तय करती है कि सबसे ख़राब ज़मीन पर खेती करने वाले पूँजीवादी फ़ार्मर को भी औसत मुनाफ़े से अधिक मुनाफ़ा हो, वरना वह पूँजीवादी भूस्वामी से ज़मीन किराये पर लेकर खेती क्यों करेगा? अगर उसे औसत मुनाफ़ा ही मिल रहा है, और उसे उसमें से ज़मीन का किराया/लगान निकालकर पूँजीवादी भूस्वामी को देना है, तो वह अपनी पूँजी अर्थव्यवस्था में कहीं और लगायेगा, जहाँ उसे औसत मुनाफ़े की दर हासिल हो सके। इसलिए खेती में उत्पाद की क़ीमत सबसे ख़राब ज़मीन और सबसे ख़राब उत्पादन की स्थितियों से तय होती है और ख़राब से ख़राब ज़मीन को कुछ अतिरिक्त मुनाफ़ा तभी मिल सकता है, जबकि खेती में पैदा हो रहा समूचा मूल्य (यानी, वस्तुकृत श्रम या उत्पाद का रूप ले चुका श्रम) खेती के क्षेत्र में ही रहे, जो कि आम तौर पर अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में मिल रहे औसत मुनाफ़े से ऊँचा ही होता है क्योंकि दूसरे क्षेत्रों में खेती के मुक़ाबले मशीनें ज़्यादा होती हैं और प्रति मशीन मज़दूर कम होते हैं। नतीजतन, खेती में श्रम भी ज़्यादा सघन होता है और मूल्य भी ज़्यादा पैदा होता है। (क्योंकि मूल्य का स्रोत मज़दूर का श्रम ही होता है।)
लुब्बेलुबाब यह कि पूँजीवादी भूस्वामी भी अगर इतना लगान माँगता है कि पूँजीवादी फ़ार्मर के पास औसत मुनाफ़े जितना भी न बचे तो पूँजीवादी फ़ार्मर अपनी पूँजी को किसी और क्षेत्र में लगाना पसन्द करेगा; और अगर पूँजीवादी फ़ार्मर खेती में पूरी अर्थव्यवस्था के औसत मुनाफ़े के ऊपर मिल रहे ‘अतिरिक्त मुनाफ़े’ को लगान या किराये के रूप में पूँजीवादी भूस्वामी के हवाले नहीं करता, तो पूँजीवादी भूस्वामी अपनी ज़मीन किराये पर पूँजीवादी फ़ार्मर को देगा ही नहीं। खाद्यान्न व अन्य कृषि उत्पादों की बढ़ती माँग और ज़मीन की सीमित मात्रा यह सुनिश्चित करती है कि पूँजीवादी फ़ार्मर ज़मीन किराये पर ले, औसत मुनाफ़ा अपने पास रखे और ‘अतिरिक्त मुनाफ़ा’ लगान के रूप में पूँजीवादी भूस्वामी के हवाले करे। यानी कि पूँजीवादी भूस्वामी मनमाना लगान नहीं ले सकता है और यह लगान बाज़ार के लिए उत्पादन, औसत मुनाफ़े की दर, खेती में उत्पादकता आदि कारकों से तय होता है। जहाँ पर पूँजीवादी फ़ार्मर ही स्वयं ज़मीन का मालिक होता है, वहाँ यह ‘अतिरिक्त मुनाफ़ा’ लगान के रूप में किसी पूँजीवादी भूस्वामी के पास नहीं जाता है, बल्कि उसकी जेब में जाता है। बहरहाल, यह होता है पूँजीवादी लगान, जो कि सामन्ती लगान से भिन्न होता है। जब एक बार पूँजीवादी लगान खेती में पैदा हो जाता है, तो खेती में उत्पादन सम्बन्धों का चरित्र मूलत: और मुख्यत: पूँजीवादी बन जाता है और यह हमारे देश में कई दशकों पहले हो चुका है। जब पूँजीवाद का विकास हो जाता है, तो खेती में भी बड़ी पूँजी छोटी पूँजी को निगलती है, खेतिहर मज़दूरों का शोषण करती है, उनके द्वारा पैदा बेशी मूल्य को मुनाफ़े के लिए हड़पती है।
पूँजीवादी फ़ार्मर (धनी किसान) कौन होता है? पूँजीवादी फ़ार्मर वह होता है जो कि पूँजी का निवेश कर खेती के उपकरणों, मशीनों, कच्चे माल आदि को ख़रीदता है, मज़दूरों की श्रमशक्ति को ख़रीदता है और बाज़ार के लिए उत्पादन करवाता है। मज़दूरों द्वारा पैदा बेशी मूल्य को वह मुनाफ़े के रूप में अपनी जेब के हवाले करता है, उसके एक हिस्से का उपभोग करता है और मुनाफ़े और बाज़ार की स्थितियाँ अच्छी होने पर उसे खेती में ही वापस लगाता है, या अन्य किसी क्षेत्र में निवेश कर देता है। अगर उसने ज़मीन किसी पूँजीवादी भूस्वामी से किराये पर ली है, तो वह खेती में औसत मुनाफ़े के ऊपर मिलने वाले बेशी मुनाफ़े को पूँजीवादी भूस्वामी को लगान के रूप में देता है और अगर ज़मीन उसकी अपनी होती है, तो यह बेशी मुनाफ़ा भी उसकी जेब में जाता है। जिन्हें हम भारत में धनी किसान वर्ग और उच्च मध्यम किसान वर्ग कहते हैं, वह यही पूँजीवादी कुलक-फ़ार्मर है, जो कि पूँजी निवेश करता है, मशीनें व कच्चे माल ख़रीदता है, मज़दूरों को काम पर रखता है, और मुनाफ़ा कमाता है। यह आम तौर पर वे किसान हैं, जिनके पास 4 हेक्टेयर (लगभग 10 एकड़) या उससे अधिक ज़मीन है। हालाँकि देश के अलग-अलग राज्यों की स्थितियों में कुछ अन्तर भी है, लेकिन देश के पैमाने पर फ़िलहाल इस औसत से काम चलाया जा सकता है।
इसके बाद, ऐसे किसानों का वर्ग आता है जिनके पास इतनी पूँजी (और अक्सर इतनी ज़मीन भी) नहीं होती कि वे मज़दूरों को काम पर रखें, बड़े पैमाने पर यंत्र, उपकरण, उन्नत बीज, खाद और दूसरी ज़रूरी चीज़ें ख़रीदें। वे कभी-कभी ही दो-चार मज़दूर काम पर रखते हैं और आम तौर पर अपने और अपने पारिवारिक श्रम से खेती करते हैं। इनके पास, अपनी ज़रूरतों के बाद बहुत ज़्यादा उपज नहीं बचती और वह कुछ ही उपज सरकारी मण्डियों में बेच पाते हैं। अक्सर वे स्थानीय धनी किसानों, आढ़तियों, बिचौलियों को ही ये उपज कम दामों में बेच देते हैं क्योंकि उनके पास इस उपज को भण्डारित करने की सुविधा भी नहीं होती और वे भुगतान के लिए लम्बा इन्तज़ार नहीं कर सकते। चूँकि यह किसान दस में से नौ मामलों में धनी किसानों, कुलकों, सूदख़ोरों, आढ़तियों आदि (जो कि अक्सर एक ही व्यक्ति होता है) के क़र्ज़ तले दबा होता है और दर्जनों प्रकार के आर्थिक बन्धनों के ज़रिये उन पर निर्भर होता है। इसलिए कम दाम पर अपनी अतिरिक्त उपज इन धनी किसानों-कुलकों के हवाले करना इनकी मजबूरी होती है।
किसानों के इस हिस्से को हम निम्न-मँझोला किसान वर्ग कहते हैं। ये किसान अक्सर धनी किसानों-कुलकों के लिए ठेका खेती भी करते हैं। इस व्यवस्था में एमएसपी से नीचे तय किये गये दाम पर ये धनी किसानों-कुलकों के लिए धान या गेहूँ उगाते हैं और उन्हें बेचते हैं। कई बार ये ज़मीन भी इन्हीं धनी किसानों-कुलकों से किराये पर लेते हैं, दस में से नौ मामलों में खेती के लिए चालू पूँजी (जिसकी ज़रूरत किसान को खेती के लिए पड़ती ही रहती है) भी सूद पर इन निम्न-मँझोले किसानों को कुलकों-धनी किसानों से ही मिलती है और फिर अन्त में अपनी उपज को एमएसपी (और बाज़ार दर) से कम दाम पर ये इन्हीं धनी किसानों-कुलकों को बेचते हैं। यानी कि निम्न-मँझोले किसान को ये धनी किसान-कुलक पूँजीवादी भूस्वामी के रूप में लगान लेकर, सूदख़ोर के रूप में ब्याज लेकर, पूँजीवादी फ़ार्मर के रूप में मुनाफ़ा लेकर और साथ ही आढ़ती-बिचौलिये के रूप में कमीशन (व्यापारिक मुनाफ़ा) लेकर लूटते हैं। इन निम्न-मँझोले मालिक किसानों व काश्तकारों, दोनों के पास इतना भी नहीं बचता कि वे अपने घर का नियमित ख़र्च चला सकें। नतीजतन, इन्हीं के घरों से लोग प्रवासी मज़दूर बनकर दूसरे गाँवों में या शहरों में जाते हैं, ताकि घर की अर्थव्यवस्था चल सके। इन निम्न-मँझोले किसानों को पंजाब और हरियाणा में सरकारी मण्डियों तक काफ़ी हद तक पहुँच हासिल है, क्योंकि वहाँ सरकारी मण्डियों का नेटवर्क बाक़ी देश से कहीं बेहतर है। लेकिन इन निम्न-मँझोले किसानों को एमएसपी से कोई फ़ायदा नहीं बल्कि नुक़सान होता है क्योंकि उनके पास बेचने योग्य उपज की मात्रा बहुत बड़ी नहीं होती है और साल भर में वे जितना अनाज एमएसपी पर बेचते हैं, उससे ज़्यादा ख़रीदते हैं। मध्यप्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना व केरल में भी कुछ निम्न-मँझोले किसानों की एमएसपी तक पहुँच है, लेकिन पंजाब व हरियाणा के मुक़ाबले कम। और बाक़ी राज्यों में तो एमएसपी और सरकारी मण्डियों तक उनकी पहुँच नगण्य है। लेकिन जिन मामलों में उनकी एमएसपी व सरकारी मण्डियों तक पहुँच है भी, वहाँ भी एमएसपी का उन्हें नुक़सान ज़्यादा होता है, क्योंकि वे मुख्य रूप से खेती के उत्पादों के ख़रीदार हैं, विक्रेता नहीं।
इसके बाद उन किसानों का वर्ग आता है जिन्हें हम सीमान्त व छोटा किसान, या सीधे ग़रीब किसान व अर्द्धसर्वहारा कह सकते हैं। यह वह किसान है जो कभी उजरती श्रम का शोषण नहीं करता है, बल्कि अपने और अपने पारिवारिक श्रम से ही खेती करता है और उससे उसकी बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं होती हैं। ऐसे किसान देश की कुल किसान आबादी का 92 प्रतिशत हैं। उनके पास 2 हेक्टेयर से भी कम ज़मीन है और अपनी खेती ही नहीं बल्कि रोज़ाना की घरेलू ज़रूरतों के लिए भी ये क़र्ज़ लेने को मजबूर होते हैं। ये चाहें तो भी कभी एमएसपी का फ़ायदा नहीं उठा सकते हैं। इनकी पारिवारिक आय का केवल 15 प्रतिशत खेती से आता है। अब आप स्वयं ही समझ लें कि ये कितना उत्पाद कहीं भी बेच पाते हैं, सरकारी मण्डी तो दूर की बात है। इनकी गृहस्थी मूलत: मज़दूरी से चलती है क्योंकि इनकी पारिवारिक आय का 85 फ़ीसदी मज़दूरी से ही आता है। ये ग़रीब और सीमान्त किसान पूँजीवादी फ़ार्मरों व ज़मीन्दारों द्वारा ही शोषित होते हैं और गाँव में रहने वाला कोई भी व्यक्ति इस सच्चाई को जानता है, चाहे कोई इससे कितना भी मुँह क्यों न मोड़ना चाहे।
सबसे निचले संस्तर पर है खेतिहर मज़दूर वर्ग। गाँवों में अब खेतिहर मज़दूरों की संख्या कुल किसान आबादी (जिसमें सीमान्त, छोटे व निम्न-मँझोले किसान भी शामिल हैं) से ज़्यादा है। 2011 में ही भारत की खेती में लगी आबादी में से 14.5 करोड़ खेतिहर मज़दूर थे, जबकि किसानों की संख्या 11.8 करोड़ रह गयी थी। पिछले 10 वर्षों में यदि विकिसानीकरण (किसानों के मज़ूदर बनने की प्रक्रिया) की दर वही रही हो, जो कि 2000 से 2010 के बीच रही थी, तो आप मानकर चल सकते हैं कि खेतिहर मज़दूरों की संख्या 15 करोड़ से ऊपर जा चुकी होगी, जबकि किसानों की संख्या 11 करोड़ से नीचे। इस खेतिहर मज़दूर आबादी का क़रीब आधा हिस्सा दलित आबादी से आता है। इनके शोषण को अतिशोषण में तब्दील करने में इनकी जातिगत स्थिति का भी एक योगदान है। पंजाब और हरियाणा वे प्रदेश हैं, जहाँ दलित आबादी कुल आबादी के 25 प्रतिशत से भी ज़्यादा है। यदि प्रवासी मज़दूरों को छोड़ दें, तो पंजाब और हरियाणा के गाँवों में खेतिहर मज़दूरी यही आबादी करती है। पंजाब और हरियाणा में जब लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मज़दूरों का आना रुक गया था, तो मज़दूरी बढ़ने लगी थी क्योंकि श्रम की माँग बढ़ रही थी। ऐसे में, पंजाब और हरियाणा के धनी किसानों-कुलकों ने अपनी पंचायतें और खापें बुलाकर खेतिहर मज़दूरी पर एक सीलिंग तय कर दी थी। किसी भी मज़दूर को उससे ज़्यादा मज़दूरी नहीं दी जा सकती थी। यदि कोई माँगता तो उसका सामाजिक बहिष्कार होता। इन मज़दूरों को अपने गाँव से बाहर जाकर मज़दूरी करने की इजाज़त भी नहीं थी। जहाँ तक प्रवासी मज़दूरों की बात है, जो कि पंजाब और हरियाणा में बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड आदि से जाते हैं, उनके शोषण और उत्पीड़न में भी धनी किसानों-कुलकों का वर्ग कोई कसर नहीं छोड़कर रखता है।
ये है खेती में लगे वर्गों का एक विवरण : पूँजीवादी भूस्वामी, पूँजीवादी फ़ार्मर (मालिक व किरायेदार), निम्न-मँझोला किसान, सीमान्त व छोटे किसान, और खेतिहर मज़दूर। इसके बाद आढ़तियों व व्यापारियों का वर्ग भी है, जिनकी भूमिका कम-से-कम पंजाब में अधिकांशतया ख़ुद पूँजीवादी भूस्वामी व पूँजीवादी फ़ार्मर ही निभाते हैं।
क्या इन वर्गों के एक हित हो सकते हैं? जब तक सामन्तवाद था और सामन्ती भूस्वामी वर्ग था, तब तक धनी किसान, उच्च मध्यम किसान, निम्न मध्यम किसान, ग़रीब किसान व खेतिहर मज़दूर का एक साझा दुश्मन था। आज जहाँ तक निम्न-मँझोले किसानों, ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरों के वर्ग का प्रश्न है, तो उसका प्रमुख शोषक और उत्पीड़क कौन है? वे हैं गाँव के पूँजीवादी भूस्वामी, पूँजीवादी फ़ार्मर, सूदख़ोर और आढ़तियों-बिचौलियों का पूरा वर्ग। उनकी माँगें और हित बिल्कुल अलग हैं और गाँव के ग़रीबों की माँगें और हित बिल्कुल भिन्न हैं।
इसलिए जब आपसे कोई “किसान के हित” की बात करे, तो सबसे पहले पूछिये : कौन-सा किसान? उजरती श्रम का शोषण करके, लगान वसूलकर, सूद लूट कर ग़रीब और निम्न-मँझोले किसानों को निचोड़ने वाला धनी किसान व कुलक? या फिर 92 प्रतिशत किसान जिनकी आय का 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा अब मज़दूरी से आता है, न कि खेती से? इन दोनों की माँगें एक कैसे हो सकती हैं? इसलिए हम मज़दूरों और ग़रीब किसानों को सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि किसान कोई एक वर्ग नहीं है। यह स्वयं कई वर्गों में बँटा हुआ समुदाय है जिनके अलग-अलग हित और अलग-अलग माँगें हैं। एक शोषक है, तो दूसरा शोषित है।

2. लाभकारी मूल्य की माँग कौन-से किसान की माँग है?

देश के कुल किसानों में से केवल 6 प्रतिशत को लाभकारी मूल्य का लाभ मिलता है। बेशक यह प्रतिशत अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है। पंजाब और हरियाणा में और एक हद तक (अगर गेहूँ की बात की जाये) तो मध्यप्रदेश में यह प्रतिशत ज़्यादा है। लेकिन पंजाब में भी एक-तिहाई किसानों के पास 2 हेक्टेयर तक ही ज़मीनें हैं। वहाँ भी इस ग़रीब व सीमान्त किसानों के वर्ग को लाभकारी मूल्य का फ़ायदा इसलिए नहीं मिलता क्योंकि वे प्रमुख रूप से अनाज के ख़रीदार हैं, विक्रेता नहीं। पंजाब के खेतिहर मज़दूरों को इसका कोई लाभ नहीं मिलता बल्कि हानि होती है; प्रवासी मज़दूरों को भी इसका नुक़सान ही होता है। इसका लाभ मुख्य तौर पर सबसे बड़े व उच्च मध्यम किसानों को होता है, जो पंजाब में कुल किसान आबादी का करीब एक-तिहाई हैं। पंजाब में कुलक, धनी किसान व उच्च मध्यम किसानों का घनत्व कुल किसान आबादी में देश के मुक़ाबले ज़्यादा है। इसकी वजह यह है कि ‘हरित क्रान्ति’ के दौरान पूँजीवादी धनी किसानों के एक पूरे वर्ग को राजकीय संरक्षण और समर्थन के साथ खड़ा करने का काम यहीं किया गया था। इस मामले में दूसरे नम्बर पर हरियाणा आता है। एमएसपी पर होने वाली कुल ख़रीद का करीब 70 फ़ीसदी इन्हीं दो राज्यों से आता है। यानी लाभकारी मूल्य के रूप में कृत्रिम रूप से ऊँची मुनाफ़ा दर यहीं के धनी किसानों-कुलकों के वर्ग को दी जा रही है और सरकारी ख़रीद भी सबसे ज़्यादा इन्हीं दो राज्यों से हो रही है। अब आप समझ गये होंगे कि मौजूदा धनी किसान आन्दोलन का केन्द्र पंजाब और दूसरे नम्बर पर हरियाणा क्यों बन रहा है। बाक़ी राज्यों में किसान जनसमुदायों का कोई व्यापक आन्दोलन नहीं है और अधिकांशतया कुछ विशेष संगठन और यूनियनें हैं जो कि इस पर प्रदर्शन आदि कर रही हैं। इस बात से चाहे कोई कितना भी इंकार करना चाहे, यह आन्दोलन मूलत: और मुख्यत: पंजाब और एक हद तक हरियाणा के धनी किसानों-कुलकों का ही आन्दोलन है।

लाभकारी मूल्य या एमएसपी क्या होता है?

सरकार का एक आयोग है जिसे कृषि लागत व क़ीमत आयोग कहा जाता है। यह आयोग नियमित अन्तराल पर कृषि की व्यापक लागत तय करता है जिसमें खेती में लगने वाले यंत्र, उपकरण, खाद, बीज, श्रम के ख़र्च को जोड़ा जाता है, फिर किसान के परिवार के सदस्यों के श्रम (धनी किसान के लिए यह बोनस है क्योंकि उसके परिवार के लोग खेत पर काम नहीं करते हैं) के दाम को जोड़ा जाता है, ब्याज को जोड़ा जाता है और लगान को भी जोड़ा जाता है (हालाँकि भारत में अधिकांश मामलों में ज़मीन के मालिक स्वयं पूँजीवादी धनी किसान ही हैं)। इसे सम्पूर्ण या व्यापक लागत कहा जाता है और सरकार इससे 30 से 50 फ़ीसदी ऊपर सरकारी दाम, यानी एमएसपी तय करती रही है। यानी, लागत के ऊपर 30 से 50 प्रतिशत तक का मुनाफ़ा।
इस ऊँचे सरकारी दाम के कारण कम-से-कम धान, गेहूँ, कपास, मक्का और कुछ दलहनों की बाज़ार क़ीमतें भी ऊँची हो जाती हैं। ये वे चीज़ें हैं जिनसे व्यापक आबादी का नियमित आहार बनता है। नतीजतन, भोजन पर व्यापक आबादी का ख़र्च बढ़ता है, उनके पोषण का स्तर गिरता है, अन्य आवश्यक वस्तुओं पर ख़र्च कम होता है और कुल मिलाकर उनका जीवन-स्तर नीचे जाता है।
इसके साथ ही, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को भी इससे लाभ नहीं बल्कि नुक़सान होता है। भारत में खाद्यान्नों के भारी रिज़र्व भण्डार के बावजूद एक अच्छी-ख़ासी आबादी के भूखा रहने का यह भी कारण है कि एमएसपी पर सरकारी ख़रीद के बाद सरकार इसे पूँजीपतियों को बेचना पसन्द करती है, न कि उसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिये ज़रूरतमन्दों तक पहुँचाना। इसके अलावा, बाज़ार क़ीमतें एमएसपी के कारण ही बहुत ऊँचे फ़्लोर लेवल पर तय हो जाती हैं और उन पर भी जमाख़ोरी का असर न पड़ता हो, ऐसा भी नहीं है।
नतीजतन, लाभकारी मूल्य सीधे-सीधे आम शहरी व ग्रामीण मज़दूरों, शहरी निम्न मध्यवर्ग और साथ ही सीमान्त, छोटे व निम्न-मँझोले किसानों के हितों के विरुद्ध जाता है। यह तथ्य है। लेकिन तमाम कम्युनिस्ट इस सच्चाई से मुँह मोड़े खड़े हैं, क्योंकि उन्हें धनी किसानों-कुलकों के आन्दोलन में जगह पानी है और उसके नेतृत्व की गोद में बैठना है। लाभकारी मूल्य की माँग मूलत: और मुख्यत: धनी किसानों-कुलकों और उच्च मध्यम किसानों की ही माँग है।

3. खेतिहर मज़दूरों की माँगें क्या हैं?

मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन से देश का शहरी मध्यवर्ग, जिसने सिर्फ़ ट्रेनों की खिड़कियों से गाँव देखा है और अपनी पाठ्यपुस्तक के चित्रों से समझा है, एकदम जज़्बाती हुए बैठा है। वह फे़सबुक और व्हाट्सएप पर स्टेटस लगा रहा है: “किसान अन्नदाता है, मैं अन्नदाता का कर्जदार हूँ।” इससे पता चलता है कि भारत का शहरी मध्यवर्ग राजनीतिक रूप से कितना निरक्षर है। पहली बात तो यह है कि अन्नदाता वह है जो वास्तव में खेतों में श्रम करता है। अगर धनी कुलक-किसान अन्नदाता हैं, तब तो फिर टाटा ट्रकदाता है, बाटा जूतादाता है, अम्बानी गैसदाता है, अडानी तेलदाता है, इत्यादि। धनी किसान पूँजी लगाता है, उजरती श्रम का शोषण करता है, बाज़ार के लिए उत्पादन करवाकर मुनाफ़ा कमाता है, ठीक वैसे ही जैसे कोई भी पूँजीपति करता है। वह अन्नदाता नहीं है। यदि कोई अन्नदाता है तो वह है खेतिहर मज़दूरों और ग़रीब किसानों का वह पूरा वर्ग जो कि वास्तव में खेतों में काम करके अन्न उपजाता है।
इस खेतिहर मज़दूर वर्ग की माँगें क्या हैं? क्या उन्हें मौजूदा तथाकथित “अन्नदाताओं” के आन्दोलन में कोई जगह मिली है? उनकी माँगें ये हैं: खेतिहर मज़दूरी को श्रम क़ानूनों के मातहत लाया जाये, खेतिहर मज़दूरों के लिए भी न्यूनतम मज़दूरी, आठ घण्टे के कार्यदिवस, समूचे कार्य-अनुबन्ध के दौरान साप्ताहिक छुट्टी, सामाजिक सुरक्षा, आदि के प्रावधान लागू किये जायें। इसके अलावा, खेतिहर मज़दूरों की एक बहुत बड़ी माँग है सार्वभौमिक रोज़गार गारण्टी, ताकि वे रोज़गार सुरक्षा हासिल कर सकें। अच्छी-खासी खेतिहर मज़दूरों व ग़रीब किसानों की आबादी आज खेती के क्षेत्र में बेशी आबादी है, जिसे हम प्रच्छन्न बेरोज़गारी भी कहते हैं। चूँकि उसके पास कहीं और रोज़गार की गारण्टी नहीं है, इसलिए वह खेती के क्षेत्र में अर्द्धबेरोज़गारी की स्थिति में जीती रहती है और कभी कोई काम करती है तो कभी कोई और। इस आबादी की सबसे बड़ी माँग रोज़गार या ‘काम के हक़’ की माँग है।
क्या इन माँगों को मौजूदा धनी किसान आन्दोलन में कोई जगह मिली है? नहीं। यदि इन माँगों को मौजूदा आन्दोलन के चार्टर में शामिल करने की बात भी की जाती हैं तो धनी किसानों की ओर से ये जवाब आते हैं: पहला – “हम ही नहीं रहेंगे तो इन मज़दूरों को रोज़गार कौन देगा?”; “कारपोरेट खेती होगी तो मशीनीकरण होगा और खेतिहर मज़दूर बेरोज़गार होंगे” (मानो अब तक धनी किसान व कुलक मशीनीकरण नहीं कर रहे थे); “ये खेतिहर मज़दूर कोई हमारे कर्मचारी थोड़े ही हैं, जो उन्हें न्यूनतम मज़दूरी, आठ घण्टे का कार्यदिवस आदि दिया जाये; वैसे भी सीज़न में इनकी मज़दूरी 700-800 रुपये दिहाड़ी तक चली जाती है।” यानी जब खेतिहर मज़दूर अपने लिए राजकीय संरक्षण की माँग करें, तो धनी किसान-कुलक उन माँगों को अपने चार्टर में शामिल करने से सीधा इंकार कर देते हैं; लेकिन अपने लिए लाभकारी मूल्य के रूप में वे राजकीय संरक्षण चाहते हैं। और इसके बावजूद कि उन्होंने ही अभी 3-4 महीने पहले खेतिहर मज़दूरों की मज़दूरी पर सीलिंग फ़िक्स की थी, वे अपने उत्पाद के दाम के लिए कृत्रिम रूप से ऊँचा फ़्लोर लेवल चाहते हैं। और ऊपर से तुर्रा यह कि इस आन्दोलन में वह “किसान-मज़दूर एकता” की बात कर रहे हैं!
स्पष्ट है कि मौजूदा आन्दोलन में खेतिहर मज़दूरों की माँगों को कोई स्थान नहीं दिया गया है और न ही यह खेतिहर मज़दूरों का आन्दोलन है। यह धनी किसानों-कुलकों का ही आन्दोलन है।

4. सीमान्त, छोटे और निम्न-मँझोले किसानों की क्या माँगें हैं?

जो लोग उपरोक्त सच्चाइयों को बयान कर रहे हैं, उनके बारे में कुलकवादी और क़ौमवादी “कम्युनिस्ट” कहते हैं कि वे लोग ग़रीब किसानों के तबाह होने पर ताली बजा रहे हैं और इन्तज़ार कर रहे हैं कि जब ग़रीब किसान मज़दूर बन जायेंगे, तब वे समाजवादी क्रान्ति कर देंगे! यह एक झूठा और बेईमान आरोप है। क्यों? क्योंकि कुलकवादी और क़ौमवादी भी जानते हैं कि धनी किसानों की माँगें और ग़रीब किसानों की माँगें एक नहीं हैं। दूसरी बात, कारपोरेट पूँजी के खेती के क्षेत्र में प्रवेश के साथ ग़रीब किसानों के उजड़ने की रफ्तार कोई ख़ास बढ़ जायेगी, इसका कोई प्रमाण नहीं है। बिहार में लाभकारी मूल्य की व्यवस्था समाप्त होने का ग़रीब किसानों पर कोई असर नहीं पड़ा क्योंकि उन्हें वैसे भी लाभकारी मूल्य से कोई लाभ नहीं मिल रहा था। हाँ, उससे सबसे अमीर 2 प्रतिशत किसानों को अवश्य फ़र्क पड़ा क्योंकि उनका आर्थिक वर्चस्व टूटने लगा और लूट के माल का एक हिस्सा उनके हाथ से जाने लगा। दूसरी बात, ग़रीब किसान तो धनी किसानों-कुलकों की लूट की वजह से पहले भी तबाह हो रहे थे। इसकी प्रमुख वजह क़र्ज़ का दबाव रहा है। बैंकों से क़र्ज़ मिलने में दिक़्क़त के कारण ग़रीब किसानों को बेहद ऊँचे सूद पर धनी किसानों-कुलकों से क़र्ज़ लेना पड़ता है, और अक्सर ठेका खेती की व्यवस्था के तहत। धनी किसान-कुलक केवल कॉरपोरेट कम्पनियों के ठेका खेती के क्षेत्र में घुसने के ख़िलाफ़ हैं, न कि आम तौर पर ठेका खेती के, जो वे ग़रीब किसानों से ख़ुद करवाते हैं।
फिर सवाल यह है कि सीमान्त, छोटे और निम्न-मँझोले किसानों, यानी ग़रीब किसानों व अर्द्धसर्वहारा की अलग माँगें क्या हैं? पहले हम विशिष्ट माँगों की बातें करेंगे। विशिष्ट माँगों में सबसे प्रमुख है कि खेती को दी जाने वाली सरकारी सब्सिडी का बड़ा हिस्सा खेती के आधारभूत ढाँचे के विकास पर ख़र्च किया जाये, जिसका सभी ग़रीब किसान इस्तेमाल करते हैं। मिसाल के तौर पर, सभी ग़रीब किसान सिंचाई के लिए मॉनसून व नहरों के नेटवर्क पर निर्भर करते हैं। जिनको ये सुविधाएँ नहीं मिलतीं, वे धनी किसानों से सिंचाई और अन्य सुविधाएँ किराये पर लेते हैं और इसमें भी लूटे जाते हैं। 1980 के दशक की शुरुआत से पहले कृषि सब्सिडी का बड़ा हिस्सा एमएसपी पर नहीं बल्कि नहरों आदि के निर्माण पर ख़र्च किया जाता था। 1980 के दशक में कुलक-धनी किसानों के राजनीतिक नेतृत्व के दबाव में भारतीय राज्य ने लाभकारी मूल्य पर ख़रीद करने पर ख़र्च लगातार बढ़ाया, जबकि खेती की अवसंरचना पर होने वाला ख़र्च कम होता गया। वह पहले भी अपर्याप्त था, लेकिन बाद में यह भयंकर रूप से कम होता गया। इसका सबसे बुरा असर ग़रीब किसानों पर पड़ा।
साथ ही, पूँजीवादी फ्रेमवर्क में एक विशिष्ट माँग के तौर पर यह कहा जाना चाहिए कि ग़रीब से ग़रीब किसान के लिए संस्थागत ऋण उपलब्ध होना राज्य की ज़िम्मेदारी है। चूँकि ग़रीब किसानों तक संस्थागत ऋण की पहुँच नहीं है, इसलिए वे अपनी चालू पूँजी के लिए भी धनी किसानों-कुलकों पर निर्भर करते हैं। ये ऋण बेहद अन्यायपूर्ण ब्याज दरों पर दिये जाते हैं। ग़रीब किसानों की भारी आबादी के ज़मीन से उजड़ने और आत्महत्याओं के लिए भी ये अन्यायपूर्ण ऋण जिम्मेदार हैं, जो संस्थागत ऋण न मिलने पर धनी किसानों-कुलकों द्वारा उन्हें दिये जाते हैं। आज संस्थागत ऋण 30 प्रतिशत से भी कम किसानों को मिलता है और उसमें भी ज़्यादा लाभ उच्चतम 10 प्रतिशत किसानों को मिलता है। जब कोई क़र्ज़-माफ़ी भी होती है, तो उसका सबसे बड़ा लाभ भी इन्हीं धनी किसानों को मिलता है। लेकिन क्या आपने सुना है कि सूदख़ोरी करने वाले गाँव के धनी किसान, कुलक या आढ़तिये ने ग़रीब किसानों व अर्द्धसर्वहारा के लिए क़र्ज़-माफ़ी की हो?
एक अन्य महत्वपूर्ण माँग यह है कि सरकार धनी किसानों व आम तौर पर धनी वर्गों पर प्रगतिशील कर लगाये और उसके आधार पर समूची किसान आबादी को उचित दरों पर सरकारी माध्यम से बीज, खाद आदि उपलब्ध कराये, वैज्ञानिक खेती के लिए सरकारी तौर पर प्रशिक्षण सुनिश्चित करे। पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे में ये माँगें ग़रीब व निम्न-मँझोले किसानों की महत्वपूर्ण माँगें हैं और उन्हें तात्कालिक तौर पर सहायता पहुँचाती हैं। हमने यहाँ प्रगतिशील कर प्रणाली की माँग इसलिए जोड़ी है क्योंकि उसके बिना यदि खेती में लागत मूल्य को कम करने की माँग उठायी जाती है, तो वह व्यापक सर्वहारा वर्ग के ख़िलाफ़ जाती है। सरकार खेती की लागतों के उत्पादन में लगी मज़दूर आबादी की वास्तविक औसत मज़दूरी को कम किये बिना ऐसा तभी कर सकती है, जबकि वह धनी किसानों-कुलकों, पूँजीपतियों के पूरे वर्ग पर प्रगतिशील कर लगाये।
इन विशिष्ट माँगों के अलावा छोटे, सीमान्त व निम्न-मँझोले किसानों की एक आम माँग है जो कि खेतिहर व शहरी मज़दूरों के साथ साझा माँग है : रोज़गार गारण्टी की माँग। 2012-13 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण में ही आधे किसानों ने कहा था कि छोटी जोत की खेती का कोई भविष्य नहीं है और वह पहला मौका मिलते खेती छोड़ देना चाहते हैं। लेकिन पक्की और सरकारी नौकरी के बिना वह खेती छोड़ भी नहीं पा रहे हैं। यह भी सच है कि भारत में उत्पादकता के स्तर के अनुसार एक अच्छी-ख़ासी खेतिहर आबादी की खेती में कोई खपत नहीं है, लेकिन वह उसी में प्रच्छन्न बेरोज़गारी, अर्द्धभुखमरी और ऋण के हालात में जीती रहती है क्योंकि उसके पास और कोई विकल्प नहीं है। नतीजतन, एक भारी ग़रीब किसान आबादी के लिए रोज़गार गारण्टी का अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकार है और उसकी माँग बनती है कि राष्ट्रीय रोज़गारी गारण्टी क़ानून पारित कराया जाये और ‘काम के हक़’ को क़ानूनी तौर पर बाध्यताकारी बनाने के लिए लड़ा जाये।
एक अन्य महत्वपूर्ण आम माँग जो कि ग़रीब किसानों की माँग भी है और समस्त मज़दूर वर्ग की माँग भी है, वह है सार्वभौमिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली की माँग। भारत में सीमान्त व ग़रीब किसान परिवारों की औसत मासिक आय अक्सर मज़दूरों की औसत आय से भी कम है। कहने को वे एक छोटी-सी जोत के मालिक हैं, लेकिन यह छोटी जोत की खेती उन्हें कुछ देती नहीं है, बस पीती जाती है। उनके घरों से कुछ प्रवासी मज़दूर बाहर काम करके कमाकर कुछ घर भेजते भी हैं, तो वह खेती और क़र्ज़ में चला जाता है। ऐसे में, ये परिवार भयंकर खाद्य असुरक्षा में भी जीते हैं। एक सार्वभौमिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली उनकी एक अहम आम माँग बनती है।
इन मांगों को उठाने के साथ सर्वहारा वर्ग के हिरावल का यह कार्यभार भी है कि वह ग़रीब और सीमान्‍त किसानों को समझाए कि यदि उपरोक्‍त मांगों के पूरा होने के साथ उन्‍हें कुछ मदद और तात्‍कालिक राहत मिल भी जाए, तो पूंजीवादी व्‍यवस्‍था के रहते वे प्रतिस्‍पर्द्धा में धनी किसानों-कुलकों व साथ ही खेती में प्रवेश करने वाली कारपोरेट पूंजी के समक्ष नहीं टिक सकते हैं। यह पूंजीवाद का नियम है कि बड़ी पूंजी छोटी पूंजी को निगलती है और यह प्रक्रिया स्‍वत:स्‍फूर्त रूप से बाज़ार व्‍यवस्‍था में जारी रहती है। हर ग़रीब किसान जानता है कि छोटी जोत की व्‍यवस्‍था पूंजीवाद में बड़े पैमाने के खे‍ती उत्‍पादन के समक्ष नहीं टिक सकती क्‍योंकि उसकी लागत ज्‍़यादा होती है। इसलिए वह प्रतिस्‍पर्द्धा में टिक नहीं सकती। इसलिए सर्वहारा क्रान्तिकारी कोई झूठी उम्‍मीद नहीं जगाते बल्कि यह सच भी ग़रीब किसानों को बताते हैं, हालांकि वे उपरोक्‍त मांगों पर ग़रीब किसानों को जागृत, गोलबन्‍द और संगठित भी करते हैं।
ये वे माँगें हैं जो कि व्यापक सीमान्त, छोटी और निम्न-मँझोली किसान आबादी की विशिष्ट और आम माँगें हैं। क्या मौजूदा धनी किसान आन्दोलन उपरोक्‍त माँगों को उठायेगा? नहीं! क्योंकि उसके हित और माँगें बिल्कुल अलग हैं। यहाँ भी हम देख सकते हैं कि मौजूदा धनी किसान आन्दोलन का चार्टर और उसकी माँगों का वर्ग चरित्र क्या है। यह स्पष्ट रूप से धनी किसानों-कुलकों का आन्दोलन है।
लेकिन फिर सवाल उठता है कि इस आन्दोलन में विशेष तौर पर पंजाब और हरियाणा से बहुत-से सीमान्त, छोटे और निम्न-मँझोले किसान भी क्यों शामिल हो रहे हैं? यह हमें अगले मुद्दे पर लाता है।

5. किसी आन्दोलन का वर्ग-चरित्र कैसे तय होता है?

मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन का समर्थन करने वाले कई कम्युनिस्ट संगठन एक तर्क यह दे रहे हैं कि चूँकि इस आन्दोलन में ग़रीब और मँझोले किसानों की तादाद भी आ रही है, इसलिए यह ग़रीब और मँझोले किसानों का भी आन्दोलन है।
यह तर्क ग़लत है। क्यों? किसी आन्दोलन का चरित्र उसमें आने वाली भीड़ से तय नहीं होता है। जो यह नहीं समझता वह राजनीति और विचारधारा की भूमिका भूल चुका है और भोंडी भौतिकवादी बात कर रहा है, जो उसी को सच मानता है जो दिखता है। लेकिन जैसा कि मार्क्स ने कहा था, अगर जो दिखता है वही सच होता तो विज्ञान की कोई ज़रूरत नहीं होती।
फिर सवाल यह उठता है कि किसी आन्दोलन का वर्ग चरित्र तय कैसे होता है? किसी आन्दोलन का वर्ग चरित्र सबसे पहले उसकी माँगों के चार्टर से तय होता है, जिसका अध्ययन आपको यह बताता है कि वह किन वर्ग हितों की नुमाइन्दगी कर रहा है, उसकी राजनीति क्या है, उसके नेतृत्व का चरित्र क्या है और उसकी विचारधारा क्या है। आन्दोलन में कौन-कौन से वर्गों के जनसमुदाय भागीदारी कर रहे हैं, यह उसके वर्ग चरित्र के विश्लेषण में उपरोक्त कारकों के निर्धारण के बाद केवल एक सहायक कारक हो सकता है, और अपने आप में वह किसी भी आन्दोलन के बारे में कुछ नहीं बताता। इसको कुछ मिसालों से समझें।
यदि किसी आन्दोलन का चरित्र उसमें आने वाली भीड़ से तय होता है, तो ग़रीब किसान, लम्पट सर्वहारा, यहाँ तक कि शहरी औद्योगिक सर्वहारा वर्ग का एक हिस्सा भी कारसेवा और राम मन्दिर आन्दोलन में जा रहा था। कारसेवकों की भीड़ में आपको कोई धनपति बिरले ही मिलता। अधिकांश लोग मेहनतकश वर्गों और टुटपुँजिया वर्ग के निचले संस्तरों से, जिन्हें हम अक्सर समाजशास्त्रीय भाषा में निम्न मध्य वर्ग कह देते हैं, आने वाले ही मिलते। तो क्या इसके आधार पर आप कह सकते हैं कि राम मन्दिर आन्दोलन मेहनतकश वर्गों का एक आन्दोलन था? नहीं! क्योंकि उस आन्दोलन की राजनीति और विचारधारा एक प्रतिक्रियावादी राजनीति और विचारधारा थी, और राजनीतिक वर्ग चेतना के अभाव में असुरक्षा, अनिश्चितता और बेरोज़गारी से तंग-परेशान व्यापक मेहनतकश जनसमुदाय का एक हिस्सा साम्प्रदायिक फ़ासीवादी प्रचार और उन्माद में बह रहा था। यह एक ऐसा आन्दोलन था जो कि बड़ी एकाधिकारी पूँजी और आम तौर पर संकट के दौर में पूँजीपति वर्ग की सेवा करता था, वर्ग संघर्ष की धार को कुन्द करता था, अस्मितावादी और साम्प्रदायिक राजनीति के ज़रिये असल मुद्दों को नेपथ्य में धकेलता था, व्यापक मेहनतकश आबादी के सामने एक नकली शत्रु खड़ा करता था और इस रूप में पूँजीवाद और पूँजीपति वर्ग की हिफ़ाज़त करता था। इसलिए यह आन्दोलन बड़ी पूँजी के हितों की सेवा करने वाला टुटपुँजिया प्रतिक्रियावादी आन्दोलन था।
निश्चित तौर पर, मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन कोई साम्प्रदायिक फ़ासीवादी आन्दोलन नहीं है, न ही यह कोई धुर दक्षिणपंथी आन्दोलन है। लेकिन यह आन्दोलन भी मेहनतकश जनता के हितों की नुमाइन्दगी नहीं करता है। सीधी-सी बात है : जो उजरती श्रम का शोषण करके मुनाफ़ा कमाते हैं और इसी पर उनकी अर्थव्यवस्था टिकी है, यानी धनी किसान-कुलक-फ़ार्मर, और वे जो अपना उजरती श्रम बेचते हैं, यानी ग्रामीण सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा (छोटे और सीमान्त किसान), उनके हित एक समान नहीं हो सकते। लाभकारी मूल्य की माँग उनकी साझा माँग भी नहीं है क्योंकि ग़रीब और सीमान्त किसानों के पास आम तौर पर बेचने लायक़ इतना बेशी उत्पाद बचता ही नहीं है कि वे मुख्य रूप से खाद्यान्न के विक्रेता हों, बल्कि वे मुख्य रूप से खाद्यान्न के ख़रीदार होते हैं। ये छोटे और सीमान्त किसान कुल किसान आबादी में 92 प्रतिशत हैं और लाभकारी मूल्य की व्यवस्था से उन्हें नुक़सान होता है, फ़ायदा तो बहुत दूर की बात है। जो खेतिहर मज़दूर हैं जिनकी तादाद अब भारत के गाँवों में किसानों से ज़्यादा हो चुकी हैं, उन्हें तो लाभकारी मूल्य बढ़ने का सीधे-सीधे नुक़सान होता है। यानी, लाभकारी मूल्य का कुल फ़ायदा केवल 6 प्रतिशत धनी किसानों व कुलकों को मिलता है, जिनको राजकीय संरक्षण के तौर पर मिलने वाली इस कृत्रिम मुनाफ़ा दर की क़ीमत पूरा मेहनतकश वर्ग चुकाता है और एक दूसरे अर्थ में बड़ा औद्योगिक-वित्तीय पूँजीपति वर्ग भी चुकाता है, जिसकी वजह से वह लाभकारी मूल्य को समाप्त करना चाहता है। मामला काफ़ी-कुछ 19वीं सदी में इंग्लैण्ड के अनाज क़ानूनों (corn laws) जैसा है, जिस पर हम कभी अलग से ‘मज़दूर बिगुल’ में लिखेंगे।
सभी जानते हैं कि मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन मूलत: और मुख्यत: लाभकारी मूल्य पर ही केन्द्रित है, भले ही किसान संगठन तीनों कृषि क़ानूनों को रद्द करने की बात दोहराते रहते हैं। शुरू में कुछ लोग इस तथ्य को नकार रहे थे, लेकिन छह दौर की वार्ताओं के बाद, उनके लिए भी यह दावा करना मुश्किल हो गया है। खैर, लाभकारी मूल्य की यह माँग मज़दूर वर्ग, ग़रीब व निम्न-मँझोले किसानों और आम तौर पर मेहनतकश ग़रीब आबादी की माँग है ही नहीं। ये सभी जानते हैं, लेकिन साहस का अभाव तमाम कम्युनिस्टों को इस मुद्दे पर सही अवस्थिति अपनाने से रोक रहा है। कई लोग गोलमाल बात कर रहे हैं कि “हाँ, ये माँग तो धनी किसानों की ही माँग है, लेकिन अभी मोदी सरकार को चुनौती मिल रही है इसलिए हमें इसका साथ देना चाहिए” या “एमएसपी तो ग़लत है लेकिन ज़रूरी है क्योंकि एमएसपी ख़त्म हो गया तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली और सरकारी ख़रीद ख़त्म हो जायेगी” (इसका खण्डन हम ‘मज़दूर बिगुल’ के अगले अंक में आँकड़ों और तथ्यों के साथ करेंगे)। असल बात यह है कि क्रान्तिकारी साहस का अभाव और एक गहरा निराशाबोध और पराजयबोध है, जो किसी भी गुज़रती ट्रेन पर सवार हो जाने के लिए इन कम्युनिस्टों को मजबूर कर रहा है।
आखिरी में एक सवाल : मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन के समर्थन में पलक-पाँवड़े बिछाने वाले तमाम कम्युनिस्ट उस समय चुप क्यों रहे जब ये ही “क्रान्तिकारी”, “फ़ासीवाद-विरोधी” कुलक और धनी किसान अभी तीन-चार महीने पहले ही खेतिहर मज़दूरों की मज़दूरी पर सीलिंग फ़िक्स कर रहे थे? यह परिघटना सभी की निगाह में थी। पंजाब के कम्युनिस्ट ग्रुपों की निगाह में भी थी। सभी जानते थे कि लॉकडाउन के समय श्रम आपूर्ति कम हो गयी थी, जिसके कारण औसत खेतिहर मज़दूरी बढ़ रही थी। उसके बढ़ने पर तो धनी किसानों-कुलकों ने अपनी पंचायतें और खापें बुलाकर सीलिंग लगायी ताकि खेतिहर मज़दूरों से कम मज़दूरी देकर काम कराया जा सके। लेकिन अपने उत्पाद के दाम पर वे एक सरकारी फ़्लोर लेवल चाहते हैं! यानी, खेतिहर मज़दूरों की मज़दूरी जब आपूर्ति बढ़ने की वजह से घटे, तब किसान ‘मुक्त बाज़ार’ के नियम के पुजारी बन जाते हैं, और जब आपूर्ति के माँग से कम होने पर वह बढ़े तो वह उस मज़दूरी को ‘मुक्त बाज़ार’ पर नहीं छोड़ते बल्कि उसपर सीलिंग लेवल फ़िक्‍स करते हैं! लेकिन अपने उत्पाद के लिए वे सरकार से न्यूनतम क़ीमत तय करवाना चाहते हैं, और वह भी लागत का 150 प्रतिशत, यानी लागत के ऊपर 50 प्रतिशत का मुनाफ़ा सुनिश्चित करना! लेकिन अपने आपको मज़दूर वर्ग का हिरावल और समूची मेहनतकश जनता (मजदूर वर्ग, ग़रीब और निम्न-मँझोले किसानों, निम्न मध्य वर्ग) का नेतृत्वकारी कोर बताने वाले हमारे नरोदवादी और क़ौमवादी कम्युनिस्ट ग़रीब किसानों और खेतिहर मज़दूरों के साथ कुलकों व धनी किसानों द्वारा किये जाने वाले इस बर्ताव पर चुप रहते हैं। यह दक्षिणपंथी अवसरवाद नहीं तो और क्या है? ये कम्युनिस्ट ग्रुप लेनिन और स्तालिन की कार्यदिशा पर हैं, या फिर बुखारिन की दक्षिणपंथी अवसरवादी कार्यदिशा पर जिसने कुलकों को “अमीर बनो!” का नारा दिया था? यह तर्कशील पाठक स्वयं निर्णय करें।
आज कम्युनिस्ट शक्तियों का तो यह कार्यभार था कि वह ग़रीब, सीमान्त व निम्न-मँझोले किसानों को बताते कि निश्चित तौर पर कॉरपोरेट पूँजी (जो और कुछ नहीं है बल्कि बड़ी एकाधिकारी पूँजी है) हमारी दुश्मन है, लेकिन ग्रामीण पूँजीपति वर्ग (धनी किसान व कुलक वर्ग) हमारा उससे कम दुश्मन नहीं है। राजनीतिक जनवादी माँगों के सिवाय धनी किसानों व कुलकों व उनके संगठनों के साथ, या आम तौर पर छोटे पूँजीपति वर्ग व उनके संगठनों के साथ, हमारा कोई मोर्चा नहीं बन सकता है। मिसाल के तौर पर, हम किसी भी रूप में राजकीय दमन के ख़िलाफ़ हैं, हम राजनीतिक बन्दियों के अधिकारों के हनन के ख़िलाफ़ हैं, हम सीएए-एनआरसी के मुद्दे पर उनके साथ मोर्चे के पुरज़ोर समर्थक हैं।
लेकिन लाभकारी मूल्य की माँग कोई जनवादी अधिकारों की माँग नहीं है, बल्कि ग्रामीण पूँजीपति वर्ग की आर्थिक माँग है, जो कि वह कुल विनियोजित बेशी मूल्य में अपनी हिस्सेदारी को बनाये रखने और बढ़ाने के लिए बड़े इज़ारेदार पूँजीपति वर्ग के समक्ष उठा रहा है। इस पर किसी भी प्रकार का मोर्चा नहीं बन सकता है। ग़रीब व निम्न-मँझोले किसान तथा खेतिहर मज़दूर उजरती श्रम के बड़े और अपेक्षाकृत छोटे, दोनों ही शोषकों के समक्ष अपनी वर्ग माँगों को रखेंगे।
व्यापक ग़रीब और निम्न-मँझोली किसान आबादी का एक हिस्सा तीन कारणों से मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन में आ रहा है। पहला, राजनीतिक वर्ग चेतना की कमी। वह अपने वर्ग हितों को धनी किसानों के वर्ग हितों से अलग करके नहीं देख पाता है और इस वर्ग चेतना के अभाव में वह धनी किसानों-कुलकों की नुमाइन्दगी करने वाले कुलक संगठनों की पूँछ पकड़कर घिसटता रहता है। दूसरा, दर्जनों प्रकार के आर्थिक बन्धनों के ज़रिये यह ग़रीब किसान आबादी धनी किसानों-कुलकों पर निर्भर रहती है; उन्हें उसी गाँव में रहकर गुज़ारा करना है। किसी स्वायत्त और स्वतंत्र ग़रीब किसान संगठन व राजनीतिक चेतना के अभाव में उसके पास धनी किसानों-कुलकों के आन्दोलन में शिरकत के अलावा कोई चारा नहीं होता है। तीसरा, जिन कम्युनिस्ट ताक़तों को एक स्वतंत्र राजनीतिक वर्ग चेतना और राजनीतिक संगठन के निर्माण का कार्य इन ग़रीब व निम्न-मँझोले किसानों के बीच करना था, वे ही उन्हें धनी किसानों की पालकी का कहार बना रहे हैं।
इसलिए मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन में तमाम ग़रीब व निम्न-मँझोले किसानों की शिरकत से हम आन्दोलन का वर्ग चरित्र नहीं तय कर सकते हैं, बल्कि हमें उस शिरकत के भौतिक कारणों और पृष्ठभूमि को समझना चाहिए और साथ में मौजूदा आन्दोलन की ठोस माँगों के आधार पर उसके वर्ग चरित्र का फैसला करना चाहिए।

6. क्या मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन है?

जिन कुलकवादी-क़ौमवादी कम्युनिस्टों को मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन का समर्थन करने के लिए और कुछ भी समझ नहीं आ रहा है, उनका तर्क है कि यह आन्दोलन चूँकि मोदी सरकार के लिए एक चुनौती बन गया है, इसलिए हमें इसका समर्थन करना चाहिए। इन लोगों के अनुसार, ठीक इसी वजह से यह आन्दोलन एक फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन है।
पहली बात तो यह है कि सिर्फ़ मोदी सरकार का विरोध करने के कारण अगर कोई शक्ति या कोई आन्दोलन फ़ासीवाद-विरोधी हो जाता है तो शिवसेना और महाराष्ट्र के महागठबन्धन को भी फ़िलहाल फ़ासीवाद-विरोधी क्यों न मान लिया जाये? महाराष्ट्र में शिवसेना फ़िलहाल भाजपा के लिए निस्सन्देह एक चुनौती है। उसी प्रकार तेजस्वी यादव से बिहार में हाथ मिला लेना चाहिए। संशोधनवादियों ने तो मिला ही लिया था, तमाम अन्य मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्टों को भी मिला लेना चाहिए था! यह पूरा तर्क “कम बुरे को चुनने” के तर्क से पैदा हो रहा है।
दूसरी बात, धनी किसानों-कुलकों का आन्दोलन आज मोदी सरकार के लिए एक स्तर पर अवश्य चुनौती बन गया है, लेकिन इसकी वजह यह है कि यह शासक वर्ग के ही एक राजनीतिक व सामाजिक रूप से शक्तिशाली धड़े द्वारा किया जा रहा आन्दोलन है। हज़ारों ट्रैक्टरों, छह माह के राशन के साथ धनी किसान-कुलक दिल्ली के बॉर्डर पर पिछले डेढ़ माह से मौजूद हैं। इसके समर्थन में भाजपा को छोड़कर अन्य सभी पूँजीवादी पार्टियाँ हैं, एक मंत्री इस्तीफ़ा दे चुका है, दो दल समर्थन वापस ले चुके हैं, अतिधनाढ्य पंजाबी पॉप स्टार जैसे सिद्धू मूसेवाला, जैज़ी बी, दिलजीत दुसांझ आदि इसके समर्थन में आ चुके हैं, कनाडा और अमेरिका से एनआरआई करोड़ों रुपये चन्दा भेज चुके हैं, कई बॉलीवुड स्टार इसके समर्थन में आ गये हैं! कई बार लक्षणों से भी किसी आन्दोलन का वर्ग चरित्र पता चलता है। क्या आपको याद है कि आम मेहनतकश जनता के किसी आन्दोलन में कभी ऐसा हुआ है? तूतीकोरिन में गोली काण्ड पर क्या किसी मन्त्री ने इस्तीफ़ा दिया था? ग्वालियर मज़दूर गोली काण्ड पर क्या पूँजीवादी दलों ने समर्थन वापस लिया था? मारूति के मज़दूरों के समर्थन में क्या कोई पॉप स्टार या बॉलीवुड की हस्ती आयी थी? अभी हाल ही में बेंगलुरु की आईफ़ोन फैक्ट्री में मज़दूरों की बग़ावत के समर्थन में कभी कोई नेता-मंत्री आया? नहीं! जिस वर्ग का यह आन्दोलन है, उसके लिए मज़दूरों के मुक़ाबले यह कहीं ज़्यादा आसान है कि वह छह महीने के राशन-पानी के साथ दिल्ली के बॉर्डर पर घेरा डाल सके, क्योंकि उसके पास उजरती मज़दूरी की लूट से जुटायी गयी भारी दौलत है। मज़दूरों को कोई लम्बी हड़ताल भी चलानी होती है तो उन्हें महीनों तैयारी करनी पड़ती है क्योंकि वे रोज़ कुआँ खोदते और रोज़ पानी पीते हैं। तभी जाकर वह सरकार या किसी बड़े नियोक्ता/कम्पनी के लिए चुनौती बन पाते हैं। मौजूदा अन्तरविरोध शासक पूँजीपति वर्ग के दो धड़ों के बीच है: ग्रामीण पूँजीपति वर्ग और बड़ा इज़ारेदार औद्योगिक-वित्तीय पूँजीपति वर्ग। यही सच है, चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा।
तीसरी बात, दो ठोस उदाहरणों से समझें कि मौजूदा आन्दोलन कोई फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन नहीं है। 10 दिसम्बर को अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस था। वामपंथी रुझान वाले नेतृत्व की एक यूनियन बीकेयू (एकता उग्राहां) ने इस दिन किसान आन्दोलन में भी राजनीतिक बन्दियों की मुक्ति की माँग उठाने का फै़सला किया। यह बिल्कुल सही जनवादी कदम था। इसके तहत इस यूनियन ने उमर ख़ालिद, वरवर राव, जी.एन. साईबाबा, वर्नोन गोंजाल्वेस, सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा जैसे राजनीतिक कैदियों के प्रति जारी अत्याचार को बन्द करने की माँग उठायी, इन कै़दियों की तस्वीरों के साथ प्रदर्शन किया। लेकिन बीकेयू (एकता उग्राहां) के नेतृत्व के इस सही कदम और फै़सले का तत्काल बाक़ी 32 यूनियनों और उनके नेतृत्व ने कड़ा विरोध किया। उन्होंने एक बयान जारी करके कहा कि एकता उग्राहां द्वारा इस आन्दोलन को राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल न किया जाये, यह आन्दोलन पूरी तरह से कृषि क़ानूनों की वापसी और एमएसपी पर केन्द्रित है और फ़िज़ूल के राजनीतिक मसले उठाकर इसका ध्यान भटकाया न जाये। कोई भी फ़ासीवाद-विरोधी ही नहीं बल्कि आम तौर पर जनवादी आन्दोलन इस माँग को अवश्य उठाता। लेकिन यहाँ पर जब एक यूनियन ने यह माँग उठायी भी तो बाक़ी सभी यूनियनों ने इससे किनारा कर लिया और एकता उग्राहां के नेतृत्व को भी बैकफ़ुट पर जाकर बयान देकर यह मानना पड़ा कि ‘हाँ, आन्दोलन का मुख्य मुद्दा तो एमएसपी ही है।’
दूसरी घटना भी दिखलाती है कि मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन पूरी तरह से ग्रामीण पूँजीपति वर्ग की एक आर्थिक माँग यानी एमएसपी पर केन्द्रित है और उसे अन्य मसलों से कोई विशेष सरोकार नहीं है। जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों का एक समूह दिल्ली के यूपी बॉर्डर पर बैठे किसानों के समर्थन में वहाँ गया, तो वहाँ मौजूद किसानों ने पुलिस से जाकर शिकायत कर दी और कहा कि वे नहीं चाहते कि जामिया के छात्र यहाँ समर्थन करने आयें। वजह क्या थी? जामिया मिल्लिया इस्लामिया की पूरी छवि मोदी की फ़ासीवादी सरकार ने आतंकवाद और इस्लामिक कट्टरपंथ के अड्डे के तौर पर और देशद्रोहियों के ठिकाने के तौर पर बनायी थी। इन धनी किसानों को मोदी सरकार द्वारा जामिया को इस प्रकार निशाना बनाये जाने का विरोध करना तो दूर वहाँ से आये छात्रों का समर्थन स्वीकार करना भी गवारा नहीं था, क्योंकि उन्हें लगता था कि उनका मूल मुद्दा किनारे हो जायेगा और उनके आन्दोलन की छवि ख़राब हो जायेगी।
निश्चय ही यह किसी फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन की विशिष्टताएँ नहीं थीं! किसान नेताओं ने बार-बार ख़ुद भी स्पष्ट किया है कि वे बस एमएसपी की व्यवस्था को क़ानूनी अधिकार बनाना चाहते हैं और यदि सरकार का कहना सही है कि पहले दो क़ानूनों से लाभकारी मूल्य की व्यवस्था पर कोई ख़तरा नहीं है, तो सरकार हमें एक चौथा क़ानून दे दे जो कि एमएसपी पर ख़रीद को सरकार और निजी ख़रीदारों, दोनों के लिए ही बाध्यकारी बना दे। जब तक मोदी सरकार लाभकारी मूल्य को लगातार बढ़ा रही थी, तब तक धनी किसानों-कुलकों के वर्ग को मोदी सरकार के फ़ासीवादी चरित्र से कोई परेशानी नहीं थी। उल्टे धान पर लाभकारी मूल्य में भारी बढ़ोत्तरी के लिए कई यूनियनों ने मोदी सरकार को धन्यवाद भी दिया था।
लुब्बेलुआब यह कि आज भी मोदी सरकार यदि एमएसपी को क़ानूनी अधिकार बनाना स्वीकार कर ले तो यह आन्दोलन समाप्त हो जायेगा क्योंकि उससे ज़्यादा इसकी कोई माँग ही नहीं है। न तो यह अपने चरित्र और प्रकृति से फ़ासीवाद-विरोधी है और न ही कॉरपोरेट-विरोधी, यदि हर स्थिति में उसे एमएसपी मिलता रहे। सच्चाई तो यही है। लेकिन पराजयबोध और निराशा-हताशा के शिकार तमाम कम्युनिस्टों को भी लग रहा है कि यह फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन है! चूँकि फ़िलहाल मज़दूर वर्ग की ताक़तें इतनी गोलबन्द और संगठित नहीं हैं, उनके बीच एक मज़बूत और सूझबूझ वाला राजनीतिक नेतृत्व नहीं मौजूद है, चूँकि मज़दूर आन्दोलन की शक्तियाँ बिखरी हुई हैं, इसलिए मज़दूर वर्ग तत्काल कोई बड़ा आन्दोलन या चुनौती मोदी सरकार के समक्ष नहीं खड़ा कर सकता है। ऐसे में मध्यवर्गीय जल्दबाज़ी और रूमानीवाद और साथ ही निराशावाद और पराजयवाद से एक साथ लैस टुटपुँजिया “कम्युनिस्ट” क्रान्तिकारी, जैसे नरोदवादी, क़ौमवादी, कुलकवादी “कम्युनिस्ट” बहती गंगा में हाथ धोने के लिए व्याकुल हो उठे हैं। जबकि विशेष तौर पर इस समय कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का काम था कॉरपोरेट पूँजी के विरुद्ध ग़रीब किसानों, निम्न-मँझोले किसानों, खेतिहर मज़दूर आबादी और साथ ही शहरी मज़दूर आबादी को उनकी साझा माँगों पर जागृत, गोलबन्द और संगठित करना और आम तौर पर पूँजीवादी लूट और शोषण के विरुद्ध व्यापक मेहनतकश ग़रीब आबादी को संगठित करना, चाहे वह ग्रामीण पूँजीपति वर्ग के हाथों हो या फिर कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग के हाथों। केवल तभी शासक वर्ग के इन दो धड़ों के बीच के अन्तरविरोधों को सर्वहारा वर्ग और उसके मित्र वर्गों (ग़रीब व निम्न-मँझोले किसानों, निम्न मध्य वर्गों) के हितों के फ़ायदे के मुताबिक तीख़ा भी बनाया जा सकता था। लेकिन अफ़सोस है कि मौजूदा आन्दोलन के आकार और आक्रामकता को देखकर कई पढ़े-लिखे कम्युनिस्ट भी एक बेहद बुनियादी चीज़ को भूल गये हैं : वह है राजनीतिक वर्ग विश्लेषण।

7. क्या एमएसपी को बचाना सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए ज़रूरी है?

सीधा जवाब है नहीं। धनी किसान-कुलक आन्दोलन के पीछे घिसट रहे कई नरोदवादी कम्युनिस्ट और क़ौमवादी “मार्क्सवादी” लाभकारी मूल्य की माँग को जायज़ ठहराने के लिए यह दावा कर रहे हैं कि लाभकारी मूल्य को बचाना ज़रूरी है क्योंकि उसके बिना सार्वजनिक वितरण प्रणाली नहीं बचेगी। कुछ का कहना है कि लाभकारी मूल्य से खाद्यान्न की क़ीमतें नीची और स्थिर रहती हैं। कुछ अन्य का दावा है कि लाभकारी मूल्य के कारण खेती में उत्पादकता में बढ़ोत्तरी को बढ़ावा मिलता है। क्या ये दावे सही हैं? आइये तर्कों और तथ्यों के आधार पर इनकी पड़ताल करते हैं।
सबसे पहली बात : लाभकारी मूल्य का सार्वजनिक वितरण प्रणाली से कोई कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली की स्थापना भारत में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान औपनिवेशिक अंग्रेज़ सरकार द्वारा की गयी थी, हालाँकि तब इसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली नहीं कहा जाता था। यह एक प्रकार की फ़ूड राशनिंग की व्यवस्था थी। आज़ादी के बाद पहली पंचवर्षीय योजना यानी कि 1951 से 1956 के दौर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के नाम से इस व्यवस्था को चलाया और बढ़ाया गया। याद रहे, इस समय लाभकारी मूल्य का कोई तंत्र मौजूद नहीं था। इस दौर में इसकी पहुँच गाँवों व शहरों के ग़रीबों तक बनाने का लक्ष्य रखा गया। यह उस समय पूँजीपति वर्ग की भी आवश्यकता थी क्योंकि उस समय उसे एक स्वस्थ और कुशल कार्यशक्ति की भी आवश्यकता थी। यही कारण था कि इसी दौर में तमाम तकनीकी प्रशिक्षण संस्थानों की भी स्थापना की गयी।
खाद्य सुरक्षा एक बड़ा मसला था। लेकिन खेती में सामन्ती अवशेष और साथ ही छोटी किसान अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन और निम्न उत्पादकता के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर नहीं थी और उसे खाद्यान्न का आयात तक करना पड़ रहा था। यह स्थिति औद्योगिक विकास को भी अवरुद्ध कर रही थी। यही कारण था कि 1960 के दशक में ‘हरित क्रान्ति’ की शुरुआत की गयी और उसकी प्रारम्भिक प्रयोग भूमि पंजाब को बनाया गया। इसमें पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना की एक अहम भूमिका थी। अभी तक लाभकारी मूल्य की कोई व्यवस्था नहीं की गयी थी। लाभकारी मूल्य की व्यवस्था की शुरुआत होती है 1966-67 में। इसके ज़रिये धनी किसानों और कुलकों के नये उभरते वर्ग को भौतिक प्रोत्साहन दिया जाता है। उस समय एक दौर में यह भौतिक प्रोत्साहन खेती में पूँजीवादी विकास और पूँजीपति वर्ग के लिए ज़रूरी था। लेकिन हर ऐसे कदम की अपनी स्वतंत्र गति बन जाती है। 1970 के दशक में ही धनी किसानों व कुलकों के वर्ग की बढ़ती आर्थिक शक्तिमत्ता राजनीतिक जगत में उनकी बढ़ती दख़ल के रूप में अभिव्यक्त होना शुरू हो चुकी थी। चौधरी चरण सिंह, देवीलाल और शरद जोशी जैसे नेता उभर रहे थे और राष्ट्रीय पैमाने पर पूँजीवादी राजनीति में उनकी आहट महसूस की जा रही थी। 1980 का दशक आते-आते यह ग्रामीण बुर्जुआ वर्ग (धनी पूँजीवादी भूस्वामी, पूँजीवादी फ़ार्मर, पूँजीवादी काश्तकार, कुलक) पूँजीपति वर्ग का एक शक्तिशाली धड़ा बन चुका था। निश्चित तौर पर, यह औद्योगिक-वित्तीय पूँजीपति वर्ग की बराबरी नहीं कर सकता था, लेकिन यह इतना शक्तिशाली हो चुका था कि देशव्यापी पैमाने पर कुल विनियोजित अधिशेष में अपनी हिस्सेदारी को बढ़ाने के लिए सौदेबाज़ी और राजनीतिक दबाव पैदा कर सके। इस खेतिहर बुर्जुआ वर्ग के पास यह क्षमता इसलिए भी मौजूद थी क्योंकि यह एक मज़बूत वोट बैंक था। वजह यह थी कि गाँवों में ग़रीब और निम्न-मँझोले किसान भी इन धनी किसानों-कुलकों का ही अनुसरण करते थे और आज भी उनका अच्छा-ख़ासा हिस्सा ऐसा करता है। इसकी कई वजहें हैं, जिन पर हम पहले लिख चुके हैं।
ग्रामीण बुर्जुआ वर्ग की बढ़ती आर्थिक व राजनीतिक शक्तिमत्ता के साथ 1980 के दशक से एक प्रक्रिया शुरू हुई। कृषि सब्सिडी का बड़ा हिस्सा जो कि अब तक नीतिगत तौर पर कृषि में आधारभूत ढाँचे, मसलन नहरों आदि के नेटवर्क के निर्माण पर ख़र्च किया जाता था, वह लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करने पर ख़र्च किया जाने लगा। 1992 में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के व्यवस्थित ध्वंस की शुरुआत की गयी। पहले सार्वभौमिक पीडीएस को बदलकर ‘परिवर्तित पीडीएस’ (आरपीडीएस) बनाया गया, जिसका लक्ष्य था कुछ विशेष इलाक़ों में सार्वजनिक वितरण करना, जैसे दूर-दराज़ के पहाड़ी इलाक़े, ग्रामीण पिछड़े इलाक़े, इत्यादि। 1997 में ढाँचागत समायोजन कार्यक्रम अपनाये जाने के बाद इस आरपीडीएस को लक्षित पीडीएस में बदल दिया गया जिसके अनुसार ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वालों के लिए सार्वजनिक वितरण को पीडीएस का लक्ष्य बना दिया गया। ग़रीबी को परिभाषित करने की एक पूरी नयी राजनीति की भी शुरुआत हुई। तब से पीडीएस को हर नयी सरकार निष्प्रभावी बनाने के एजेण्डा पर लगातार काम कर रही है, चाहे वह वाजपेयी सरकार रही हो, मनमोहन सिंह सरकार के दो कार्यकाल और विशेष तौर पर दूसरा कार्यकाल रहा हो, या फिर मोदी सरकार का कार्यकाल हो। लेकिन लाभकारी मूल्य में इनमें से ज़्यादातर सरकारों के कार्यकाल में निरन्तर कभी धीमी तो कभी तेज़ बढ़ोत्तरी होती रही है। मोदी सरकार ने भी 2019 तक लाभकारी मूल्य में लगातार बढ़ोत्तरी की थी। यदि लाभकारी मूल्य का सार्वजनिक वितरण प्रणाली से कोई सम्बन्ध होता तो इस पूरे दौर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली मज़बूत हुई होती, न कि कमज़ोर।
वास्तव में, पीडीएस लाभकारी मूल्य की व्यवस्था से पहले से मौजूद थी और उसके बाद भी मौजूद रह सकती है। पीडीएस को सरकार अलग कारणों से ख़त्म और निष्प्रभावी बना रही है क्योंकि इससे मज़दूर वर्ग की मोलभाव की क्षमता कम होगी और संकटकाल में पूँजीपति वर्ग को मदद मिलेगी। लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को पूँजीपति वर्ग अलग वजहों से ख़त्म करना चाहता है, क्योंकि यह औसत मज़दूरी बढ़ाने का दबाव पैदा करता है और लम्बी अवधि में मुनाफ़े की दर में गिरावट का कारण बन सकता है। लेकिन यह भी सच है कि लाभकारी मूल्य का मज़दूर वर्ग और ग़रीब व निम्न-मँझोले किसान वर्ग को भी नुक़सान होता है। अगर लाभकारी मूल्य की वजह से सार्वजनिक वितरण प्रणाली मज़बूत होती तो उसे 1992 से लेकर 2019 के बीच मज़बूत होते जाना चाहिए था, लेकिन यही वह दौर है जब एमएसपी बढ़ता रहा है और पीडीएस तबाह होता रहा है।
तीसरी बात, सरकारी ख़रीद के लिए लाभकारी मूल्य की व्यवस्था कोई पूर्वशर्त नहीं है। दुनिया के लगभग हर पूँजीवादी देश में किसी न किसी प्रकार की फ़ूड राशनिंग या पीडीएस की प्रणाली है, चाहे वह सार्वभौमिक हो या लक्षित। लेकिन इनमें से अधिकांश देशों में एमएसपी की कोई व्यवस्था नहीं है। सरकार अपने खाद्य रिज़र्व के लिए या तो बोली लगाने जैसी कोई प्रक्रिया करती है, या बाज़ार से ख़रीद करती है।
अब भारत के ठोस उदाहरण से भी इसे समझ लेते हैं।
बिहार में 2006 में एमएसपी की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। अगर सरकारी ख़रीद की पूर्वशर्त एमएसपी है, तो बिहार में सरकारी ख़रीद को और कम हो जाना चाहिए था। लेकिन क्या वाकई ऐसा हुआ है? नहीं! उल्टे यदि दर की बात करें तो बिहार में खाद्यान्न की सरकारी ख़रीद पंजाब और हरियाणा से कहीं तेज़ गति से बढ़ी है। 2005 से 2015 के बीच बिहार में गेहूँ की सरकारी ख़रीद 0.7 प्रतिशत से बढ़कर 11.28 प्रतिशत हो गयी, जबकि इसी दौर में पंजाब में गेहूँ की ख़रीद 66.79 प्रतिशत से कम होकर 63.84 प्रतिशत पर और हरियाणा में 62.58 प्रतिशत से घटकर 58.38 प्रतिशत पर आ गयी। इसी दौर में बिहार में धान की सरकारी ख़रीद 1.7 प्रतिशत से बढ़कर 21.4 प्रतिशत हो गयी, जबकि पंजाब में धान की सरकारी ख़रीद 82.7 प्रतिशत से 76.1 प्रतिशत रह गयी। निश्चित तौर पर, अभी भी सरकारी ख़रीद निरपेक्ष तौर पर पंजाब और हरियाणा में अन्य किसी भी राज्य से कहीं ज़्यादा है और उसके ठोस राजनीतिक कारण और कुछ आर्थिक कारण भी हैं। लेकिन यदि एमएसपी ख़त्म होने से सरकारी ख़रीद का कोई कारणात्मक रिश्ता होता तो बिहार में सरकारी ख़रीद घटनी चाहिए थी और पंजाब व हरियाणा में बढ़नी चाहिए थी। लेकिन तथ्य कुछ और दिखला रहे हैं।
स्पष्ट है कि सरकारी ख़रीद और पीडीएस का एमएसपी से कोई कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं है। यह कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास वे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी कर रहे हैं, जो जानते हैं कि एमएसपी की माँग ग़रीब-विरोधी माँग है लेकिन वे मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन का आलोचनात्मक विश्लेषण करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं, या फिर धूर्त किस्म के क़ौमवादी “मार्क्सवादी” कर रहे हैं, जिन्हें मार्क्सवाद का ‘क ख ग’ भी नहीं आता और अब वे पंजाब में उन्हीं नवनरोदवादियों व क़ौमवादियों की गोद में बैठने को तैयार हैं, जिनका पिछले 15 वर्षों से वे विरोध करते आ रहे थे। उनके आश्चर्यजनक यू-टर्न के सदमे से इन अनपढ़ क़ौमवादी “मार्क्सवादियों” के कार्यकर्तागण ही अभी ठीक से नहीं उबर पाये हैं।
अब ज़रा इस तर्क को देखें कि लाभकारी मूल्य से खाद्यान्न की क़ीमतें नीचे और स्थिर रहती हैं। यह तर्क भी हमारे क़ौमवादी अनपढ़ “मार्क्सवादी” आजकल काफ़ी दे रहे हैं। यह भी तथ्यत: ग़लत है। सच यह है कि लाभकारी मूल्य के कारण खाद्यान्न की क़ीमतों पर एक बेहद ऊँचा फ़्लोर लेवल तय हो जाता है, जिस पर वे अपेक्षाकृत रूप से स्थिर रहती हैं, इस रूप में कि क़ीमतें उस फ़्लोर लेवल से नीचे आ ही नहीं सकती हैं। ये अनपढ़ “मार्क्सवादी” कहते हैं कि आलू-प्याज़ पर भी लाभकारी मूल्य मिलना चाहिए और फिर उनकी क़ीमतें स्थिर हो जायेंगी। बिल्कुल! लेकिन बेहद ऊँचे स्तर पर जिससे नीचे वे आ ही नहीं पायेंगी। अभी निश्चित तौर पर आलू, प्याज़ आदि की जमाख़ोरी और सट्टेबाज़ी के कारण बीच-बीच में उनकी क़ीमतें ज़्यादा बढ़ती हैं, लेकिन उसकी वजह एमएसपी की ग़ैर-मौजूदगी नहीं है। अगर ऐसा होता तो चावल और गेहूँ की क़ीमतें व्यापक जनता के लिए बिहार में पंजाब के मुक़ाबले ज़्यादा होनी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है।
बिहार में सितम्बर 2017 में चावल की क़ीमत 10.460 रु/किलो थी। जून 2014 में यह क़ीमत सर्वाधिक ऊपर 17.620 रु/किलो थी और वहीं जनवरी 1996 में यह सर्वाधिक नीचे 7.4 रु/किलो थी। नवम्बर 1995 से सितम्बर 2017 के दौरान बिहार में खेतिहर मज़दूरों के लिए चावल की औसत उपभोक्ता क़ीमत 10.455 रु/किलो रही। पंजाब में सितम्बर 2017 में चावल की क़ीमत 32.38 रु/किलो रही है। जून 2017 में यह क़ीमत सर्वाधिक ऊपर 32.42 रु/किलो थी और नवम्बर 1995 में यह सर्वाधिक नीचे 8.39 रु/किलो थी। नवम्बर 1995 से सितम्बर 2017 के दौरान पंजाब में खेतिहर मज़दूरों के लिए चावल की औसत उपभोक्ता क़ीमत 14.02 रु/किलो रही। अब खेतिहर मज़दूरों के लिए आटे की उपभोक्ता क़ीमतों के आँकड़े देख लेते हैं।
बिहार में सितम्बर 2017 में आटे की क़ीमत 20.04 रु/किलो थी। जनवरी 2017 में यह क़ीमत सर्वाधिक ऊपर 21.7 रु/किलो थी और वहीं मई 1996 में यह सर्वाधिक नीचे 5.75 रु/किलो थी। नवम्बर 1995 से सितम्बर 2017 के दौरान बिहार में खेतिहर मज़दूरों के लिए आटे की औसत उपभोक्ता क़ीमत 12.335 रु/किलो रही। वहीं पंजाब में सितम्बर 2017 में आटे की क़ीमत 21.95 रु/किलो रही है। जनवरी 2017 में यह क़ीमत सर्वाधिक ऊपर 23.62 रु/किलो थी और मई 1996 में यह सर्वाधिक नीचे 4.98 रु/किलो थी। नवम्बर 1995 से सितम्बर 2017 के दौरान पंजाब में खेतिहर मज़दूरों के लिए आटे की औसत उपभोक्ता क़ीमत 11.31 रु/किलो रही। नवीनतम बाज़ार क़ीमतों को देखें तो स्पष्ट है कि एपीएमसी मण्डी ख़त्म होने के बावजूद बिहार में आटे की बाज़ार क़ीमत पंजाब के मुक़ाबले कम है।
हम देख सकते हैं कि रिश्ता क़ीमतों को नीचे रखने से एमएसपी की व्यवस्था का कोई सीधा नहीं है। उल्टे यदि कोई रिश्ता है, तो वह यह हैं कि एमएसपी अधिक होने से व्यापक ग़रीब मेहनतकश आबादी, जिसमें कि ग़रीब किसान भी शामिल हैं, के लिए खाने-पीने की चीज़ें और उनके नियमित आहार जैसे कि चावल व गेहूँ महँगे हो जाते हैं।
इसके अलावा, महँगाई को बढ़ाने वाले अन्य कारक भी होते हैं। मिसाल के लिए जमाख़ोरी के ज़रिये भी बाज़ार क़ीमतों को प्रभावित किया जाता है। विशेषकर सब्जि़यों व फलों जैसे अपेक्षाकृत जल्दी नष्ट होने वाले कृषि उत्पाद, जिनका भण्डारण महँगा पड़ता है, उनकी जमाख़ोरी बड़े व्यापारियों द्वारा की जाती है और इस वजह से भी इनकी क़ीमतें काफ़ी अस्थिर रहती हैं। एमएसपी की व्यवस्था से बस यह होता है कि उन कृषि उत्पादों की क़ीमतें कमोबेश स्थिर होती हैं, जिनपर आम तौर पर यह मिलता है, लेकिन यह क़ीमतें कृत्रिम रूप से काफ़ी ऊँचे स्तर पर स्थिर रहती हैं। इसके अलावा दलहन की ख़रीद भी एमएसपी पर होती है लेकिन पिछले 14-15 वर्षों में इनकी बाज़ार क़ीमतों में भी काफ़ी अस्थिरता देखी गयी है।
इसके अलावा, गेहूँ व धान के लाखों टन का रिज़र्व स्टॉक होने के बावजूद सरकार उसे सड़ा देना या कम्पनियों को बेच देना पसन्द करती है, क्योंकि लाभकारी मूल्य पर होने वाली ख़रीद के बाद उसे इस ख़र्च की पूर्ति भी करनी होती है। यही वजह है कि खाद्यान्न के भारी रिज़र्व के बावजूद भारत में खाद्य असुरक्षा दुनिया के बेहद ग़रीब देशों से भी ज़्यादा है। इसकी एक वजह ग्रामीण बुर्जुआ वर्ग को एमएसपी के रूप में दी जा रही कृत्रिम रूप से ऊँची मुनाफ़ा दर भी है। एमएसपी व्यापक लागत के ऊपर दी जाने वाली 40 से 50 प्रतिशत की शुद्ध मुनाफ़ा दर सुनिश्चित करती है। कृषि क्षेत्र में न सिर्फ़़ उसमें पैदा होने वाला कुल मूल्य रुकता है, बल्कि एमएसपी के कारण अन्य क्षेत्रों से मूल्य खेतिहर बुर्जुआ वर्ग को स्थानान्तरित होता है। यही वजह है कि एमएसपी के कारण खेती उत्पादों की क़ीमतें कृत्रिम रूप से ऊँचे स्तर पर फ़िक्‍स हो जाती हैं।
लुब्बेलुआब यह कि एमएसपी के कारण खाद्यान्न सुरक्षा नहीं बढ़ती, बल्कि खाद्यान्न असुरक्षा बढ़ती है, ग़रीबों के लिए खाद्यान्न की क़ीमतें बढ़ती हैं, और उनका जीवन स्तर नीचे जाता है क्योंकि उनकी आमदनी का बड़ा हिस्सा भोजन पर ख़र्च हो जाता है।
अब आख़ि‍री (कु)तर्क पर आते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि लाभकारी मूल्य के कारण उत्पादकता बढ़ती है। यह तर्क भी किसी तथ्य पर आधारित नहीं है बल्कि लाभकारी मूल्य की माँग का समर्थन करके धनी किसानों-कुलकों की गोद में बैठने की आतुरता से पैदा हुआ तर्क है। हम फिर से उन दो राज्यों की तुलना करते हैं जहाँ लाभकारी मूल्य की सबसे सुचारु व्यवस्था है और जहाँ लाभकारी मूल्य की व्यवस्था समाप्त हो चुकी है। 2004 से 2015 के बीच पंजाब में खेती के क्षेत्र की कुल वृद्धि दर रही 1.61 प्रतिशत जबकि इसी दौर में बिहार में खेती के क्षेत्र की कुल वृद्धि दर रही 4.7 प्रतिशत। यानी तीन गुना ज़्यादा वृद्धि दर। यही दौर है जबकि बिहार में लाभकारी मूल्य की व्यवस्था समाप्त होने के असर स्पष्ट तौर पर दिखायी देने लगे थे। यह सच है कि निरपेक्ष अर्थों में अभी भी बिहार में खेती में उत्पादकता पंजाब और हरियाणा के मुक़ाबले बहुत पीछे है लेकिन दरों की तुलना किसी भी दिये गये दौर में ही हो सकती है और वही रुझान की सही तस्वीर बता सकता है। बहुत-से लोग अवसरवादी तरीके़ से बिहार के आर्थिक पिछड़ेपन के पूरे इतिहास पर मिट्टी डालकर कह रहे हैं कि ऐसा इसीलिए है क्योंकि वहाँ एमएसपी की व्यवस्था ख़त्म हो गयी! एमएसपी की व्यवस्था तो 2006 में ख़त्म हुई है, उसके पहले क्या बिहार में खेती की विकास दर की कोई तुलना पंजाब या हरियाणा से हो सकती थी? सच यह है कि बिहार में खेती और आम तौर पर अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन के दीर्घकालिक ऐतिहासिक कारण हैं। इन सारे कारणों के विश्लेषण व व्याख्या के बजाय सारे मामले को महज़ लाभकारी मूल्य का मामला बना देना या तो बौद्धिक बेईमानी से पैदा हो सकता है, या फिर मूर्खता के कारण। एक दौर में पूँजीवादी धनी फ़ार्मरों के वर्ग को भौतिक प्रोत्साहन के तौर पर लाभकारी मूल्य देना और उत्पादकता बढ़ाने के लिए, मशीनीकरण के लिए और पूँजी-सघन खेती के लिए प्रेरित करने की पूँजीवादी अर्थों में एक भूमिका और प्रासंगिकता थी। यह प्रासंगिकता 1970 के दशक के अन्त से पहले से समाप्त हो चुकी थी। आज ऐसे तर्क का कोई तथ्यात्मक आधार नहीं है कि लाभकारी मूल्य से ही उत्पादकता बढ़ेगी, जैसा कि बिहार का उदाहरण साफ़ तौर पर दिखलाता है। उत्पादकता बढ़ने के लिए पूँजीवादी विकास होना आवश्यक है और यह पूँजीवादी विकास लाभकारी मूल्य के बिना भी हो सकता है और हुआ भी है। उल्टे आज लाभकारी मूल्य की व्यवस्था पूँजीवादी विकास को ही बाधित कर रही है, ताकि देश की कुल आबादी में डेढ़-दो करोड़ धनी व उच्च मध्यम किसानों को कृत्रिम रूप से ऊँची लाभ दर मुहैया करायी जा सके।
इसलिए ये तीनों ही दावे, कि एमएसपी के बिना पीडीएस नहीं बचेगा, एमएसपी के बिना खाद्यान्नों की क़ीमतें ऊँची हो जायेंगी, और एमएसपी के बिना उत्पादकता नहीं बढ़ेगी, तथ्यों के सामने ढेर हो जाते हैं। वास्तव में, ये धनी किसानों-कुलकों की एक ग़रीब-विरोधी माँग, यानी लाभकारी मूल्य की माँग, के लिए हो रहे आन्दोलन के नेतृत्व की गोद में बैठने, या उस शामिल-बाजे में शामिल होने के लिए उन कम्युनिस्टों द्वारा और क़ौमवादी “मार्क्सवादियों” द्वारा गढ़े जा रहे कुतर्क हैं, जो साहस के साथ एक सर्वहारा वर्गीय अवस्थिति नहीं अपना पा रहे हैं और जो अन्दर-ही-अन्दर जानते हैं कि यह माँग व्यापक ग़रीब मेहनतकश आबादी के खिलाफ़ जाती है। फिर वे इसका समर्थन कैसे करें? इसी के लिए ये सारे कुतर्क गढ़े जा रहे हैं।

8. निष्कर्ष

हमने इस आन्दोलन की प्रमुख माँगों और उसके वर्ग चरित्र का विश्लेषण यहाँ पर किया है। इसका यह अर्थ नहीं है कि हम प्रदर्शन, विरोध और आन्दोलन करने के उनके जनवादी अधिकार पर राज्य के हमले को सही मानते हैं। हमारा स्पष्ट मानना है कि राजकीय दमन का हर सूरत में विरोध किया जाना चाहिए, सिवाय एक अपवाद के। जब राजकीय दमन अपवादस्वरूप फ़ासीवादियों और धुर दक्षिणपंथी या धार्मिक कट्टरपंथी ताक़तों के ख़िलाफ़ हो। लेकिन भारत में यह अपवाद घटित ही कम होता है! इसके अतिरिक्त, अगर किसी ग़ैर-फ़ासीवादी बुर्जुआ पार्टी के भी जनवादी हक़ों पर हमला होता है तो हम उसका बिना शर्त विरोध करते हैं, चाहे हम उसकी माँगों, चार्टर और पूरी राजनीति से असहमत ही क्यों न हों। इसलिए जब भी मौजूदा आन्दोलन के दौरान किसानों पर वॉटर कैनन से हमला किया गया, या बैरीकेड्स लगाये गये या आँसू गैस के गोले फेंके गये तो हमने उसका विरोध किया और आगे भी करेंगे।
मौजूदा आन्दोलन में करीब 57 किसान ठण्ड में मर भी चुके हैं। निश्चित तौर पर, एक कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी के लिए यह अफ़सोस की बात है क्योंकि हम मानवीय जीवन की क़ीमत को समझते हैं। लेकिन आन्दोलन के चार्टर और राजनीति से सहमत होना एक अलग सवाल है, जिस पर भावुकतावादी तरीके से कोई नज़रिया नहीं अपनाया जा सकता है।
लेकिन जो बात राजनीतिक निचोड़ के तौर पर निकलती है वह यह है: मौजूदा किसान आन्दोलन पहले दो क़ानूनों पर केन्द्रित है, जोकि एमएसपी पर हमला कर रहे हैं। निश्चित तौर पर, आन्दोलन का नेतृत्व तीनों क़ानूनों को वापस लेने की माँग कर रहा है और सिर्फ़ दो क़ानूनों का विरोध सम्भव ही नहीं था क्योंकि शासक वर्ग के किसी भी धड़े का आन्दोलन और उसकी राजनीति हमेशा एक विचारधारात्मक चरित्र रखती है। तीसरे क़ानून का विरोध मौजूदा धनी किसान आन्दोलन के विचारधारात्मक पैकेज का हिस्सा है। लेकिन यदि सरकार सिर्फ़ तीसरा क़ानून लाती तो आप यक़ीन मान सकते हैं कि धनी किसान उसके ख़िलाफ़ कोई आन्दोलन नहीं कर रहे होते। उनके आन्दोलन का मूल और मुख्य मुद्दा ही एमएसपी है। तीसरा क़ानून वास्तव में बिचौलियों, आढ़तियों और व्यापारियों को फ़ायदा पहुँचाता है और तमाम प्रकार के बिचौलियों के मंच पहले भी माँग करते रहे हैं कि आवश्यक वस्तुओं की स्टॉकिंग पर से सीमा हटा दी जाये। लुब्बेलुआब पूरा मसला ही लाभकारी मूल्य को बचाने का है, चाहे कोई कितना भी इंकार करे।
तीसरी बात, लाभकारी मूल्य की माँग सीधे-सीधे एक ग़रीब-विरोधी माँग है और विशेष तौर पर धनी किसानों-कुलकों के वर्ग की सेवा करती है और उन्हीं के वर्ग की माँग है। इससे समूचे मज़दूर वर्ग और ग़रीब और निम्न-मँझोले किसान वर्ग को नुक़सान होता है क्योंकि इससे खाद्यान्नों की क़ीमतें बढ़ती हैं।
चौथी बात, एमएसपी को बचाने को सार्वजनिक वितरण प्रणाली और सरकारी ख़रीद को बचाने से जोड़ने की बात तर्क और तथ्य, दोनों के नज़रिए से बकवास और मूर्खतापूर्ण है।
पाँचवी बात, मौजूदा धनी किसान आन्दोलन कोई फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन नहीं है, हालाँकि वह मोदी सरकार के लिए तात्कालिक तौर पर एक चुनौती बना हुआ है। लेकिन इसकी वजह भी यह है कि यह शासक वर्ग के ही सामाजिक और राजनीतिक रूप से शक्तिशाली धड़े, यानी धनी किसानों-कुलकों का आन्दोलन है।
छठी बात, देश की ग्रामीण आबादी की वर्गीय संरचना को समझना, उसके अलग-अलग वर्गों को समझना, उनके अलग-अलग हितों को समझना और उसके आधार पर समूची वर्गीय स्थिति को समझना हम मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए अनिवार्य है। इसके बिना हम अपनी वर्ग अवस्थिति को सही तरीके से संघटित नहीं कर सकते और अपने रणनीतिक मोर्चों (दीर्घकालिक उद्देश्यों के मद्देनज़र) और उसके ही मातहत आम रणकौशलात्मक मोर्चों (दीर्घकालिक उद्देश्यों के ही मातहत तात्कालिक लक्ष्यों के मद्देनज़र) को भी सही तरह से नहीं समझ सकते हैं।
आख़िरी बात, उपरोक्त सवालों की सही समझदारी आज विशेष तौर पर बेहद ज़रूरी है क्योंकि मज़दूर वर्ग के हिरावल होने का दावा करने वाले तमाम कम्युनिस्ट संगठन ही वक्त की आँधी में बहते हुए धनी किसानों-कुलकों की माँगों का समर्थन कर रहे हैं और ऐसा न करने को अम्बानी-अडानी जैसे बड़े पूँजीपतियों का समर्थन मान रहे हैं। उनके दिमाग़ में एक बार भी यह सवाल नहीं खड़ा होता कि बड़े पूँजीपतियों से अपेक्षाकृत छोटे पूँजीपतियों को बचाना सर्वहारा वर्ग का कार्यभार कबसे हो गया? छोटे पूँजीपतियों के लिए सरकारी संरक्षण को बचाना सर्वहारा वर्ग का कार्यभार कबसे हो गया? मूल बात यह है कि हमारे ये बन्धु समय के प्रवाह में बहकर वर्ग विश्लेषण भूल गये हैं।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2021


 

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