कोरोना वैक्सीन के नाम पर जारी है बेशर्म राजनीति
वैज्ञानिक उपलब्धि की वाहवाही लूटने की सनक में लोगों की ज़िन्दगी से खिलवाड़

– आनन्द सिंह

मोदी सरकार देश में हर उपलब्धि का सेहरा ख़ुद के सिर बाँधने और हर विफलता का ठीकरा विपक्षी दलों पर फोड़ने के लिए कुख्यात है। कोरोना महामारी के दौर में भी सरकार का ज़ोर इस महामारी पर क़ाबू पाने की बजाय ख़ुद के लिए वाहवाही लूटने पर रहा है। जिन लोगों की राजनीतिक याददाश्त कमज़ोर नहीं है उन्हें याद होगा कि किस प्रकार सरकार ने इण्डियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च के ज़रिये वैक्सीन बनाने वाली कम्पनियों पर दबाव डाला था कि 15 अगस्त तक कोरोना की वैक्सीन तैयार हो जानी चाहिए ताकि प्रधान सेवक महोदय लाल किले से दहाड़कर वैक्सीन की घोषणा कर सकें और ख़ुद की पीठ थपथपा सकें। लेकिन अफ़सोस, प्रधान सेवक का यह सपना साकार न हो सका क्योंकि उस समय वैक्सीन निर्माण की प्रक्रिया बहुत शुरुआती मंज़िल में थी!
उसके बाद बिहार विधान सभा चुनाव में भी भाजपा की ओर से यह वायदा किया गया कि अगर बिहार में भाजपा की सरकार बनी, तो कोरोना वैक्सीन सभी को मुफ़्त में उपलब्ध करायी जायेगी। उस समय भी कोरोना वैक्सीन अभी दूर की ही कौड़ी थी। उसके बाद दिसम्बर में प्रधान सेवक महोदय ने वैक्सीन बनाने वाली कम्पनियों के परिसर में पहुँचकर वैज्ञानिकों को अपना परम ज्ञान देते हुए फ़ोटो सेशन करवाया मानो वैज्ञानिकों को वैक्सीन की खोज के लिए इसी प्रेरणा का इन्तज़ार था। अब जबकि दुनियाभर के वैज्ञानिकों के अथक प्रयास के परिणामस्वरूप कोरोना वैक्सीन एक वास्तविकता बनती दिख रही है, तो मोदी सरकार भला इस मौक़े को कैसे गँवा सकती है। वैज्ञानिकों की इस उपलब्धि का श्रेय ख़ुद को देने को आतुर मोदी सरकार के सब्र का प्याला छलक चुका है और इसीलिए नये साल की शुरुआत में ही वैक्सीन निर्माण की प्रक्रिया पूरी किये बिना ही दो भारतीय कम्पनियों, सीरम इंस्ट्रीट्यूट और भारत बायोटेक, द्वारा विकसित वैक्सीनों के आपातकालीन उपयोग को हरी झण्डी दे दी गयी है और इसका ज़ोर-शोर से प्रचार शुरू कर दिया गया है।
इन दो वैक्सीनों, कोविशील्ड और कोवैक्सीन, को आनन-फ़ानन में हरी झण्डी मिलने से पहले ही पिछले कई हफ़्तों से अख़बारों के पन्ने वैक्सीन लगाने की तैयारियों की ख़बरों से पटे देखे जा सकते थे। इन ख़बरों में वैज्ञानिकों द्वारा वैक्सीन निर्माण से सम्बन्धित शोध से सम्बन्धित जानकारी कम और सरकार की तैयारियों पर ही ज़्यादा जानकारी होती थी मानो प्रधानमंत्री और भाजपा के नेता व मंत्री ख़ुद ही प्रयोगशाला में बैठकर वैक्सीन बना रहे हों। टीवी पर तो एक चैनल ने मोदी को ‘वैक्सीन गुरु’ ही घोषित कर दिया था!
भारतीय कम्पनियों द्वारा विकसित दो वैक्सीनों को हरी झण्डी देने में राजनीतिक दबाव को इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि वैक्सीन निर्माण की प्रक्रिया के सभी चरणों का पालन किये बिना आनन-फ़ानन में उन्हें मंज़ूरी मिल गयी।
ग़ौरतलब है कि वैक्सीन निर्माण की प्रक्रिया बहुत लम्बी होती है जिसमें सबसे पहले दवा का परीक्षण जानवरों पर किया जाता है। जानवरों में कारगर पाये जाने पर वैक्सीन का इन्सानों पर क्लिनिकल ट्रायल किया जाता है। मंज़ूरी मिलने के लिए किसी वैक्सीन को क्लिनिकल ट्रायल के तीन चरणों से होकर गुज़रना होता है जिनमें आम तौर पर हर चरण में वर्षों का समय लगता है। वैक्सीन विकसित होने में सामान्यतया 8-10 वर्ष तक लगते हैं। कोरोना महामारी के मद्देऩजर इस प्रक्रिया को तेज़ किया गया है फिर भी हर चरण के ट्रायल में कई महीने का समय तो लगता ही है। पहले चरण में क़रीब 10 से 50 लोगों पर वैक्सीन का ट्रायल किया जाता है और यह देखा जाता है कि दवा सुरक्षित है या नहीं। दूसरे चरण में सैकड़ों लोगों पर ट्रायल किया जाता है जिसमें मुख्य रूप से यह देखा जाता है कि दवा की कितनी ख़ुराक ज़रूरी है। इस चरण में भी दवा के साइड इफ़ेक्ट देखे जाते हैं। वैक्सीन निर्माण का सबसे अहम चरण तीसरा चरण होता है जिसमें भिन्न-भिन्न स्थानों में रहने वाले हज़ारों लोगों पर ट्रायल किया जाता है। इस चरण में यह परीक्षण किया जाता है कि वैक्सीन कितनी प्रभावी है। इनमें से किसी भी चरण में अगर लगता है कि लोगों को नुक़सान हो रहा है, तो परीक्षण रोक दिया जाता है।
आम तौर पर ये तीनों चरण एक के बाद एक किये जाते हैं और एक चरण की मंज़ूरी मिलने के बाद ही अगले चरण का ट्रायल शुरू होता है, लेकिन कोरोना वैक्सीन को जल्द से जल्द विकसित किये जाने की होड़ में इन तीनों चरणों को एक साथ समान्तर चलाया गया जिसकी वजह से ऑक्सफ़ोर्ड-ऐस्ट्रा ज़ेनेका, फ़ाइज़र व मॉडर्ना जैसी कम्पनियों द्वारा तैयार वैक्सीन की सुरक्षा और प्रभाविता पर प्रश्न उठाये जा रहे हैं। इन वैक्सीन के क्लिनिकल ट्रायल के दौरान कुछ लोगों को तंत्रिका सम्बन्धी समस्याएँ हुई थीं। इसके अतिरिक्त कोरोना वायरस की नयी क़िस्मों, जैसे ब्रिटेन व दक्षिण अफ्रीका में पायी गयी क़िस्मों, पर ये वैक्सीन कितनी प्रभावी होंगी इसके बारे में अभी दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता है।
इनमें सबसे चिन्ताजनक है भारत में तैयार की जा रही वैक्सीनों का मामला। भारत बायोटेक द्वारा विकसित की जा रही ‘कोवैक्सीन’ के मामले में तो तीसरे चरण की प्रभाविता के डेटा के बिना ही उसे मंज़ूरी दे दी गयी जिसके नतीजे बेहद ख़तरनाक हो सकते हैं। सीरम इंस्टीट्यूट की वैक्सीन के ट्रायल में शामिल एक व्यक्ति के स्वास्थ्य को गम्भीर नुक़सान होने का दाव करते हुए कम्पनी पर पाँच करोड़ रुपये मुआवज़ा का मुक़दमा किया गया है। इस पर कम्पनी ने उसे चुप कराने के लिए फ़ौरन उस पर 100 करोड़ रुपये की मानहानि का मुक़दमा ठोंक दिया।
विशेषज्ञों ने ड्रग कण्ट्रोलर जनरल ऑफ़ इण्डिया द्वारा भारत की दो वैक्सीनों को आपातकालीन इस्तेमाल के लिए मंज़ूरी देने पर गम्भीर सवाल उठाये हैं। उनका कहना है कि क्लिनिकल ट्रायल के सभी चरणों के पूरे डेटा के बिना ऐसी आपातकालीन मंज़ूरी से लोगों की सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है और वैक्सीन पर लोगों का भरोसा कम हो सकता है। इस मंज़ूरी को देते समय जिस भाषा का उपयोग किया गया है वह गुमराह करने वाली है क्योंकि उससे ऐसा लगता है कि मंज़ूरी मिलने के बाद भी क्लिनिकल ट्रायल जारी रहेगा। यानी, एक तरह से जिन लोगों को टीका लगाया जायेगा वह भी परीक्षण में ही शामिल होंगे।
इसके अलावा मंज़ूरी देने की इस पूरी प्रक्रिया में बरती गयी अपारदर्शिता पर भी सवाल उठ रहे हैं। जिस सब्जेक्ट एक्सपर्ट कमेटी की सिफ़ारिश के आधार पर ये मंज़ूरी दी गयी है उसके सदस्यों का ब्योरा और उनकी मीटिंग के मिनट्स सार्वजनिक नहीं किये गये हैं। इसके अलावा इन वैक्सीन पर किये गये शोध को किसी विशेषज्ञों की समीक्षा से गुज़रने वाली किसी शोध पत्रिका में प्रकाशित भी नहीं किया गया है, जोकि ऐसे अनुसन्धानों के मामले में किया जाता है। इन वजहों से इन दो वैक्सीन, ख़ासकर कोवैक्सीन, पर गम्भीर सवालिया निशान उठने लाज़िमी हैं।
इसके अतिरिक्त एनडीटीवी में आयी एक ख़बर के अनुसार कोरोना की इन वैक्सीन का क्लिनिकल ट्रायल भोपाल गैस पीड़ितों के एक मोहल्ले में किया गया था जहाँ लोगों को यह जानकारी ही नहीं दी गयी थी कि यह क्लिनिकल ट्रायल है। एनडीटीवी के रिपोर्टर ने जिन लोगों का इण्टरव्यू लिया उन्होंने बताया कि उन्हें क्लिनिकल ट्रायल से सम्बन्धित कोई जानकारी नहीं दी गयी थी और उन्हें यही लग रहा था कि यह कोरोना की दवा थी। यही नहीं कई लोगों को इस ट्रायल में शामिल होने के लिए 750 रुपये भी दिये गये थे। इससे स्पष्ट है कि कोरोना की वैक्सीन बनाने की इस पूरी प्रकिया में ग़रीबों को गिनी पिग की तरह इस्तेमाल किया गया।
कोरोना महामारी की शुरुआत से ही भारत के फ़ासिस्ट शासक इस आपदा में भी अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए अवसर तलाशते रहे हैं। वे अब इतने बेशर्म हो चुके हैं कि लोगों की ज़िन्दगी से खिलवाड़ करने में उन्हें ज़रा-सा भी संकोच नहीं होता है।
सोचने की बात है कि आख़िर वैक्सीन जैसी चीज़, जिससे करोड़ों लोगों की जीवन-मृत्यु का सवाल जुड़ा हुआ है, उसे लेकर इस क़दर सन्देह का माहौल कैसे और क्यों बन गया है? भारत में तो मोदी सरकार राजनीतिक फ़ायदा उठाने की घटिया कोशिश में हर चीज़ को मज़ाक या सन्देह की वस्तु बना ही देती है, पर दुनिया के दूसरे देशों में बन रही वैक्सीन भी गम्भीर सवालों और सन्देह के घेरे में हैं, चाहे फ़ाइज़र, एस्ट्राज़ेनेका या मॉडर्ना जैसी कम्पनियों की वैक्सीन हो, या चीन और रूस की। जवाब है, पूँजीवाद। इस मुनाफ़ाख़ोर व्यवस्था में दवाओं का विकास लोगों की सेहत और जान बचाने के लिए नहीं, बल्कि अरबों-खरबों की कमाई के लिए ही किया जाता रहा है। मगर पूँजीवाद का संकट अब जहाँ पहुँच चुका है, उसमें करोड़ों लोगों की जान जोखिम में डालना दवा कम्पनियों के लिए कोई बड़ी बात नहीं है।
होना तो यह चाहिए था कि मनुष्यता के सामने आये इस संकट से पार पाने के लिए सारी दुनिया के वैज्ञानिक और चिकित्सक मिलकर वैक्सीन और दवाएँ विकसित करते और सारी दुनिया के सभी लोगों को उन्हें नि:शुल्क उपलब्ध कराया जाता। मगर पूँजीवाद में यह सम्भव ही नहीं है। आपसी होड़ में लगी कम्पनियाँ और सरकारें अपने-अपने फ़ायदे के लिए एक-दूसरे को पछाड़ने में लगी हैं। टीका बनने के बाद भी यह समाज के हर व्यक्ति को उपलब्ध हो पायेगा, इसकी उम्मीद भी कम ही है, ख़ासकर भारत जैसे देशों में, जहाँ बहुसंख्यक आबादी बुनियादी इलाज की सुविधाओं से भी वंचित है। बिहार में मुफ़्त वैक्सीन का चुनावी वायदा उछालने वालों के राज में अब कहा जा रहा है कि आम जनता के लिए टीका “1000 रुपये से ज़्यादा महँगा नहीं होगा!” अमीरों को कोई चिन्ता नहीं, वे तो अमेरिका और ब्रिटेन से वैक्सीन मँगवाकर, या वहाँ जाकर भी टीका लगवा लेंगे। मगर जो ग़रीब मेहनतकश कुछ सौ रुपये के ख़र्च के कारण सामान्य बीमारियों का भी ठीक से इलाज नहीं करवा पाता, उसे यह वैक्सीन भी नसीब नहीं होगी।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2021


 

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