केन्द्रीय बजट 2021-22
आँकड़ों में हेरफेर करके पूँजीपरस्त नीतियों पर जनपक्षधरता का मुलम्मा चढ़ाने का हास्यास्पद प्रयास

– आनन्द सिंह

गत एक फ़रवरी को केन्द्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन द्वारा संसद में वित्तीय वर्ष 2021-22 का बजट प्रस्तुत करने के बाद शेयर बाज़ार में रिकॉर्डतोड़ उछाल देखने में आया। वजह साफ़ थी! यह बजट पूँजीपतियों के लिए मुँहमाँगे तोहफ़े से कम नहीं था।
टीवी चैनलों पर पूँजीपतियों के भाड़े पर काम करने वाले भाँति-भाँति के विशेषज्ञों ने इस बजट की तारीफ़ों के पुल बाँधने में कोई कसर नहीं छोड़ी। किसी ने बजट को ऐतिहासिक बताया तो किसी ने इसे अर्थव्यवस्था के लिए संजीवनी की संज्ञा दी। लेकिन सच्चाई तो यह थी कि यह बजट आर्थिक संकट के दौर में मुनाफ़े की गिरती दर के ख़तरे से बिलबिलाये पूँजीपति वर्ग के लिए संजीवनी के समान था। हालाँकि वित्तमंत्री ने पूँजीपतियों को दी गयी इस सौग़ात पर जनपक्षधरता का लेबल चस्पा करने की हास्यास्पद कोशिश भी की जिसे बजट की प्रक्रिया की बुनियादी समझदारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति आसानी से पहचान सकता है।
कोरोना महामारी जैसे संकट के दौर में कोई भी जनपक्षधर सरकार पूँजीपतियों और रईसज़ादों पर करों को बढ़ाकर आम लोगों की ज़िन्दगी की मुश्किलें आसान करने वाले आवण्टन करती। परन्तु एक फ़ासिस्ट सरकार से यह अपेक्षा करना बेमानी होगा। जैसाकि इस संकट की शुरुआत से ही देखने में आ रहा है, मोदी सरकार इस आपदा में भी अपने आक़ा पूँजीपतियों के मुनाफ़े को बढ़ाने के अवसर खोजने से बाज़ नहीं आती। इस बजट में भी कॉरपोरेट कर तथा अमीरों के आयकर की दर में कोई बढ़ोतरी नहीं की गयी और उल्टे अप्रत्यक्ष करों में बढ़ोतरी करके संकट के दौर में जूझ रही आम जनता पर करों का बोझ बढ़ा दिया। वित्त मंत्री ने अपने पूँजीवादी आक़ाओं को भरोसा जताते हुए निजीकरण की अपनी योजना का खाक़ा भी प्रस्तुत किया। साथ ही आम जनता को मिल रही चन्द मामूली सहूलियतों पर ख़र्च में कटौती भी की गयी। बजट का जनविरोधी और पूँजीपरस्त चरित्र छिपाने के लिए वित्तमंत्री ने स्वास्थ्य बजट में 137 प्रतिशत की वृद्धि दिखायी। आगे हम देखेंगे कि किस प्रकार यह आँकड़ों की बाज़ीगरी की हास्यास्पद मिसाल है।

बुनियादी ढाँचे के विकास के नाम पर निजीकरण को बढ़ावा

वित्तमंत्री ने अपने बजट भाषण में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बुनियादी ढाँचे यानी सड़क, रेलवे, बन्दरगाह, हवाई अड्डे आदि को मज़बूत करने की ज़रूरत पर बहुत ज़ोर दिया। इसके लिए सरकारी मदद और निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने का पूरा भरोसा दिलाया गया। इस मक़सद के लिए बजट में क़रीब साढ़े पाँच लाख करोड़ रुपये ख़र्च करने का प्रावधान किया गया है। लेकिन पते की बात यह है कि यह सरकारी मदद सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के निजीकरण की रफ़्तार तेज़ करके की जायेगी। वित्तमंत्री ने आगामी 3 सालों में सरकार की निजीकरण की योजना की रूपरेखा प्रस्तुत करके पूँजीपतियों के सामने अपनी प्रतिबद्धता का ऐलान किया। यही वजह थी कि पूँजीपतियों के लग्गू-भग्गू अर्थशास्त्री और विश्लेषक टीवी स्टूडियो में बैठकर सरकार की पीठ थपथपाते नहीं थक रहे थे।
वित्तीय वर्ष 2021-22 में सार्वजनिक उपक्रमों में सरकार के शेयर और सरकारी सम्पत्तियों को निजी कम्पनियों को बेचकर 1.75 लाख करोड़ रुपये इकट्ठा करने का संकल्प लिया गया है। इस वित्तीय वर्ष में 2 सरकारी बैंकों और एक साधारण बीमा निगम का निजीकरण करने की कसमें भी खायी गयी हैं। निजीकरण की इस प्रक्रिया के बारे में इस अंक के एक अन्य लेख में विस्तार से चर्चा की गयी है।
बुनियादी ढाँचे के विकास के लिए सरकारी उपक्रमों का निजीकरण करने के अलावा इस क्षेत्र में निजी निवेश को बढ़ावा देने के लिए निजी बैंकों और वित्तीय कम्पनियों को भी रिझाने की कोशिशें इस बजट में की गयी हैं। वित्तमंत्री ने इन निजी उपक्रमों के नवोन्मेषी चरित्र की भूरि-भूरि प्रशंसा की और उनको बढ़ावा देने के लिए सरकार की ओर से शुरुआती पूँजी प्रदान करने का भी ऐलान किया।

पूँजीपतियों के करों में रियायत और जनता पर अप्रत्यक्ष करों का बढ़ता बोझ

पिछले साल के बजट में सरकार ने 20.2 लाख करोड़ रुपये के राजस्व की उम्मीद की थी। लेकिन इस बार के बजट में जारी किये गये संशोधित अनुमान के मुताबिक़ वर्ष 2020-21 में मात्र 15.6 लाख करोड़ का सरकारी राजस्व प्राप्त होगा। सरकार राजस्व में आयी इस कमी का ठीकरा कोरोना पर फोड़ने की कोशिश कर रही है लेकिन सच तो यह है कि इसकी मूल वजह सितम्बर 2019 में पूँजीपतियों के कॉरपोरेट कर में की गयी भारी कटौती और जीएसटी को लागू करने में आने वाली दिक़्क़तें रही हैं। राजस्व में आयी इस कमी का हवाला देकर एक तरफ़ सरकार ने इस बजट में सरकारी उपक्रमों के शेयर व सम्पत्तियों को बेचने की रफ़्तार तेज़ करने का ऐलान किया वहीं दूसरी तरफ़ जनकल्याणकारी परियोजनाओं में सरकारी ख़र्च में भारी कटौती करने का भी फ़रमान जारी कर दिया। कोरोना महामारी जैसी संकट की परिस्थिति के बावजूद पूँजीपतियों पर नये कर नहीं लगाये गये, उनको दी गयी छूटें और रियायतें न सिर्फ़ जारी करने का ऐलान किया बल्कि निजी पूँजी निवेश को बढ़ावा देने के नाम पर उन्हें कई क़िस्म की रियायतों की भी घोषणा की गयी।
प्रत्यक्ष करों में बढ़ोतरी करके अमीरों से ज़्यादा कर वसूलने की बजाय कृषि में बुनियादी ढाँचे के विकास के नाम पर पेट्रोल, डीज़ल, चना, मसूर जैसी आम जनता के इस्तेमाल वाली चीज़ों पर सेस लगाकर अप्रत्यक्ष करों को बढ़ाया गया जिसका बोझ आम जनता के ही कन्धों पर पड़ेगा क्योंकि अप्रत्यक्ष कर समाज के सभी लोगों पर एकसमान लगते हैं, भले ही उनकी आय कुछ भी हो।

जनकल्याणकारी योजनाओं के बजट में आपराधिक कटौती

कोरोना महामारी अभी भी समाप्त नहीं हुई है। इस महामारी पर क़ाबू पाने के नाम पर थोपे गये अनियोजित लॉकडाउन की वजह से अर्थव्यवस्था में हुई तबाही का असर आम जनता की ज़िन्दगी पर लम्बे समय तक रहेगा। लेकिन बजट के दस्तावेज़ पढ़कर ऐसा लगता है मानो सरकार मानती है कि इस महामारी का अब कोई असर नहीं रहा और सबकुछ सामान्य हो गया है। तभी तो सरकार ने इस बजट में जनकल्याणकारी योजनाओं के मद में दी जाने वाली राशि में भारी कटौती करने की घोषणा की है। इस साल मनरेगा के बजट में पिछले साल हुए ख़र्च की तुलना में 41 प्रतिशत कम राशि आवंटित की गयी है। इसी प्रकार मिड-डे मील स्कीम में 14 हज़ार करोड़ रुपये कम आवंटित किये गये हैं और और इण्टीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेण्ट स्कीम के बजट में 30 प्रतिशत कटौती की गयी है। कहने की ज़रूरत नहीं कि कोरोना काल में इन कटौतियों का सीधा असर ग़रीबों में कुपोषण की समस्या के बढ़ने के रूप में सामने आयेगा। यही नहीं रोज़गार व कौशल विकास के मद में भी 35 फ़ीसदी की कटौती की गयी है। कोरोना काल में क़रीब 20 करोड़ रोज़गार गँवाने वाले देश में इस कटौती को आपराधिक ही कहा जाना चाहिए। बजट के पूँजीपरस्त और जनविरोधी चरित्र का पता इसी से चल जाता है कि उसमें पूँजीपतियों के लिए “ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस” यानी बिज़नेस करने में सहूलियत के नाम पर रियायतों की बौछार की गयी है लेकिन जनकल्याण के लिए केन्द्रीय स्कीमों की संख्या कम कर दी गयी है।

स्वास्थ्य बजट में अभूतपूर्व वृद्धि के ढोल की पोल

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने अपने बजट भाषण में घोषणा की कि सरकार स्वास्थ्य व कल्याण पर वित्तीय वर्ष 2021-22 में पिछले साल के मुक़ाबले 137 फ़ीसदी की बढ़ोतरी करेगी। वित्तीय वर्ष 2020-21 में स्वास्थ्य पर ख़र्च एक लाख करोड़ रुपये से भी कम था जबकि 2021-22 में क़रीब सवा दो लाख रुपये ख़र्च करने का ऐलान किया गया है। ऊपरी तौर पर देखने पर तो लगता है कि वाक़ई सरकार ने इस बजट में स्वास्थ्य को तवज्जो दी है। लेकिन थोड़ा और क़रीबी से पड़ताल करने पर हम पाते हैं कि सरकार यहाँ शब्दों और आँकड़ों की बाज़ीगरी कर रही है। पहली बाज़ीगरी तो सरकार ने यह की है कि स्वास्थ्य पर हुए ख़र्च में आयुष विभाग एवं पेय जल और स्वच्छता विभाग में होने वाले ख़र्च को भी जोड़कर आँकड़े जारी किये हैं ताकि देखने में यह राशि बड़ी लगे। इसके अलावा कोविड-19 की वैक्सीन के लिए विशेष रूप से आरक्षित 35 हज़ार करोड़ रुपये को भी सरकार ने स्वास्थ्य बजट में ही जोड़ दिया है और स्वास्थ्य के मद को स्वास्थ्य और कल्याण मद का नाम दे दिया है। इन आँकड़ों और शब्दों की हेरफेर को दुरुस्त करके स्वास्थ्य के लिए आवंटित बजट की असली राशि देखने पर हम पाते हैं कि वास्तव में पिछले वित्त वर्ष के मुक़ाबले इस वर्ष स्वास्थ्य के मद में 0.1 प्रतिशत की कटौती की गयी है। कोरोना काल में सार्वजनिक चिकित्सा तंत्र की ख़स्ता हालत खुलकर सबके सामने आ गयी है। बजट में प्राथमिक या उच्च स्तरीय चिकित्सा व्यवस्था में सुधार के लिए कोई पहल नहीं की गयी है।
हर बार के बजट की तरह इस बजट में भी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार आदि के बजट में बढ़ोतरी करने की बजाय रक्षा बजट में बढ़ोतरी की गयी है। इस प्रकार कोरोना महामारी के दौरान पेश किया गया यह बजट मोदी सरकार के पूँजीपरस्त और जनविरोधी चरित्र को एक बार फिर से पुष्ट करता है।

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2021


 

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