लेनिन के जन्मदिवस (22 अप्रैल) पर एक संस्मरण
क्रेमलिन में एक मुलाक़ात

– सेर्गेई अन्तोनोव

लेनिन अपने पतलून की जेबों में हाथ खोंसे खड़े थे। दो खिड़कियों और ऊँची, मेहराबी छत वाला यह कमरा बहुत ठण्डा और नम था। जाड़े के अन्तिम सप्ताहों में कड़ाके की ठण्ड पड़ रही थी।
व्लादीमिर इल्यीच गोलों से छलनी बने शस्त्रागार, क्रेमलिन दीवार के एक हिस्से और बैरक़ों को देख सकते थे। त्रोइत्स्काया मीनार जिसके शिखर पर एक विशाल उकाब धुँधले आकाश की पृष्ठभूमि पर साफ़ नज़र आता था, यहाँ से उतनी बड़ी नहीं लगती थी, जितनी कि मानेज की ओर से। चौक में, जिसमें छोटी और गोल बटियों के जहाँ-तहाँ धँस जाने से गड्ढे बन गये थे, खूँटी की तरह मुड़े हुए तिनकों जैसी बत्तियों की पंक्ति शस्त्रागार से निकोल्स्काया मीनार तक फैली हुई थी।
त्रोइत्स्काया मीनार और शस्त्रागार के रास्तों पर तथा बत्तियों के साथ विशाल चौक पर भी लोगों के आने-जाने से बर्फ़ रौंदकर गन्दी बन गयी थी। केवल छतों और क्रेमलिन की दीवार पर ही यह समतल, ताज़ी और स्वच्छ थी।
क्रेमलिन के पार पत्थर के मकान पाले से जमे लगते थे। म्यूज़ियम और रुम्यान्त्सेव लाइब्रेरी के पीछे चिमनियाँ कुछ-कुछ दिखायी दे रही थीं लेकिन चाहे आप कितनी ही आँख गड़ाकर देखें, कोई धुआँ नहीं दिखायी देता था, क्योंकि लोगों के पास जलाने की लकड़ी ही नहीं थी।
मास्को जाड़े की गिरफ़्त में आ गया था। एक और शत्रु, सर्दी ने ऐसे दुश्मनों – अकाल और विघटन – से हाथ मिला लिया था, जो गृहयुद्ध से पीड़ित और ग़रीब बने देश पर टूट पड़े थे।
टाइफस बुख़ार का प्रचण्ड प्रकोप फैला हुआ था।
लेनिन ने ठण्डी साँस ली और सहसा झटके से अपने दाहिने हाथ को जेब से निकाल लिया तथा अपनी मेज़ पर बैठ गये।
संक्षिप्त शब्दों में या उन्हें अधूरा ही छोड़ते हुए स्कूली बच्चों की भाँति उनकी क़लम काग़ज़ पर अनेकानेक घिचपिच वाक्य लिखते हुए तेज़ी से आगे सरकती गयी। मन में विचारों का ताँता बँधा हुआ था और लेनिन उन्हें शीघ्रतापूर्वक काग़ज़ पर उतार लेना चाहते थे: देखो कि बच्चों के अनाथालयों को जलाने की लकड़ी पूरी-पूरी दी जाती है या नहीं। नहीं…उन्हें दो…धातु-कर्मियों के लिए चीनी और सैकरिन का राशन बढ़ा दो…शिक्षा जन-कमिसारियत ने देहातों के लिए पुस्तकों के प्रकाशन में विलम्ब किया है। अनातोली वसील्येविच से बात करो, उन्हें खरी-खरी सुनाओ…साथियों को आज्ञप्ति से परिचित कराओ और इसे पुष्ट करो…कामेनेव को चिट्ठी…सहायता देने वाले देश…हम अपने ही बल-बूते पर पूरा कर लेंगे या नहीं?…
क्षण-भर के लिए क़लम रुकी।
सम्मेलन-कक्ष का सफ़ेद मोमज़ामा चढ़ा दरवाज़ा खुला और देहरी पर सेक्रेटरी दिखायी दिया।
“व्लादीमिर इल्यीच,” उसने धीमी आवाज़ में कहा।
मगर लेनिन ने कोई उत्तर नहीं दिया, वह अपने काम में लगे रहे।
“व्लादीमिर इल्यीच!”
लेनिन ने सिर उठा कर देखा।
“हाँ, हाँ,” और उन्होंने चिट्ठी लिखने के लिए एक और काग़ज़ उठाया।
“व्लादीमिर इल्यीच, साथी कोर्शुनोव आपसे मिलने आये हैं।”
“बहुत अच्छा,” लेनिन ने कहा।
अपने पीछे दरवाज़े को बन्द करते हुए सेक्रेटरी बाहर चला गया और व्लादीमिर इल्यीच ने सेर्गेई सेर्गेयेविच कामेनेव को चिट्ठी पूरा करने की जल्दी करते हुए लिखना जारी रखा। लेनिन को पता था कि सेक्रेटरी को सम्मेलन-कक्ष को पार करके प्रतीक्षा-कक्ष तक जाने और मुलाक़ाती से “व्लादीमिर इल्यीच अभी आपसे मिलेंगे” कहने, मुलाक़ाती को उठने, अपने बाल या कपड़े ठीक करने, सम्मेलन-कक्ष को पार करके आने में जितना समय लगेगा, उस एक-डेढ़ मिनट के समय में वह पत्र को पढ़ने, अख़बारी रिपोर्ट को सरसरी तौर पर देखने और अन्त में चिट्ठी लिख पाने में समर्थ होंगे। इस बीच में वह और कई उपयोगी तथा आवश्यक काम निपटा सकते थे। व्लादीमिर इल्यीच ने लिखना पूरा किया। लेकिन जैसे ही उन्होंने देखा कि दरवाज़े पर दुबले-पतले और औसत क़द के वैज्ञानिक तथा उनके पुराने मित्र कुछ व्याकुल और शर्माते से खड़े हैं, वैसे ही वह अपनी मेज़ से उठ गये और उनसे मिलने के लिए आगे बढ़ गये।
“आइए, लेओनीद अलेक्सेयेविच, आइए!” व्लादीमिर इल्यीच ने एक आरामकुर्सी की ओर इशारा करते हुए कहा। “कृपया, बैठ जाइये…”
कोर्शुनोव कुछ बेढंगी चाल से जल्दी-जल्दी जाकर कुर्सी में बैठ गये और अपने पैरों को लेनिन की मेज़ के लम्बवत् रखी मेज़ के नीचे छिपा दिया। यह उन्होंने इतनी जल्दबाज़ी में किया कि उन्हें अपना फूहड़पन खल गया और वह कुछ झेंप गये। लेकिन जब उन्होंने लेनिन को अपनी बेंत की कुर्सी में बैठे हुए पाया, तो उनकी सारी परेशानी जाती रही और केवल तभी जाकर वह लेनिन की ओर मुड़ पाये।
“आपका स्वास्थ्य कैसा है, लेओनीद अलेक्सेयेविच?” लेनिन ने पूछा। “कोई शिकायत है?”
“शुक्रिया, व्लादीमिर इल्यीच। मुझे कोई शिकायत नहीं है।”
“बहुत अच्छा। यह कठिन समय है, लेओनीद अलेक्सेयेविच, और हमें इस पर क़ाबू पाना है।”
जब लेनिन अपनी बात पूरी कर चुके, तो कोर्शुनोव ने कहना शुरू किया।
“मैं आपके पास साइबेरिया के लिए एक सम्भव अभियान के बारे में आया हूँ, व्लादीमिर इल्यीच। बेशक, आपको मालूम है कि 30 जून 1908 को वैज्ञानिक दुनिया में एक अत्यन्त रोचक घटना घटी थी, एक ऐसी परिघटना जो अपने पैमाने और सम्भवतः महत्त्व की दृष्टि से भी असाधारण थी। साइबेरिया के ताइगा में एक उल्कापिण्ड गिरा था।” कोर्शुनोव ने लेनिन की ओर देखा और पाया कि वह उन्हें ध्यानपूर्वक सुन रहे थे।
कोर्शुनोव को यह आभास था कि लेनिन उल्कापिण्ड और वैज्ञानिक के विचारों और आकांक्षाओं के बारे में सबकुछ जानते हैं तथा इसके बारे में उन्हें पूरी कहानी सुनाना केवल एक अतिव्यस्त आदमी के समय को नष्ट करना ही होगा। कोर्शुनोव हिचकिचाने लगे:
“यह उल्कापिण्ड…जो भी हो आपको यह सब मालूम ही है…”
“आपका ख़याल ग़लत है, लेओनीद अलेक्सेयेविच,” लेनिन ने कहा।
“मुझे सिर्फ़ इतना ही मालूम है कि एक उल्कापिण्ड कहीं गिरा था। इसके अलावा मुझे कुछ नहीं मालूम है। हाँ, हाँ…”
अपना सिर एक तरफ़ को किये वह वैज्ञानिक की ओर झुक गये और मुस्कुराते हुए धीरे से कहा:
“यह भी याद नहीं कि किस साल में गिरा था।”
कोर्शुनोव ने भी मुस्कुरा दिया।
“यह बड़ी विचित्र बात है,” लेनिन ने गम्भीरतापूर्वक कहा। किसी वजह से बहुत से लोगों का यह ख़याल है कि जन-कमिसारियत और जन-कमिसारों के अध्यक्ष को सबकुछ मालूम है। यह ख़तरनाक हद तक मूर्खतापूर्ण विचार है! हम कम, बहुत ही कम, लज्जाजनक ढंग से कम जानते हैं! आप और हम जितना ही अधिक मिलेंगे, उतना ही बेहतर होगा! आगे कहिये, लेओनीद अलेक्सेयेविच। और जल्दबाज़ी मत कीजिए।”
उत्साहित और गद्गद होकर कोर्शुनोव अपनी पहले से सोची हुई बात कहने लगे:
“अगर यह ध्यान में रखें कि सबसे बड़े उल्कापिण्ड का वज़न 365 टन है, जिसके बाद मेक्सिको के उल्कापिण्ड का वज़न 27 टन है, तो मुझे हमारा साइबेरियाई उल्कापिण्ड अन्य उल्कापिण्डों के मुक़ाबले में विशालकाय प्रतीत होता है। लेकिन सबसे दुख की बात यह है कि इस उल्कापिण्ड के ठीक-ठीक स्थान का अभी तक पता नहीं लगाया जा सका है।”
“और आप इस उल्कापिण्ड का पता लगाना चाहते हैं?” जब कोर्शुनोव रुके, तो लेनिन ने पूछा।
“बिल्कुल ठीक कहते हैं। मैं उल्कापिण्ड का पता लगाना चाहता हूँ,” और उन्होंने जल्दी से आगे कहा, “मैं समझता हूँ कि अभी इसके लिए पैसा नहीं है…लेकिन मैं बहुत ही कम रक़म की माँग करूँगा। पर यह अपमानजनक बात है कि विदेशों में हमारे रूसी उल्कापिण्ड का अध्ययन करने के लिए दल बनाये जा रहे हैं और हम…”
“नहीं, नहीं, नहीं,” लेनिन ने तेज़ी से कहा। “विदेशों का इससे कोई सरोकार नहीं है। उन्हें तो इसके बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। आपको अपने अभियान के लिए क्या चाहिए?”
“मैंने सूची तैयार कर रखी है,” कोर्शुनोव ने अपनी जाकिट के भीतरी जेब से दो तह किये हुए काग़ज़ निकाले। “मैंने इसे कम से कम करने की कोशिश की है, व्लादीमिर इल्यीच…”
लेनिन ने सूची पढ़नी शुरू की और जैसे-जैसे वह आगे पढ़ते गये, वैसे-वैसे उनकी भौंहे चढ़ती गयीं। लेनिन के चेहरे पर ऐसी व्यथा छा गयी, जैसी कि कोर्शुनोव ने पहले कभी नहीं देखी थीं। व्लादीमिर इल्यीच ने सूची को मेज़ पर रख दिया, अपने बायें हाथ से दबाकर उसे सपाट बनाया और मानो अपने सख़्त, निश्चल चेहरे को कोर्शुनोव की ओर मोड़ा।
कोर्शुनोव ने धीरे-धीरे लेनिन की ओर देखा और हिचकिचाते हुए कहा:
“हालाँकि…सूची में और भी कटौती की जा सकती है। और कम रोटी…और औज़ार…एक थियोडोलाइट को हटाया जा सकता है…इसके अलावा…”
लेनिन ने वैज्ञानिक के पूरे कमरे के कोने में ऐसे देखा कि वह उनकी बातों को सुन ही नहीं रहे हों और उनकी मौजूदगी से बेख़बर हों।
“थियोडोलाइट को हटा दें,” लेनिन ने दुहराया और अपनी नज़र को कोर्शुनोव पर लाते हुए उन्होंने अपनी बेंत की कुर्सी को पीछे खिसका दिया तथा काग़ज़ पर मानो चिढ़ और सन्देह से चपत मारते हुए वह मेज़ से उठाकर बाहर निकल आये।
कोर्शुनोव की ओर न देखने की कोशिश करते हुए उन्होंने अपने हाथों को पतलून की जेबों में खोंस लिया और कमरे में इधर-उधर टहलने लगे।
“आपको मालूम है कि वहाँ ताइगा है,” लेनिन ने सहसा और दृढ़तापूर्वक कहना शुरू किया मानो वह वैज्ञानिक को वास्तविक स्थिति के बारे में स्पष्ट करने की कोशिश कर रहे हों। “दुर्गम और विस्मयकारी ताइगा के हज़ारों मील। तूफ़ानी नदियाँ। जंगली जानवर। कोई सड़क नहीं और सैकड़ों-सैकड़ों मीलों तक कोई आदमी नहीं दिखायी देता…क्या आप इसे समझते हैं?”
वह रुक गये।
“आप यह सब समझते हैं,” व्लादीमिर इल्यीच ने धीरे से कहा और सूची पर पुनः देखते हुए आगे कहा, “प्रतिदिन एक पौण्ड रोटी, सबके लिए पाँच पौण्ड चीनी, तम्बाकू…” उन्होंने पढ़ा और उनकी आवाज़ ने अब कठोरता या असन्तोष या नाख़ुशी या विस्मय या अचानक इन सबको आवृत्त करते हुए उदासी धारण कर ली।
“हम चीनी में कटौती कर सकते हैं, लेकिन तम्बाकू, क्षमा करें, बहुत ज़रूरी है, क्योंकि यह मच्छरों से बचाता है,” वैज्ञानिक ने दृढ़तापूर्वक कहा।
मानो उनकी बातों की ओर कान न देते हुए व्लादीमिर इल्यीच ने आगे कहा:
“औज़ारों की पेटियों के लिए फर! औज़ारों की पेटियाँ!” उन्होंने दुहराया।
कोर्शुनोव उठे और उनके चश्मे के शीशे, जिनमें खिड़कियों की छाया पड़ रही थी, चमकने लगे। उनके चेहरे से अपनी अन्तिम बाज़ी लगाने वाले व्यक्ति का दृढ़संकल्प व्यक्त हो रहा था।
“व्लादीमिर इल्यीच!” उन्होंने ज़ोर से तथा दृढ़तापूर्वक कहा। “साथी लेनिन, हमें जाना ही है। ज़रा इस बात को समझिये न कि हम कितने सौभाग्यशाली हैं! यह उल्कापिण्ड किसी और देश के भूक्षेत्र में न गिरकर हमारे देश में गिरा है! यह एक दुर्लभ घटना है। और हम क्या कर रहे हैं?…यदि यह फ़्राँस या अमेरिका में गिरा होता, तो न जाने कितने और कैसे-कैसे अभियान-दल उसकी खोज में निकल पड़े होते! जी हाँ, हम निर्धन हैं, भूखों मर रहे हैं, हस्तक्षेपकारी हमारा गला दबा रहे हैं, लेकिन आख़िरकार यह अद्भुत सुअवसर हमें ही प्राप्त हुआ है। विश्व विज्ञान का इसमें क्या दोष है कि हम ग़रीब हैं। हमें जाना ही है, व्लादीमिर इल्यीच!”
और कोर्शुनोव पुनः कुर्सी में बैठ गये।
“हे भगवान!” लेनिन ने कहा और वह वैज्ञानिक के पास तक चले गये। “बेशक, आपको जाना ही है, कमाल के आदमी, लेओनीद अलेक्सेयेविच। आप जो कुछ माँगेंगे, हम आपको देंगे। पर यह तो एकदम नाकाफ़ी है। क्या आपका ख़याल है कि ऐसे साज़ो-सामान के साथ साइबेरिया की यात्रा पर जाया जा सकता है?! यह तो सिर्फ़ मास्को के आस-पास के इलाक़ों में जाने के लिए काफ़ी हो सकता है! लेकिन यह तो कुछ भी नहीं है! कितनी खेदजनक बात है!” लेनिन ने कहा और वह अडिग, दृढ़निश्चय ढंग से बोलने लगे, “कृपया अपने को याचक न समझें। आप वैज्ञानिक दुर्लभ, विलक्षण लोग हैं! आप हमारे भविष्य हैं! हमारे महान रूसी विज्ञान के उत्तराधिकारी हैं! आप अपना महत्त्व समझिये और माँग कीजिए न कि याचना! यह दुख की बात है कि आप जैसे प्रतिभाशाली लोगों को ज़रूरत की वे सभी चीज़ें नहीं दे सकते, जिनके आप पात्र है! सिर्फ़ हमें मुहलत दीजिए।”
“ओह, ओह…” कोर्शुनोव ने उलझन में पड़कर लेनिन को देखते हुए कहा। वह कुछ और भी कहना चाहते थे। लेकिन वह राहत की साँस के साथ अपने हाथ से माथे का पसीना पोंछकर ही रह गये।
लेनिन उनके निकट आये और सहानुभूतिपूर्वक कहा।
“लेओनीद अलेक्सेयेविच, मान लीजिए कि हम आपको इस बेहद अपर्याप्त सूची की चीज़ें दे देते हैं, तो?” उन्होंने कोर्शुनोव के दिये काग़ज़ों की ओर इशारा करते हुए कहा, “क्या आप जायेंगे?”
“व्लादीमिर इल्यीच! इससे अधिक की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकता! जैसे ही बर्फ़ पिघलेगी, हम सारी तैयारी करके चल देंगे। और ईमानदारी से कहूँ, तो हमें किसी और चीज़ की आवश्यकता भी नहीं है। आखि़रकार, आपके पास सभी हर समय कोई न कोई माँग लेकर ही आते हैं और आप कहाँ से सबको पूरा करेंगे?”
“तो आप जायेंगे?” लेनिन ने पुनः पूछा।
“जी हाँ, जाऊँगा।”
“और आपको किसी और चीज़ की ज़रूरत नहीं हैं?”
“जी नहीं, किसी चीज़ की नहीं।”
“किसी चीज़ की नहीं, लेओनीद अलेक्सेयेविच?” लेनिन ने आग्रहपूर्वक कहा।
“किसी चीज़ की नहीं।”
लेनिन ने कुछ क्षुब्धतापूर्वक खाँसा, फिर उन्होंने मेज़ के नीचे किसी चीज़ पर अपनी नज़र डाली और दुखपूर्वक मुस्कुरा दिया।
“अच्छा, मेरे प्रिय दोस्त, लेओनीद अलेक्सेयेविच, ज़रा यहाँ खिड़की के पास तो आइए।”
“किसलिए, व्लादीमिर इल्यीच?”
“कृपा करे, लेओनीद अलेक्सेयेविच, यहाँ इस खिड़की के पास आइए न! मुझ पर ज़रा मेहरबानी कीजिए,” लेनिन ने कहा। “मैं आपको जानता हूँ!” उन्होंने अपनी उँगली को मज़ाकिया ढंग से हिलाया।
“नहीं, व्लादीमिर इल्यीच। यदि आपको मेरी सूची मंजूर है, तो मैं अब आपका और समय नहीं लूँगा…”
“जी नहीं,” लेनिन ने स्नेहपूर्वक कहा। “मैं आपकी सूची को अभी मंजूर नहीं करता। कृपा करके, ज़रा इस खिड़की के पास आइए तो, लेओनीद अलेक्सेयेविच।”
कोर्शुनोव झिझकते हुए उठे और मानो किसी चीज़ की प्रत्याशा से लेनिन को देखा।
लेनिन ने अपना आग्रह नहीं छोड़ा।
“आगे आइए न।”
“जैसी आपकी इच्छा,” कोर्शुनोव ने अपना इरादा बनाया और मेज़ से चल दिये।
“वही है न!” लेनिन ने कहा। “जैसा मैंने सोचा था। तो यह बताइये कि आप ताइगा क्या पहनकर जायेंगे? ये फटे जूते तो मास्को से पाँच मील जाते न जाते जवाब दे देंगे?”
“क्यों, इन जूतों में जाना बिल्कुल सम्भव है,” कोर्शुनोव ने कहा। “मैं इनकी मरम्मत कर दूँगा – अन्दर कपड़ा और ऊपर…रस्सी से बाँध दूँगा।”
“हाँ, यह सम्भव तो है,” लेनिन ने विचारमग्न ढंग से कहा। “लेकिन क्या आपके पास और एक जोड़ी जूते नहीं हैं?”
“मेरे पास थे तो, पर वे घिस-पिटकर किसी काम के नहीं रह गये हैं। पर इन जूतों को मैं बड़ी सावधानी से रखता हूँ…”
“आप इन जूतों से काम चला सकते हैं…” लेनिन ने फिर दुहराया। “माफ़ कीजिए, लेओनीद अलेक्सेयेविच, माफ़ कीजिए।”
लेनिन ने कोर्शुनोव के कन्धे पर अपना हाथ रख दिया और उन्हें बैठा दिया। उन्होंने कोर्शुनोव की नज़रों में नज़रें डालकर झाँका कि कहीं वह बुरा तो नहीं मान गये हैं और अन्ततः आश्वस्त होकर वह कमरे में फिर इधर-उधर टहलने लगे।
“हमारे यहाँ असाधारण रूप से प्रतिभाशाली लोग हैं,” उन्होंने कहा। “त्सिओल्कोव्स्की को ही ले लीजिए। ज़रा रूस के दूर-दराज के किसी छोटे से नगर की कल्पना कीजिए – घास से ढँकी सड़क पर, जहाँ बत्तखें और सूअर घूम रहे होंगे, कहीं लकड़ी के पुराने, छोटे से मकान में गणितशास्त्र का एक बूढ़ा अध्यापक रह रहा है। वह रोटी और मछली के रूखे-सूखे राशन पर ही जी रहा है, लेकिन अन्तरग्रहीय अन्तरिक्ष उड़ानों की समस्याओं को हल कर रहा है। इसके अलावा ईंधन के न होने के कारण उनका घर भी ठण्डा होगा। और मेरे मित्र, आप भी उसी पथ पर चल रहे हैं, जो फटे जूते पहनकर हज़ारों मील की ताइगा की, साइबेरिया की यात्रा पर जाने को तैयार हैं।”
“और आप,” कोर्शुनोव ने अपने मन में सोचा,” आप, व्लादीमिर इल्यीच? आप एक ऐसे देश में, जहाँ हर कोई ‘समाजवाद’ शब्द को पढ़ना तक नहीं जानता, समाजवाद का निर्माण कर रहे हैं!”
और कोर्शुनोव को सहसा लगा कि वह और लेनिन एक ही सूत्र से बँधे हुए हैं, कि दोनों एक ही ध्येय को पूरा कर रहे हैं, कि यही ध्येय अन्तरिक्ष पर विजय पाने में प्रयासरत कालूगा-निवासी त्सिओल्कोव्स्की की और फ़ैक्टरियों के पुनर्निर्माण में लगे भूखे मज़दूरों तथा हल से खेत जोतते किसानों की प्रेरक शक्ति है…
कोर्शुनोव जब वहाँ से चले तो वह उत्तेजित और बड़े ही ख़ुश थे। भविष्य के बारे में, अपने सपने के बारे में, जो निश्चित रूप से साकार होने जा रहा था, सोचते हुए वह तेज़-तेज़ क़दमों से क्रेमलिन से निकले और लाल चौक को पार कर गये।
…एक समय आयेगा, जब देश में फै़क्टरियों की चिमनियाँ धुआँ उगलने लगेंगी, जिनमें से कई का तो अभी निर्माण भी नहीं हुआ है – ट्रैक्टर और ऑटोमोबाइल फै़क्टरियाँ, जो अभी तक एक मेहराबी छत वाले छोटे और ठण्डे कमरे में काम में दिन-रात डूबे आदमी के ही सपने हैं…पुश्किन और तोलस्तोय की रचनाएँ घर-घर में उपलब्ध होंगी, क्योंकि ज्ञानहीन और अर्धबर्बर रूस पूर्ण साक्षरता का देश बन जायेगा। और बेशक वैज्ञानिक अभियान-दल उत्तरी ध्रुव तक पहुँचेंगे और हो सकता है कि कोई महासागरों की गहराइयों में गोता लगाये या अन्तरिक्ष में उड़ान भरे। और इन अभियान-दलों के नेता को एक चौथाई पौण्ड रोटी या तम्बाकू के लिए लेनिन जैसे महानतम नेता को परेशान नहीं करना पड़ेगा…और इस देश में नया इन्सान मानवजाति की एक-एक नयी समझ के साथ रहेगा…यह सब साकार होकर रहेगा।
मगर अभी तो सड़कों पर बर्फ़ के ढेर लगे हुए हैं, पाले के मारे राहगीर आ-जा रहे हैं, मरियल घोड़ा गाड़ी को जैसे-तैसे खींचता ले जा रहा है और भेड़ की खाल के कोट में एक आदमी उसे टिटकार रहा है –
“हटक, हटक मरियल टट्टू!”, बन्द दरवाज़ों वाली दुकानें हैं, जिनके जंग लगे नाम-पट्टों पर नाम लिखे हुए हैं… “मात्र्यानोव”, “फ्गूरिन एण्ड संस, ख़ुदरा व्यापारी”, “ई. व. कोश्किन, लौह-व्यापारी,” आदि। लेकिन यह सब अभी की बात है।
…लाल सैनिकों की एक छोटी टुकड़ी बुद्योन्नोव्का टोपियों में मार्च करते हुए जा रही है। स्लेजों पर लदे लोहे के पाइपों को खींचा जा रहा है, जिसके शोरगुल से सारी सड़क भर गयी है – कहीं कोई चीज़ बनायी या मरम्मत की जा रही होगी, एक खिड़की से कार्ल मार्क्स का चित्र और दीवार पर लटका नारा दिखायी दे रहा है: “…ज़िन्दाबाद!…” सिर पर लाल रूमाल बाँधे एक स्त्री मकान के एक प्रवेश-द्वार से निकलकर दूसरे में घुसती दिखायी देती है…
औसत और मज़बूत क़द-काठी का आदमी इस विशाल देश के केन्द्र-क्रेमलिन – में अपने कमरे में इधर-उधर टहल रहा है: वह गहराई से सोच रहा है और अपने विचारों को तेज़ी से टाँकता जा रहा है। वह भावी नयी उपलब्धियों को साफ़-साफ़ देख रहा है, ऐसी सम्भव और भव्य उपलब्धियों को, जो रूस का कायापलट कर देंगी।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2021


 

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