मज़दूरों की लूट और बढ़ाने के लिए अब अप्रेण्टिस क़ानून में बदलाव की तैयारी
अब 15 प्रतिशत तक अप्रेण्टिस स्टाफ़ रख सकेंगी कम्पनियाँ

– केशव आनन्द

मोदी सरकार के केन्द्र में सत्तासीन होने के बाद से ही लगातार मज़दूर विरोधी नीतियों को लागू किया जा रहा है। तमाम श्रम क़ानूनों को ढीला करने का काम किया जा रहा है। इसी कड़ी में यह सरकार अप्रेण्टिस क़ानून में बदलाव की तैयारी कर रही है। यह अनुमान है कि आने वाले मानसून सत्र में यह सरकार अप्रेण्टिस क़ानून में बदलाव से जुड़े बिल को मंज़ूरी के लिए ला सकती है। इस नये क़ानून के आने के बाद कोई भी कम्पनी 15 फ़ीसदी तक अप्रेण्टिस स्टाफ़ रख सकती है, जबकि पहले इन कम्पनियों को 10 फ़ीसदी से अधिक अप्रेण्टिस स्टाफ़ रखने की मंज़ूरी नहीं थी।
इसके अलावा अप्रेण्टिसशिप को मैन्युफ़ैक्चरिंग और सेवा क्षेत्र के बाद अब व्यापार और वाणिज्य तक विस्तारित करने की योजना भी बनायी जा रही है। इसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि अधिक से अधिक युवाओं को कौशल विकास प्रशिक्षण के ज़रिए नौकरी मिलेगी। आइए, इस तर्क का भी विश्लेषण करते हैं। बताया जा रहा है कि वर्ष 2014 में सेवा क्षेत्र को अप्रेण्टिसशिप के दायरे में लाने के बाद रोज़गार प्राप्त करने वाले युवाओं की संख्या बढ़ी और वर्ष 2020-21 में 1.25 लाख युवाओं ने नौकरी करते हुए कौशल विकास का प्रशिक्षण लिया। अब आँकड़ों को देखकर तो ज़ाहिरा तौर पर यह प्रश्न उठता है कि अप्रेण्टिसशिप से अगर लाखों युवाओं को रोज़गार मिला है, तो इसमें ग़लत क्या है? दरअसल इन आँकड़ों के ज़रिए सिक्के के बस एक ही पहलू को दिखाया जा रहा है। लेकिन अगर इसके दूसरे पहलू को भी देखा जाये, तब हम समझेंगे कि असल मामला तो कुछ और ही है।
उदारीकरण-निजीकरण के पिछले तीस सालों में तमाम सेक्टरों (ख़ासकर मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर) में पक्के मज़दूरों (परमानेण्ट मज़दूरों) को ख़त्म कर मज़दूरों से ठेके (कॉण्ट्रैक्ट) पर काम कराया जा रहा है। ऐसे में मज़दूरों की मेहनत की लूट और भी आसान हो जाती है। इन मज़दूरों को पक्के मज़दूरों के मुक़ाबले कम तनख़्वाह देकर अधिक काम कराया जाता है। काम न होने की सूरत में उन्हें आसानी से काम से निकाला जा सकता है। पक्के मज़दूरों को कम करके ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों की संख्या लगातार बढ़ायी गयी है। इसे हम आँकड़ों के माध्यम से और बेहतर तरीक़े से समझ सकते हैं।
उद्योगों के वार्षिक सर्वे (ASI) की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ ऑर्गेनाइज़्ड (संगठित) मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर में ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों की संख्या 2000-01 में 20% से बढ़कर 2016-17 में 36% तक हो गयी। यह तो केवल संगठित क्षेत्र का आँकड़ा है। उत्पादन के विकेन्द्रीकरण के बाद से इसका एक बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में आ गया है। और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले अधिकतर मज़दूर ठेके पर ही काम करते हैं। यानी आज कुल उत्पादन का बड़ा हिस्सा पक्के मज़दूरों से स्थानान्तरित होकर ठेका मज़दूरों के हिस्से में आ गया है, जिन्हें कम तनख़्वाह पर खटाया जाता है और कभी भी काम पर से निकाला जा सकता है। ज़्यादातर अध्ययनों के मुताबिक़ देश में कुल मज़दूरों में क़रीब 7 प्रतिशत आबादी ही आज संगठित रह गयी है। बाक़ी 93% में ठेका, दिहाड़ी, पीस रेट आदि पर काम करने वाले मज़दूर आते हैं। इनमें एक बड़ी संख्या अप्रेण्टिस मज़दूरों की भी है।
पूँजीवाद अपनी गति से आगे बढ़ता है, और इसका आम नियम यही कहता है कि पूँजीवाद में पूँजीपति के मुनाफ़े की दर में गिरने की प्रवृत्ति होती है। पूँजीवादी राज्यसत्ता मुनाफ़े की इस गिरती दर को किसी भी तरीक़े से रोकने की कोशिश में पूँजीपतियों की मदद करती है। राज्यसत्ता ऐसा दो तरीक़े से करती है। पहला, मज़दूर जिन चीज़ों का उपभोग करता है, उनकी क़ीमतों को घटाकर! क्योंकि पूँजीपति मज़दूर को उसकी श्रम-शक्ति की क़ीमत मज़दूरी के रूप में देता है, जिससे मज़दूर अपनी श्रम शक्ति के पुनरुत्पादन के लिए ज़रूरी आम तौर पर उपभोग की जाने वाली वस्तुएँ ख़रीदता है।
दूसरा, मज़दूरों की तनख़्वाह को निरपेक्ष रूप से कम करके! परमानेण्ट से ठेका और ठेका से अब अप्रेण्टिस। आज मोदी सरकार द्वारा उठाये जाने वाले ये क़दम असल में पूँजीपतियों के मुनाफ़े की गिरती दर को रोकने की कोशिश है। यह सरकार अप्रेण्टिस के नाम पर अधिक से अधिक मज़दूरों से सस्ती दर पर काम करवाकर पूँजीपतियों को अधिक मुनाफ़ा पहुँचाने की तैयारी कर रही है। अप्रेण्टिस मज़दूरों की अधिक भर्ती का सीधा मतलब है, मज़दूरों की मेहनत की अति-लूट! यह सरकार अप्रेण्टिसशिप को अन्य सेक्टरों में भी लागू करने की योजना बना रही है, ताकि अन्य सेक्टरों में भी मुनाफ़े की गिरती दर को और गिरने से रोका जा सके, और मज़दूरों का शोषण और भयंकर रूप से किया जा सके। भारत का ऑटोमोबाइल सेक्टर इसका जीता-जागता उदाहरण है। यहाँ कम्पनियों में मज़दूरों से अप्रेण्टिस और ट्रेनी के नाम पर कम तनख़्वाहों पर काम कराया जाता है, और काम न होने पर वे निकाल दिये जाते हैं। गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल बेल्ट में हज़ारों छोटी-बड़ी कम्पनियों में काम करने वाले लाखों मज़दूर अपने अनुभव से इसे जानते हैं। मारुति जैसी बड़ी कम्पनियों में 6-6 साल तक परमानेण्ट किये बिना अप्रेण्टिस मज़दूरों से सारा काम कराया जाता रहा है।
यह सरकार लगातार मज़दूर विरोधी नीतियों को अंजाम दे रही है। पूँजीपतियों के मुनाफ़े को सुरक्षित रखने के लिए यह हर सम्भव प्रयास कर रही है, जिसका सीधा मतलब है, मज़दूरों का अति-शोषण! इसलिए आज इसके ख़िलाफ़ हम मज़दूरों को एकजुट होने की ज़रूरत है, वरना ये मुनाफ़ाख़ोर हमारे ख़ून का आख़िरी क़तरा तक निचोड़ लेंगे।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2021


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments