कहानी – स्याह और सुर्ख़ (भाग एक)

– अन्वेषक

हल्का पीला पड़ चुका चेहरा, जो लम्बी थकान के बाद लटका हुआ है। उसके हाथ एक दिशा में लगातार चल रहे हैं। पीलापन उसके चेहरे पर जड़ जमा चुका है, पर साफ़ नज़र नहीं आ रहा क्योंकि कारख़ाने में बन रहे वाइपर के पाइपों और उसमें लगा काले रंग का केमिकल उसके चेहरे को ढँक चुका है। इसी कारण थकान भी धूमिल लग रही है। दिन पर दिन उसका पतला-दुबला शरीर ढल रहा है। नीचे आसमानी रंग की हाफ़शर्ट, जो काले-नीले मिश्रण का रूप धारण कर चुकी है, कभी उसे फ़िट आती थी। शर्ट में जैसे-जैसे पैबन्द बढ़ रहे थे, वैसे ही उसका बदन भी पैबन्दों का एक जाल बन गया था, जो किसी तरह चल रहा था। कई दिनों से लगातार चौदह घण्टे काम करने के कारण उसे कुछ दिन पहले बुख़ार भी था। चालीस इंच की पाइप में 4.4 मि.मी. की स्लिप चढ़ाते हुए उसे घण्टों बीत गये। एक हाथ से स्लिप और दूसरे हाथ से पाइप उठाकर स्लिप को पाइप के ऊपर चढ़ाना होता था। यह उत्पाद बनने का दूसरा चरण था। इसे चढ़ाने के लिए एक ही मुद्रा में बैठकर हाथ का इस्तेमाल करना था, ताकि गति में कोई कमी ना आये। इस प्रक्रिया को घण्टों दोहराते देखकर हाथ कभी ना रुकने वाली पवनचक्की जैसे लगते हैं। अभिषेक भी पिछले छः घण्टों से हाथों की पवनचक्की से पाइप पर स्लिप चढ़ाते जा रहा था।
अचानक उसके हाथों की गति कम होने लगी। उसका सिर नीचे की ओर झुकने लगा। गति कम होते देख ठेकेदार, जो हट्टा-कट्टा लम्बा-चौड़ा आदमी था, तम्बाकू को मुँह से थूककर पीछे से बोला – “तेज कर बईरे! आज माल तैयार करके भेजना है, चाहे रात के 2:00 बज जायें।” गिरते हुए सर को सँभालते हुए अभिषेक ने फिर से हाथों की गति को बढ़ाने की कोशिश की, पर वह अपनी पुरानी गति तक नहीं पहुँच पा रहा था।
“ठेकेदार साहब! मोको चक्कर आ रहो है। हमको थोड़ा आराम करीबे दो।” अभिषेक ने अपनी विवशता ज़ाहिर करते हुए कहा।
“चल साले! काम कर अभी मजे लेने का टाइम नहीं है। तेरी इस रोज की नौटंकी को मैं अच्छे से जानता हूँ। कुछ दिन पहले भी तू ऐसे ही बोला था, कि तुझे बुखार है, रोज का तेरा यह ड्रामा बर्दाश्त करने नहीं बैठे। काम करना है तो कर वर्ना निकल ले बहुत है काम करने वाले।” ठेकेदार ने अपनी रूखी आवाज़ को और रूखा बनाते हुए कहा।
अब अभिषेक के पास बोलने के लिए कुछ नहीं था। फिर से धीरे-धीरे हाथ चलाकर स्लिप को पाइप पर डालना शुरू किया। कारख़ाने और काले केमिकल ने उसके शरीर और उसके पीले चेहरे के साथ-साथ उसके भावों को भी काला कर दिया था, जिस पर कोई ध्यान नहीं देता क्योंकि वहाँ मौजूद सबके चेहरे ऐसे ही थे। वर्षों से इन कारख़ानों में जीवन की बुनियादी चीज़ों को इकट्ठा करने की जद्दोजहद और उसकी यंत्रणा से सब गुज़र रहे थे।
तभी काम करते-करते वह पीछे की ओर गिरने लगा। उसका सिर सीधे ज़मीन से लगने ही वाला था कि उसके पीछे काम कर रहे मज़दूर ने उसे पकड़ लिया।
पतला-दुबला थोड़ा लम्बा-सा एक लड़का, जिसने भड़कीली लाल शर्ट और कसी हुई जींस की पैण्ट पहनी थी, वहाँ पहुँचा। उसके भूरे रंग के चमकदार पॉलिश किये हुए जूते आगे से नुकीले थे, जिसे देखकर लगता कि वह सबको अपने जूते की नोक पर ही रखता था। यह कारख़ाने का फ़ोरमैन था। पीछे स्लिप चढ़े पाइप में ऊपर की ओर मुट्ठा ठोंकती हुई औरतें उसको गिरता हुआ देख रही थीं, पर अनवरत जारी रहने वाले उनके हाथ पाइप पर मुट्ठा ठोंकते जा रहे थे। बस वे आँखों से ही अभिषेक के प्रति सहानुभूति प्रकट कर पा रही थीं।
“क्या हुआ बे इसे?” खीझते हुए फ़ोरमैन ने कहा।
“पता नहीं! इसे शायद चक्कर आ रहे हैं।” अभिषेक को सँभालते हुए मज़दूर ने कहा।
गाँव का और हमउम्र होने के नाते कई मज़दूर उसे ‘तू’ कहकर ही बात करते थे पर इसके बावजूद कम्पनी का माल पूरा करवाने के लिए कठोरता बरतना ही उसका काम था।
“उठ बे! चल जा मुँह धो कर आ।”
लड़खड़ाता हुआ अभिषेक खड़ा हुआ और मुँह-हाथ धोने जाने की कोशिश कर रहा था। कुछ क़दम चलकर वह पाइप में पंच करने वाली मशीन पर जाकर बैठ गया, जो इस समय बन्द थी और स्टेयरिंग पर अपना सर झुका लिया।
आकाश जिसने अभिषेक को गिरने से बचाया था, काम रोक कर खड़ा हुआ और ठेकेदार के पास जाकर बोला – “कम्पनी में दवाई का डिब्बा होगा ना उसमें से कोई दवाई दे दो इसे, ठेकेदार!” कारख़ाने में सब उसे ठेकेदार के नाम से ही बुलाते थे।
“कुछ नहीं है। इस बईरे (बहरे) ने कुबेर ज्यादा खा ली होगी, उसका ही नशा है झेल नहीं पाया होगा।” ठेकेदार बोला।
“नहीं ठेकेदार साहब! यह कुबेर का नशा नाहीं है, सच में मोको चक्कर आ रहो हैं। कुबेर तो सुबोह ही खाई थी, अब शाम होन को आ रही है। कुबेर हम खाऊते अगर तो बात कैसे करते? पूछो! सुमित से हम ओ से बात भी कर रहो थो।” स्टीयरिंग से सर उठाकर ख़ुद को बीमार साबित करने की चेष्टा करता हुआ अभिषेक बोला।
“नहीं, मैंने देखा था तू कुबेर थूक रहा था बाल्टी में।” ठेकेदार इस बात को साबित करने पर तुला था कि उसे चक्कर नहीं आ रहे।
“चल बईरे (अभिषेक) काम पे लगजा, आज भाईसाहब भी आने वाले हैं। जल्दी-जल्दी काम कर आज चार हजार पीस पूरा करके भेजना है।”
अपनी कोशिशों को असफल होता देख आकाश भी वापिस अपनी जगह पर चला गया। “इसका बीपी लो हो सकता है कुछ नींबू पानी पिला दो इसको,” सुमित जो उन मज़दूरों में थोड़ा पढ़ा-लिखा था, वह बोला।
“चल बे! बईरा यहाँ आ जा थोड़ी देर आराम कर, फिर तुझे नींबू पानी पिलाता हूँ।” सुमित की बात से चिढ़कर फ़ोरमैन ने मज़ाक़ उड़ाते हुए कहा।
“चलो भाई! सब लोग तेजी से हाथ चलाओ। सबको ओवरटाइम करना है, भाईसाहब आने वाले हैं अभी।”
बईरा एक कोने में जाकर लेट गया, जहाँ कैमरे की नज़र से बच सके। उसने आँखें बन्द कर लीं। उसके अगल-बग़ल में 20 फ़ुट ऊपर तक दानव रूपी बक्सों की क़तार थी, जिनमें सारे माल पैक होकर रखे थे। उनके बीच में पड़ा हुआ बईरा, एक छोटे-से चींटे के समान प्रतीत हो रहा था। उसने आँखें बन्द कर लीं सब कुछ ग़ायब हो गया। बचा सिर्फ़ अन्तहीन अन्धकार। रक्त का प्रवाह तेज़ी से होने लगा, एक पल को उसे ऐसा लगा कि वह फिर से 15 वर्ष का हो गया है, जब वह दिल्ली काम करने आया था। पिछले दस वर्षों से बवाना के कारख़ानों में काम कर रहा है। बईरा सोचने लगा कि जब नया-नया आया था किस फुर्ती से वह सारे काम कर लेता था। तब उसके चेहरे पर लालिमा थी पर अब वह बिल्कुल खोखला हो चुका है। सारी लालिमा और फुर्ती जाती रही। काले कारख़ानों ने इन वर्षों में उसकी सारी ऊर्जा को सोख लिया ताकि कारख़ानों का जीवन बढ़ता रहे। अब वह ख़ुद को असहाय बूढ़े जैसा महसूस कर रहा है, भले ही उसकी उम्र 25 साल हो। इस समय वह अब तक की पूरी यात्रा को समेट रहा था, अपनी सारी ऊर्जा देने के बाद भी उसे मिला क्या?…कि बस आज वह ज़िन्दा है। कुछ महीनों पहले काम मन्दा होने के कारण उसका काम चला गया। इसके बाद उसे मकान भी छोड़ना पड़ा क्योंकि किराया देने के लिए पैसे नहीं थे। कुछ महीनों से घर भी पैसे नहीं भेजे हैं और इसी चिन्ता ने उसे बीमार कर दिया। इसके बावजूद उसने हार ना मानी, काम मिलते ही अधिक से अधिक काम कर हालात बेहतर करने की उसने ठान ली। यहाँ काम मिलने के बाद वह 16 घण्टे काम करने लगा। फ़ैक्टरी में ही रहने लगा, ताकि कमरे का किराया बच सके।
आज वह यहाँ पड़ा हुआ है, फ़ैक्टरी के एक कोने में आँखें बन्द करके। बीमार, हताश, एक अन्धकारमय भविष्य ख़ुद में समेटे हुए।

2

एक लम्बा-चौड़ा आदमी, जिसका पेट हल्का-सा बाहर की तरफ़ निकला हुआ है। हल्के क़रीने से छाँटी गयी चौड़ी मूँछें और ठुड्डी के नीचे बोझ-सा लटकता हुआ माँस, इसके ऊपर पहना हुआ भूरे रंग का चश्मा, जो उसकी आँखों की वीभत्सता को छुपा रहा था। काली टी-शर्ट और हल्के नीले रंग की जींस की पैण्ट पहने कमरे में दाख़िल हुआ। यह भाईसाहब थे।
इनके कमरे में आते ही जितने हाथ पैकिंग, पंचिंग व मुट्ठा ठोकने में लगे थे, सब की गति और तेज़ हो गयी। सबकी आँखें सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने हाथों पर थीं ताकि गति में थोड़ी-सी भी कमी ना आये। ठेकेदार भाईसाहब के पीछे चल रहा था और ठेकेदार के पीछे फ़ोरमैन। यही कड़ी है जो पूरे कारख़ाने को नियंत्रित करती है। भाईसाहब के आने से पहले ही पूरी साफ़-सफ़ाई की जा चुकी थी। साफ़-सफ़ाई का मतलब कटे-फटे स्लिप को हटाकर व्यवस्थित करना, पाइप के टूटे हुए मुट्ठों को एक जगह करना। असल में इन ख़राब मालों को भी बेचा जाता है, ताकि इससे भी मुनाफ़ा कमाया जा सके इसीलिए इसे सँभालकर रखना होता है। तभी अचानक एक स्लिप भाईसाहब के पैरों के नीचे आ गयी। उसे उठाकर ठेकेदार पर झुँझलाते हुए बोले – “तुझे पता नहीं है क्या रामकिशन! यह तुझसे भी ज्यादा कीमती है। ऐसे क्यों फेंक रखा है इसे?” ठेकेदार से कुछ बोलते न बना, बस वह सर झुकाकर खड़ा रहा।
भाईसाहब फ़ैक्टरी के एक छोर से दूसरे छोर पर गये, कारख़ाने का निरीक्षण किया। अब वक़्त था कि हर बार की तरह इस बार भी मज़दूरों को प्रेरित करने वाली बातें बोलें ताकि सब मन लगाकर काम करें। वह बीच में खड़े हुए और बोलना शुरू किया –
“मेरी फैक्टरी के नौजवानों!” भाईसाहब ने उपदेशात्मक स्वर में खोखले भावों के साथ बोलना जारी रखा। “यह फैक्टरी हमारी है और हमारा सब भारत माता का है। हमारी फैक्टरी में प्रोडक्शन अच्छे से होगा तो देश में भी तरक्की होगी। यह जो टाइम चल रहा है, इसमें और ज्यादा मेहनत और लगन से काम करो, वह भी कम से कम 12 घण्टे ताकि फैक्टरी और देश दोनों को फायदा पहुँचे। ज्यादा तनख्वाह कुछ नहीं होता, मुझे खुद देख लो पहले लाखों कमाता था, अब थोड़ा कम हो गया, पर देखो मैं कितनी मेहनत कर रहा हूँ। याद रखो! इसी फैक्टरी से तुम लोगों को नौकरी मिली है, जिससे अपने बच्चों का पेट पाल पा रहे हो।”
हीट मशीन के पास में खड़ा एक बूढ़ा आदमी और उसका 16 वर्ष का लड़का, इस उबकाई लाने वाली बात को अपनी उबासियाँ छुपाते हुए सुन रहे थे।
इतनी मेहनत के बाद भाईसाहब थक गये और तुरन्त अपनी केबिन में आराम करने चले गये। जाते हुए उसने बईरा को पड़ा देखा तो इतना आलस फ़ैक्टरी में बढ़ाने के लिए ठेकेदार को फटकारा।
रात के 9:30 बज गये। कल के लिए फिर से पाँच हज़ार पाइप ठेकेदार ने लगवा दिये ताकि यह पहिया इसी तरह घूमता रहे। सुमित और आकाश जाते हुए ज़मीन पर पड़े हुए बईरा को किसी तरह उसके कमरे तक ले गये। यह कमरा मेनगेट के पास स्थित बाथरूम के बग़ल में था और बाथरूम जितना ही बड़ा था। बस फ़र्क़ इतना था कि कमरे में टायलेट सीट नहीं लगी थी। बईरे को लिटाकर सुमित और आकाश अपने घर लौट गये।

3

अगले दिन फिर वही सब जारी रहने के लिए सुबह हुई। मेनगेट खुला था और रातभर खुला ही था, पर मज़दूरों को क्या… उन्हें तो प्रतिदिन घटित होने वाली त्रासदी से गुज़रना था। हाथ फिर से चल पड़े – पाइप पर स्लिप चढ़ाने के लिए, मुट्ठा ठोंकने के लिए, पंच करने के लिए। सुमित और आकाश भी काम पर पहुँचे, वहाँ काम करते हुए बईरा को ना देखकर तुरन्त उसके कमरे में पहुँचे।
सुमित ने अभिषेक को आवाज़ दी, वह नहीं उठा। कई बार आवाज़ देने के बाद भी वह नहीं उठा तो उसे हिलाकर उठाने की कोशिश की। जैसे ही सुमित ने बईरा को उठाने के लिए उसका छाती पर रखा हाथ उठाया, तो हाथ एक तरफ़ झूल गया। उसका शरीर ठण्डा पड़ चुका था। एक पाइप-सा सीधा लम्बा शरीर पड़ा हुआ था। उसके चेहरे का पीलापन अब और अधिक गाढ़ा हो गया था। पाइप की कालिख भी अब उस बेजान शरीर के पीलेपन को नहीं छुपा पा रही थी।
पूरी फ़ैक्टरी में शोर मच गया। सारे हाथ अचानक एक साथ रुक गये।

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2021


 

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