मौजूदा धनी किसान आन्दोलन का वर्ग चरित्र और उसकी हालिया अभिव्यक्तियाँ

– शिवानी

धनी किसान आन्दोलन को दिल्ली के बॉर्डरों पर शुरू हुए एक साल पूरा होने को है। इस एक साल के दौरान आन्दोलन के धनी किसान-कुलक वर्ग चरित्र को बेनक़ाब करती हुई कई घटनाएँ सामने आयी हैं। हाल में ही दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर धार्मिक कट्टरपन्थी निहंगों द्वारा एक दलित मज़दूर को बेरहमी से मार देने की घटना भी इसी वर्ग चरित्र को उजागर करने वाली एक प्रातिनिधिक घटना है। धार्मिक ग्रन्थ की कथित बेअदबी के नाम पर एक दलित मज़दूर को प्रदर्शन स्थल पर मार दिया जाता है और इसका कोई प्रतिकार तक नहीं होता है! उल्टे, इस आन्दोलन के नेतृत्व द्वारा ख़ुद को उक्त घटना से अलग करने के प्रयास तत्काल शुरू हो गये थे।
धनी किसान आन्दोलन के नेतृत्व ने हर बार की तरह आन्दोलन के वर्ग चरित्र को उजागर करने वाली इस बर्बर घटना को एक अकेली घटना और आन्दोलन के ख़िलाफ़ साज़िश के तौर पर प्रस्तुत किया और इससे अपना पल्ला झाड़ लिया। कुलकपरस्त ताक़तों ने इसके तर्क-पोषण के लिए तमाम कुतर्क गढ़े कि यह तो एक धार्मिक मसला है और किसान आन्दोलन का इससे कोई लेना-देना नहीं है या यह कि यह भाजपा की साज़िश थी। इसके जवाब में यही पूछा जा सकता है कि एक तथाकथित सेक्युलर आन्दोलन के भीतर धार्मिक कट्टरपन्थी ताक़तें या भी सिर्फ़ धार्मिक ताक़तें भी क्या कर रही थीं? क्या ऐसी ताक़तों की मौजूदगी और इनकी मौजूदगी के प्रति सहिष्णुता इस आन्दोलन के बारे में कुछ नहीं बताता है? विडम्बना देखिए कि “बेअदबी” के लिए उस मृत दलित मज़दूर के विरुद्ध मामला भी दर्ज किया गया!
इस घटना के बाद धनी किसान आन्दोलन के नेतृत्व ने दलित मज़दूर की हत्या पर “अफ़सोस” तो जताया था लेकिन साथ में यह भी जोड़ दिया था कि धार्मिक ग्रन्थ का अपमान करना ग़लत था! यह “धार्मिक भावनाओं के आहत होने” का तर्क वास्तव में सभी धर्मों के कट्टरपन्थी अपने जघन्यतम अपराधों को सही ठहराने के लिए ही करते हैं। क्या उक्त घटना अपने आप में नहीं दिखला देती है कि आन्दोलन को नैसर्गिक तौर पर किस प्रकार की ताक़तों का समर्थन प्राप्त है? इस प्रकार की बर्बर अमानवीय घटना पर निहायत ही अवसरवादी अवस्थिति अपनाना क्या दलित मज़दूरों के प्रति धनी किसान आन्दोलन के रवैये और मौजूदा आन्दोलन के वर्ग चरित्र के बारे में कुछ नहीं बताता है?
इस जघन्य हत्याकाण्ड को हुए अभी कुछ दिन भी नहीं गुज़रे थे कि एक अन्य घटना में फिर एक दलित मज़दूर के साथ एक निहंग ने प्रदर्शन स्थल के पास मारपीट की जिसके बाद उसे अस्पताल में भर्ती तक करने की नौबत आयी। इन दोनों घटनाओं के पीछे किसी “गहरी साज़िश” की खोजबीन करने के कोरस में तमाम कुलकपरस्त ताक़तें सुर मिलाने में शामिल हो गयीं। यहाँ यह कोई नहीं कह रहा है कि ये दोनों घटनाएँ कुलक आन्दोलन के नेतृत्व की शह पर हुईं या ऐसा करने में उनकी कोई सक्रिय भूमिका थी। लेकिन यह भी सच है कि ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वाली फ़िरकापरस्त ताक़तों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में आन्दोलन के वर्ग चरित्र से नैसर्गिक तौर पर बल मिलता है और ये घटनाएँ इस आन्दोलन के वर्ग चरित्र से पैदा होने वाली नैसर्गिक अभिव्यक्तियाँ हैं।
यह आन्दोलन स्वतःस्फूर्त तरीक़े से बीच-बीच में ऐसी घटनाओं के ज़रिए अपना वर्ग चरित्र उजागर करता रहा है। हालाँकि धनी किसान आन्दोलन में सक्रिय तमाम राजनीतिक धाराएँ ऐसी घटनाओं पर अवसरवादी चुप्पी अख़्तियार किये हुए रहती हैं और इन्हें ‘फ़्रिन्ज’ तत्वों की कार्रवाई बताकर ख़ारिज करती रही हैं। संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा आन्दोलन के भीतर मौजूद धार्मिक कट्टरपन्थी और धुर दक्षिणपन्थी ताक़तों की उपस्थिति पर दृढ़तापूर्वक स्टैण्ड लेकर उन्हें बाहर न करना और उनकी मौजूदगी के प्रति सहिष्णुता बनाये रखना इस आन्दोलन के नेतृत्व के चरित्र के विषय में काफ़ी कुछ बताता है।
इस बात को भी अभी ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ है जब पंजाब के तमाम गाँवों में धनी किसान-कुलक अपनी पंचायतों में मत डालकर दलित मज़दूरों समेत खेतिहर मज़दूरों की मज़दूरी पर सीलिंग लगा रहे थे। यही नहीं, आन्दोलन में शामिल न होने वाले मज़दूर परिवारों, विशेषकर दलित मज़दूरों पर भारी जुर्माने लगाये जा रहे थे और उनका सामाजिक बहिष्कार तक किया जा रहा था। क्या यह अपने आप में यह साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि मौजूदा धनी किसान आन्दोलन किन वर्गों के हितों की नुमाइन्दगी कर रहा है?
पंजाब में धनी किसानों-कुलकों के वर्ग द्वारा खेतिहर मज़दूर वर्ग के ख़िलाफ़ शोषण और विशिष्ट तौर पर दलित खेतिहर मज़दूर आबादी के ख़िलाफ़ जातिगत उत्पीड़न व स्त्री मज़दूरों के विरुद्ध यौन हिंसा की घटनाएँ आम हैं। यहाँ पर ज़मीन के ज़्यादातर मालिक तथाकथित उच्च जातियों (जैसे कि जट्ट या जाट) से आते हैं जबकि ज़्यादातर खेतिहर मज़दूर दलित या प्रवासी हैं। धनी किसान दलित खेत मज़दूरों का न केवल आर्थिक शोषण करते हैं बल्कि उनका आर्थिकेतर उत्पीड़न व जातीय तौर पर सामाजिक उत्पीड़न भी करते हैं। खेत मज़दूरों के साथ मारपीट, महिला मज़दूरों के साथ यौन हिंसा और बलात्कार, मज़दूरों के बच्चों की छोटी-मोटी कथित चोरियों के नाम पर बुरी तरह से पिटाई जैसी घटनाएँ भी आम हैं। इन्हीं सब कारणों की वजह से पंजाब में दलित खेत मज़दूरों और उच्च जातीय खेत मालिकों के बीच का वर्ग संघर्ष जातीय संघर्षों के तौर पर भी अभिव्यक्त होता है।
अगर विशिष्ट तौर पर पंजाब की बात करें तो वहाँ दलित आबादी कुल आबादी का 31.94 प्रतिशत है; देश के किसी भी राज्य में यह अनुपात सबसे अधिक है। राज्य की आबादी में क़रीब एक तिहाई हिस्सा होने के बावजूद इनके पास पंजाब की कुल कृषि योग्य भूमि के मात्र 2.3 प्रतिशत का मालिकाना है। यह आबादी ज़्यादातर धनी किसानों कुलकों के खेतों-खलिहानों तथा अन्य आर्थिक इकाइयों में अपना उजरती श्रम बेचकर जीवन गुज़र-बसर करती है। पंजाब की कुल आबादी का तक़रीबन 25 प्रतिशत हिस्सा जट्ट सिक्खों का है। लेकिन पंजाब की क़रीब 80 प्रतिशत ज़मीन का मालिकाना इनके पास है। हालाँकि यह सच है कि जट्ट सिखों की एक विचारणीय आबादी छोटे और सीमान्त किसान के रूप में भी विद्यमान हैं, लेकिन उच्च मध्यम और बड़े पूँजीवादी किसान लगभग विशेष रूप से जट्ट सिख ही हैं। ज़ाहिरा तौर पर इनके बीच भी वर्ग अन्तरविरोध व्याप्त हैं और आबादी का एक हिस्सा उजरती श्रम करने को भी मजबूर है। राज्य की कुल 11 लाख जोतों में से केवल 63,480 (6.02 प्रतिशत) दलितों के पास हैं। पंजाब की कुल श्रमिक आबादी का 35.88 प्रतिशत हिस्सा अनुसूचित जाति से है। पंजाब में ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वाले 5,23,000 परिवारों में से 3,21,000 या 61.4 प्रतिशत दलित हैं। यही कारण हैं कि दलित मज़दूर आबादी सबसे ग़रीब व अरक्षित आबादी है।
पूरे पंजाब में दलित उत्पीड़न का एक बर्बर इतिहास रहा है। पंजाब में आम तौर पर दलित आबादी का आर्थिक शोषण तथा आर्थिकेतर उत्पीड़न करने का काम कुलक-धनी किसान वर्ग करता है, जिसका राजनीतिक प्रतिनिधित्व शिरोमणि अकाली दल जैसी पार्टी करती है। इसलिए सिंघू बॉर्डर पर हुई घटना को भी एक वृहद् परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है जो कि स्पष्ट तौर पर दिखलाती है कि यह कोई अकेली घटना नहीं है, जैसा कि कुलकपरस्त ताक़तों का दावा था, बल्कि एक सामान्य रुझान को रेखांकित करने वाली घटना है।
“मज़दूर-किसान एकता” के नारे की हक़ीक़त वैसे तो हर साल ही पंजाब-हरियाणा-पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाँवों में खुलकर सामने आती है; लेकिन इस आन्दोलन के दौरान भी इन दावों की कलई कई बार खुलती रही है। आज जब धनी किसानों-कुलकों के वर्ग को उससे भी बड़ी पूँजी बाज़ार के खेल में पछाड़ रही है तो इस वर्ग को मज़दूरों के समर्थन की याद आ रही है! यही नहीं इन धनी किसानों की पंचायतों की मज़दूरी पर सीलिंग फ़िक्स करने से जुड़े हुए उपरोक्त फ़रमान ठीक उस समय आये थे जब राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर जारी किसान आन्दोलन में “किसान-मज़दूर एकता” के नारे उछाले जा रहे थे। मज़दूर वर्ग को समझाया जा रहा है कि अपने वर्ग हित भुलाकर साझा दुश्मन, यानी कि, बड़ी पूँजी के ख़िलाफ़ संघर्ष में वह अपने वर्तमान शोषकों, यानी कि, धनी किसानों-कुलकों के वर्ग का साथ दे, क्योंकि इस वक़्त छोटी पूँजी बड़ी पूँजी के आगमन से भयाक्रांत है! कुछ “यथार्थवादी” मूर्ख भी कुलकों-धनी किसानों द्वारा खेतिहर मज़दूरों के शोषण को अतीत की बात क़रार दे रहे थे! लेकिन इस “एकता” की असलियत तो इस आन्दोलन के वर्ग चरित्र को बेनक़ाब करने वाली ये तमाम घटनाएँ ख़ुद-ब-ख़ुद बयान कर रही हैं।
धनी किसान-कुलक वर्ग के नये “सिद्धान्तकारों” के रूप में में ख़ुद को स्थापित करने के लिए बेताब “यथार्थवादी” कुलकपरस्त गिरोह (‘यथार्थ’ पत्रिका निकालने वाली मूर्ख-मण्डली) हो या पंजाब के ट्रॉट-बुण्डवादी “मार्क्सवादी” (प्रतिबद्ध पत्रिका से जुड़ा हुआ ग्रुप), ये सभी वास्तव में मज़दूर वर्ग को गाँव में अपने प्रमुख शोषक और उत्पीड़क वर्ग का पिछलग्गू बनने की नसीहत दे रहे हैं, उन्हें अपने वर्ग हितों के विपरीत जाकर धनी किसानों-कुलकों के वर्ग हितों की हिफ़ाज़त करने का पाठ पढ़ा रहे हैं। “मौजूदा वक़्त की दरकार” की रामनामी माला जपते हुए पर आज राकेश टिकैत-नरेश टिकैत जैसे घोर जातिवादी, साम्प्रदायिक व धुर-दक्षिणपन्थी तत्व इन “मार्क्सवादियों” के वर्ग मित्र बन चुके हैं!
राकेश टिकैत, नरेश टिकैत जैसे तत्वों की जन्मकुण्डली उठाकर देखी जाये तो हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद से लेकर हर प्रकार के प्रतिक्रियावाद से इनकी नज़दीकी और गलबहियाँ स्वतः स्पष्ट हो जाती हैं। मुसलमानों के ख़िलाफ़ हुए मुज़फ़्फ़रनगर दंगों और हत्याकाण्ड में इनकी भूमिका भी जगज़ाहिर है। भारतीय किसान यूनियन और भाजपा दोनों ने ही मिलकर 7 सितम्बर, 2013 को उस महापंचायत का आयोजन किया था जिसके बाद मुसलमानों के ख़िलाफ़ फ़ासीवादी हमले और क़त्लेआम की शुरुआत हुई थी। तमाम भाजपा नेताओं के साथ ही दोनों भाइयों का नाम उस वक़्त दर्ज हुई एफ़आईआर में शामिल है। लेकिन आज यही राकेश टिकैत कुलकपरस्त ताक़तों को “क्रान्तिकारी” नज़र आ रहा है! यह भी अनायास नहीं है कि लखीमपुर खीरी में किसानों पर हुए बर्बर फ़ासीवादी हमले के बाद राकेश टिकैत संयुक्त किसान मोर्चा के प्रतिनिधि के तौर पर सरकारी अधिकारियों के साथ ‘सौदेबाज़ी’ कर रहा था। इतनी बड़ी घटना के 24 घण्टे के भीतर ही किसान कैसे पीछे हट गये और 25,000 लोगों की भीड़ इतने कम समय में कैसे छँट गयी, ये तमाम प्रश्न भी राकेश टिकैत जैसे धुर-दक्षिणपन्थी तत्व की भूमिका पर सवालिया निशान खड़ा करती है। क्या यह अपने आप में धनी किसान आन्दोलन की मौक़ापरस्ती को नहीं दिखला देता है, जो ऐसे तत्वों को सरकार से “मांडवली” करने के लिए आगे करती है?
स्पष्ट है कि ये तमाम घटनाएँ अलहदा या इकलौती घटनाएँ नहीं हैं बल्कि धनी किसान-कुलक आन्दोलन के वर्ग चरित्र को उजागर करने वाली प्रातिनिधिक घटनाएँ हैं। इस आन्दोलन में नरोदवादी या अन्य वामपन्थी संगठनों की मौजूदगी से इस आन्दोलन का चरित्र बदल नहीं जाता है। वैसे भी इन तमाम संगठनों व ग्रुपों ने आन्दोलन के समक्ष उपस्थित हर अहम विचारधारात्मक-राजनीतिक मसले पर समझौते कर घुटने ही टेके हैं।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2021


 

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