पंजाब में केजरीवाल और चन्नी में “आम आदमी” बनने की हास्यास्पद होड़

– शुभम

आगामी पंजाब विधानसभा चुनावों को समीप आते देख पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों के बीच हलचल शुरू हो गयी है। इन सभी पार्टियों के नेता-मंत्री पाँच साल की शीत निद्रा से बाहर निकल आये हैं और एक के बाद एक बड़े एलान कर रहे हैं। कुछ ऐसे ही एलानों के बीच पंजाब के नये मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के बीच ख़ुद को ‘आम आदमी’ साबित करने की होड़-सी मच गयी। नवम्बर महीने से ही केजरीवाल पंजाब के अलग-अलग शहरों के चक्कर लगा चुके हैं। इसी दौरान लुधियाना शहर में रखे दो अलग-अलग कार्यक्रमों के दौरान दोनों ही रिक्शा चालकों और रेहड़ीवालों के बीच पहुँच बनाते दिखे। जहाँ चन्नी ने रिक्शा चालकों के साथ चाय पी वहीं केजरीवाल उनके साथ खाना खाते नज़र आये। चुनावों से पहले ऐसी गतिविधियाँ अक्सर ही देखने को मिल जाती हैं, पर ये गतिविधियाँ राजनीतिक करतबों के अलावा और कुछ नहीं होती हैं। ये दोनों नेता और इनकी पार्टियाँ कितनी ‘आम’ हैं आइए जान लेते हैं।
2017 में राज्य में बेरोज़गारी, ग़रीब किसानों का संकट, गिरती अर्थव्यवस्था और दलितों के ख़िलाफ़ बढ़ते अपराध जैसे मुद्दों को केन्द्र में रखकर कांग्रेस उस समय शासन कर रहे अकाली दल और भाजपा के गठबन्धन को हराकर सत्ता में आयी थी। ग़ौरतलब है कि इनमें से किसी भी मुद्दे पर सरकार कोई ठोस क़दम नहीं उठा पायी और कुछ मामलों में स्थिति और भी बदतर हो गयी।
कांग्रेस सरकार ने ‘घर-घर नौकरी’ स्कीम के तहत हर घर में एक नौकरी देने का जुमला दिया था। 10 लाख से भी ज़्यादा युवाओं ने नौकरी पाने के लिए पंजीकरण तो किया पर सरकार कितनों को नौकरी दिला पायी इसके आँकड़े कभी सामने ही नहीं आये। नये रोज़गार पैदा करना तो दूर सरकारी विभागों में पदों को भरने में भी सरकार असमर्थ रही है। 2020 में एक आरटीआई की अर्ज़ी के जवाब में यह बात सामने आयी कि पंजाब और चण्डीगढ़ के प्राइमरी स्कूलों में अध्यापकों के 10 प्रतिशत से ज़्यादा पद ख़ाली पड़े हैं। ऐसे ही कई और सरकारी संस्थानों में हज़ारों की संख्या में पद ख़ाली पड़े हैं जिन्हें सरकार अपने साढ़े चार साल के कार्यकाल में नहीं भर पायी। साल 2017 से 2021 तक पंजाब में बेरोज़गारी दर औसतन क्रमशः 5.61 प्रतिशत, 8.15 प्रतिशत, 10.3 प्रतिशत, 10.98 प्रतिशत, 7.1 प्रतिशत रही है। 2019 और 2020 में पंजाब की बेरोज़गारी दर भारत की औसत बेरोज़गारी दर से ऊपर थी और पंजाब भारत के पाँच सबसे अधिक बेरोज़गार प्रदेशों की सूची में रहा।
इससे अधिक हास्यास्पद और क्या हो सकता है कि अपने पूरे शासनकाल में हुए अलग-अलग प्रदर्शनों के दौरान प्रदर्शनकारियों और जायज़ माँग उठा रही जनता पर लाठियाँ बरसाने वाले ये ‘आम आदमी’, चुनाव नज़दीक आते ही एक दूसरे के ख़िलाफ़ चल रहे प्रदर्शनों में भागीदारी करने की नौटंकी कर रहे हैं! कांग्रेस सरकार के ख़िलाफ़ मोहाली में 165 दिनों से चल रहे संविदा शिक्षकों के प्रदर्शन में 27 नवम्बर को केजरीवाल शामिल हुए और अपनी सरकार बनते ही उनको पक्की नौकरी का ‘आश्वासन’ दिया। वहीं पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू 5 दिसम्बर को दिल्ली में केजरीवाल के निवास स्थान के बाहर गेस्ट टीचर्स के प्रदर्शन में बैठ गये। अखिल भारतीय गेस्ट शिक्षक संघ के अनुसार दिल्ली में 22,000 से ज़्यादा शिक्षक ‘गेस्ट’ के रूप में काम कर रहे हैं और इनमे से अधिकतर पिछले सात सालों से एक स्थायी शिक्षक जितना काम कर रहे हैं। कोई भी व्यक्ति यह बता सकता है कि इन प्रदर्शनों में शामिल होने के पीछे सिर्फ़ राजनीतिक लाभ की आकांक्षाएँ ही छुपी हैं क्योंकि अगर ये सच में जनता के मुद्दों से सरोकार रखते तो यह नौबत आज आती ही नहीं।
पंजाब में अकुशल, अर्द्ध-कुशल, कुशल और अत्यधिक कुशल श्रेणी के मज़दूरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी क्रमशः 9,192, 9,972, 10,869 और 11,901 रुपये प्रति माह है। खेत मज़दूरों को तो न्यूनतम वेतन भी नहीं मिलता है। कोई भी मज़दूर इतने में अपना और अपने परिवार का गुज़ारा नहीं कर सकता है पर असंगठित क्षेत्र के मज़दूर को इतना भी मिल जाये तो ग़नीमत है।
ग़रीब किसानों को कोई भी सहायता प्रदान करने में कांग्रेस सरकार पूरी तरह से असफल रही है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के द्वारा 2019 में जारी की गयी रपट के अनुसार पंजाब में हर दिन सात किसान आत्महत्या करते हैं। साल 2020 में ही आत्महत्या के 2357 मामले दर्ज हुए थे। धनी किसान-कुलक और आढ़तिये, जो अक्सर यही धनी किसान होते हैं, ग़रीब किसानों को ऊँची ब्याज़ दरों पर ऋण देते हैं, जिस ऋणग्रस्तता के शिकार ग़रीब और सीमान्त किसान होते हैं और यही आत्महत्याओं का मुख्य कारण बनता है। सरकार ये दावा कर रही है कि उसके द्वारा साढ़े पाँच लाख किसानों का क़र्ज़ माफ़ किया जा चुका है तो इन मौतों के पीछे की क्या वजह है? कोरोना काल में भी यही धनी किसान पंचायतें बुलाकर खेत मज़दूरों की मज़दूरी की सीलिंग तय कर रहे थे और किसी दूसरे गाँव में जाकर काम करने पर उनके सामाजिक बहिष्कार की बात कर रहे थे। भारत के अलग-अलग राज्यों से पंजाब आने वाले मज़दूरों के शोषण और उत्पीड़न में ये कुलक-धनी किसान कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। ऐसे मौक़ों पर सरकार अपनी आँखे फेर लेती है और इन शोषकों पर कार्रवाई करने से बचने की कोशिश करती है। ग़रीब किसानों के लिए सरकार के पास संस्थाबद्ध ऋण और खेती में लगने वाले इनपुट को धनी किसानों समेत पूँजीपति वर्ग पर विशेष कर लगाकर सस्ती दरों में उपलब्ध कराने के कोई इन्तज़ाम नहीं हैं क्योंकि ये चुनावी पार्टियाँ कुलकों-धनी किसानों की नुमाइन्दगी करती हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2017 में पंजाब में दलित उत्पीड़न के मामलों की संख्या 118 थी। 2018 में 168 मामले, 2019 में 166 और 2020 में 165 ऐसे मामले सामने आये। ये वे मामले हैं जिनमें एफ़आईआर दर्ज की गयी थी या पुलिस की तरफ़ से कार्रवाई की गयी। अधिकतर ऐसे मामले तो सामने ही नहीं आ पाते हैं और इनकी वास्तविक संख्या कई गुना ज़्यादा होती है। इन हत्याओं और उत्पीड़न के अधिकतर मामलो में उच्च जातियाँ, जाट-सिख ही दोषी पाये जाते हैं। बेअदबी के नाम पर भीड़ द्वारा हत्याओं को भी सरकार द्वारा नज़रअन्दाज़ किया जाता है और इन मामलो में दोषियों को कोई सज़ा नहीं दी जाती है। और ऐसे हर मामले में सरकार न केवल चुप्पी साध लेती है बल्कि कई बार दोषियों को बचाने की पूरी कोशिश भी करती है। इससे शर्मनाक और क्या बात होगी कि ठीक चुनावों से पहले कांग्रेस ने एक दलित नेता को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया है! पंजाब में रह रहे 32 प्रतिशत दलितों को लुभाने के अलावा और इसका क्या मक़सद हो सकता है? नवम्बर में मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफ़ा देकर और कांग्रेस छोड़कर नयी पार्टी बनाने वाले अमरिन्दर सिंह अब भाजपा के साथ गठबन्धन बना चुके हैं। इससे इतना तो साफ़ हो जाता है कि पूँजीवादी लोकतंत्र में नेता-मंत्री व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं और घाघ अवसरवादी होते हैं।
‘आम आदमी’ का चोगा पहने केजरीवाल सरकार भी दिन रात फ़ैक्टरी मालिकों, प्रॉपर्टी डीलरों और व्यापारियों की सेवा में लगी रहती है। आप पार्टी के शासनकाल में दिल्ली के अलग-अलग इलाक़ों में फ़ैक्टरी मालिकों को ख़ूब फलने-फूलने का मौक़ा मिला। मसलन, सेल्स टैक्स के छापे रुक गये, नये कारख़ाने आदि लगाना आसान हो गया और श्रम क़ानूनों पर अमल को सोचे-समझे तौर पर ढीला कर दिया गया। इन सब का ख़ामियाज़ा दिल्ली की मेहनतकश आबादी को भुगतना पड़ा जो अपना हाड़-माँस गलाकर इन मालिकों के लिए मुनाफ़ा पैदा करती है। अभी नवम्बर महीने में दिल्ली सरकार द्वारा न्यूनतम वेतन में फिर से बढ़ोतरी की गयी है। पर ये बढ़ोतरी सिर्फ़ काग़ज़ों पर बदलाव के अलावा और कुछ नहीं है। ज़मीनी हक़ीक़त तो यह है कि दिल्ली में मेहनतकश आबादी बड़ी तादाद में न्यूनतम वेतन से काफ़ी कम में खटती है।
दिल्ली के मेहनतकशों को पिछले पाँच सालों में महँगाई, अनियोजित लॉकडाउन में खाने-पीने या घर जाने की असुविधा, बरसात के मौसम में मज़दूर बस्तियों में पानी भरने की समस्या या कूड़े के ढेरों की समस्या का सामना करना पड़ा है। इनका कोई भी हल तो सरकार निकाल नहीं पायी मगर अपने नरम हिन्दुत्ववादी एजेण्डे को सरकार अमल में लाने की पूरी कोशिश में है। सरकार ने पिछले महीने अयोध्या भ्रमण के लिए मुफ़्त रेल सेवा शुरू की है। 2019 में केन्द्र सरकार द्वारा पारित किये गये जनता विरोधी राष्ट्रीय जनसँख्या रजिस्टर और नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ बिल पारित करने में भी सबसे देर केजरीवाल सरकार ने ही लगायी थी। ये कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगा कि केजरीवाल भाजपा का ही छोटा भाई है।
कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को चुनाव प्रचार के लिए अलग-अलग उद्योगपतियों, कारोबारियों, फ़ैक्टरी मालिकों, धनी किसानों से तो चन्दा मिलता ही है उसके अलावा इनके नेताओं-मंत्रियों की भी जेबें हमेशा गर्म रहती हैं। 2017 के चुनावों में चरणजीत सिंह चन्नी ने 14 करोड़ की घोषित संपत्ति दर्ज करायी थी, उन्हीं चुनावों में पंजाब कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू की कुल घोषित सम्पत्ति 45 करोड़ से ऊपर थी। आम आदमी पार्टी के संगरूर से चुने सांसद भगवन्त मान की घोषित सम्पत्ति 1.2 करोड़ थी और अरविन्द केजरीवाल ने लगभग साढ़े तीन करोड़ की घोषित सम्पत्ति दर्ज करायी थी। इन्हें ‘आम आदमी’ कहना दिन रात एक करके ज़िन्दगी गुज़ारने वाली बड़ी आबादी के साथ एक भद्दा मज़ाक़ ही होगा।
इन सब बातों से इतना तो साफ़ हो ही जाता है कि न तो ये दोनों पार्टियाँ ‘आम’ हैं और ना ही इनके नेता-मंत्री ‘आम आदमी’। ये दोनों ही पार्टियाँ ‘ख़ास’ हैं और ‘ख़ास वर्ग’ के हितों की नुमाइन्दगी करती हैं और उन्हीं के लिए सब नियम क़ानून बनाती हैं। मेहनतकश जनता को यह जान लेना होगा कि राज्य में चाहे कोई भी पूँजीवादी पार्टी सरकार बनाये, उनकी ज़िन्दगी में कोई बेहतर बदलाव नहीं आने वाला है। शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य जैसी माँगों के इर्द-गिर्द लामबन्द होकर जब तक अपना पक्ष ख़ुद नहीं खड़ा किया जायेगा तब तक देश की मेहनतकश आबादी बर्बाद ही रहेगी।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2022


 

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