मेहनतकश और युवा आबादी पर टूटता बेरोज़गारी का क़हर

– अविनाश

कौन-सा घुन है जो हमारे युवाओं को भीतर ही भीतर खाये जा रहा है? उम्मीदों और सपनों से भरी उम्र में नाउम्मीदी चुप्पी, अकेलेपन और मौत का दामन क्यों थाम रहे हैं इस देश के नौजवान?
कविता कृष्णपल्लवी के एक लेख की ये पंक्तियाँ देश में महामारी का रूप ले चुकी बेरोज़गारी और इससे पैदा होने वाली निराशा, अवसाद और आत्महत्याओं के हालात पर सवाल उठाती हैं। 1990 के दशक में निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से ही बेरोज़गारी का संकट भयंकर होता जा रहा है। फ़ासिस्टों के “अच्छे दिन” और “रामराज्य” में बेरोज़गारी सुरसा की तरह मुँह खोले नौजवानों को लीलती जा रही है। इलाहाबाद, पटना, कोटा, जयपुर जैसे शहर छात्रों-युवाओं के लिए क़ब्रगाह बन चुके हैं। हालात इतने बदतर हो चले हैं कि अकेले अप्रैल के महीने में इलाहाबाद में लगभग 35 छात्रों ने आत्महत्या कर ली। एनसीआरबी के आँकड़ों के मुताबिक़ 2019 की तुलना में 2020 में 18-45 साल की उम्र के युवाओं की आत्महत्या में 33 फ़ीसदी का इजाफ़ा हुआ है, जोकि 2018 से 2019 के बीच 4 फ़ीसदी था। ये महज़ आँकड़े नहीं हैं बल्कि देश की जीती-जागती तस्वीर है। ये आत्महत्याएँ नहीं, बल्कि मानवद्रोही मुनाफ़ा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था के हाथों की गयी निर्मम हत्याएँ हैं।
दरअसल मालिकाने पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था अपनी स्वाभाविक गति से समाज में एक तरफ़ कुछ लोगों के लिए विलासिता की मीनारें खड़ी करती जाती है तो दूसरी ओर आम आबादी समेत करोड़ों-करोड़ छात्रों-युवाओं को ग़रीबी और भविष्य की अनिश्चितता के अँधेरे में ढकेलती है। मुनाफ़ा पूँजीवादी व्यवस्था की चालक शक्ति होता है। आज विश्व पूँजीवाद मुनाफ़े की गिरती दर के असमाधेय संकट के दौर से गुज़र रहा है। पूँजीवादी होड़ से पैदा हुई इस मन्दी की क़ीमत छँटनी, तालाबन्दी, भुखमरी, दवा-इलाज के अभाव, बेरोज़गारी आदि रूपों में मेहनतकश वर्ग को ही चुकानी पड़ रही है।
हाल ही में आये सीएमआईई के आँकड़े बताते हैं कि 2017-2022 के बीच मोदी के नेतृत्व वाले फ़ासिस्टों के “रामराज्य” में आबादी की तुलना में कामगारों में संख्या 46 फ़ीसदी से घटकर 40 फ़ीसदी पर आ गयी है। दूसरे शब्दों में कहें तो हर साल “2 करोड़ नौकरी” देने का सपना दिखाकर सत्ता में आयी भाजपा सरकार के कार्यकाल में इन पाँच सालों के भीतर आबादी की तुलना में 2 करोड़ 10 लाख नौकरियाँ घटी हैं। अक्सर आँकड़ो की धाँधलेबाज़ी कर भाजपा सरकार ईपीएफ़ओ (कर्मचारी भविष्य निधि संगठन), ईएसआईसी (कर्मचारी राज्य बीमा निगम) और एनपीएस (नयी पेंशन योजना) से जुड़ने वाले सदस्यों की संख्या को पैदा होने वाले रोज़गार की संख्या बता देती है। लेकिन इस प्रक्रिया में बहुत चालाकी से ईपीएफ़ओ, ईएसआईसी और एनपीएस से बाहर होने वाले लोगों की संख्या को छुपा लिया जाता है। फ़रवरी-2022 में ईपीएफ़ओ से जुड़ने वाले नये सदस्यों की संख्या जहाँ 8.48 लाख रही, जबकि 9.35 लाख लोग इससे बाहर हो गये। इसी तरह से ईएसआईसी और एनपीएस के तहत जुड़ने वाले नये सदस्यों की संख्या में क्रमशः 3.3 और 0.59 फ़ीसदी की कमी आयी है। भारत में अभी लगभग 90 करोड़ लोग रोज़गार के योग्य हैं, जिसमें से 18-45 आयु वर्ग के युवाओं की हिस्सेदारी 72 फ़ीसदी है। महिलाओं की स्थिति और भी दयनीय है, 1990-91 की निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से ही श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी में जारी गिरावट अब भयंकर स्तर पर पहुँच चुकी है। सीएमआईई के हालिया आँकड़ों के मुताबिक़ योग्यता के बावजूद सिर्फ़ 9 फ़ीसदी महिलाओं के पास या तो काम है या काम की तलाश जारी रखे हुए हैं।
विश्व बैंक द्वारा जारी एक आँकड़े के मुताबिक़ भारत में महिला श्रमबल की भागीदारी जून-2020 में 20.3 फ़ीसदी थी। ग़ौरतलब है कि यह आँकड़ा 1990 में 30.3 फ़ीसदी था। बेरोज़गारी का आलम यह है कि काम करने योग्य कुल आबादी में से 45 करोड़ से ज़्यादा लोग अब काम की तलाश भी छोड़ चुके हैं। सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) (बक़ौल वित्त मंत्री जो देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है) के जॉब पोर्टल पर नौकरी चाहने वालों की संख्या में 86 फ़ीसदी की कमी आयी है वहीं पदों की संख्या में 71 फ़ीसदी की कमी आयी है। पिछले दिनों एमएसएमई के टूल रूम्स और तकनीकी संस्थानों से 4,77,083 युवा पास होकर निकले हैं लेकिन पोर्टल पर केवल 133 रिक्तियाँ उपलब्ध हैं। यह है बेशर्म मोदी सरकार के रोज़गार पैदा करने के नाम पर परोसे जा रहे झूठ की सच्चाई!
भारतीय कृषि में पूँजीवादी विकास से खेती के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर मशीनीकरण को बढ़ावा मिल रहा है। जिसकी वजह से कृषि क्षेत्र में आवश्यक श्रम शक्ति में लगातार गिरावट की स्थिति बनी हुई है, जिससे एक ओर कुल खेतिहर आबादी कम हुई है और वहीं दूसरी ओर ग्रामीण सर्वहारा वर्ग का आकार लगातार बढ़ता जा रहा है। इसमें से एक बड़ी आबादी काम की तलाश में शहरों की तरफ़ पलायन कर रही है। स्टेटिस्टा द्वारा दिये गये इन आँकड़ों के अनुसार, भारत में साल 2009 से 2019 तक आर्थिक क्षेत्रों में कार्यबल का वितरण देखने से साफ़ पता चलता है कि इन 10 सालों में कृषि क्षेत्र में कार्यबल 52.5 से घटकर 42.6 प्रतिशत रह गया था।
अगर पूरे देश के स्तर पर बात की जाये तो बेरोज़गारी की दर मार्च-2022 की तुलना में अप्रैल-2022 में 0.23 फ़ीसदी से बढ़कर 7.83 फ़ीसदी पहुँच गयी है। दरअसल बेरोज़गारी से परेशानहाल बहुत बड़ी आबादी बढ़ती उम्र के साथ अपना जीविकोपार्जन ठेला, रिक्शा चलाने या रेहड़ी-खोमचा लगाने को मजबूर है। इस प्रकार जो आबादी आज श्रम बाज़ार में लगी हुई है उसमें से भी बहुत बड़ी आबादी प्रच्छन्न् बेरोज़गारी की शिकार है और कृषि के क्षेत्र में प्रच्छन्नपन्न बेरोज़गारी की स्थिति सबसे भयानक है जहाँ एक सर्वे के मुताबिक़ कृषि कार्यों में लगी आधी से ज़्यादा आबादी आज प्रच्छन्न बेरोज़गारी की मार झेल रही है। इस बड़ी आबादी को बेशर्म मोदी सरकार रोज़गारशुदा आबादी का दर्जा देकर रोज़गार पैदा करने के खोखले आँकड़े पेश कर रही है और ख़ुद ही अपनी पीठ थपथपा रही है। इस प्रकार बेरोज़गारी का जो आँकड़ा 7-8 फ़ीसदी दिख रहा है वह असल में इससे कहीं अधिक है।
1990-91 के बाद से ही भारत में रोज़गार देने वाले मुख्य क्षेत्र उद्योग, कृषि और सेवा तीनों में आबादी के हिसाब से कार्यबल के बीच-बीच में उतार चढ़ाव के बीच मुख्य प्रवृत्ति घटने की है।
दरअसल बेरोज़गारों की सेना की मौजूदगी पूँजीवादी व्यवस्था की सेहत के लिए फ़ायदेमन्द होती है। इस सेना का आकार जितना बड़ा होता है पूँजीपतियों की मोल-भाव की क्षमता भी उतनी ज़्यादा होती है और किसी विशेष समय में बाज़ार में आये उछाल की वजह से श्रमशक्ति की बढ़ी हुई माँग की सप्लाई इसी आबादी से होती है। बेरोज़गारों की यह सेना मज़दूर वर्ग पर बेहद कम मज़दूरी में दयनीय स्थिति में भी काम करने का दबाव बनाये रखती है और बेहतर मज़दूरी और हालात की माँग करने वाले मज़दूरों की हड़ताल और आन्दोलनों को तोड़ने के लिए सस्ते मज़दूरों की सप्लाई का काम करती है। इसीलिए बेरोज़गारों की यह सेना पूँजीवादी उत्पादन के शुरुआती दौर से ही अस्तित्वमान है और इस व्यवस्था का अनिवार्य अंग बन चुकी है। और जब तक मज़दूरी की यह व्यवस्था क़ायम रहेगी तब तक बेरोज़गारी का पूर्ण उन्मूलन असम्भव है। सबको रोज़गार और सबको बेहतर जीवन केवल और केवल समता और न्याय पर टिकी समाजवादी व्यवस्था में ही सम्भव है।

मज़दूर बिगुल, मई 2022


 

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