पृथ्वी पर बढ़ती गर्मी और जलवायु परिवर्तन : पूँजीपतियों के मुनाफ़े की बलि चढ़ रही है हमारी धरती

सार्थक

पूँजीवाद के हाथों हो रही प्रकृति की तबाही आज हमारे सामने एक विकट संकट बनकर खड़ी है। मुनाफ़े की हवस पर टिकी यह पूँजीवादी व्यवस्था पहले ही समाज के एक बड़े हिस्से को इन्सानी ज़िन्दगी देने की क्षमता खो चुकी थी लेकिन आज अपनी मरणासन्न अवस्था में यह प्रकृति की तबाही को इस मुक़ाम पर पहुँचा चुकी है कि समूची मानवजाति के सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। तपती गर्मी, जलती लू, हड्डियाँ गलाने वाली शीत लहर, अनियमित बारिश और नियमित सूखा, पहले से कहीं अधिक विनाशकारी होती जा रही है बाढ़ जो नियमित तौर पर आती है और चक्रवात, तेज़ी से पिघलते हिमनद, ज़हरीले वायु और प्रदूषित जल, सभी प्रकृति की तबाही के अलग अलग रूप हैं। हालाँकि प्रकृति का विनाश पूरे मानव समाज के लिए अस्तित्व का संकट पैदा करता है लेकिन तात्कालिक तौर पर इसकी सबसे बड़ी मार मेहनतकश जनता को ही सहनी पड़ती है। मेहनतकश अवाम के पास न ही ‘एयर कण्डीशनर’ है और न ही ‘रूम हीटर’, न ही ‘एयर प्यूरीफ़ायर’ और न ‘वाटर प्यूरीफ़ायर’ है। हर क़दम पर मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता का सामना पर्यावरणीय विनाश से होता है जो किसी ख़ूँख़ार राक्षस की तरह उनपर हमला करता है। फ़ैक्टरियों, कारख़ानों, वर्कशॉपों में दो वक़्त की रोटी के लिए कमरतोड़ मेहनत करने के बाद जब मेहनतकश जनता बाहर आती है तो उसे स्मॉग, लू, गन्दा पानी, ज़हरीली हवा ही मिलती है।

पृथ्वी का तापमान बढ़ने (ग्लोबल वार्मिंग) और उसकी वजह से होने वाला जलवायु परिवर्तन आज प्रकृति की तबाही की सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यक्तियों में से है। पृथ्वी के औसत तापमान में बढ़ोत्तरी या ग्लोबल वार्मिंग मुख्यतः कार्बन उत्सर्जन की तेज़ी से बढ़ती दर और जंगलों के अन्धाधुन्ध सफ़ाये (डिफ़ोरेस्टेशन) का नतीजा है। उत्तर भारत के मैदानी इलाक़ों में इस साल चली भयंकर लू का मुख्य कारण ग्लोबल वार्मिंग ही है। इसकी चर्चा हमने ‘मज़दूर बिगुल’ के पिछले अंक में विस्तार से की है। सरकारी सूत्रों के अनुसार इस साल भारत और पाकिस्तान में लू के कारण लगभग 100 लोगों की मौत हो चुकी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर ग्लोबल वार्मिंग ऐसे ही बढ़ता रहा तो शताब्दी के अन्त तक पृथ्वी का औसत तापमान औद्योगिक क्रान्ति के पहले के स्तर से 2 डिग्री बढ़ जायेगा और इससे लू की तीव्रता और नियमितता 30 गुना बढ़ जायेगी। आम मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी को बेहाल करने में गर्मी और लू का जितना योगदान है उतना ही बड़ा हाथ उमस का भी है। उमस गर्मी को ज़्यादा जानलेवा बना देती है। जब गर्मी बढ़ने लगती है तो शरीर के अन्दर के तापमान को सुरक्षित दायरे में बनाये रखने के लिए पसीना आता है। हवा हमारी त्वचा से पसीना सोख लेती है और इससे शीतलन प्रभाव पैदा होता है। इस तरह हमारा शरीर ठण्डा रहता है। लेकिन अगर हवा में पहले से ही पर्याप्त नमी मौजूद है तो हवा हमारी त्वचा से पसीना सोख नहीं सकती है। इससे हमारे शरीर को प्राकृतिक तौर पर ठण्डा रखने का तंत्र काम करना बन्द कर देता है और अन्दर का तापमान बढ़ने लगता है। यदि यह प्रक्रिया कुछ घण्टे भी चलती रही तो हमारी मौत हो सकती है। हमारे रोज़मर्रा के अनुभव से भी हम यह जानते है कि सिर्फ़ तपती गर्मी या लू से उतनी तकलीफ़ नहीं होती जितनी तकलीफ़ गर्मी और उमस के एकसाथ होने से होती है। ग्लोबल वार्मिंग से हवा का तापमान बढ़ता है और गर्म हवा ठण्डी हवा के मुक़ावले ज़्यादा वायुमण्डल की नमी वहन करती है। अतः वायुमण्डल में बढ़ती उमस और उससे होने वाली तकलीफ़ के पीछे भी मुख्य कारक ग्लोबल वार्मिंग ही है।

ग्लोबल वार्मिंग के कारण जहाँ प्रति वर्ष लू की स्थिति ज़्यादा दिनों तक व ज़्यादा तीव्रता के साथ लोगों को अपनी ज़द में ले रही है वहीं दूसरी ओर हर साल शीत लहर का प्रकोप भी बढ़ता जा रहा है। 1980 से 2018 के बीच शीत लहर के कारण हुई मौतें लू से हुई मौतों से कई ज़्यादा थीं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार 2020 में शीत लहर से 152 लोगों की मौत हुई। जनवरी 2021 में उत्तर भारत के हर राज्य में औसत मासिक अधिकतम तापमान सामान्य से 2-4 डिग्री कम था। ज़ाहिर है कि लू की तरह शीत लहर में मरने वाले भी अधिकांश मेहनतकश परिवारों से ही आते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार शीत लहर की बढ़ती अवधि और तीव्रता का मुख्य कारक ग्लोबल वार्मिंग और विशेष तौर पर आर्कटिक इलाक़े का ऊष्मीकरण है। अबतक यह एक स्थापित तथ्य माना जाता था कि आर्कटिक वृत्त पृथ्वी के बाक़ी हिस्सों के मुक़ाबले दुगुनी तेज़ी से गर्म होता है। लेकिन पिछले साल ‘नासा’ से जुड़े कुछ वैज्ञानिकों के नये शोध के अनुसार आर्कटिक वृत्त असल में दुगुनी नहीं बल्कि चौगुनी तेज़ी से गर्म हो रहा है। ग्लोबल वार्मिंग और आर्कटिक वृत्त के ऊष्मीकरण के कारण भूमण्डलीय वायु प्रवाह के पैटर्न में परिवर्तन होता है और शीत लहर और लू, दोनों की ही अवधि, नियमितता और तीव्रता में बढ़ोत्तरी होती है। लान्सेट स्वास्थ्य जर्नल में 2021 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार भारत में असामान्य तापमान के कारण हर साल 7 लाख से ज़्यादा लोगों की मौत होती है। इनमे से 6.5 लाख लोगों की मौत असामान्य ठण्डे तापमान और औसतन 80 हज़ार लोगों की मौत असामान्य गर्म तापमान के कारण होती है। असामान्य तापमान के कारण मरने वाले लोग आम तौर पर समाज के सबसे निचले तबक़े से आते हैं। इनमें सबसे ज़्यादा फ़ुटपाथ पर सोने वाले, रिक्शा-ट्रॉली खींचने वाले, लू के बावजूद बेलदारी करने के लिए मजबूर लोग, निर्माण कार्यों में लगे लोग शामिल हैं। इन्हें चौदह घण्टे कारख़ानों में हड्डियाँ गलाने के बाद भी दो वक़्त की रोटी नसीब नहीं होती। इनके शरीर पीढ़ियों की ग़रीबी, भुखमरी और कुपोषण से पहले से जर्जर होते हैं। उसके ऊपर से शरीर पर एक शर्ट या मात्र शॉल की परत शीत लहर से उनकी रक्षा करने में असमर्थ होती है।

लू और शीत लहर के अलावा ग्लोबल वार्मिंग के कारण एक और भयानक प्रक्रिया घटित हो रही है। यह प्रक्रिया है हिमनदियों और ध्रुवीय हिमच्छदों (‘पोलर आइस कैप्स’) का तेज़ी से पिघलना और औसत समुद्र तल (‘मीन सी लेवल’) का लगातार बढ़ना। अगले कुछ दशकों में शंघाई, होंग कोंग, ओसाका, रिओ, एम्स्टर्डम, अलेक्सान्द्रिया जैसे दुनियाभर के कई तटवर्ती शहरों के बड़े हिस्सों के जलमग्न हो जाने की सम्भावना है। भारत में मुम्बई, चेन्नई, विशाखापट्टनम, कोची, तिरुवनन्तपुरम आदि शहरों के कुछ इलाक़े 2050 तक जलमग्न हो सकते हैं। यह साफ़ है कि जब इन शहरों पर समन्दर का पानी चढ़ने लगेगा तो इसका ख़तरा भी सबसे ज़्यादा इन शहरों की मज़दूर और मेहनतकश जनता को ही झेलना होगा। पूँजीपति वर्ग और उनके नौकर-चाकर ख़तरे का आभास होते ही शहरों से भागकर दूर सुरक्षित स्थानों पर ऐशो-आराम से रहेंगे। पानी में डूबने और पानी के विनाश को झेलने के लिए पीछे मेहनतकश जनता रह जायेगी। समुद्र स्तर के बढ़ने से आने वाली बाढ़ के कारण समन्दर का खारा पानी ज़मीन के अन्दर रिसकर चला जायेगा। इससे भूमिगत जल भी खारा बन जायेगा। इससे साफ़ पानी की उपलब्धता भयंकर विकराल रूप ले लेगी क्योंकि आज ही मीठे पानी की समस्या गम्भीर समस्या बन चुकी है तब क्या होगा इसकी कल्पना भी करने से रूह काँपती है। पीने के पानी के बिना जीवन की कल्पना भी करना मुश्किल है। भूमिगत जल स्तर के लवणीकरण के कारण तटीय इलाक़ों में कृषि उत्पादन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

पिछले कई सालों से हम यह देख रहे हैं कि एक ओर तो मानसून के दौरान कुल बारिश पहले जितनी होती थी उसकी तुलना में काफ़ी कम होती जा रही है। वहीं दूसरी ओर बाढ़ की नियमितता और तीव्रता बढ़ती जा रही है। दूसरे शब्दों में, देश के ज़्यादातर इलाक़ों में लम्बे समय तक बहुत कम बारिश हो रही है और उसमें से कुछ इलाक़े ऐसे हैं जहाँ अचानक से कुछ दिनों के लिए मूसलाधार बारिश होती है। मूसलाधार बारिश की वजह से बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है। महज़ एक-दो हफ़्तों में ही इन इलाक़ों में सूखे की स्थिति बाढ़ की स्थिति में तब्दील हो जाती है। हाल ही में असम में आयी बाढ़ इस प्रक्रिया का प्रातिनिधिक उदाहरण है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार इस साल मई में आयी बाढ़ में 30 से ज़्यादा लोगों की मौत हुई जबकि जून में आयी बाढ़ में अबतक 120 से ज़्यादा लोग मर चुके हैं तथा कई अभी लापता हैं। जून में जो ज़िले बाढ़ की चपेट में आये उनमें से कई ज़िले ऐसे हैं जिनमें बाढ़ के एक हफ़्ते पहले तक बारिश की कमी के कारण सूखा पड़ने का अन्दाज़ा लगाया जा रहा था। पिछले साल जून में असम में सामान्य से 28 प्रतिशत कम बारिश हुई थी लेकिन इस साल जून में सामान्य से 83 प्रतिशत ज़्यादा बारिश हुई है। 2019 की मुम्बई बाढ़ और 2018 की केरल बाढ़ (जिसमें 500 से ज़्यादा लोगों की मौत हुई थी) के पहले भी वहाँ एक लम्बे अरसे तक बहुत कम बारिश हुई थी। 2016 में मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी बाढ़ के पहले तक सूखे की स्थिति बनी हुई थी। सूखे और बाढ़ का लगभग साथ-साथ होना और अनियमित बारिश ग्लोबल वार्मिंग और बदलते जलवायु की ही अभिव्यक्ति है। ज़्यादा नियमित और तीव्र होती लू बंगाल की खाड़ी से तेज़ दक्षिण-पश्चिमी हवा खींचती है जो आगे जाकर असम समेत उत्तर-पूर्व में मूसलाधार बारिश देती है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण बंगाल की खाड़ी के ऊपर से बहने वाली यह अपेक्षाकृत गर्म हवा ज़्यादा नमी सोखती हुई चलती है और आगे जाकर ज़्यादा बारिश देती है। असम में हर साल आ रही बाढ़ के पीछे एक और अहम कारक वहाँ हो रही जंगल की बेरोकटोक कटाई है। असम उन राज्यों में आता है जहाँ पिछले दो दशकों में सबसे ज़्यादा वनों को काटा गया है। वनों के काटे जाने के कारण सतह पर बारिश का पानी ज़्यादा तेज़ी से बहने लगता है। वनोन्मूलन के कारण भू-क्षरण भी बढ़ता है जिससे ब्रह्मपुत्र नदी की चौड़ाई बढ़ती जा रही है और नदी के तल में रेत जमा होने से नदी का जल स्तर भी तेज़ी से बढ़ जाता है। असम में जो वनोन्मूलन और आर्द्रभूमि (वेटलैण्ड) पर अतिक्रमण चल रहा है। यह सीधे तौर पर पूँजीपतियों के मुनाफ़े की हवस के लिए किया जा रहा है। इसके अलावा अनियोजित शहरीकरण भी इस अतिक्रमण के लिए ज़िम्मेदार है। दोनों ही स्थिति में पूँजीवादी व्यवस्था ही इसके लिए उत्तरदायी है। अनियोजित शहरीकरण भी पूँजीवादी व्यवस्था में अन्तर्निहित अराजक उत्पादन और अराजक  विकास को ही दर्शाते हैं।

ख़ैर, मूल बात यह है कि पूँजीवाद की वजह से हो रहा प्रकृति का विनाश ही आज प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़, सूखा आदि के ज़्यादा विनाशकारी होते जाने का प्रमुख कारक है। देश में 2011 से 2020 के बीच हर साल औसतन 1500 लोग बाढ़ में मारे गये हैं (ज़्यादातर आँकड़ों की तरह यह भी सरकारी आँकड़ा है। निश्चित ही मौत के असली आँकड़े इससे कहीं ज़्यादा होंगे)। अगर इसकी तुलना 1971 से 1980 के बीच प्रति वर्ष आयी बाढ़ से की जाये तो इनमें औसतन 970 लोग मारे गये थे। इन आँकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है कि बाढ़ पहले की तुलना में ज़्यादा नियमित हो गयी है और इसकी भयंकरता कहीं अधिक बढ़ गयी है। यदि हम पूछें कि हर साल बाढ़ में डूबकर मरने वाले 1500 लोग कौन हैं? या कि अभी असम में मरने वाले 120 लोग कौन हैं? तो इसका जवाब बहुत कठिन नहीं है। समाचार और अख़बारों में देखकर समझ आता है कि एक-दो झोले में कुछ सामान, कुछ बरतन लिये, बच्चों को कन्धे पर बिठाये हम आप जैसे आम मज़दूर मेहनतकश लोग ही हैं जो कुछ सरकारी राहत की आस में कैम्पों में दिन काट रहे हैं। पानी के उतरने पर दुबारा दो जून की रोटी के लिए कमरतोड़ मेहनत में लग जायेंगे। इन दिनों कैम्पों में भूखे-प्यासे बैठे अपने नुक़सान का अन्दाज़ा लगा रहे होंगे।

मानसून और मानसून से पहले होने वाली बारिश की वजह से कई जगहों में बाढ़ आ रही है। साथ ही हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड और जम्मू-कश्मीर में मई-जून-जुलाई के महीनों में बादल फटने से आये दिन अचानक बाढ़ (फ़्लैश फ़्लड) आ जाती है। बादल फटने की वजह से आयी आकस्मिक बाढ़ भूस्खलन पैदा करती हैं। इसकी वजह से भी हर साल लगभग हज़ार लोगों की मौत होती है। ग्लोबल वार्मिंग और हिन्द महासागर की सतह का तापमान बढ़ने के कारण ज़्यादा नमी वाले विशालकाय बादल तैरते हुए हिमालय की ओर पहुँचते हैं। ज़्यादा नमी होने के कारण जब यह बादल फटते हैं तो बाढ़ और भूस्खलन कहीं अधिक विनाशकारी हो जाते हैं।

ग्लोबल वार्मिंग के कारण महासागरों की सतह के तापमान में बढ़ोत्तरी और वायुमण्डल में मौजूद जल वाष्प (वाटर वेपर) का अनुपात दुगुना होने से दुनियाभर में चक्रवात और तूफ़ान पहले से अधिक नियमित तौर पर आने लगे हैं और इनकी तीव्रता में भी अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है। 2001 से 2019 के बीच अरब सागर में उष्णकटिबन्धीय चक्रवातों (ट्रॉपिकल साइक्लोन) की संख्या में 52 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इस दौरान अति भयंकर चक्रवातों में भी 150 प्रतिशत की वृद्धि देखी गयी है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के एक बयान के अनुसार पिछले चार दशकों के दौरान उत्तरी हिन्द महासागर में भयंकर चक्रवातों की तीव्रता में भी विचारणीय बढ़ोत्तरी आयी है। एक रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक स्तर पर तीव्र उष्णकटिबन्धीय चक्रवातों की नियमितता 2050 तक दुगुनी हो जायेगी और इनकी हवा की अधिकतम गति में 20 प्रतिशत तक का इज़ाफ़ा हो सकता है। हिमनदियों और ध्रुवीय हिमच्छदों के पिघलने से समुद्र स्तर पर जो बढ़ोत्तरी हुई है इससे भी चक्रवातों से आने वाली बाढ़ ज़्यादा विनाशकारी हो गयी हैं।

जैसा कि हमने ऊपर लिखा है, आज देश में एक ओर बाढ़ की नियमितता और तीव्रता बढ़ती जा रही है वहीं दूसरी ओर सूखा ज़्यादा व्यापक होता जा रहा है। यह प्रक्रिया नये इलाक़ों को अपनी चपेट में लेती जा रही है।

भारत आज भयंकर रूप से सूखा ग्रस्त देशों की श्रेणी में शामिल है। 2020 से 2022 के बीच देश का दो-तिहाई हिस्सा सूखे की चपेट में था। 1997 से अब तक देश में सूखा प्रवण इलाक़ों में 57 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है। देश में एक-तिहाई ज़िले ऐसे हैं जो पिछले एक दशक में चार बार सूखा झेल चुके हैं। भारत में प्रति वर्ष पाँच करोड़ लोग सूखे से प्रभावित हो रहे हैं। पिछले दो दशकों में दुनियाभर में सूखे की नियमितता और अवधि में 29 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार सूखे के कारण आज लगभग 230 करोड़ लोग जल संकट का सामना कर रहे हैं। इसमें से 1.6 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो भयंकर और दीर्घकालिक सूखे से जूझ रहे हैं। पिछले पचास साल में सूखे से 6,50,000 लोगों की मौत हुई है। इसी रिपोर्ट के अनुसार तथाकथित विकासशील देशों के सूखाग्रस्त इलाक़ों में रहने वाली  महिलाएँ और लड़कियाँ जितनी कैलोरी लेती हैं उसका 40 प्रतिशत पानी ढोने में ख़र्च कर देती हैं। ये महिलाएँ और लड़कियाँ एक बाल्टी पानी के लिए कोसों पैदल चलती हैं! ग्लोबल वार्मिंग, अनियमित बारिश, जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई और भूमिगत जल स्तर में तेज़ गिरावट को देखते हुए यह तय है कि सूखा और जल संकट आने वाले दिनों में काफ़ी तेज़ी से बढ़ने वाले हैं।

ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन और अनियमित बारिश के कारण कृषि उत्पादन पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। वैश्विक स्तर पर गेंहू के उत्पादन में इस साल भारी गिरावट आना तय है। भीषण लू की वजह से भारत में इस साल गेंहू के उत्पादन में 3 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी है। उत्तरी अमेरिका में जिस ज़मीन पर गेंहू की खेती होती है उसका 70 प्रतिशत सूखे की स्थिति से जूझ रहा है। यह अन्दाज़ा लगाया जा रहा है कि इस साल कुल उत्पादन का 8 प्रतिशत कम गेहूँ उत्पादन होगा। फ़्रांस में भी इस साल बारिश की कमी के कारण गेंहू का उत्पादन सामान्य से कम होगा। चीन में भी असामयिक बारिश के कारण गेंहू के उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के कारण मज़दूर-मेहनतकश जनता की खाद्य सुरक्षा पर आज संकट के गहरे काले बादल मँडरा रहे हैं। वैश्विक खाद्य नीति रिपोर्ट 2022 के अनुसार 2050 तक भारत में 7 करोड़ लोग जलवायु परिवर्तन के कारण भुखमरी का शिकार हो सकते हैं। पिछले साल सर्दियों में बेमौसम बारिश और इस साल भीषण लू के कारण आलू की पैदावार में भी 3 मीट्रिक टन की कमी आयी है। इस साल आलू की क़ीमतों के 57 प्रतिशत बढ़ने के पीछे यह एक अहम वजह रही। ‘द हिन्दू’ की एक रिपोर्ट के अनुसार बारिश की अनियमितता (कहीं बहुत ज़्यादा बारिश तो कहीं सूखे जैसी स्थिति तो कहीं बेमौसम बारिश), तापमान में भारी उतार-चढ़ाव और भयंकर उमस के कारण इलायची, काजू और गन्ने जैसी नक़दी फ़सलों के उत्पादन में भी भारी गिरावट आयी है। बढ़ते तापमान और उमस के कारण कीटों की संख्या भी बढ़ी है। इनपर कीटनाशकों का असर भी कम हो रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण न केवल फ़सलों के उत्पादन में परिमाणात्मक गिरावट आयी है बल्कि उनकी गुणवत्ता भी कम हुई है। एक महत्वपूर्ण बात जो यहाँ हमें याद रखने की ज़रूरत है वह यह है कि भूमण्डलीय परिवर्तन या जलवायु परिवर्तन खाद्य संकट का मुख्य कारण नहीं है। इसका मुख्य कारण मुनाफ़े की होड़ पर टिकी इस पूँजीवादी व्यवस्था का अराजक-अनियोजित चरित्र है। पर्यावरणीय विनाश के कारण अनाज उत्पादन में गिरावट पहले से मौजूद खाद्य संकट को ज़्यादा गहरा बनाने का काम करती है।

हर दिन पहले से ज़्यादा भीषण होते लू, शीत लहर, बाढ़, सूखा और खाद्य संकट के पीछे का मुख्य कारण ग्लोबल वार्मिंग है। ग्लोबल वार्मिंग पूँजीवादी व्यवस्था की पैदावार है। पूँजीवादी व्यवस्था को इसकी कोई परवाह नहीं है कि पृथ्वी का तापमान और कार्बन उत्सर्जन जानलेवा स्तर तक बढ़ता जा रहा है। इसे सिर्फ़ अपने मुनाफ़े की चक्की को चलाते रहना है। मुनाफ़े के लिए गलाकाटू प्रतिस्पर्धा में लगे पूँजीपतियों और उनकी चाकरी कर रही तमाम बुर्जुआ सरकारों तथा पार्टियों से हम यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वे प्रकृति की तबाही को रोकने के लिए कोई सकारात्मक क़दम उठायेंगे।

ऐसी स्थिति में हम मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता क्या करें? क्या हम ऐसे ही हाथ पर हाथ धरे पर्यावरण का विनाश होते देखते रहें? पूरे ब्रह्माण्ड में जीवन को पालने-पोसने वाला जो अब तक का एकमात्र ज्ञात ग्रह है, जिसे हम अपना घर कहते हैं, उस घर को ऐसे ही तबाह होते देखते रहें? मुनाफ़े की हवस मिटाने के लिए हमारी पृथ्वी पर जो आग दहक रही है, क्या हम उसे ऐसे ही जलते रहने के लिए छोड़ दें? हम जानते हैं कि लू, शीत लहर, बाढ़, सूखे का सबसे ज़्यादा प्रकोप हम मेहनतकश जनता को ही झेलना पड़ता है। इसलिए हमें प्रकृति की तबाही को रोकने के लिए एक व्यापक जनान्दोलन खड़ा करना होगा जिसका लक्ष्य समूची पूँजीवादी व्यवस्था का नाश हो। पर्यावरण को बचाने का प्रश्न बाग़बानी का सवाल नहीं है, बल्कि वर्ग संघर्ष का सवाल है। यह शब्द ‘मानवनिर्मित आपदा’ एक ग़लत शब्द है जिसका इस्तेमाल पूँजीपति वर्ग अपने द्वारा किये जा रहे प्रकृति के विनाश का ठीकरा आम जनता के सिर पर फोड़ने के लिए करता है। आज प्रकृति के विनाश का ज़िम्मेदार पूँजीवाद है और इसलिए इसे ‘पूँजीवाद-निर्मित आपदा’ कहा जाना चाहिए। हमें यह भी याद रखना होगा कि इस मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था के अस्तित्व में रहते प्रकृति की तबाही को नहीं रोका जा सकता। इसलिए हमें इस जनान्दोलन को पूँजीवाद विरोधी आन्दोलन और सर्वहारा क्रान्ति के प्रश्न के साथ जोड़ना पड़ेगा।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2022


 

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