गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल पट्टी में जारी मज़दूरों की छँटनी और बर्ख़ास्तगी का सिलसिला और मज़दूरों का प्रतिरोध : एक रिपोर्ट

शाम मूर्ति

अलग-अलग कम्पनियों में स्थायी मज़दूरों की जगह ठेका मज़दूरों और पुराने ठेका/कैज़ुअल मज़दूरों की जगह पहले से सस्ते और कम अवधि के लिए नये ठेका मज़दूरों, ट्रेनी, अप्रेण्टिस, टी.डब्ल्यू. जैसी विभिन्न श्रेणियों में मज़दूरों को बाँटकर सस्ते से सस्ते और सीमित अवधि के लिए मज़दूरों की भरती की प्रक्रिया जारी है। कहीं पर ठेका ख़त्म हो गया है, कहीं पर घाटा बताकर किसी लाइन को बन्द दिखाकर मज़दूर की छँटनी की जा रही है, तो कहीं वीआरएस का नोटिस लगाकर या मज़दूरों पर झूठा इल्ज़ाम लगाकर बाहर करने की प्रक्रिया को अंजाम दिया जा रहा है।
इसी कड़ी में सितम्बर 2022 में सनबीम लाइट वेटिंग सोल्यूशन ऑटो लिमिटेड के गुड़गाँव प्लाण्ट में 46 मज़दूरों की छँटनी की घोषणा हो चुकी है। पाँच मज़दूरों के पंचिंग कार्ड भी बन्द कर दिये गये हैं। 500 मज़दूरों को अलग से निकालने की चर्चाएँ भी हो रही हैं। बिना ठोस कारण बताये बस ठेका ख़त्म होने की दुहाई दी जा रही है। ऊपर से हिसाब चुकता करने के लिए मज़दूरों पर दवाब बनाया जा रहा है। जबकि मज़दूर पिछले 20 सालों से स्थायी प्रकृति का काम इसी कम्पनी प्लाण्ट में काम कर रहे हैं। यह सीधा-सीधा श्रम क़ानूनों का उल्लंघन है। ठेका प्रथा (विनियमन और उन्मूलन) 1970 के मुताबिक़ स्थायी प्रकृति के काम पर मज़दूरों को ठेके पर नहीं रखा जा सकता है। 240 दिनों के बाद उन्हें पक्का करना होता है। इस नाइन्साफ़ी को लेकर ठेका मज़दूर पिछले महीने ही श्रम विभाग को शिकायत पत्र लगा चुके हैं, लेकिन अभी तक कोई कार्रवाई करना तो दूर, पूरी तरह से सुनवाई तक नहीं की गयी है। एक बार फिर से श्रम विभाग में 28 अक्टूबर की तारीख़ मिली है। इसको लेकर मज़दूरों में बहुत रोष है।
वहीं दूसरी ओर हिटाची (मानेसर) के निकाले गये लगभग 20 ठेका मज़दूरों की भी यही कहानी है। जब 3-4 साल तक पुराने मज़दूरों ने स्थायीकरण की माँग प्रबन्धन के आगे रखी तो कम्पनी प्रबन्धन ने बदले की भावना में मज़दूरों को निकालना शुरू कर दिया। लेकिन मज़दूरों ने भी हार नहीं मानी है। गुड़गाँव ज़िले के लघु सचिवालय पर एक दिवसीय भूख हड़ताल रखी और चेतावनी दी अगर निकाले गये मज़दूरों को वापस नहीं लिया गया और बदले की भावना से निकालना बन्द नहीं किया गया तो संघर्ष को तीखा किया जायेगा।
नपीनो (मानेसर) के मज़दूरों की हड़ताल को कम्पनी प्रबन्धन व मज़दूर यूनियन के बीच समझौता अधिकारी की मौजूदगी में यह कहकर ख़त्म किया गया था कि 3-4 दिन में मज़दूरों को वापस ले लिया जायेगा। लेकिन बाद में काम पर वापस नहीं लिया गया उल्टा ले ऑफ़ कर दिया गया। नपीनो कम्पनी की मज़दूर यूनियन एक केन्द्रीय ट्रेड यूनियन से जुड़ी है। इलाक़े की अन्य फ़ेडरेशनों में इण्टक, सीटू, एचएमएस, एआईयूटीयूसी, व कुछ स्वतंत्र ट्रेड यूनियनें, ‘ट्रेड यूनियन काउंसिल’ (टी.यू.सी.) के मंच के तहत जुड़ी हुई हैं। इनके साथ गुड़गाँव, रेवाड़ी, फ़रीदाबाद तक की यूनियनें जुड़ी हैं। टी.यू.सी. के इस मंच ने हड़ताल से पहले, इसके दौरान और बाद में, अभी तक संघर्ष का कोई ऐलान नहीं किया है। बस लफ़्फ़ाज़ी करते हुए “सूझबूझ” की दुहाई देते रहे। लेकिन संघर्ष को व्यापक और जुझारू बनाने की बजाय फ़र्ज़ी बातचीत और क़ानूनी लड़ाई तक सीमित रखा हुआ है। इससे नपीनो के मज़दूरों का संघर्ष कमज़ोर होता जा रहा है और काफ़ी हद तक हो भी चुका है। इन्हीं कारणों के चलते, गुड़गाँव के मुंजाल शोवा प्लाण्ट के स्थायी मज़दूरों की छँटनी के विरुद्ध संघर्ष भी क़ानूनी लड़ाई तक सिमटकर रह गया है जबकि आन्दोलन के रास्ते को एक प्रकार से तिलांजलि दे दी गयी है।
केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों से हटकर बेलसोनिका (मानेसर) की यूनियन समझौता पत्रों को नकारने व यूनियन अधिकारों पर बढ़ते हमलों का डटकर मुक़ाबला करने का संघर्ष तो कर रही है और साथ ही ठेका मज़दूरों के यूनियन अधिकार को लेकर प्रबन्धन से संघर्ष कर रही है, लेकिन उसका संघर्ष भी अभी कारख़ाने की चौहद्दी से प्रभावी तरीक़े से बाहर जाकर सेक्टरगत मज़दूर एकता की ओर नहीं बढ़ पा रहा है। साथ ही, व्यापक संख्या में ठेका मज़दूरों को यूनियन सदस्यता देने में कामयाब नहीं हुआ है। इसकी वजह से ठेका मज़दूरों की नौकरी भी बहुत असुरक्षित है।
इसी तरह क़रीब दो दर्जन कम्पनियों के समझौता पत्र के मामले श्रम विभाग में अटके होने के कारण एक-एक करके क़ानूनी भूलभुलैय्या में चक्कर खाकर ख़त्म होते नज़र आ रहे हैं। और इसमें भी आये दिन नये मामले जुड़ते जा रहे हैं। वहीं श्रम विभाग, प्रशासन व सरकारों की चुप्पी के विरुद्ध उठने वाली हर आवाज़ का पुलिस-प्रशासन द्वारा दमन जारी है।
2012 में मारुति सुज़ुकी से बर्ख़ास्त मज़दूरों के सभी साथियों को ज़मानत मिलने के बाद उन्होंने अपनी नौकरी बहाली की माँग को फिर से उठाया है। इसके तहत दो दिवसीय सांकेतिक भूख हड़ताल रखी गयी। इसमें ऑटोमोबाइल इण्डस्ट्री कॉण्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन व बिगुल मज़दूर दस्ता के साथी दो दिन शामिल रहे और रात को धरने पर रुके। मज़दूरों ने चेतावनी दी कि अगर मारूति सुज़ुकी प्रबन्धन ने समय रहते हुए हमारी माँगों पर ध्यान नहीं दिया तो हम संघर्ष को अनिश्चितकालीन हड़ताल में बदल सकते हैं।
इसके अलावा, स्थायी काम के लिए स्थायी रोज़गार की माँग और मज़दूर विरोधी 4 नये मज़दूर कोडों के ख़िलाफ़ आवाज़ें भी उठ रही हैं। लेकिन आन्दोलन का विकसित होना बाक़ी है। मज़दूरों के श्रम अधिकारों का उल्लंघन इस इलाक़े में चार दशकों से जारी है। लेकिन इनके ख़िलाफ़ घोषणाओं, ज्ञापन व कुछ के दावों से कुछ ठोस शुरूआत नहीं हो पायी है। दूसरी तरफ़ औद्योगिक दुर्घटनाओं के कारण बढ़ती मौतों, अपंगता व बीमारी और दूसरी तरफ़ बढ़ती बेरोज़गारी और महँगाई के कारण बढ़ रही आत्महत्याओं, भुखमरी व कुपोषण का ग्राफ़ तेज़ी से बढ़ रहा है।
छँटनीग्रस्त मज़दूरों द्वारा नौकरी बहाली के लिए व कई-कई सालों से ठेके पर काम कर रहे ठेका मज़दूरों द्वारा स्थायी करने की माँग के लिए अब संघर्ष करने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचा है। इन माँगों पर श्रम विभाग व राज्य व केन्द्र सरकारों द्वारा भी हस्तक्षेप नहीं किया जा रहा है। इसकी उम्मीद करना भी बेकार ही है। उन्हें हस्तक्षेप करने के लिए समूचे ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों के एकजुट आन्दोलन द्वारा मजबूर किया जा सकता है।
विभिन्न कम्पनियों की यूनियनों को और तमाम ठेका मज़दूरों को केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की समझौतापरस्ती व क़ानूनवादी तरीक़ों के भ्रमजाल से बाहर आने की ज़रूरत है। सरकार और उसके विभागों को क़ानून लागू करवाने के लिए भी तभी बाध्य किया जा सकता है, जबकि मज़दूरों की सेक्टरगत एकता के आधार पर एक जुझारू आन्दोलन खड़ा किया जाये। तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघ और उनके साझा मंच साल की एक दिन की रस्मअदायगी वाली “हड़ताल” में सभी मज़दूरों से शामिल होने की बात तो ज़रूर करते हैं, मगर जहाँ वास्तविक मज़दूर संघर्षों को इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियन फ़ेडरेशनों व उनके मंचों से हड़ताल के आह्वान या सहायता की आवश्यकता पड़ती है, वहाँ ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें व उनके मंच कोई क़दम नहीं उठाते और मज़दूरों से “सूझबूझ” और “संयम” बरतने की बातें किया करते हैं। पिछले वर्षों में हम न जाने इसके कितने उदाहरण देख चुके हैं। नपीनो से स्थायी मज़दूरों के समझौता पत्र के लिए संघर्षरत मज़दूरों की शानदार हड़ताल के समर्थन में भी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघों का यह रवैया देखने को मिला। ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें वास्तव में संघर्षों को वस्तुगत तौर पर रोकने का ही काम करती हैं। हर वर्ष एक या दो बार, एक या दो दिवसीय सालाना हड़ताल करके मज़दूरों के ग़ुस्से पर ठण्डे पानी के छींटे मारने का काम ही करती हैं। अपने चुनावी हितों, क़ानूनी दायरे से आगे नहीं जाती हैं। ये बुरी तरह से अर्थवाद, ट्रेडयूनियनवाद का शिकार हैं। समझौतापरस्ती और मौक़ापरस्ती के चलते अब पूँजीवादी व्यवस्था व इसकी तानाशाही के आगे ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें आत्मसमर्पण कर चुकी हैं, घुटने टेक चुकी हैं।
ऐसे में कुछ नये अर्थवादी नौदौलतिये मज़दूर आन्दोलन में आकर मज़दूरों का “इन्क़लाबी” केन्द्र और मज़दूरों के “सहयोग” का केन्द्र होने का दावा करके इन आन्दोलनों में अपने अराजकतावाद और अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद की गन्द भी फैलाते हैं। वास्तव में ये वस्तुगत तौर पर आन्दोलनों को भटकाने व डुबाने का काम ही करते आ रहे हैं। ये संगठन स्वत:स्फूर्तता को आँख मूँदकर बढ़ावा देते हैं और मज़दूरों के संघर्षों को सचेतन तौर पर एक सही राजनीतिक दिशा देने के प्रयासों का विरोध करते हैं। इस प्रकार ये पूँजीपतियों और उनकी कम्पनियों के प्रबन्धन और साथ ही उनकी नुमाइन्दगी करने वाली सरकारों के समक्ष मज़दूर आन्दोलन को निरस्त्र करने का काम करते हैं। व्यवहार में ये अराजकता, लोकरंजकतावाद व मज़दूरवाद (जो कि मज़दूर वर्ग विरोधी एक पहचानवादी सोच है) को ही बढ़ावा देते हैं। साझा संघर्षों में केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की तरह ही ये क्रान्तिकारी शक्तियों के बारे में कुत्सा-प्रचार करते हैं और मज़दूर नेतृत्व में कानाफूसी करके अपने से असहमति और अलग राय रखने वाली यूनियनों व संगठनों के ख़िलाफ़ भड़काते हैं। ग़ैर-जनवादी तरीक़े से अपने चहेतों को मंच पर खुले हाथ से समय व जगह देते हैं। ये अतीत के आन्दोलनों से सकारात्मक व नकारात्मक शिक्षाएँ लेने के लिए किसी भी प्रकार की आलोचना को नये आन्दोलनों के मंच पर नहीं आने देते हैं, जो कि अन्तत: नये आन्दोलनों की भी असफलता का कारण बनता है। इस प्रकार के तथाकथित “इन्क़लाबी केन्द्रों” और “सहयोग केन्द्रों” से ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों को सावधान हो जाने की आवश्यकता है। पहले तो केवल केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें ऑटोमोबाइल सेक्टर में मज़दूर आन्दोलनों को सीमित कर क़ानूनवाद के गोल दायरे में घुमाने का काम करती थीं और अब ये अराजकतावादी और स्वत:स्फूर्ततावादी अलग तरीक़े से मज़दूर आन्दोलनों को डुबाने में लगे हुए हैं।
ज़ाहिरा तौर पर, विभिन्न कारख़ानों के इस वक़्त बिखरे हुए नये-पुराने संघर्षों को अपनी कारख़ाने की चौहद्दी से बाहर आकर व्यापक पेशागत (सेक्टरगत) और इलाक़ाई स्तर की एकता बनानी होगी, सही राजनीतिक समझ विकसित करनी होगी और उसके आधार पर संघर्ष करना होगा।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2022


 

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