बढ़ती महँगाई के ख़िलाफ़ फ़्रांस की जनता उतरी सड़कों पर

शुभम

अक्टूबर महीने में फ़्रांस ने मज़दूरों की कई हड़तालें देखीं। अनुपात में ये हड़तालें इसी साल हुई मार्च और जनवरी की हड़तालों से कई गुना बड़ी थीं। इन हड़तालों की वजह फ़्रांस में लगातार बढ़ती महँगाई है जिसने एक तरफ़ तो वहाँ के पूँजीपति वर्ग को अकूत मुनाफ़ा कूटने का अवसर दिया है वहीं दूसरी तरफ़ मेहनतकश जनता की कमर तोड़ रखी है। फ़्रांस की मेहनतकश आबादी भयानक महँगाई से जूझ रही है, जो कि लगातार तीव्र हो रहे पूँजीवादी संकट का ही नतीजा है, जिसे ब्रुसेल्स की नौकरशाही की नीतियाँ और भी तीखा करने का काम कर रही हैं जो यूक्रेन में रूस के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका के असफल आर्थिक और छद्म सैन्य युद्ध को तेज़ करने पर तुली हुई है।
पिछले महीने में हुई हड़तालों में सबसे प्रमुख 18 तारीख़ की हड़ताल रही जिसने पूँजीवादी मीडिया को भी इसे कवर करने पर मजबूर कर दिया। 18 अक्टूबर को हुई ये हड़ताल तब अस्तित्व में आयी जब फ़्रांस के मज़दूरों की एक यूनियन सी.जी.टी. ने तेल की कम्पनी ‘टोटल एनर्जीस’ के साथ हुई अन्य दो यूनियनों, CFDT और CFE-CGC की वेतन बढ़ोत्तरी की वार्ता में बैठने से इन्कार किया और जब कम्पनी तथा ये यूनियनें वेतन में 7 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी के समझौते पर राज़ी हुईं तो सी.जी.टी. ने इसे नकारा और वेतन में 10 प्रतिशत के इज़ाफ़े की माँग के साथ बड़े स्तर पर मज़दूरों को हड़ताल में शामिल होने का आह्वान किया।
इस आह्वान के साथ मज़दूर बड़ी संख्या में सड़कों पर उतरे और फ़्रांस के अलग-अलग शहरों में डेढ़ सौ से ज़्यादा विरोध प्रदर्शन किये गये। सी.जी.टी. के अनुसार इन प्रदर्शनों में तीन लाख से ज़्यादा मज़दूरों ने भागीदारी की। अकेली, फ़्रांस की राजधानी, पेरिस में हुए प्रदर्शन में सत्तर हज़ार मज़दूर शामिल हुए। क्रय क्षमता, वेतन बढ़ोत्तरी, काम की परिस्थितयाँ, हड़ताल का अधिकार, वोकेशनल उच्च विद्यालयों में सुधार का विरोध इत्यादि, ये सारी माँगे इन प्रदर्शनों में मुख्य मुद्दा बनी रहीं। इसके साथ ही नौजवानो-छात्रों ने भी बढ़-चढ़कर इन प्रदर्शनों में भागीदारी की, वे रिफ़ाइनरी उद्योग के मज़दूरों के समर्थन में सड़कों पर उतरे, राजधानी पेरिस में उच्च विद्यालयों को बन्द करवाया, शिक्षा व्ययस्था में हो रहे संशोधनों के ख़िलाफ़ जमकर प्रदर्शन किया।
बताते चलें कि फ़्रांस में अगस्त और सितम्बर महीने से ही तेल उद्योग और परमाणु ऊर्जा संयंत्रों की कम्पनियों में कई मज़दूर सम्मानजनक वेतन की माँग को लेकर हड़ताल पर बैठे हुए थे। ये हड़तालें भी CGT के बैनर तले ही चल रही थीं। मज़दूरों के द्वारा काम रोककर हड़ताल पर बैठने से फ़्रांस के कई शहरों में ऊर्जा की आपूर्ति ठप्प होने से मैक्रॉन (फ़्रांस के राष्ट्रपति) सरकार के मंत्री और वहाँ का मीडिया बौखलाये हुए थे और लगातार इन जायज़ माँगो को लेकर की गयी हड़तालों को बदनाम करने की कोशिश करते रहे। वे लगातार देश में ‘अनुशासन’ लाने की बात करते रहे (क्योंकि पूँजीवादी राज्यों के लिए मज़दूरों का ख़ून चूसकर मुनाफ़े के महल खड़े करते जाना ही अनुशासन है और मज़दूरों द्वारा इस लूट के ख़िलाफ़ एक भी आवाज़ उठाना अराजकता!)। 29 सितम्बर तक ही हड़तालों में शामिल मज़दूरों की संख्या दस लाख पहुँच चुकी थी! और जहाँ कहीं भी कम्पनियों का घेराव किया जा रहा था वहाँ वेतन बढ़ोत्तरी की माँग और वर्ग संघर्ष ही वाद विवाद के मुख्य मुद्दे बने हुए थे। इतने बड़े स्तर पर हुई लामबन्दी से सरकार और कम्पनियों के मालिक बुरी तरह से ख़ौफ़ खाये हुए थे और अन्त में उन्होंने उन क़ानूनों का इस्तेमाल करने का फ़ैसला लिया जो मज़दूरों से हड़ताल का अधिकार छीन लेता है और उन्हें कम्पनियों में वापस बुलाने पर मजबूर करता है। लेकिन इसके बावजूद CGT यूनियन ने मोर्चे पर डटे रहने और किसी भी तरह की क़ानूनी अड़चन से कोर्ट में ही निपटने का फ़ैसला लिया।
इसके बाद फ़्रांस के परिवहन, स्वास्थ्य, शिक्षा इत्यादि पेशों से जुड़े मज़दूर विभिन्न उद्योगों के मज़दूरों द्वारा चलायी जा रही लम्बी हड़ताल के समर्थन में और एक अच्छे जीवन के लिए संघर्ष करते हुए सड़कों पर उतरे और हड़तालों में शामिल हुए। रूस-यूक्रेन युद्ध और उससे पहले कोरोना महामारी के दौरान लगातार अपनायी गयी पूँजीपरस्त नीतियों के कारण ही आज फ़्रांस की जनता को खाद्य क़ीमतों में 8 प्रतिशत, यातायात में 15 प्रतिशत, ऊर्जा में 22 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर और लगातार बदतर होती जीवन परिस्थितियों की मार झेलनी पड़ रही है। पर इसके बावजूद पूँजीपतियों के मुनाफ़े में कोई कमी नहीं आयी है बल्कि उल्टे उनका मुनाफ़ा और भी बढ़ा है जिससे लोगो में काफ़ी ग़ुस्सा है। वहीं मैक्रॉन सरकार पूरी बेशर्मी के साथ मज़दूर विरोधी नीतियाँ लागू करने में लगी हुई है और जनता से उनके रहे सहे अधिकार भी छीने जा रही है।
फ़्रांस की जनता की लामबन्दी और उनके संघर्ष को भारत के हम मज़दूरों को सलाम करना चाहिए और उनसे सीख लेनी चाहिए जो एक बेहतर ज़िन्दगी के लिए डटकर पूँजीपतियों और उनकी सरकार के ख़िलाफ़ खड़ी है। जुझारू, सेक्टरगत यूनियनों का महत्व, ट्रेड यूनियन में राजनितिक शिक्षा-दीक्षा और भारतीय परिस्थितयों के अनुसार अन्य ज़रूरतों को आज पूरा करने की पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरत है। भारत में तो हालात इतने बदतर हैं कि शीर्ष के 15 प्रतिशत को छोड़ दें तो कोई भी महाँगाई और बेरोज़गारी, ख़स्ताहाल स्वास्थ्य और शिक्षा की मार से अछूता नहीं है पर फिर भी मज़दूरों द्वारा हाल में जुझारू तरीक़े से लड़े गये संघर्ष कुछ गिनती में ही हैं। ऐसे में ज़रूरत है आज ऐसी इन्क़लाबी यूनियनें खड़ी करने की जो समय आने पर एक लम्बा संघर्ष लड़ने को तैयार रहें। हमें ये बात गाँठ बाँध लेनी होगी कि अब हालात किसी भी तरह सुधरने वाले नहीं हैं और अगर हम अपना और अपने बच्चों का सुनहरा भविष्य देखना चाहते हैं तो मिलकर एक लम्बी लड़ाई लड़नी ही होगी।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2022


 

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