देश के निर्माण मज़दूरों की भयावह हालत, एक क्रान्तिकारी बैनर तले संगठित एकजुटता ही इसका इलाज

आदित्य

निर्माण क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र है जिसके दम पर एक वीरान-सी दिखने वाली जगह भी कुछ दिनों में ही जगमगाने लगती है। वहाँ गगनचुम्बी इमारतें खड़ी हो जाती हैं, सड़कों का जाल बिछा दिया जाता है। असम्भव से लगने वाले इस काम को अंजाम देने का काम करते हैं इस क्षेत्र में लगे मज़दूर! अपनी अपार मेहनत के दम पर ही ये असम्भव को भी सम्भव बना देते हैं। लेकिन, इन इमारतों और अट्टालिकाओं को खड़ा करने वाले यही मज़दूर सबसे नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर होते हैं। और उनकी ऐसी ज़िन्दगी के लिए यह मुनाफ़ा-आधारित व्यवस्था ज़िम्मेदार है।

निर्माण मज़दूरों का नारकीय जीवन

अभी हाल ही में ‘न्यूज़क्लिक’ ने देश के कुछ राज्यों के निर्माण मज़दूरों पर एक सर्वे किया। इस सर्वे के अनुसार एक हफ़्ते के भीतर निर्माण कार्य में लगे 22 मज़दूरों की जान काम करते हुए घटित दुर्घटनाओं के कारण गयी। आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि इन मज़दूरों के पास पक्का काम नहीं होता और इन्हें ठेके पर काम कराया जाता है। काम करने के दौरान न तो सुरक्षा के कोई इन्तज़ाम किये जाते हैं, न ही इन्हें किसी भी तरह के सुरक्षा उपकरण उपलब्ध कराये जाते हैं। इसी कारण इस तरह की दुर्घटनाएँ घटती रहती हैं। वैसे देश में आज मज़दूरों के साथ किसी भी क्षेत्र में काम पर होने वाली घटनाओं में कमोबेश यही कारण होता है। उत्पादन बढ़ाने और सुरक्षा के ऊपर होने वाले खर्च को बचाने के लिए सुरक्षा के सारे उपायों को दरकिनार कर दिया जाता है। निर्माण स्थलों पर, खदानों में, या सीवेज की सफाई के दौरान, यदि सुरक्षा उपाय उपलब्ध कराये जायें तो कई श्रमिकों की मौत को टाला जा सकता है। इसका दूसरा कारण काम के घण्टे निर्धारित न होना और मज़दूरों से हाड़-माँस गलने तक मेहनत करवाना भी होता है। जिस स्तर पर इनसे काम लिया जाता है, वैसी ख़ुराक इन्हें नहीं मिलती, जिसका असर इनकी ज़िन्दगी से लेकर काम करने तक में दिखता है।

अगर और आँकड़ों पर नज़र दौड़ायें तो एनआईटी सूरत और आईआईटी दिल्ली के 2016 के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में हर साल काम से सम्बन्धित दुर्घटनाओं में मरने वाले 48,000 लोगों में से 11,614 निर्माण मज़दूर होते हैं (वैसे ये आँकड़े वास्तविकता से कम ही होते हैं क्योंकि बहुत-सी दुर्घटनाओं और मौतों का कोई रिकॉर्ड ही नहीं होता)। इसका मतलब यह है कि भारत में कार्यस्थल पर होने वाली कुल मौतों में से 24% मौतें निर्माण स्थलों पर होती हैं। इन आँकड़ों के मुताबिक निर्माण क्षेत्र में प्रतिदिन 38 घातक दुर्घटनाएँ होती हैं। अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक संस्थान (आईएलओ) के एक अध्ययन का अनुमान है कि भारत में निर्माण स्थलों पर होने वाली घातक दुर्घटनाओं की संख्या दुनिया में सबसे अधिक है। इनमें कई दुर्घटनाएँ या तो जानलेवा होती हैं, या फिर मज़दूरों को अपंग बना देती हैं, जिसके बाद इन्हें ज़िन्दगीभर काम मिल पाना मुश्किल होता है। यही नहीं, ऐसी किसी घटना के बाद मुआवजा मिलना तो दूर ज़्यादातर इलाज़ तक के पैसे भी इन्हें नहीं दिये जाते।

यह तो इन मज़दूरों की इस नारकीय जिन्दगी का एक पहलू है। असल में इन मज़दूरों पर दोहरी मार पड़ती है। पहले पर हम ऊपर बात कर चुके हैं। इसका दूसरा पहलू यह है कि देश में लगातार बढ़ती महँगाई ने इनके जीवन को दूभर बना दिया है। ऊपर से पक्का काम ना मिल पाने के कारण ये सामाजिक असुरक्षा के भी शिकार होते हैं। इन्हें हर रोज़ सड़कों पर रोज़गार की तलाश में खड़ा होना होता है। महीने में बमुश्किल 10 से 15 दिन ही इन्हें काम मिल पाता है। और मज़दूरी इतनी कम होती है (क़रीब 300 से 600, देश के अलग-अलग हिस्सों में यह अलग होती है) कि इनके लिए अपना और अपने परिवार को पालना बहुत मुश्किल होता है। इन मज़दूरों का एक बड़ा हिस्सा काम की तलाश में देश के अलग-अलग राज्यों से पलायन करके पहुँचा होता है। इसलिए अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा उन्हें परिवार को भेजना पड़ता है। बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी करने वाले यही मज़दूर शहरों में खुद माचिस की डिब्बी जैसे छोटे कमरों में रहने के लिए मजबूर होते हैं, जहाँ एक ही कमरे में 3-4 लोगों को रहना होता है, ताकि रहने पर होने वाले खर्च को कम कर सकें। कई बार जीवन इतना मुश्किल हो जाता है कि हारकर उन्हें आत्महत्या का रास्ता चुनना पड़ता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की साल 2021 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में जिन 1,64,033 लोगों ने आत्महत्या की उसमें से 25.6 प्रतिशत दिहाड़ी मज़दूर थे। इसका मतलब यह है कि आज देश में आत्महत्या करने वाला हर चौथा व्यक्ति दिहाड़ी मज़दूर है।

निर्माण मज़दूरों की अहमियत

निर्माण मज़दूरों के मेहनत के कमाल और इसके परिणाम की बात हम लेख के शुरू में ही कर चुके हैं। देश में दिखने वाले ‘विकास’ को यह मज़दूर ही अंजाम देते हैं। आज देश में देशी-विदेशी पूँजीपतियों को अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाने का मौका देने के लिए जगह-जगह विश्वस्तरीय भवन, सड़कें, फ़्लाईओवर, बाँध इत्यादि का जाल बिछाया जा रहा है। इसके अलावा मध्यम वर्ग को सभी सुख-सुविधाएँ उपलब्ध कराने के उद्देश्य से शॉपिंग मॉल, लग्ज़री अपार्टमेण्ट, प्राइवेट स्कूल, कॉलेज, अस्पताल आदि का निर्माण किया जा रहा है। इन लोगों की ज़िन्दगी को रौशन बनाने वाले इन मज़दूरों की जि़न्दगी नर्क़ से भी बदतर होती है। इन बिल्डिंगों के निर्माण हो जाने के बाद इन्हें इनमें झाँकने तक नहीं दिया जाता।

नाइट फ्रैंक इण्डिया की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत का निर्माण क्षेत्र देश का दूसरा सबसे बड़ा रोजगार सृजन करने वाला क्षेत्र है, और 2023 तक क़रीब 7.1 करोड़ मज़दूर निर्माण क्षेत्र में कार्यरत थे। परन्तु इस कार्यबल का सिर्फ़़ 19 प्रतिशत हिस्सा कुशल मज़दूरों का है। हम पहले ही बता चुके हैं कि इन मज़दूरों का एक बड़ा हिस्सा अलग-अलग राज्यों से पलायन करके पहुँचा होता है। ‘न्यूज़क्लिक’ के अनुसार सभी क्षेत्रों में श्रमिकों की मौतों का कोई एकत्रित आँकड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन मृतकों में से अधिकांश प्रवासी मज़दूर ही होते हैं, जो सामाजिक सुरक्षा और अन्य लाभों से वंचित होते हैं। कुल मिलाकर आज देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा इन मज़दूरों का ही है, जिनके दम पर पूँजीपतियों के लिए बड़े-बड़े कारखाने, गगनचुम्बी इमारतें, सड़कें आदि तैयार होते हैं और जिस वजह से अपनी पूँजी को ये धन्नासेठ और बढ़ा पाते हैं। उनके पूँजी के इस अट्टालिका का एक बड़ा हिस्सा इनका शोषण करके ही बन पाता है।

श्रम विभाग, श्रम क़ानून और सरकार की हकीकत

निर्माण कार्य में लगे मज़दूर असंगठित मज़दूर होते हैं। आज देश में लगभग 45 करोड़ संख्या इन्हीं असंगठित मज़दूरों की है, जो कुल मज़दूरों की आबादी का 90% के क़रीब है। लेकिन देश में बैठी मोदी सरकार ने आज पूरा इन्तज़ाम कर लिया है कि मज़दूरों का खून चूसने में कोई असर न छोड़ा जाये। आपको पता हो कि अभी पहले से मौजूद श्रम क़ानून इतने काफ़ी नहीं थे जो पूर्ण रूप से मज़दूरों के हकों और अधिकारों की बात कर सके, और किसी भी तरह की दुर्घटना होने पर उनके लिए किसी भी तरह की त्वरित कार्रवाई करे। अभी कहने को सही, कागज़ पर कुछ श्रम क़ानून मौजूद होते हैं। थोड़ा हाथ-पैर मारने पर और श्रम विभाग के कुछ चक्कर काटने पर गाहे-बगाहे कुछ लड़ाइयाँ मज़दूर जीत जाते हैं। साल में एक या दो बार श्रम विभाग के अधिकारी भी सुरक्षा जाँच के लिए (जो बस रस्मअदायगी ही होती है) निकल जाते हैं। लेकिन अम्बानी-अडानी जैसे पूँजीपतियों के मुनाफ़े को और बढ़ाने के लिए सरकार पुराने सारे श्रम क़ानूनों को खत्म करके चार लेबर कोड लाने की तैयारी में है।

चार लेबर कोड में से एक ‘व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थल स्थिति संहिता’ में असंगठित मज़दूरों को कोई जगह ही नहीं दी गयी है। केवल 10 से ज़्यादा मज़दूरों को काम पर रखने वाले कारख़ानों पर ही यह लागू होगा, यानी मज़दूरों की बहुत बड़ी आबादी जो दिहाड़ी पर काम करती है, इस क़ानून के दायरे से बाहर होगी। हम पहले ही बात कर चुके हैं कि करोड़ों असंगठित मज़दूर पहले ही हर तरह की सामाजिक सुरक्षा से वंचित हैं। ‘सामाजिक सुरक्षा संहिता’ में त्रिपक्षीय वार्ताओं और मज़दूर प्रतिनिधियों की भूमिका को ही ख़त्म कर दिया गया है। इनकी जगह पर मज़दूरों के कल्याण की नीतियाँ बनाने और लागू कराने वाली संस्थाओं के रूप में राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा परिषद, केन्द्रीय बोर्ड और राज्यों के बोर्ड की बात रखी गयी है जिनमें ट्रेड यूनियनों की कोई भूमिका नहीं होगी। कुल मिलाकर 4 लेबर कोड घोर मज़दूर विरोधी क़ानून है, जिसका मक़सद सिर्फ़़ और सिर्फ़़ पूँजीपतियों को मुनाफा पहुँचाना और मज़दूरों के शोषण को बढ़ाना है।

मज़दूरों के सामने विकल्प क्या है?

आज देश में मजदूरों की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है। सत्ता में बैठी फासीवादी मोदी सरकार इसको और भयावह बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। ऐसे में आज मज़दूरों की जुझारू जनएकजुटता ही इसका एकमात्र जवाब हो सकती है। आज क्रान्तिकारी नेतृत्व की ग़ैरमौजूदगी के कारण फ़िलहाल तुरन्त कोई बड़ा संघर्ष खड़ा करना मुश्किल है। ख़ुद को मज़दूरों का हिरावल बताने वाली सी.पी.आई, सी.पी.आई.(एम), और सी.पी.आई. (माले) जैसी संशोधनवादी नक़ली लाल-झण्डे वाली संसदीय वामपन्थी पार्टियों ने इस विशाल आबादी को संगठित करने की न तो कोई गम्भीर कोशिश की है और न ही उनसे आगे कोई उम्मीद की जा सकती है। कुछ सुधारवादी, अर्थवादी संगठन उनके बीच जगह-जगह काम कर रहे हैं। इसलिए क्रान्तिकारी मज़दूर संगठन के सामने इस आबादी को संगठित करते हुए वर्गीय एकता क़ायम करना एक चुनौती है। इसलिए आज सबसे पहले यह ज़रूरी है कि एक सच्ची क्रान्तिकारी यूनियन के बैनर तले मज़दूरों को संगठित और एकजुट किया जाये, स्थानीय स्तर पर (इलाक़ाई व सेक्टरगत) जुझारू यूनियनें बनायी जायें, उनकी लगातार पाठशालाएँ चलायी जायें तथा उन्हें सही राजनीति के तहत एक देशव्यापी लड़ाई के लिए तैयार किया जाये।

 

मज़दूर बिगुल, मार्च 2024


 

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