मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन के पुनर्गठन के नवीनतम प्रयासों की विफलता
इस अफ़सोसनाक हालत का ज़िम्मेदार कौन है?

शिशिर

हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पिछले कुछ अंकों में मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन की असफलता के कारणों का विस्तृत विश्लेषण पेश कर चुके हैं। हमने आन्दोलन में मौजूद कुछ अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी, अवसरवादी और व्यवहारवादी प्रवृत्तियों की पड़ताल की थी, जिसकी नुमाइन्दगी आन्दोलन में सक्रिय कुछ संगठन कर रहे थे, जो अपने आपको “क्रान्तिकारी” नौजवानों का संगठन बताते हैं और इंक़लाबी मज़दूरों का “केन्द्र” घोषित करते हैं। ये “क्रान्तिकारी-इंक़लाबी” कॉमरेड लगातार मारुति मज़दूर आन्दोलन को एक सही रणनीति और रणकौशल अपनाने से रोकते रहे। इससे पहले कि हम मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन को पुनर्गठित करने के आखि़री प्रयास की विफलता और उसके कारणों की पड़ताल करें, ऐसे पाठकों के लिए हम मारुति मज़दूर आन्दोलन की विफलता की त्रासदी का एक संक्षिप्त विवरण देंगे, जो कि ‘मज़दूर बिगुल’ में पिछली रपटों को नहीं पढ़ पाये हैं।

मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन की विफलता की त्रासदीः एक संक्षित ब्यौरा

मारुति मज़दूर आन्दोलन की असफलता का सबसे बड़ा कारण था आन्दोलन के नेतृत्व द्वारा स्वयं ही मारुति सुजुकी के मसले को हरियाणा का स्थानीय मसला बना देना। आन्दोलन लगातार कैथल, गुड़गाँव, फरीदाबाद और रोहतक के चक्कर काटता रहा। पहले सीटू, एचएमएस एटक जैसी ग़द्दार यूनियनों के प्रभाव में नवम्बर 2012 से लेकर मार्च 2013 तक मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन का नेतृत्व कोई भी रैडिकल कदम उठाने से कतराता रहा और श्रम मन्त्री, उद्योग मन्त्री व मुख्यमन्त्री के दरवाज़ों के चक्कर काटता रहा। इस प्रक्रिया में ही मज़दूर एक हद तक थकने लगे थे और उनमें एक असन्तोष पनपने लगा था कि यूनियन नेतृत्व कोई फैसलाकुन कदम क्यों नहीं उठा रहा है। इस दौरान ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ की ओर से यूनियन नेतृत्व को लगातार दो सुझाव दिये जा रहे थे—एक, अब आन्दोलन इस मंज़िल में है कि यूनियन एक जगह खूँटा गाड़कर बैठने और अनिश्चितकालीन धरना व भूख हड़ताल का निर्णय ले; दो, यूनियन नेतृत्व को संघर्ष का स्थान हरियाणा से स्थानान्तरित कर दिल्ली ले आना चाहिए क्योंकि मारुति सुजुकी कम्पनी के मसलों का फैसला हरियाणा के मुख्यमन्त्री के डेस्क पर नहीं बल्कि केन्द्र सरकार की डेस्क पर होता है, और अगर हम मज़दूरों के मुद्दों की कोई सुनवाई चाहते हैं तो हमें राष्ट्रीय राजधानी की ओर रुख करना होगा। 9 दिसम्बर 2012 को एक बार दिल्ली में ऑटोमोबाइल सम्मेलन और जन्तर-मन्तर तक मार्च निकला भी और उसका काफ़ी असर भी हुआ, क्योंकि हरियाणा के मुख्यमन्त्री के बेटे ने अगले ही दिन यूनियन नेतृत्व को बातचीत के लिए बुलाया। लेकिन सीटू, एटक, एचएमएस के दबाव और ख़ास तौर पर “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी” कॉमरेडों के कुत्साप्रचार, कानाफूसी, तोड़-फोड़ और अवसरवाद के चलते यूनियन नेतृत्व संघर्ष के स्थान को दिल्ली स्थानान्तरित करने का फैसला नहीं लिया। यह आन्दोलन में सबसे बड़ी भूल थी। लेकिन मज़दूरों के असन्तोष के दबाव के चलते अब यूनियन नेतृत्व कहीं एक जगह धरना और भूख हड़ताल कर बैठने का फैसला लेने के लिए मजबूर था। अगर वह ऐसा नहीं करता तो आन्दोलन मार्च 2013 में ही बिखर गया होता। लेकिन धरने की जगह के तौर पर कैथल को चुना गया जो कि उद्योग मन्त्री रणदीप सुरजेवाला का निर्वाचन क्षेत्र और घर था। ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ की ओर से एक बार फिर यूनियन नेतृत्व से यह अपील की गयी कि वह अपने निर्णय पर पुनर्विचार करे और धरने के स्थान को दिल्ली निर्धारित करे क्योंकि 3-4 हज़ार मज़दूरों और उनके परिवार वालों को जुटाने की ताक़त के आधार पर हरियाणा में यह लड़ाई जीत पाना मुश्किल था और साथ ही इस बात की पूरी गुंजाइश थी कि आन्दोलन जैसे ही आक्रामक तेवर अख्‍त़ियार करेगा वैसे ही हरियाणा सरकार उस पर बर्बर दमन करेगी। सवाल दमन से घबराने का नहीं बल्कि सही नीति चुनने का था। दमन दिल्ली में भी हो सकता था लेकिन तब यह एक राष्ट्रीय मुद्दा बन जाता और शायद अब तक हमारी कुछ माँगों की सुनवाई हो चुकी होती। लेकिन “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी” कॉमरेडों और ग़द्दार ट्रेड यूनियनों के अपवित्र गठबन्धन ने मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन को यह कदम उठाने ही नहीं दिया और जो लोग संघर्ष को दिल्ली ले जाने की बात कर रहे थे, उनके ख़िलाफ़ हर स्तर पर जाकर कुत्साप्रचार किया। नतीजतन, नेतृत्व ने कैथल में ही धरना करने का निर्णय लिया। 19 मई को इसका नतीजा सामने आ गया। मज़दूरों और उनके परिवार वालों पर हरियाणा सरकार ने जमकर लाठी चार्ज किया और इसके बाद आन्दोलन जिस कदर बिखरा, तो वह आज तक फिर से खड़ा नहीं हो पाया है। इस बीच यूनियन ने कुलकों और धनी किसानों की नुमाइन्दगी करने वाली खाप पंचायतों से भी समर्थन लिया। लेकिन इस दमन के साथ ही खाप पंचायतों का समर्थन भाप बनकर उड़ गया और यूनियन नेतृत्व एक बार फिर से ग़द्दार केन्द्रीय ट्रेड यूनियन फेडरेशनों की शरण में पहुँच गया। और अवसरवादी संघाधिपत्यवादी “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी” कॉमरेड भी “मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता” का जश्न मनाते हुए पीछे-पीछे इन्हीं केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की शरण में आ पहुँचे!

स्पष्ट है कि अवसरवादी “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी” कॉमरेडों ने अपने संकीर्ण सांगठनिक हितों के चलते आन्दोलन को एक सही दिशा देने के हर प्रयास को सोचे-समझे तरीके से नाकाम किया। अब जब कि आन्दोलन पूर्णतः बिखर चुका है तो ये अवसरवादी क्षति-पूर्ति के तौर पर यूनियन नेतृत्व को दिल्ली से लेकर कोलकाता तक के विश्वविद्यालयों में व्याख्यान यात्राएँ करा रहे हैं! ज़ाहिर है जे.एन.यू. से लेकर कोलकाता तक यूनियन के नेतृत्व के लोगों की ऐसी व्याख्यान यात्राओं से कुछ हासिल नहीं होने वाला है। बस यही होगा कि इन विश्वविद्यालयों में निष्क्रिय उग्रपरिवर्तनवादी (यानी, जो बातों में गर्म और कार्रवाई में नर्म होते हैं!) समुदाय के 20-25 लोग इकट्ठा होकर इन व्याख्यानों को सुन लेंगे, क्योंकि उनके बीच शुरू से ऐसा प्रचार किया गया है कि मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन भारत के मज़दूर आन्दोलन के बीच एक मिसाल है और उसकी अगुवाई करेगा! सच है कि यह मिसाल है—लेकिन एक त्रासदी की मिसाल! यह त्रासदी दिखलाती है कि किसी भी मज़दूर आन्दोलन में अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद, अर्थवाद और अवसरवाद किस तरह से कीमत वसूल करता है। अगर आज मारुति सुजुकी के आन्दोलनरत रहे मज़दूर दिशाहीनता और निराशा के शिकार हैं तो इसके लिए मुख्य तौर पर यही “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेड” ज़िम्मेदार हैं। मारुति मज़दूर आन्दोलन की सबसे बड़ी नकारात्मक सीख यही रही है कि मज़दूरों को अपने बीच से ऐसे अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों और अवसरवादियों का जल्द से जल्द सफ़ाया करना चाहिए, अन्यथा बहुत देर हो जाती है और जब तक हम असफलता के कारणों को समझ पाते हैं तब तक आन्दोलन गड्ढे में जा चुका होता है।

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मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन को पुनर्गठित करने का नवीनतम प्रयास विफलः त्रासदी का नया और सम्भवतः अन्तिम अध्याय

मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन ने करीब एक माह पहले सितम्बर में ही 27 अक्टूबर को कैथल में एक विशाल प्रदर्शन करने का निर्णय किया था। उस समय से ही इस प्रदर्शन की तैयारियाँ और प्रचार शुरू कर दिया गया था। इण्टरनेट से लेकर पर्चों और पोस्टरों के ज़रिये देश भर में इस प्रदर्शन में मज़दूरों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और संगठनों को न्यौता दिया जा रहा था। इसके लिए निश्चित तौर पर काफ़ी ताक़त झोंकी गयी थी। लेकिन अन्तिम मौके पर यूनियन नेतृत्व ने प्रदर्शन को रद्द करने का निर्णय किया। कहने के लिए एक कारण यह था कि प्रशासन ने कैथल में धारा 144 लागू कर दी थी। लेकिन मारुति सुजुकी मज़दूर पहले भी सविनय अवज्ञा करते हुए धारा 144 का उल्लंघन कर चुके हैं। इस बार ऐसा नहीं करने का निर्णय क्यों लिया गया? इसका प्रमुख कारण यह था कि यूनियन नेतृत्व 26 अक्टूबर की शाम तक यह जान चुका था कि मज़दूरों का जुटान होना मुश्किल है। अच्छी से अच्छी हालत में 60-70 से ज़्यादा लोग नहीं जुटने वाले थे। नतीजतन, यूनियन नेतृत्व ने अन्तिम समय पर यह निर्णय लिया कि नेतृत्व के लोग कैथल में गिरफ़्तारी देंगे। इसका प्रमुख कारण यह था कि अब आन्दोलन में हरियाणा के कुछ मज़दूरों को छोड़कर अन्य राज्यों के मज़दूर शिरकत नहीं कर रहे हैं। इसके अलावा, आस-पास के गाँवों से भी यूनियन नेतृत्व को जुटान करने की उम्मीद थी, जो कि कामयाब नहीं हो पाया। गाँवों से अब बिरले ही कोई आन्दोलन में भागीदारी करने आ रहा था। ज़्यादातर मज़दूर इस बात को समझ चुके थे कि कैथल में रणदीप सुरजेवाला की ओर से ज़्यादा से ज़्यादा कोई थोथा आश्वासन ही मिलने वाला है, इससे ज़्यादा कुछ भी नहीं। अधिकांश मज़दूर इस बात से अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं कि अब हरियाणा सरकार उनकी सुनवाई नहीं करने वाली है। और ऐसे में कैथल में जुटने पर नयी गिरफ़्तारियों और दमन की ही गुंजाइश है। दमन और गिरफ़्तारियों का सामना भी आसानी से किया जा सकता है अगर उससे आन्दोलन के आगे बढ़ने की कोई उम्मीद हो। लेकिन आज आन्दोलन जिस हालत में है उसमें कैथल में नयी गिरफ़्तारियाँ होने से केवल पहले से गिरफ़्तार मारुति मज़दूरों की संख्या में इजाफ़ा ही होगा, और कुछ नहीं। इसके अलावा, एक कारण यह भी है कि शुरू से यूनियन नेतृत्व द्वारा “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” के प्रभाव में एक ग़लत और पिटी हुई रणनीति लागू होने के कारण मज़दूर एक दरवाज़े से दूसरे दरवाज़े घूम-घूमकर बुरी तरह थक और ऊब चुके हैं। नतीजतन, 27 अक्टूबर को मात्र 60-70 लोग कैथल पहुँचे जो कि दोपहर तक अलग-अलग जगह घूमते रहे। इसका कारण यह था कि इन मज़दूरों को अभी पता भी नहीं था कि प्रदर्शन रद्द क्यों किया गया है? नतीजतन, एक भ्रम और अराजकता की स्थिति बनी हुई थी और मज़दूर दोपहर तक इधर-उधर भटक रहे थे। डी.सी. ऑफिस, जहाँ गिरफ़्तारी देने की योजना थी, पर दोपहर 1 बजे तक सन्नाटा था और वहाँ माकपा के पार्षद प्रेम के निलम्बन के विरोध में एक टेण्ट लगा हुआ था जिसमें दो लोग बैठे हुए थे।

कुछ मज़दूरों से बातचीत के ज़रिये हमारे संवाददाता को पता चलता कि नेतृत्व की योजना है कि वह डी.सी. कार्यालय या सुरजेवाला के निवास पर मुँह पर काली पट्टी बाँधकर ज्ञापन सौंपेंगे और गिरफ़्तारी देंगे। रेवाड़ी के कुछ मज़दूरों ने कहा कि दुबारा जुटान हो पाना अब मुश्किल है और ज़्यादातर मज़दूर अब अदालत में चल रहे मुकदमों के सहारे टिके हुए हैं, और आन्दोलन में सक्रिय रूप से भागीदारी नहीं कर रहे हैं।

देर शाम को डी.सी. ने 12 मज़दूरों के प्रतिनिधि मण्डल से ज्ञापन लिया और उद्योग मन्त्री रणदीप सुरजेवाला से मुलाकात करायी। इस मुलाकात के लिए प्रतिनिधि मण्डल कलायत गया जहाँ सुरजेवाला किसी समारोह के लिए गये थे। काफ़ी इन्तज़ार के बात चन्द मिनटों की मुलाकात में सुरजेवाला ने वही कहा जिसके बारे में मज़दूर पहले से ही जानते थे। सुरजेवाला ने कहा कि वह गुड़गाँव के श्रमायुक्त से बात करेंगे और मुख्यमन्त्री से समय लेने का प्रयास करेंगे। सुरजेवाला ने इसके बारे में कोई समयसीमा नहीं बतायी! यानी, यह प्रक्रिया अनन्तकाल तक भी चल सकती है! सुरजेवाला ऐसे आश्वासन पहले भी कई बार दे चुके हैं और एक सामान्य मज़दूर भी जानता है कि ऐसे आश्वासनों का क्या मूल्य है! खै़र, इस आश्वासन को सुनकर प्रतिनिधि मण्डल वापस आ गया। सबसे बड़ी बात यह है कि 27 अक्टूबर को प्रदर्शन का फैसला लेते हुए यूनियन नेतृत्व ने जो प्रमुख माँग तय की थी, उस पर सुरजेवाला से कोई बात ही नहीं हुई! यह माँग थी 18 व 19 मई को मज़दूरों पर दर्ज़ केस वापस लेने की माँग। लेकिन इस पर कोई चर्चा किये बग़ैर प्रतिनिधि मण्डल वापस आ गया। ज़ाहिर है, ग़लती प्रतिनिधि मण्डल की नहीं है। जितनी ताक़त होगी, उतनी ही बात होगी। ताक़त का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रशासन ने प्रतिनिधि मण्डल को गिरफ़्तार ही नहीं किया क्योंकि प्रशासन भी जानता है कि ऐसे प्रतिनिधि मण्डलों का क्या मूल्य है और गिरफ़्तार करने से वास्तव में उसका मूल्य बढ़ ही जायेगा। नतीजतन, प्रतिनिधि मण्डल का इरादा तो गिरफ़्तारी देने का था, लेकिन हरियाणा प्रशासन ने उन्हें गिरफ़्तार किया ही नहीं। कम्पनी मैनेजमेण्ट, हरियाणा सरकार और पुलिस प्रशासन भी इस बात को समझ रहा है कि आन्दोलन अपनी गति से स्वयं समाप्ति की ओर जा रहा है और ऐसे में किसी भी चीज़ को मुद्दा बनाने का मौका देने की कोई ज़रूरत नहीं है। कम्पनी मैनेजमेण्ट और सरकार ने अन्य मामलों में एकदम आक्रामक रुख़ अख्त़ियार कर रखा है और वह एक तरह से मज़दूरों को रिहा न करके और उन पर से मुकदमे वापस न लेकर और साथ ही बर्ख़ास्‍त मज़दूरों की बहाली न करके उन्हें एक प्रकार से राजनीतिक सक्रियता और यूनियन बनाने के लिए दण्डित कर रहा है। और यूनियन नेतृत्व अपनी ही ग़लतियों के कारण अब इस हमले का मुकाबला करने की स्थिति में भी नहीं है।

हताशा की स्थिति यह है कि अब यूनियन नेतृत्व सबसे राय लेने और सलाह लेने का प्रयास कर रहा है, जब सारा आन्दोलन बिखर चुका है। यूनियन नेतृत्व के ही एक ज़िम्मेदार सदस्य ने 27 अक्टूबर की असफलता के बाद एक सोशल नेटवर्किंग साइट पर यह सन्देश डाला कि ‘सुझाव दें कि अब एम.एस.डब्ल्यू.यू. को क्या करना चाहिए’। शायद, “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” के विशेष सुझावों का पिटारा अब ख़ाली हो चुका है! जिस समय यूनियन नेतृत्व को यूनियन जनवाद का पालन करते हुए सभी मज़दूरों और सभी सहयोगी संगठनों को जनरल बॉडी मीटिंगों में इकट्ठा करके रणनीति और रणकौशल को लेकर खुली बहस करानी चाहिए थी, उस समय वह “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” के साथ बन्द कमरों में गुपचुप अन्दाज़ में योजना बना रहा था; जिस समय यूनियन नेतृत्व को खुले ट्रेड यूनियन जनवाद का पालन करते हुए सभी आम मज़दूरों की राय जाननी चाहिए थी, उस समय यूनियन नेतृत्व “प्रधानी” की संस्कृति का पालन करते हुए, मीटिंगों में केवल मज़दूरों को लिये गये फैसले सुना रहा था; और अब जब कि सारे रास्ते बन्द होते जा रहे हैं तो एक वह एक सोशल नेटवर्किंग साइट के ज़रिये सबसे सलाह माँग रहा है कि ‘सुझाव दें कि अब एमएसडब्ल्यूयू क्या करे’, तो इसका एक शब्द में यही उत्तर दिया जा सकता है—‘आत्मालोचना’। यह इस पूरे आन्दोलन में नेतृत्व के राजनीतिक दीवालियापन को नहीं दिखला रहा तो और क्या दिखला रहा है?

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निष्कर्षः

सवाल यह है कि ऐसी स्थिति पैदा क्यों हुई? ऐसी स्थिति इसलिए पैदा हुई क्योंकि

(1) आन्दोलन ने 7-8 नवम्बर 2012 में फिर से शुरू होने के बाद से ही कभी सही रणनीति और रणकौशल नहीं अपनाया; यह असफलता और ज़्यादा गम्भीर इसलिए है कि आन्दोलन में सही रणनीति और रणकौशल का ज़िक्र और उस पर बहस लगातार जारी भी थी, जैसा कि हम ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ की ओर से दिये गये सुझाव पत्रों का ज़िक्र करते समय बता चुके हैं। अगर इन सुझाव पत्रों पर असहमति/सहमति भी थी, तो भी इस पर खुले तौर पर सभी मज़दूरों और सहयोगी संगठनों के बीच बहस हो सकती थी। यूनियन नेतृत्व ने ऐसा क्यों नहीं किया? उल्टे जब कभी मंच से सही रणनीति और रणकौशल की बात की जाती थी, तो “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” के उकसावे पर इस बात को यूनियन नेतृत्व रोकने तक का प्रयास करता था। ऐसा ही एक वाकया 18 जुलाई 2013 के प्रदर्शन के समय हुआ जब ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के वक्ताओं के समक्ष यह शर्त रखी गयी कि आप आन्दोलन के बारे में सिर्फ़ सकारात्मक और प्रशंसामूलक बातें करेंगे क्योंकि आपकी बातों के कारण मज़दूर बाद में यूनियन नेतृत्व को कठघरे में खड़ा कर देते हैं! ज़ाहिर है, ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के सदस्यों ने इस शर्त को अस्वीकार कर दिया और यूनियन नेतृत्व को सूचित कर दिया कि चूँकि अब यूनियन नेतृत्व आत्मालोचना, पुनरावलोकन और परिवर्तन की क्षमता खो चुका है इसलिए अब ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ आन्दोलन को बाहर से समर्थन देगा और उसके मंच से कोई वक्तव्य नहीं रखेगा। यूनियन नेतृत्व आखिर अपने ही यूनियन के मज़दूरों से डरा हुआ क्यों था? यहीं से दूसरा कारण निकलता है।

(2) मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन के भीतर ट्रेड यूनियन जनवाद का गम्भीर अभाव। शुरू से यूनियन नेतृत्व स्वयं ही “प्रधानी” की संस्कृति को सचेतन तौर पर बढ़ावा देता रहा और कभी कोई खुली चर्चा, बहस-मुबाहिसा होने ही नहीं दिया। इस काम में “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” ने भी बन्द कमरों में कुत्साप्रचार और कानाफूसी के ज़रिये खूब मदद की। एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। 9 दिसम्बर 2012 को ऑटोमोबाइल मज़दूर सम्मेलन और प्रदर्शन में मारुति के मज़दूर ही कम संख्या में पहुँचे क्योंकि उन्हें यह बताया गया था कि कोई रैली नहीं निकाली जायेगी केवल अम्बेडकर भवन में सम्मेलन होगा। उस प्रदर्शन के असफल होने की स्थिति थी क्योंकि अन्य संगठनों के भी कुछ ही लोग आये थे। उसे दिन ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ एक जुलूस की शक्ल में करीब 500 मज़दूरों के साथ इस सम्मेलन में आया और बिगुल मज़दूर दस्ता के प्रयासों और दबाव के कारण ही पूरी नयी दिल्ली में मारुति मज़दूरों की सफल रैली निकली। इसके बाद “इंकलाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” ने अपने वास्तविक चरित्र को उजागर करते हुए यूनियन नेतृत्व से कहा कि अगले प्रदर्शनों के लिए ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ को यह हिदायत दी जाये कि वह ज़्यादा मज़दूरों को लेकर न आया करे क्योंकि इससे यूनियन की बजाय वह ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ का प्रदर्शन बन जाता है; यह बात दीगर है कि इन अवसरवादियों ने यह बात कभी सीटू, एटक, एचएमएस के लिए नहीं कही थी, क्योंकि उनके साथ तो उनका अन्दरूनी गठबन्धन था। खैर, नतीजा यह हुआ कि यूनियन नेतृत्व के एक अग्रणी सदस्य ने, जो कि एक प्रेस सम्मेलन के दौरान गिरफ़्तार कर लिये गये थे और अब जेल में हैं, ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के संगठनकर्ताओं को दिल्ली के अगले प्रदर्शन के पहले फोन करके कहा कि आप ज़्यादा लोगों को लेकर मत आइयेगा!! जब उस प्रदर्शन में मज़दूरों ने ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के संगठनकर्ताओं से पूछा कि आप लोग पिछली बार की तरह ज़्यादा ताक़त लेकर क्यों नहीं आये, तो ‘बिगुल’ के साथी ने मज़दूरों को बताया कि यूनियन नेतृत्व के ही एक ज़िम्मेदार व्यक्ति ने उन्हें कहा था कि ज़्यादा मज़दूरों को समर्थन में मत लेकर आइये! इससे मज़दूरों को काफ़ी गुस्सा आया और जब मज़दूरों ने यूनियन नेतृत्व के उस साथी से पूछा कि ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के साथियों से कम मज़दूरों को लेकर आने के लिए क्यों कहा गया, तो उनके लिए शर्मिन्दगी की स्थिति पैदा हो गयी। लेकिन हद तो तब हुई जब उन्होंने इस बात की शिकायत ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ से की कि उसने मज़दूरों के सामने यह बात खोल क्यों दी? जाहिर है यूनियन का नेतृत्व खुद मज़दूरों से तमाम चीज़ें छिपाकर करता था और उनके साथ मिलकर, उन्हें शामिल करके निर्णय लेने की बजाय बन्द कमरों में रायसाहबों के साथ गुपचुप करके फैसले लेता था। इससे जहाँ एक ओर “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” का भी असली चरित्र सामने आता है, जो वैसे तो “मज़दूर नियन्त्रण, मज़दूर जनवाद और मज़दूर स्वतःस्फूर्तता” का भजन गाते रहते हैं, लेकिन स्वयं एम.एस.डब्ल्यू.यू. में जनवाद-विरोधी और षड्यन्त्रकारी हरक़तें करते रहे; वहीं, इससे यूनियन नेतृत्व द्वारा खुद यूनियन जनवाद की अवहेलना करने की प्रवृत्ति सामने आती है। जाहिर है, आन्दोलन में कभी आन्तरिक जनवाद सक्रिय हो ही नहीं पाया और इसी वजह से आम मज़दूरों की राजनीतिक वर्ग चेतना का स्तरोन्नयन हमेशा बेहद कम हो पाया।

(3) आन्दोलन नेतृत्व ने मारुति सुजुकी के मसले को हरियाणा का स्थानीय मसला बना कर स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी, क्योंकि मारुति सुजुकी का मसला प्रकृति से ही राष्ट्रीय मसला था और आन्दोलन के केन्द्र को दिल्ली स्थानान्तरित करके इसे और बड़ा मसला बनाया जा सकता था। लेकिन लगातार इस बारे में चेताये जाने के बावजूद यूनियन नेतृत्व कभी यह निर्णय नहीं ले पाया। उल्टे जब 18 जुलाई को मानेसर संयंत्र में हुई घटना की बरसी पर यूनियन के प्रदर्शन में (जो कि बुरी तरह से फ़्लॉप हुआ) यूनियन नेतृत्व के सदस्य ने मंच से कहा कि चाहे जो भी हो जाये हम हरियाणा के कैथल में ही प्रदर्शन करेंगे, दिल्ली किसी सूरत में नहीं जायेंगे और कैथल में अगर प्रदर्शन की आज्ञा नहीं मिली तो हम कोर्ट में इसके लिए केस लड़ेंगे!! यानी, अब मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन के सारे असली मसले कूड़े के डिब्बे में फेंक दिये गये और असली मसला यह बन गया कि कैथल में प्रदर्शन करने के लिए केस लड़ा जाय!! यूनियन नेतृत्व का यह ज़िद्दी और अड़ियल रवैया राजनीतिक दीवालियेपन को नहीं तो और क्या दिखलाता है?

(4) वैसे तो “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” ने अपने संकीर्ण सांगठनिक हितों के लिए “मज़दूरों की स्वतःस्फूर्तता” और “स्‍वतन्त्र नेतृत्व और निर्णय” की खूब दुहाई थी और खूब जश्न मनाया लेकिन सच्चाई यह थी कि आन्दोलन के नेतृत्व में कभी भी स्वतन्त्र रूप से निर्णय लेने का साहस और क्षमता नहीं रही और न ही इन अवसरवादियों और संघाधिपत्यवादियों ने कभी ऐसा साहस या क्षमता पैदा करने की प्रक्रिया को प्रेरित किया। पहले यह गुड़गाँव-मानेसर में केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के दल्लालों की पूँछ पकड़कर चलता रहा; उसके बाद “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” के रायबहादुरों के मन्त्र और रामबाण नुस्खे सुनता रहा; उसके बाद कैथल जाने पर वह धनी किसानों और कुलकों के नुमाइन्दे खाप पंचायतों की गोद में जा बैठा; और जब 19 मई के दमन के बाद खाप पंचायतों ने अपना रास्ता पकड़ा तो घूम-फिर कर यूनियन नेतृत्व फिर से केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के ग़द्दारों के सहारे आ गया कि शायद वे ही सरकार से कुछ सुनवाई-समझौता करा दें। इसमें “स्‍वतःस्फूर्तता और स्वतन्त्र निर्णय” कहाँ है!? मज़ेदार बात यह है कि इन अवसरवादी, अराजकतावादी और संघाधिपत्यवादी “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” को भी इस सारे कार्य-कलाप से कोई लाभ नहीं हुआ और न ही उनके संकीर्ण सांगठनिक हित इससे सध सके! हाँ, इससे पूरे आन्दोलन का नुकसान उन्होंने ज़रूर किया।

(5) यूनियन नेतृत्व स्वयं राजनीतिक चेतना की कमी का शिकार रहा; यही कारण था कि वह कहीं भी रणनीति बनाने में मज़दूर वर्ग के दृष्टिकोण से सही और ग़लत का फैसला नहीं करता था, बल्कि इस बात से फैसला करता था कि किस इलाके में किसकी कितनी ताक़त है! जो ताक़तवर है उसकी गोद में बैठने के लिए यूनियन नेतृत्व तत्पर रहता था, हालाँकि कई मामलों में यूनियन नेतृत्व के कुछ लोगों को यह पता था कि ऐसी ताक़तें मज़दूर वर्ग की विरोधी या उसकी ग़द्दार है। मसलन, केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों और खाप पंचायतों को आन्दोलन का नेतृत्व सौंप देना इसी “ताकतवर के पीछे चलो” की मानसिकता का परिणाम था। सवाल यह है कि अन्त में इससे हासिल क्या हुआ? आज आन्दोलन जिस हताशा और विफलता का शिकार है उसका कारण यूनियन नेतृत्व का यह व्यवहारवाद और अवसरवाद भी था।

(6) यूनियन नेतृत्व ने देश और दुनिया में मारुति आन्दोलन के प्रचार को कुछ ज़्यादा ही गम्भीरता से ले लिया और कुछ ज़्यादा ही उत्साहित हो गया। जब “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” ने दिल्ली से कोलकाता तक थोड़ा व्याख्यान टूरिज़्म करा दिया तो यह छद्म उत्साह और अधिक बढ़ गया। पूरे देश के शहरों में बीच-बीच में प्रदर्शन करवाने पर यूनियन नेतृत्व काफ़ी ऊर्जा खर्च करता था, जिसकी कोई ज़रूरत नहीं थी। अगर संघर्ष अपनी जगह पर मज़बूत होगा तो देश के अलग-अलग हिस्सों में स्वयं एकजुटता में मज़दूर और मज़दूर संगठन प्रदर्शन करेंगे, अपने ज्ञापन और समर्थन पत्र भेजेंगे। लेकिन आन्दोलन स्वयं अपनी ज़मीन पर तो बिखरता रहा और यूनियन नेतृत्व चेन्नई, पटना, मुम्बई और कोलकाता के प्रदर्शनों का दौरा करता रहा और उस पर प्रफुल्लित होता रहा। इन शहरों में हर जगह 25-30 बुद्धिजीवी व कार्यकर्ता इकट्ठा होकर प्रदर्शन कर देते थे। निश्चित रूप से ये प्रदर्शन भी आन्दोलन को आगे बढ़ाते और गति प्रदान करते अगर आन्दोलन खुद भी वास्तविक तौर पर अपनी जगह-ज़मीन पर आगे बढ़ रहा होता। ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ ने फरवरी 2013 में ऐसे प्रदर्शनों में हिस्सेदारी करते हुए भी यूनियन को सलाह दी थी कि केवल एकजुटता में देश के अलग-अलग शहरों में कुछ लोग जुट जाएँगे, तो इससे आन्दोलन अपने आप आगे बढ़ने वाला नहीं है और यूनियन नेतृत्व को पहले मज़दूरों को व्यापक तौर पर एकजुट करके एक जगह खूँटा गाड़कर बैठने की तैयारी करनी चाहिए, न कि कोलकाता, मुम्बई, पटना के प्रदर्शनों का दौरा। लेकिन राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों द्वारा निकाली जाने वाली रिपोर्टों, इन रिपोर्टों को जारी करने के समारोहों में भाषण देने के लिए बुलाए जाने और इसके आधार पर हो रहे प्रचार का आनन्द लेने और एक छद्म नायकत्वबोध में आने की प्रवृत्ति यूनियन नेतृत्व के भीतर थी भी और “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” ने उसे सचेतन तौर पर बढ़ावा भी दिया। ये सारा प्रचार फायदेमन्द हो सकता था, अगर आन्दोलन वास्तविक अर्थों में राजनीतिक और सांगठनिक तौर पर सही रणनीति के साथ आगे बढ़ता और मज़बूत होता। अपने आपमें इस प्रचार के बूते कोई आन्दोलन न तो आज तक जीता गया है, और न ही जीता जा सकता है। मारुति सुजुकी मज़दूर संघर्ष के ही मामले को देख कर आज क्या यह पूछा नहीं जा सकता कि ऐसे राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय प्रचार और प्रसिद्धि और इण्टरनेट प्रचार के बावजूद अन्त में हासिल क्या हुआ?

(7) अन्त में, इन सबके पीछे जो एक बुनियादी कारण काम कर रहा था वह था आन्दोलन के नेतृत्व पर अपने आपको मज़दूरों का “इंक़लाबी केन्द्र” और नौजवानों की “क्रान्तिकारी सभा” घोषित करने वाले संगठनों के रायसाहबों की रायबहादुरी, कुत्साप्रचार और अवसरवाद। इन रायबहादुरों ने आन्दोलन और यूनियन नेतृत्व में सक्रिय विजातीय और हानिकारक प्रवृत्तियों को पैदा भी किया और उन्हें लगातार बढ़ावा भी दिया। यह इन अवसरवादियों का प्रभाव ही था कि यूनियन नेतृत्व कभी भी आत्मालोचना करने की काबिलियत और समय रहते ग़लत रणनीति, रणकौशल और प्रवृत्तियों को दुरुस्त कर लेने की क्षमता को खो बैठा। ये अराजकतावादी यूनियन नेतृत्व की स्वतःस्फूर्तता का जश्न मनाने के नाम पर हर ग़लत प्रवृत्ति को प्रश्रय और प्रोत्साहन देते रहे। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि मारुति मज़दूर आन्दोलन की असफलता के लिए मुख्य तौर पर कोई कारक ज़िम्मेदार है तो वह है आन्दोलन में इन “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” के अराजकतावाद, संघाधिपत्यवाद, अवसरवाद और अर्थवाद का प्रभाव। इस प्रभाव ने एक बहुत बड़ी कीमत मज़दूरों से वसूल की है। न सिर्फ़ मारुति के मज़दूरों से बल्कि गुड़गाँव-मानेसर के ऑटोमोबाइल पट्टी के मज़दूरों से। क्योंकि इस आन्दोलन को इलाके और ऑटोमोबाइल सेक्टर के सभी मज़दूर उम्मीद के साथ देख रहे थे। इस आन्दोलन में मज़दूरों की हार और कम्पनी मैनेजमेण्ट व सरकार की जीत ने आम तौर पर मज़दूरों के हौसले को तोड़ा है, पूँजीपतियों और प्रबन्धन की आक्रामकता को बढ़ाया है। पूँजी की ताक़तें अब हर मज़दूर संघर्ष में इस संघर्ष की असफलता को एक मिसाल के तौर पर इस्तेमाल करेंगे और मज़दूरों का हौसला तोड़ने का प्रयास करेंगे। यह दीगर बात है कि मज़दूर इसके बावजूद अन्ततः लड़ेंगे और डट कर लड़ेंगे। लेकिन निश्चित तौर पर इन “इंकलाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” के अवसरवाद ने गम्भीर नुकसान पहुँचाया है।

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मज़दूर बिगुलनवम्‍बर  2013

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