कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है (चौबीसवीं क़िस्त)
उपसंहार-1

आनन्द सिंह

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भारतीय संविधान और भारतीय लोकतन्त्र के चरित्र को बयान करने वाले लेखों की इस श्रृंखला में हमने देखा कि भारतीय संविधान के बनने की प्रक्रिया और इसको पारित करने का तरीका दोनों ही गैर-जनवादी थे। हमने यह भी देखा कि संविधान में लफ़्फ़ाजियाँ तो बहुत हैं, परन्तु यह आम जनता के बेहद बुनियादी जनवादी अधिकारों की भी कोई गारण्टी नहीं देता। इस संविधान में मौजूद प्रावधान निजी सम्पत्ति की इंच-इंच तक हिफ़ाजत करते हैं। अतः इन तथ्यों की रोशनी में यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान एक बुर्जुआ संविधान है जो एक बुर्जुआ जनवादी राज्य की आधारशिला रखता है और इस प्रकार पूँजीपति वर्ग के हितों का पोषण करता है। तमाम बुर्जुआ बुद्धिजीवी और संशोधनवादी इसे बिना कोई विश्लेषण का उपयोग किये जनवादी संविधान और लोकतान्त्रिक व्यवस्था कह कर महिमामण्डित करते हैं। ऐसे ही एक संशोधनवादी और सर्वहारा क्रान्ति के गद्दार काउत्स्की को करारा जवाब देते हुए लेनिन ने कहा था कि ‘‘विशुद्ध जनवाद एक ऐसा उदारतावादी झूठ से भरा फ़ि‍करा है जो मज़दूरों को बेवकूफ बनाना चाहता है। इतिहास उस बुर्जुआ जनवाद से परिचित है जो सामन्तवाद का स्थान लेता है और उस सर्वहारा जनवाद से परिचित है जो बुर्जुआ जनवाद का स्थान लेता है।’’

लेनिन आगे कहते हैं, ‘‘यद्यपि बुर्जुआ जनवाद मध्ययुगीनता की तुलना में महान ऐतिहासिक प्रगति है, पर वह हमेशा सीमित, क्षत-विक्षत, झूठ-मक्कारी भरा होता है, वह धनवानों के लिए स्वर्ग और शोषितों के लिए, ग़रीबों के लिए एक जाल और एक धोखा होता है, और पूँजीवादी व्यवस्था में वह इसके अतिरिक्त कुछ हो भी नहीं सकता।’’ भारतीय संविधान और भारतीय लोकतन्त्र की जो विवेचना इस श्रृंखला में प्रस्तुत की गयी है उसके आधार पर यह बेहिचक कहा जा सकता है कि लेनिन की यह प्रस्थापना भारत के सन्दर्भ में भी हूबहू लागू होती है। उपनिवेशवाद की गर्भ से जन्मे और पुनर्जागरण एवं प्रबोधन की वैचारिक सम्पदा से रहित भारत के विकृत और कमज़ोर बुर्जुआ वर्ग से इससे ज़्यादा उम्मीद की भी नहीं जा सकती है।

पूँजीवादी जनवाद के पूरे इतिहास पर एक सरसरी निगाह दौड़ाने से ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व के प्रबोधनकालीन आदर्श तो उन देशों में भी नहीं लागू हुए जहाँ पर सत्ता की बागडोर क्रान्तिकारी बुर्जुआ वर्ग के हाथों में आयी। ब्रिटेन में सत्रहवीं सदी के मध्य की क्रामवेल की क्रान्ति ने हालाँकि सामन्ती वर्ग की सत्ता को समाप्त किया, परन्तु इसके बावजूद संसद में सम्पत्तिवानों का ही कब़्ज़ा बना रहा क्योंकि सत्ता पर अब बुर्जुआ वर्ग काबिज़ हो चुका था। ब्रिटिश गृह युद्ध में हिस्सा लेने वाले कई समूहों में से ‘लेवेलर्स’ और ‘डिगर्स’ जैसे सापेक्षतः रैडिकल समूह जो आम मेहनतकशों के हितों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, कुचल दिये गये। हालाँकि राजशाही की राजनीतिक ताकत छीन ली गई, परन्तु उसका ख़ात्मा नहीं किया गया और आज तक यह संस्था ब्रिटिश पूँजीवाद के दामन पर एक काले धब्बे के समान मौजूद है। क्रॉमवेल की क्रान्ति के कई दशकों बाद तक भी मतदान और चुनाव लड़ने का आधार सम्पत्ति बनी रही।

यहाँ तक कि क्लासिकीय बुर्जुआ क्रान्तियाँ यानि अमेरिकी क्रान्ति और फ्रांसीसी क्रान्ति भी ऐतिहासिक रूप से प्रगतिशील होते हुए भी अन्ततः बुजुआ वर्ग के अधिनायकत्व में तब्दील हो गयीं। स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व के आदर्श महज़ खोखले शब्द बनकर रह गये और उनका अमली रूप बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी पर मुट्ठी भर पूँजीपतियों की तानाशाही बनकर रह गयी। 4 जुलाई 1776 को जैफ़रसन द्वारा तैयार किये गये ‘स्वतन्त्रता के अधिकार की घोषणा’ निश्चित रूप से इतिहास में आगे बढ़ा हुआ एक प्रगतिशील कदम था। परन्तु दास स्वामियों द्वारा इस घोषणा का तत्क्षण विरोध किया गया और इसमें से दास प्रथा के उन्मूलन के प्रावधान को निकलवा दिया गया। अमेरिकी क्रान्ति के बाद भी कई दशकों तक दासों के विद्रोहों को बर्बरता से कुचलने की प्रक्रिया बदस्तूर ज़ारी रही। 1786 में डेनियल शेज़ के नेतृत्व में ग़रीबों और कर्ज़दारों की रिहाई के लिए उठे प्रसिद्ध विद्रोह को निर्ममता से कुचल दिया गया। 1787 के प्रसिद्ध फिलाडेल्फिया कनवेंशन, जिसमें अमेरिकी संविधान की नींव रखी गयी थी, में भी दास प्रथा के उन्मूलन पर आम सहमति नहीं बन सकी। वास्तव में इस कन्वेंशन में भाग लेने वाले लोग आम मेहनतकश जनता के नहीं बल्कि धनिकों, दास स्वामियों और पूँजीपतियों के प्रतिनिधि थे। इस कन्वेंशन में भाग लेने वाले 55 सदस्यों में से 25 दासस्वामी थे। दासों की संख्या पूरे संयुक्त राज्य अमेरिका की आबादी का पाँचवाँ हिस्सा थी। न्यू इंग्लैण्ड को छोड़कर सभी राज्यों में दास प्रथा प्रचलन में थी। दक्षिणी राज्यों में तो हर तीन में से एक परिवार में दास रखे जाते थे। दक्षिणी राज्यों की समूची कृषि अर्थव्यवस्था दास श्रम पर टिकी थी। इस कन्वेशन के चरित्र का पता इसी बात से चल जाता है कि इसमें बहसतलब मुद्दों में एक मुद्दा यह भी था कि राज्यों का प्रतिनिधित्व तय करने की प्रक्रिया में दासों को जनसंख्या में गिना जाय अथवा उन्हें सम्पत्ति के रूप में देखा जाये। दक्षिणी राज्य अपना प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए दासों को जनसंख्या में गिनने के लिए दबाव बना रहे थे, जबकि उत्तरी राज्य केवल स्वतन्त्र व्यक्तियों को जनसंख्या में गिनना चाहते थे और दासों को सम्पत्ति के रूप में गिनना चाहते थे। अन्ततः कन्वेंशन में इस मुद्दे पर सहमति बनी कि दासों की कुल संख्या का 3/5 वाँ हिस्सा ही जनसंख्या में गिना जायेगा।

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1791 में अमेरिकी संविधान में 10 संशोधन पारित किये गये जिन्हें ‘बिल ऑफ राइट्स’ के नाम से जाना जाता है। इसमें धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार, सभा करने का अधिकार, प्रेस का अधिकार, अस्त्र रखने का अधिकार शामिल हैं। परन्तु स्वतन्त्रता की तमाम घोषणाओं के बावजूद सच्चाई यह थी कि दास प्रथा अभी भी कई राज्यों में प्रचलित थी और अश्वेतों की स्थिति में कोई विचारणीय सुधार नहीं हुआ था। हलाँकि 1804 तक उत्तरी राज्यों में दास प्रथा के उन्मूलन की घोषणा की जा चुकी थी, परन्तु इन राज्यों में भी जहाजरानी, बैंकिंग और मैन्युफैक्चरिंग के विस्तार की वजह से दास प्रथा के साथ उनके मजबूत आर्थिक सम्बन्ध बरकरार रहे। औद्योगिक क्रान्ति के बाद कॉटन की बढ़ती माँग ने दक्षिणी राज्यों में दास-प्रथा को और भी विस्तार देने के लिए प्रेरणास्रोत का काम किया। 1861 से 1865 तक अमेरिका में चले गृहयुद्ध के बाद हालाँकि आधिकारिक रूप से सभी राज्यों में दास-प्रथा का उन्मूलन करने के दावे किये गये, परन्तु इसके बावजूद समूची उन्नीसवीं शताब्दी में अश्वेतों की दयनीय स्थिति बरकरार रही। इसके अतिरिक्त श्वेतों में भी ग़रीब मेहनतकश जनता की स्थिति पूँजीवाद के दौर में बद से बदतर होती गयी। दुनिया को स्वतन्त्रता की नसीहत देने वाले इस देश में भी मज़दूरों के आन्दोलनों को निर्ममतापूर्वक कुचला गया। मई 1886 में शिकागो के प्रसिद्ध मज़दूर आन्दोलन का बर्बर दमन इस बात की बानगी भर है।

दुनिया का सबसे पुराना लोकतन्त्र कहा जाने वाले इस देश के विस्तारवादी मंसूबे 19 वीं शताब्दी में दिखने लगे थे जब मुनरो डॉक्ट्रिन के तहत लैटिन अमेरिकी देशों को अमेरिकी उपनिवेश में तब्दील करने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। बीसवीं शताब्दी में और खासकर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हिरोशिमा-नागासाकी पर परमाणु बम गिराने के बाद अमेरिका दुनिया के साम्राज्यवादी देशों का सरगना बन चुका था। बीसवीं शताब्दी में कोरिया, वियतनाम, निकारागुआ, चिली आदि में स्वतन्त्रता के नाम पर अराजकता फैलाने के बाद 21 वीं सदी में ये साम्राज्यवादी प्रयोग अफ़गानिस्तान इराक़, पाकिस्तान, लीबिया, सीरिया आदि पर किये जा रहे हैं। यही नहीं अपने अत्याधुनिक इलेक्ट्रानिक सर्विलांस की टेक्नालोजी की मदद से अब दुनिया भर के लोगों की निजी सूचनायें अब माउस का एक बटन दबाते ही अमेरिका के पास पहुँच रही हैं। तो ये रही व्यक्तित्व की आज़ादी को अनुलंघनीय मानने की कसमें खाने वाली बुर्जुआ अमेरिकी क्रान्ति की परिणति।

अब आइये देखते हैं कि फ्रांसीसी क्रान्ति की परिणति क्या हुई। जहाँ तक सामन्तवाद को निर्णायक चोट पहुँचाने का प्रश्न है तो निश्चित रूप से इस क्रान्ति की इतिहास में प्रगतिशील भूमिका थी। यही वजह थी कि मार्क्स ने इसे भव्यतम बुर्जुआ क्रान्ति की संज्ञा दी थी। 1789 की जुलाई में बास्तील किले की जेल के ध्वंस के बाद 26 अगस्त को राष्ट्रीय संविधान सभा ने पुरुष और नागरिक अधिकार घोषणापत्र के नाम से एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ पारित किया जो ऊपरी तौर से देखने पर प्रबोधनकालीन आदर्शों से प्रेरित दिखायी पड़ता है। इस घोषणा में कुछ अधिकारों को नैसर्गिक, अनुलंघनीय और पवित्र बताया गया था, मसलन लोगों के जन्मना समान होने का अधिकार, अभिव्यक्ति की आज़ादी, प्रेस की आज़ादी और सभा करने की आज़ादी, उत्पीड़न के सभी रूपों का ख़ात्मा, मनमाने ढंग से गिरफ़्तारी की परंपरा का ख़ात्मा। निश्चित रूप से ये अधिकार यह दिखाते हैं कि फ्रांसीसी क्रान्ति मानव इतिहास में एक आगे बढ़ा हुआ क़दम थी। लेकिन ग़ौर करने की बात यह है कि इस घोषणा में मौजूद तमाम प्रावधानों में से एक यह भी था कि निजी सम्पत्ति का अधिकार पवित्र और अनुलंघनीय था। जहाँ तक सामन्तों द्वारा आम जन की ज़मीन हड़पने की बात थी, वहाँ तो इस अधिकार की एक प्रगतिशील भूमिका थी, परन्तु इसका एक प्रतिगामी पहलू यह था कि इसने हर प्रकार के पूँजीवादी लुटेरों और अनुत्पादक परजीवी जमातों और की निजी सम्पत्ति की अधिकार भी सुरक्षित कर दिया।

फ्रांस की नेशनल असेंबली ने 1791 में संविधान का प्रारूप पूरा किया। यह संविधान सभी नागरिकों को मतदान का अधिकार नहीं देता था। 25 वर्ष से अधिक उम्र वाले केवल ऐसे पुरुषों को ही मतदान देने का अधिकार प्राप्त था जो कम-से-कम तीन दिन की मज़दूरी के बराबर कर चुकाते थे। असेंबली का सदस्य होने के लिए लोगों को करदाताओं की उच्चतम श्रेणी में होना ज़रूरी था। 1792 में जैकोबिनों के सत्ता में आने के बाद 21 वर्ष से अधिक उम्र वाले सभी पुरुषों – चाहे उनके पास सम्पत्ति हो या नहीं – को मतदान का अधिकार दिया गया। 21 सितंबर 1792 को नवनिर्वाचित असेंबली ने राजतंत्र का अन्त कर दिया और फ्रांस को एक गणतन्त्र घोषित किया। रोबेस्पयेर के नेतृत्व वाली जैकोबिन पार्टी तृतीय एस्टेट के आम मेहनकश आबादी – जूता बनाने वाले, पेस्ट्री बनाने वाले, घड़ीसाज, छपाई करने वाले और नौकर व दिहाड़ी मज़दूरों – के हितों का प्रतिनिधित्व करती थी। इस पार्टी के नेतृत्व में 1793 में जो संविधान बनाया गया उसे अब तक के बुर्जुआ संविधानों में से सर्वाधिक जनवादी कहा जाता है। फ्रांसीसी उपनिवेशों में दास-प्रथा का उन्मूलन करने का रैडिकल फैसला भी जैकोबिनों ने ही लिया (जिसे बाद में नेपोलियन ने फिर से शुरू कर दिया)। परन्तु यह पार्टी बहुत दिनों तक सत्ता में न रह सकी क्योंकि इतना ज़्यादा जनवाद बुर्जुआ वर्ग के गले से नहीं उतर रहा था । 27 जुलाई 1794 को एक प्रतिक्रियावादी तख़्तापलट के द्वारा जैकोबिनों का शासन समाप्त कर दिया गया और रोबेस्पयेर को गिलोटिन पर चढ़ा दिया गया। नये डायरेक्ट्री शासन ने जैकोबिनों द्वारा लिए गये रैडिकल फैसलों को उलट दिया। डिरेक्ट्री के भ्रष्ट शासन के बाद नेपोलियन ने 1804 में सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया और स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व के झण्डे को धूल में फेंक दिया।

प्रबोधनकालीन फ्रांसीसी दार्शनिकों के आदर्शों को फ्रांसीसी क्रान्ति के बाद सत्ता में आये नवोदित बुर्जुआ वर्ग द्वारा तिलांजलि देने के बारे में एंगल्स ने ‘ड्यूरिंग मत-खण्डन’ में सटीकता से बयान करते हुए लिखा है, ‘‘….अठारहवीं शताब्दी के फ्रांसीसी दार्शनिक, जो क्रान्ति के अग्रदूत थे, उस सबसे, जो विद्यमान है, एकमात्र निर्णयकर्ता के रूप में तर्कबुद्धि का आश्रय लेते थे। उन्होंने एक तर्कबुद्धिसंगत राज्य तथा तर्कबुद्धिसंगत समाज की स्थापना की माँग की, उस सबको, जो शाश्वत तर्कबुद्धिसंगत के विरुद्ध था, निर्ममतापूर्वक मिटा देने की माँग की। हमने यह भी देखा कि यह शाश्वत तर्कबुद्धि वस्तुतः औसत दर्जे़ के बर्गर की, जो बुर्जुआ वर्ग में अभी-अभी विकसित हो रहा था, आदर्शीकृत समझ के अलावा और कुछ भी नहीं थी। परन्तु जब फ्रांसीसी क्रान्ति ने इस तर्कबुद्धिसंगत समाज तथा इस तर्कबुद्धिसंगत राज्य को मूर्त रूप दिया, तो नयी संस्थायें पूर्ववर्ती संस्थाओं की तुलना में अपनी सारी तर्कबुद्धिसंगतता के बावजूद पूर्ण तर्कबुद्धिसंगत कदापि नहीं सिद्ध हुईं। तर्कबुद्धिसंगत राज्य पूरी तरह ढह गया। रूसो की सामाजिक संविदा ने आतंक के शासन के दौरान मूर्त रूप प्राप्त कर लिया, जिससे घबराकर अपनी राजनीतिक क्षमता में विश्वास खो बैठे बुर्जुआ वर्ग ने पहले डायरेक्टरेट की भ्रष्टता की शरण ली और फिर नेपोलियनी निरंकुशता की छत्र-छाया में पहुँच गया। जिस शाश्वत शान्ति का वचन दिया गया था, वह अन्तहीन कब्ज़ाकारी युद्धों में बदल गयी। तर्कबुद्धि पर आधारित समाज का हाल इससे बेहतर नहीं रहा। अमीर तथा ग़रीब के बीच अन्तरविरोध आम समृद्धि में विलय होने के बजाय शिल्पसंघों के तथा अन्य विशेषाधिकारों के, जिन्होंने इन अन्तरविरोधों पर मानो सेतुबन्ध का काम कर दिया था, हटाये जाने से तथा चर्च की दानशील संस्थाओं के ख़त्म किये जाने से और भी तीक्ष्ण हो गये। (सामन्ती बेड़ियों से ‘‘सम्पत्ति की स्वतन्त्रता’’ जो अब वस्तुतः सम्पन्न हो चुकी थी, छोटे बुर्जुआ तथा किसान के लिए, जिन्हें बड़ी पूँजी तथा बड़े भू-स्वामित्व की ओर से प्रचण्ड प्रतियोगिता ने कुचल दिया था, ठीक इन्हीं महाप्रभुओं को अपनी छोटी सम्पत्ति बेचने की स्वतन्त्रता सिद्ध हुई; यह ‘‘स्वतन्त्रता’’ इस प्रकार छोटे बुर्जुआ और किसान के लिए सम्पत्ति से स्वतन्त्रता में बदल गयी)। पूँजीवादी आधार पर उद्योग के तीव्र विकास ने मेहनतकश जनसाधारण की ग़रीबी और कष्टों को समाज के अस्तित्व की आवश्यक शर्त बना दिया। (नक़द भुगतान, कार्लाइल के शब्दों में अधिकाधिक मात्रा में इस समाज का एकमात्र सम्बन्ध-सूत्र बनता चला गया।) अपराधों की संख्या वर्ष प्रति वर्ष बढ़ती चली गयी। पहले सामन्ती दुराचार दिन-दहाड़े होता था; अब वह एकदम समाप्त तो नहीं हो गया था, पर कम से कम पृष्ठभूमि में ज़रूर चला गया था। उसके स्थान पर बुर्जुआ अनाचार, जो इसके पहले पर्दे के पीछे हुआ करता था, अब प्रचुर रूप में बढ़ने लगा था। व्यापार अधिकाधिक धोखाधड़ी बनता चला गया। क्रान्तिकारी आदर्श-सूत्र के ‘‘बन्धुत्व’’ ने होड़ के संघर्ष की ठगी तथा प्रतिस्पर्धा में मूर्त रूप प्राप्त किया। बल द्वारा उत्पीड़न का स्थान भ्रष्टाचार ने ले लिया। सामाजिक सत्ता का उत्तोलक तलवार के स्थान पर सोना बन गया। नववधुओं के साथ पहली रात सोने का अधिकार सामन्ती प्रभुओं से पूँजीवादी कारख़ानेदारों के पास पहुँच गया। वेश्यावृत्ति में इतनी अधिक वृद्धि हो गयी, जो पहले कभी सुनी तक नहीं गयी थी। स्वयं विवाह-प्रथा पहले की तरह अब भी वेश्यावृत्ति का क़ानूनी मान्यताप्राप्त रूप तथा उसकी सरकारी आड़ बनी हुई थी, और इसके अलावा व्यापक परस्त्रीगमन उसके अनुपूरक का काम कर रहा था। संक्षेप में, दार्शनिकों ने जो सुन्दर वचन दिये थे, उनकी तुलना में ‘‘तर्कबुद्धि की विजय’’ से उत्पन्न सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थायें घोर निराशाजनक व्यंग्यचित्र प्रतीत होती थीं।’’

जब क्रान्तिकारी बुर्जुआ वर्ग द्वारा सम्पन्न बुर्जुआ क्रान्तियों के बाद अस्तित्व में आये समाज की ये दशा हुई तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं कि भारत जैसे उत्तर-औपनिवेशिक देशों में जो बुर्जुआ जनवाद अस्तित्व में आया वह निहायत ही अधूरा और विकृत है। भारत में तो बुर्जुआ वर्ग ने औपनिवेशिक सत्ता के खि़लाफ़ जुझारू संघर्षों की बजाय समझौता-दबाव-समझौता की रणनीति से सत्ता हासिल की, परन्तु जिन उत्तर-औपनिवेशिक देशों में बुजुआ वर्ग क्रान्तिकारी संघर्षों के ज़रिये सत्तासीन हुआ वहाँ की जनता को भी पश्चिमी देशों जितने जनवादी अधिकार नहीं मिले। अगले अंक में हम देखेंगे किस प्रकार प्रबोधनकालीन आदर्शों को यदि किसी राज्य ने वास्तव में अमल किया तो वे रूसी क्रान्ति और चीनी क्रान्ति के बाद अस्तित्व में आयी समाजवादी सत्तायें थी जिन्होंने मानव सभ्यता के इतिहास में एक लम्बी छलाँग लगाते हुए यह सिद्ध किया कि एक समाजवादी समाज में ही स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व के नारे को अमली जामा पहनाया जा सकता है।

(अगले अंक में जारी)

 

मज़दूर बिगुलनवम्‍बर  2013

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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