गुड़गाँव औद्योगिक क्षेत्र : सतह के नीचे सुलगते मज़दूर असन्तोष को दिशा देने की ज़रूरत

गुड़गाँव संवाददाता

बीते 19 मार्च को गुड़गाँव की ओरियंट क्राफ्ट कम्पनी में कई मज़दूरों के साथ ठेकेदार द्वारा मारपीट करने के बाद भड़के मज़दूरों के ग़ुस्से ने एक बार फिर साबित कर दिया कि गुड़गाँव औद्योगिक क्षेत्र के कारख़ानों में हो रहे अमानवीय शोषण और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ मज़दूरों में भयंकर रोष व्याप्त है। किसी नेतृत्व के अभाव और अपनी जायज़ माँगों के लिए संगठित होकर कोई व्यापक आन्दोलन न कर पाने की स्थिति का नतीजा यह होता है कि मज़दूरों का ग़ुस्सा इस प्रकार की घटनाओं के बहाने सड़क पर फूट पड़ता है जिसे अन्त में कम्पनी के गुण्डों या पुलिस दमन के बल पर कुचल दिया जाता है। इसके बाद ज़्यादातर मज़दूर दूसरी जगहों पर काम पकड़ लेते हैं या न्याय की आस में न्यायालयों के चक्कर लगाते रह जाते हैं।

इधर देखने में आ रहा है कि कुछ मज़दूर संगठन मान बैठे हैं कि गुड़गाँव में मज़दूरों के सभी स्वत:स्फूर्त विरोध और छिटपुट हड़तालें पिछले साल मारुति सुजुकी में हुए आन्दोलन के प्रभाव से हो रही हैं। इस प्रकार की स्वत:स्फूर्त घटनाओं से आशा बाँधे बैठे इन मज़दूर संगठनों के पास गुडगाँव जैसे लगातार विकसित हो रहे औद्योगिक क्षेत्र की विशाल मज़दूर आबादी को संगठित करने के लिए न तो कोई ठोस कार्यक्रम है और न सही समझ। मारुति की हड़ताल के दौरान शुरू हुआ स्वत:स्फूर्तता का जश्न मनाने का सिलसिला अभी जारी है। पिछले साल तीन चरणों में चले मारुति सुज़ुकी के आन्दोलन के समय ऐसा एक अवसर आया था जब मानेसर-गुड़गाँव और आसपास के विशाल औद्योगिक क्षेत्र के लाखों मज़दूरों की साझा माँगों को उठाकर एक व्यापक आन्दोलन खड़ा करने का प्रयास किया जा सकता था। सीटू, एटक, एचएमएस जैसी केन्द्रीय यूनियनों से ऐसी उम्मीद करना बेमानी था, उन्होंने अपने चरित्र के ही अनुरूप आचरण करते हुए आन्दोलन को थकाकर धोखेभरे समझौतों के दलदल में धँसाने का काम किया। लेकिन क्रान्तिकारी वाम धारा के अनेक संगठन बस मानेसर की ”तीर्थयात्रा” करते रहे और देश में ”मज़दूर आन्दोलन की नयी लहर” के पैदा होने का ख़ुशफ़हमी भरा इन्तज़ार करते रहे। केवल बिगुल मज़दूर दस्ता लगातार यह पक्ष रखता रहा कि आन्दोलन को एक सुनियोजित-सुसंगठित रणनीति बनाकर जुझारू ढंग से चलाया जाये तथा ट्रेड यूनियन अधिकारों के अपहरण, श्रम क़ानूनों के खुले उल्लंघन और काम की अमानवीय परिस्थितियों जैसे साझा मुद्दों के आधार पर इस आन्दोलन को विस्तार देने की कोशिश की जाये।

आज मज़दूरों का जो ग़ुस्सा सड़कों पर सामने आ रहा है यह इस बात का प्रमाण है कि पूरे गुड़गाँव क्षेत्र के मज़दूरों में अपनी स्थिति को लेकर भारी असन्तोष है जिसे एक दिशा देने की ज़रूरत भी है और सम्भावना भी। गुड़गाँव में लगभग 10,000 कारखाने हैं, जहाँ पूरे साल स्थायी काम होता है, और जिनमें काम करने वाले ज़्यादातर मज़दूर ठेके पर रखे जाते हैं। इसका एक प्रमाण यह है कि इनमे से सिर्फ़ 100 कारख़ानों में ही नाम मात्र के लिए मज़दूर अपनी ट्रेड यूनियन बना सके हैं। ज़्यादातर जगह यदि मज़दूर यूनियन बनाने की माँग उठाते हैं तो अगुवा मज़दूरों को निशाने पर लेकर मारपीट की जाती है या काम से निकाल दिया जाता है। यह सब मालिकों-ठेकेदारों और श्रम विभाग की मिलीभगत से होता है।

कई कारख़ानों के मज़दूरों से बात करने पर पता चलता है कि आये दिन मज़दूरों से जबरन ओवरटाइम करवाया जाता है, और अगर कोई मज़दूर ओवरटाइम से मना करता है तो कारख़ाने के अन्दर मालिक के गुण्डे डराते-धमकाते हैं और अक्सर बिना पैसे दिये काम से निकाल देते हैं, जिससे कि मज़दूरों में डर बना रहे। गाली-गलौच तो आम बात है। मज़दूरों ने बताया कि कभी भी उनका वेतन समय पर नहीं दिया जाता और छह दिन से एक महीने तक का वेतन रोककर रखा जाता है। ऐसा ही कुछ ओरियंट क्राफ्ट में भी हुआ जहाँ रविवार के दिन काम पर न आने के कारण ठेकेदार ने सोमवार को मज़दूरों के साथ गाली-गलौच की और एक मज़दूर के पेट में कैंची मारकर बुरी तरह घायल कर दिया। इस घटना के तुरन्त बाद मज़दूरों का दबा हुआ ग़ुस्सा फूट पड़ा और उन्होंने सड़क पर खड़े वाहनों में तोड़-फ़ोड़ शुरू कर दी।

इसी घटना के सन्दर्भ में बहरामपुर स्थित एस.जी.एम. फ़िल्टर्स फ़ैक्ट्री में काम करने वाले एक मज़दूर ने बताया कि उसकी फ़ैक्ट्री में भी ज़्यादातर मज़दूर ठेके पर काम करते हैं और उनकी स्थिति भी बिल्कुल ऐसी ही है, जो एक वेतन पाने वाले ग़ुलाम से ज़्यादा कुछ भी नहीं है। इससे पहले भी कई बार उद्योग-विहार स्थित कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों ने काम की अमानवीय परिस्थियों के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ उठाने की कोशिश की, परन्तु मालिकों और पुलिस की मिलीभगत और सही नेतृत्व की कमी के कारण उनका संघर्ष किसी आन्दोलन का रूप न ले सका।

पिछले कुछ समय से गुडगाँव में अलग-अलग कारख़ानों में भड़के मज़दूरों के ग़ुस्से को देखकर आसानी से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि इस पूरे औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाली मज़दूर आबादी ज़बरदस्त शोषण का शिकार है। सिर्फ़ ठेका मज़दूर ही शोषण का शिकार नहीं हैं, बल्कि कई कारख़ानों में स्थायी नौकरी वाले मज़दूरों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। मारुति, पावरट्रेन, हीरो होण्डा, मुंजाल शोवा आदि इसके उदाहरण हैं। मगर नेतृत्व और किसी क्रान्तिकारी विकल्प के अभाव में शोषण और उत्पीड़न से बेहाल इस मज़दूर आबादी का आक्रोश अराजक ढंग से इस प्रकार की घटनाओं के रूप में सड़कों पर फूट पड़ता है। इसके बाद पुलिस और मैनेजमेण्ट का दमन चक्र चलता है जिसका मुक़ाबला बिखरे हुए मज़दूर नहीं कर पाते और ग़ुस्से का उबाल फिर शान्त हो जाता है।

बीच-बीच में फूट पड़ने वाली ऐसी घटनाओं पर ख़ुश होकर तालियाँ बजाने के बजाय ज़रूरत यह है कि असंगठित क्षेत्र की इस विशाल मज़दूर आबादी के बीच क्रान्तिकारी प्रचार-प्रसार करते हुए उनकी मूलभूत माँगों जैसे काम के उचित घण्टे, जबरन ओवरटाइम बन्द करवाने, प्रबन्धन की गुण्डागर्दी बन्द करने, ट्रेड यूनियन अधिकारों आदि पर मज़दूरों को संगठित करने की कोशिश की जाये। सुधारवादी, अर्थवादी और धन्धेबाज़ ट्रेड यूनियनों का असली चेहरा मज़दूरों को दिखाया जाये और उनके बीच सुलगते रोष को एक सही क्रान्तिकारी दिशा देने की शुरुआत की जाये।

 

मज़दूर बिगुलअप्रैल 2012

 


 

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