माँगपत्रक शिक्षणमाला – 9 (दूसरी किस्‍त)
ग्रामीण व खेतिहर मज़दूरों की प्रमुख माँगें और उनकी अपनी यूनियन की ज़रूरत

 

मज़दूर माँगपत्रक 2011 क़ी अन्य माँगों — न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे कम करने, ठेका के ख़ात्मे, काम की बेहतर तथा उचित स्थितियों की माँग, कार्यस्थल पर सुरक्षा और दुर्घटना की स्थिति में उचित मुआवज़ा, प्रवासी मज़दूरों के हितों की सुरक्षा, स्त्री मज़दूरों की विशेष माँगों, ग्रामीण व खेतिहर मज़दूरों, घरेलू मज़दूरों, स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूरों की माँगों के बारे में विस्तार से जानने के लिए क्लिक करें। — सम्पादक

 

पिछले अंक में हमने ग्रामीण मज़दूरों की दूरगामी वर्ग माँग के बारे में बताया था और साथ ही यह भी बताया था कि दूरगामी राजनीतिक माँगों के लिए संघर्ष के साथ ही ग्रामीण सर्वहारा वर्ग को अपनी तात्कालिक आर्थिक व राजनीतिक माँगों के लिए भी संघर्ष करना पड़ेगा। ग्रामीण सर्वहारा वर्ग और अर्द्धसर्वहारा वर्ग की दूरगामी माँग ज़मीन के किसी छोटे-से टुकड़े का मालिकाना नहीं, बल्कि साझी खेती की समाजवादी व्यवस्था ही हो सकती है। ग्रामीण सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा आबादी कुल ग्रामीण आबादी का करीब 80 फीसदी है और वह इस बात को अपने अनुभव से समझती है कि दो-ढाई बीघा ज़मीन उसे एक इंसानी जीवन नहीं दे सकती है। वास्तव में, समूचे ग्रामीण भारत के उत्पादन के लिए यह ग्रामीण मज़दूर और ग़रीब किसान आबादी सामूहिक रूप से उत्तरदायी है और ऐसी व्यवस्था ही सबसे न्यायसंगत और तर्कसंगत हो सकती है, जो समूचे ग्रामीण संसाधनों को इस ग़रीब ग्रामीण आबादी के सामूहिक मालिकाने के तहत रख दे। उत्पादन से लेकर वितरण तक और राजनीतिक निर्णय लेने तक समूचे अधिकार ग्रामीण सर्वहारा आबादी और अर्द्धसर्वहारा आबादी की क्रान्तिकारी लोक स्वराज्य पंचायतों के हाथों में होने चाहिए। जब तक मज़दूर इंक़लाब के जरिये पूरे देश में आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था को मज़दूरों और ग़रीब मेहनतकश आबादी की क्रान्तिकारी लोकस्वराज्य पंचायतों के हाथों नहीं सौंप दिया जाता तब तक ग्रामीण मज़दूर और अर्द्धमज़दूर आबादी की पूँजीवादी सरकार से कुछ माँगें बनती हैं।

Sewing paddy india_village

हमने यह भी देखा था कि मौजूदा व्यवस्था में ग्रामीण मज़दूरों के लिए श्रम क़ानूनों का कोई एकरूप ढाँचा देश में मौजूद नहीं है। राष्ट्रीय ग्रामीण श्रम आयोग ने सरकार के सामने यह सिफ़ारिश रखी थी कि सरकार क़ानूनी ढाँचे और संविधान में ज़रूरी संशोधन करके एक ऐसा क़ानूनी ढाँचा खड़ा करे, जो ग्रामीण मज़दूरों के लिए आठ घण्टे के काम के दिन, न्यूनतम मज़दूरी, डबल रेट से ओवरटाइम, और ई.एस.आई. और पी.एफ. जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ सुनिश्चित करे। लेकिन इन सिफ़ारिशों के बाद कई वर्ष बीत जाने के बाद भी तमाम सरकारें आयीं-गयीं, लेकिन इन्हें लागू नहीं किया गया। केन्द्र सरकार की उदासीनता के अलावा इसका एक कारण यह भी था तमाम राज्यों में राज्य सरकारें ऐसे क़ानून के ख़िलाफ़ थीं। इसका कारण यह था कि कई राज्यों में क्षेत्रीय पूँजीवादी चुनावी दलों की सरकारें हैं, जो कि वास्तव में धनी किसानों, कुलकों और फार्मरों की नुमाइन्दगी करती हैं। ये पार्टियाँ अपने वोट आधार को नहीं खिसकने देना चाहतीं और धनी किसानों का ऐसा क़ानून न बनने देने के लिए उन पर पर्याप्त दबाव है। गठबन्धन सरकारों के ज़माने में कांग्रेस-नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार हो या उसके पहले की भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन सरकार हो, किसी में यह हिम्मत नहीं थी कि ऐसे किसी क़ानून को बनाये और लागू करे। ऐसे में साफ़ है कि ग्रामीण मज़दूरों के हक़ों को सुनिश्चित करने वाला कोई भी क़ानून जनहित याचिकाएँ दायर करने, क़ानूनी सक्रियता करने, सरकारी आयोगों की सिफ़ारिशों और अर्जियों और आवेदनों से नहीं बनने वाला। ऐसा कोई भी क़ानून तभी बन सकता है, जब ग्रामीण मज़दूर अपने औद्योगिक मज़दूर भाइयों की मदद से अपनी ग्रामीण मज़दूर यूनियन बनाएँ और इन माँगों के लिए जुझारू और संगठित संघर्ष से सरकार पर दबाव डालें। ग्रामीण मज़दूरों का वर्ग देश का सबसे बड़ा वर्ग है। वह अगर संगठित हो जाए तो ऐसा दबाव डाला जा सकता है। हालाँकि यह एक मुश्किल और लम्बा काम है, लेकिन सर्वहारा क्रान्तिकारियों को अभी से यह समझना होगा कि ऐसी किसी ग्रामीण मज़दूर यूनियन की सरकार से क्या माँगें होंगी। ‘भारत के मज़दूरों का माँगपत्रक’ ऐसी प्रातिनिधिक माँगों को स्पष्ट करता है।

‘माँगपत्रक’ की सबसे पहली माँग यह है कि सरकार ‘खेतिहर मज़दूरों और ग्रामीण श्रमिकों पर राष्ट्रीय आयोग’ की सिफ़ारिशों को लागू करे। इस आयोग ने सरकार से यह सिफ़ारिश की थी कि सरकार ग्रामीण मज़दूरों के लिए ऐसे क़ानून सूत्रबद्ध करे जो ऐसे श्रमिक अधिकारों को लागू करें, जो कि संवैधानिक तौर पर उनके लिए मानवाधिकारों का दर्ज़ा रखते हैं। मिसाल के तौर पर, दो सबसे अहम माँगें हैं — आठ घण्टे के कार्यदिवस और न्यूनतम मज़दूरी के भुगतान का अधिकार। संवैधानिक तौर पर, आठ घण्टे के कार्यदिवस का अधिकार एक मानव जैसे जीवन का अधिकार है। मज़दूर वर्ग में राजनीतिक चेतना की दुनिया में प्रवेश करते ही सबसे पहले जो नारा उठाया था वह था ‘आठ घण्टे काम, आठ घण्टे आराम, आठ घण्टे मनोरंजन’। एक लम्बे संघर्ष के बाद कम-से-कम क़ानूनी तौर पर मज़दूरों ने इस हक़ को हासिल किया और क़ानूनी तौर पर इंसानी ज़िन्दगी पर अपने हक़ पर अपना दावा मज़बूत किया। यह बात दीगर है कि आज यह हक़ औद्योगिक मज़दूरों तक के लिए लागू नहीं होता, जिनके लिए इसे सुनिश्चित करने के क़ानून भी मौजूद हैं। लेकिन फिर भी संगठित होकर औद्योगिक मज़दूर इसके लिए लड़ सकते हैं। लेकिन खेतिहर और ग्रामीण मज़दूर तो इसके लिए कोई क़ानूनी लड़ाई भी नहीं लड़ सकते क्योंकि उनके लिए ऐसा कोई क़ानून फिलहाल मौजूद ही नहीं है। लिहाज़ा, ग्रामीण मज़दूरों की पहली लड़ाई तो आठ घण्टे के कार्यदिवस को बाध्यताकारी बनाने वाले क़ानून बनवाने की है। यही बात न्यूनतम मज़दूरी पर भी लागू होती है। भारत का संविधान कहता है कि अगर किसी श्रमिक को तय न्यूनतम मज़दूरी नहीं दी जाती तो यह बेगार कराने के समान ही अपराध माना जाएगा। हम सभी जानते हैं कि खेतिहर और ग्रामीण मज़दूर अधिकांश मौकों पर न्यूनतम मज़दूरी से बेहद कम मज़दूरी पर काम करने के लिए मजबूर होते हैं। कई बार उन्हें मिलने वाली मज़दूरी उन्हें ज़िन्दा रखने के लिए भी मुश्किल से ही काफ़ी होती है। खेती के सेक्टर में जारी मन्दी के समय तो उनके लिए हालात और भी भयंकर हो गये हैं। आज देश के अधिकांश कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी खेती में मन्दी के कारण मंझोले और धनी किसानों की दिक्कतों पर तो काफ़ी टेसू बहाते हैं, लेकिन उन खेतिहर और ग्रामीण मज़दूरों के बारे में कम ही शब्द ख़र्च करते हैं, जो तेज़ी और मन्दी दोनों के ही समय में ज्यादातर भुखमरी और कुपोषण में जीते रहते हैं। यह एक त्रासद स्थिति है और भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में नरोदवाद की गहरी पकड़ की ओर इशारा करता है। बहरहाल, ग्रामीण और खेतिहर मज़दूरों के लिए जो दूसरी सबसे अहम माँग है वह है न्यूनतम मज़दूरी के क़ानून की माँग। अभी ये मज़दूर पूरी तरह बाज़ार की शक्तियों और धनी और मँझोले किसानों के भरोसे होते हैं। वे पूर्णतया अरक्षित हैं और उनके हितों की रक्षा के लिए कोई भी क़ानून मौजूद नहीं है।

इन दोनों सबसे बुनियादी माँगों के बाद साप्ताहिक छुट्टी, काम करने की बेहतर परिस्थितियों और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की माँग आती है। ‘खेतिहर मज़दूरों और ग्रामीण मज़दूरों पर राष्ट्रीय आयोग’ ने वर्षों पहले इन्हीं क़ानूनों के लिए सिफ़ारिशें सरकार के सामने रखी थीं और इसलिए आज ग्रामीण मज़दूरों के लिए पहली तात्कालिक माँग इस आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करवाने की बनती है।

इसी माँग से जुड़ी दूसरी माँग यह है कि चूँकि तमाम राज्य सरकारें धनी किसानों-कुलकों-फार्मरों की शक्तिशाली लॉबी के दबाव में ऐसे किसी भी क़ानून के विरोध में हैं, इसलिए सरकार जल्द से जल्द संसद में ग्रामीण मज़दूरों सम्बन्धी व्यापक क़ानून का प्रस्ताव पेश कर उसे पास कराये और साथ ही संविधान में ऐसे आवश्यक संशोधन करे जो सभी राज्य सरकारों के लिए ग्रामीण मज़दूरों के लिए बनाये गये क़ानूनों को लागू करने को अनिवार्य बना दे और इसके उल्लंघन पर कठोर दण्ड की व्यवस्था हो। स्पष्ट है कि अगर भारत के संघीय ढाँचे की दुहाई देकर अगर ऐसे क़ानूनों को राज्य सरकारों की इच्छाशक्ति और स्वायत्तता पर छोड़ दिया गया तो इस क़ानून का भी वही हश्र होगा जो ‘फ्लोर स्तर न्यूनतम मज़दूरी’ के प्रावधान के साथ हुआ है। हर राज्य आज न्यूनतम मज़दूरी के पुराने पड़ चुके मानकों में से भी निम्नतम सम्भव स्तर की न्यूनतम मज़दूरी को लागू करना चाहता है। दिल्ली जैसे कुछ धनी राज्यों को छोड़ दिया जाय तो न्यूनतम मज़दूरी के तौर पर कई राज्यों में 100 रुपये प्रतिदिन भी नहीं मिलते! ऐसे में, ग्रामीण मज़दूरों के लिए बनाये जाने वाले भावी क़ानून को सभी राज्यों के लिए लागू करने को बाध्यताकारी बनाया जाना चाहिए, अन्यथा उसका कोई अर्थ नहीं रह जायेगा।

ये क़ानून लागू हो सकें इसके लिए इसके कार्यान्वयन के लिए सरकार को समस्त इंतज़ाम करने चाहिए, अन्यथा क़ानून बन जाने के बावजूद मज़दूरों को कुछ भी हासिल नहीं होगा। इसी से जुड़ी हुई ग्रामीण मज़दूरों की तीसरी माँग है। ‘भारत के मज़दूरों का माँगपत्रक’ यह माँग करता है ग्रामीण मज़दूरों के लिए पंजीकरण, न्यूनतम मज़दूरी, पेंशन, पी.एफ़, ई.एस.आई. जैसी सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी योजनाओं को लागू करने के लिए सरकार को श्रम विभाग में केन्द्र और राज्यों के स्तर पर अलग से सेल (प्रकोष्ठ) बनाने चाहिए, जिनका काम विशिष्ट रूप से ग्रामीण मज़दूरों और खेतिहर मज़दूरों के हक़ों के लिए बने क़ानूनों के कार्यान्वयन को देखना हो। मौजूदा श्रम विभाग के पास इतने भी संसाधन नहीं हैं कि वह औद्योगिक मज़दूरों के लिए बने क़ानूनों के कार्यान्वयन के लिए नियमित जाँच और प्रेक्षण कर सके। ऐसे में, निश्चित तौर पर ग्रामीण मज़दूरों के लिए बनने वाले क़ानूनों के कार्यान्यवन के लिए श्रम विभाग को अलग से विशिष्ट कर्मचारी और अधिकारियों की आवश्यकता होगी। इसलिए अलग से विशेष प्रकोष्ठ बनाये जाने चाहिए, जिनकी विशिष्ट ज़िम्मेदारी ही यही हो। इसके अतिरिक्त, ये प्रकोष्ठ अपने कार्य को सुचारू तरीके से करते हुए ग्रामीण मज़दूरों के लिए बने क़ानूनों के कार्यान्वयन के काम को कर रहे हैं, इसकी निगरानी के लिए और साथ ही किसी विवाद की सूरत में मधयस्थता और वार्ता के जरिये उसे सुलटाने के लिए सरकार को अलग से विभाग बनाना चाहिए। इन सारे इंतज़ामों के बिना, अगर ग्रामीण मज़दूरों के हक़ों को सुनिश्चित करने वाला कोई क़ानून बन भी जाये तो वह लागू नहीं होगा, और मज़दूरों को कुछ भी हासिल नहीं होगा।

चौथी माँग इसी माँग से जुड़ी हुई है और वह यह है कि ग्रामीण मज़दूरों के अधिकार उन्हें मिलें, यह सुनिश्चित करने के लिए सरकार को जिले से लेकर ब्लॉक स्तर तक इंस्पेक्टोरेट का गठन करना चाहिए। इस इंस्पेक्टोरेट में ग्रामीण मज़दूरों की यूनियन/संगठन के प्रतिनिधियों, भूस्वामियों, ग्रामीण उद्योगों के प्रतिनिधियों के अलावा नागरिक व जनवादी अधिकारों लिए काम करने वाले कार्यकर्ता भी शामिल हों। ये इंस्पेक्टोरेट श्रम क़ानूनों के कार्यान्वयन कि नियमित तौर पर निगरानी करेंगे और नियमित तौर पर रिपोर्ट देंगे। यदि कहीं कोई उल्लंघन हो रहा होगा तो उप श्रमायुक्त के स्तर कोई अधिकारी इसकी जाँच करेगा और दोषियों पर कार्रवाई करेगा। ऐसी व्यवस्था लागू करने से क़ानून के कार्यान्वयन की पूरी प्रक्रिया सरकार और उसकी नौकरशाही का एकाधिकार नहीं रह जाएगी, बल्कि उसका जनवादीकरण हो जाएगा और जनता की उस पर निगरानी स्थापित हो जाएगी। ऐसे में, सरकारी एजेंसियों द्वारा जवाबदेही को सुनिश्चित किया जा सकेगा और अधिकारियों की निरंकुशता को कम किया जा सकेगा। यह पूरे सरकारी श्रम विभाग के जनवादीकरण से ही जुड़ी हुई माँग है।

पाँचवीं माँग ग्रामीण मज़दूरों की सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी हुई है। हम जानते हैं कि आजकल सरकार उन तमाम जिम्मेदारियों को हाथ में लेती दिखलायी पड़ रही है, जो पहले मालिक वर्ग की हुआ करती थीं। मिसाल के तौर पर, हाल में लाया गया सामाजिक सुरक्षा क़ानून असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों के लिए कई योजनाएँ प्रस्तावित करता है। इन सभी योजनाओं का ढंग से लागू होना तो निश्चित नहीं है लेकिन एक बात निश्चित है कि इन योजनाओं के तहत आबण्टित राशियों पर तमाम अपफसर और उनके ललुए खूब मलाई काटेंगे! ऊपर से यह पूरी रक़म मालिकों के वर्ग से नहीं वसूली जाती। यह रक़म भारत सरकार के राजस्व के ही एक हिस्से के तौर पर निकाली जाती है। भारत सरकार के राजस्व का करीब 97 फीसदी अप्रत्यक्ष करों से आता है और बताने की जरूरत नहीं है कि यह अप्रत्यक्ष कर मुख्य तौर पर देश की 80 फीसदी मेहनतकश जनता की जेब से आता है। यानी कि मज़दूरों के लिए सामाजिक सुरक्षा के नाम पर पहले उनकी ही जेब से हज़ारों करोड़ रुपये वसूले जाते हैं और फिर उस पैसे को भी भ्रष्ट नेताशाही और नौकरशाही खा जाती है। और ऊपर से पूँजीपति वर्ग की जेब से एक फूटी कौड़ी तक नहीं जाती है! इस तरह से सरकार सामाजिक सुरक्षा के नाम पर देश के मेहनतकशों की जेब में पड़ी आखिरी चवन्नी को भी हड़पकर पूँजीपतियों, नेताओं और नौकरशाहों के हवाले कर देना चाहती है। इसीलिए ‘भारत के मज़दूरों का माँगपत्रक’ यह माँग करता है कि ग्रामीण मज़दूरों की सामाजिक सुरक्षा के लिए एक ‘ग्रामीण मज़दूर कल्याण कोष’ बनाया जाय लेकिन इसके लिए धनराशि को जुटाने के लिए गाँव के भूस्वामियों पर प्रति एकड़ ज़मीन या प्रति कुन्तल उत्पादन के आधार पर सेस (कर) या विशेष लेवी लगाया जाय। साथ ही, ग्रामीण कारखानों के मालिकों और ठेकेदारों से भी योगदान लिया जाय। इसके अलावा एक हिस्सा सरकार के राजस्व से आये और ग्रामीण मज़दूरों से केवल प्रतीकात्मक राशि ही ली जाय। केवल इस सूरत में ही किसी सामाजिक सुरक्षा योजना का कोई अर्थ रह जाता है। अन्यथा, वह जनता के साथ एक बहुत बड़ा धोखा होती है। जैसे कि हाल में बनी ‘कृषि श्रमिक सामाजिक सुरक्षा योजना’ जो इसके लिए आवश्यक धन न जुटाये जाने के कारण कभी लागू ही नहीं हो सकी और एक ‘कागज़ी शिगूफ़ा बन कर रह गयी’। इसके लिए न तो पर्याप्त धन जुट सका और न ही कृषि मज़दूरों की सही पहचान करके उनके पंजीकरण की कोई व्यवस्था की जा सकी। इसलिए ‘माँगपत्रक’ यह भी माँग करता है कि इस योजना को लागू करने के लिए धन संग्रह की स्पष्ट जिम्मेदारी और जवाबदेही तय हो। दूसरी बात, इसे लागू करने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण कल्याण बोर्ड को राज्य से लेकर ब्लॉक स्तर तक स्थापित किया जाय और इसके दायरे में सभी ग्रामीण मज़दूरों को लाया जाय।

इन प्रमुख पाँच माँगों के अतिरिक्त, ‘माँगपत्रक’ यह भी माँग करता है कि सभी ग्रामीण मज़दूरों को पी.एफ़. व ई.एस.आई. योजना के तहत लाया जाय; ग्रामीण मज़दूरों के लिए यूनियन बनाने और पंजीकरण को सहज और सरल बनाने के लिए उचित प्रबन्ध किये जाएँ और ज़रूरत पड़े तो ट्रेड यूनियन क़ानून में उसके लिए बदलाव किये जाएँ; और अन्त में, ‘माँगपत्रक’ यह माँग भी करता है कि अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन के 2001 में हुए सम्मेलन के प्रावधानों के अनुसार भारत सरकार ऐसे क़ानूनों को पास कराये जो ग्रामीण और खेतिहर मज़दूरों को बेहतर कार्य स्थितियाँ मुहैया कराये और उनके अच्छे स्वास्थ्य को सुनिश्चित करे।

लेकिन पहली पाँच माँगें आज ग्रामीण मज़दूरों की सबसे बुनियादी माँगें हैं। इन पर संघर्ष के लिए ग्रामीण मज़दूरों की अपनी यूनियन बनानी होगी, जिसकी बात लेनिन ने भी की थी। ऐसी यूनियन बनाने में शहर के औद्योगिक मज़दूरों को अपने ग्रामीण साथियों की मदद करनी होगी। उन्हें यूनियन संगठित करने और उसके तहत क़ानूनी लड़ाइयों को संगठित करने का अनुभव होता है। उनके संगठित और गोलबन्द होने का यह अनुभव ग्रामीण मज़दूर वर्ग के काम आ सकता है और आज क्रान्तिकारियों को अपनी औद्योगिक मज़दूर यूनियनों में से मँजे हुए संगठनकर्ताओं और यूनियन कार्यकर्ताओं को गाँवों में ऐसी यूनियन खड़ी करने के लिए भेजना चाहिए। लेनिन का यही सन्देश था और यह आज भी प्रासंगिक है।

 

मज़दूर बिगुलअप्रैल 2012

 


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments