शिवकाशी की घटना महज़ हादसा नहीं, मुनाफे के लिए की गयी हत्या है!!
पटाखा फैक्ट्री में आग से 54 मज़दूरों की मौत

अजय

5 सितम्बर को तमिलनाडु के शिवकाशी में पटाखा फैक्टरी में लगी आग से 54 मज़दूरों की मौत हो गई और 50 मज़दूर ग़म्भीर रूप से घायल हैं। पटाखे के केमिकल की वज़ह से आग फैक्टरी के 48 शेडों में इतनी तेज़ी से फैली कि मज़दूर फैक्टरी के भीतर ही फँस गये। जो मज़दूर किसी तरह बचकर बाहर आ पाये उन्होंने कहा कि उस समय फैक्टरी में करीब 300 मज़दूर काम रहे थे जिसमें से केवल सौ ही मज़दूरों की जानकारी मिली है। घटना के बाद आस-पास के मज़दूर जब फैक्टरी में अपने मज़दूर भाइयों की जान बचाने पहुँचे तो पुलिस उनसे मदद लेने की बजाय उनको खदेड़ती नज़र आयी। पुलिस-प्रशासन घटना में मज़दूरों की संख्या को कम से कम दिखाने के प्रयास में लगा हुआ है और हर औद्योगिक दुर्घटना की तरह यहाँ भी फैक्टरी मालिक फरार हैं।

हमेशा की तरह मीडिया शिवकाशी की घटना को महज़ एक हादसा बता रहा है। मगर यह वही मीडिया है जो मारूती सुज़ुकी में हिंसा की घटना में बिना जाँच के ही सारे मज़दूरों को ”आंतकी” और ”हत्यारा” बता रहा था। लेकिन जहाँ मालिकों के लालच के कारण पचास से ज्यादा मज़दूर मौत के मुँह में धकेल दिये गये हैं तो उसे हादसा बताया जा रहा है। फरार मालिक अगर पकड़ में आ भी गया तो ज्यादा से ज्यादा उस पर लापरवाही का मुक़दमा दर्ज़ कर ज़ुर्माना लगा दिया जायेगा। दूसरी तरफ उन 54 मज़दूरों के बच्चे अब दर-दर भटकने और भूख से दम तोड़ने को मज़बूर होंगे। शिवकाशी के मज़दूरों के अमानवीय हालात किसी से छिपे नहीं हैं। यहाँ करीब एक लाख मज़दूर पटाखा और माचिस कारख़ानों में बेहद ख़तरनाक हालात में काम करते हैं। इनमें हज़ारों छोटे-छोटे बच्चे भी हैं। न तो उनकी सुरक्षा का कोई इन्तज़ाम होता है और न ही दुर्घटना होने पर बचाव का। जब हादसा हो जाता है तो मुनाफे की हवस में अन्धे मालिक इन मज़दूरों को कारख़ानों के भीतर जलकर मरने के लिए छोड़कर भाग जाते हैं, और प्रशासन और पुलिस मृतकों को गायब करने और उनकी संख्या कम दिखाने में लग जाते हैं। सरकार घड़ियाली ऑंसू बहाते हुए कुछ मुआवज़ा देने और जाँच बैठाने की घोषणा करके अपना काम ख़त्म कर लेती है।

शिवकाशी की घटना कोई अकेली घटना नहीं है बल्कि रोज़ाना हर शहर के कारख़ानों में मज़दूर मुनाफे की बलि चढ़ रहे हैं। इसकी मिसाल पिछले साल दिल्ली की घटना है जब पीरागढ़ी और तुगलकाबाद में दो कारख़ानों में आग लगने से सौ से ज्यादा मज़दूरों ने अपनी ज़िन्दगी गँवा दी लेकिन क़रीब दो साल बीतने के बाद भी आरोपियों को सज़ा नहीं मिली है। बादली के छोटे से औद्योगिक क्षेत्र में भी हर महीने कोई न कोई मज़दूर मारा जाता है और मुआवज़ा तक नहीं मिलता। कहने को तो देश में 160 श्रम क़ानून मौजूद हैं लेकिन सभी मज़दूर अपनी ज़िन्दगी से जानते हैं कि सारे क़ानून और श्रम विभाग मालिकों की जेब में रहते हैं। शिवकाशी का श्रम विभाग ख़ुद ये मान रहा है कि न तो वहाँ आग से बचने के सुरक्षा उपकरण थे और न ही फैक्टरी में 300 मज़दूरों के काम करने की पर्याप्त जगह थी। तो क्या श्रम विभाग इतने समय से सो रहा था? हर साल यहाँ होने वाली दुर्घटनाओं में अब तक सैकड़ों मज़दूरों की मौत हो चुकी है लेकिन आज तक न तो किसी मालिक को सज़ा हुई और न ही सुरक्षा के इन्तज़ाम किये गये हैं। साफ़ है कि श्रम विभाग सिर्फ अपना दामन बचाने की कोशिश कर रहा है। शिवकाशी में पटाखों के 450 कारखानों में 40,000 से ज्यादा मज़दूर काम करते हैं जिनको बुनियादी हक़ भी हासिल नहीं हैं।

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शिवकाशी और आसपास के विरूद्ध नगर, सत्तूर क्षेत्र में करीब 1500 इकाइयों में जहाँ लाखों मज़दूर बेहद ख़राब और असुरक्षित स्थितियों में काम करते हैं, इनमें काफी बड़ी संख्या बाल मज़दूरों की भी है। इस अन्धेरगर्दी में सिर्फ स्थानीय प्रशासन और मालिकों की मिलीभगत नहीं हैं बल्कि इस ख़तरनाक पटाखा उद्योग की अमानवीय स्थितियों को राज्य और केन्द्र सरकार तक जानती है लेकिन पूँजी के ये चाकर मुनाफे की हवस में अपने हिस्सा पाने के लिए लाखों लोगों की जान गिरवी रख देते हैं। वैसे पटाखे उद्योग को 90 फीसदी उत्पादन शिवकाशी से होता है और हर बार काम की तेजी के समय यहाँ ये हादसे आम हो जाते हैं। पिछली कुछ रिपोर्ट के अनुसार यहाँ 12 वर्षों में 88 दुर्घटनाओं में 237 लोगों की जान गई हैं।

साथियो! रोज़-रोज़ होने वाली मौतों पर हम चुप रहते हैं। यह सोचकर कि ये तो किसी दूसरे शहर में हुई है, या फिर किसी दूसरे कारख़ाने में हुई है, इसमें हमारा क्या सरोकार है! मगर ये मत भूलो कि पूँजीवादी मुनाफाखोरी का यह ख़ूनी खेल जब तक चलता रहेगा तब तक हर मज़दूर मौत के साये में काम करने को मजबूर है। अगर हम अपने मज़दूर साथियों की इन बेरहम हत्याओं पर इस पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ नफरत से भर नहीं उठते, बग़ावत की आग से दहकते नहीं, तो हमारी आत्माएँ मर चुकी हैं! तो हम भी ज़िम्मेदार हैं अपने मज़दूर भाइयों की मौत के लिए — क्योंकि ज़ुर्म को देखकर जो चुप रहता है वह भी मुज़रिम होता है!

साथियो! शिवकाशी के हमारे बेगुनाह मारे गये मज़दूर साथी हमसे पूछ रहे हैं: कब तक हम यूँ ही तिल-तिलकर मरने को जीना समझते रहेंगे? कब मिलेगा उन्हें इंसाफ़? कब होगा इस हत्यारी व्यवस्था का ख़ात्मा? क्या हम अपने बच्चों को यही ग़ुलामों-सी ज़िन्दगी देकर जायेंगे? अब यह समझ लेना होगा कि इस आदमख़ोर व्यवस्था की मौत ही हमारे जीने की शर्त है। एकजुट होने और लड़ने में हम जितनी ही देर करेंगे, हमारे चारों ओर मौत का शिकंजा उतना ही कसता जायेगा।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्त-सितम्बर 2012

 


 

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