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अस्ति का मज़दूर आन्दोलन ऑटो सेक्टर मज़दूरों के संघर्ष की एक और कड़ी!

अस्ति में मज़दूरों पर अन्याय, शोषण, अत्याचार की यह अकेली घटना नहीं है। ऑटो सेक्टर की यह पूरी बेल्ट में इस तरह मज़दूरों की हड्डियाँ का चूरा बनाकर कम्पनियाँ मुनाफ़ा कूट रही हैं। और इसके विरुद्ध मज़दूरों की आवाज़ अलग-अलग समय पर अलग-अलग फ़ैक्टरी से उठती ही रही हैं। लेकिन फ़ैक्टरी-कारख़ानों की चौहद्दी में कैद होकर ये आन्दोलन टूट और बिखराव का शिकार हो जाता है। इसलिए अस्ति के मज़दूरों को अपनी फ़ौरी लड़ाई लड़ते हुए भी अपनी दूरगामी लड़ाई के लिए भी तैयार रहना होगा। क्योंकि आज पूरे गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल में ठेका, कैजुअल, ट्रेनी मज़दूर बेहद शोषण और अमानवीय परिस्थितियों में काम करने के लिए बेबस है। जिन कम्पनियों में यूनियन बनी है, उसका फ़ायदा भी सिर्फ़ स्थायी मज़दूरों को मिलता है। जबकि हम सभी जानते हैं कि मोदी सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों में बदलाव के बाद स्थायी कर्मचारियों के भी हक़-अधिकारों पर हमला होना तय है। इसलिए स्थायी, कैजुअल और ठेका मज़दूरों को अपनी ठोस एकता कायम करनी होगी, साथ ही पूरे ऑटो सेक्टर के आधार पर गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल के मज़दूरों की “ऑटो मज़दूर यूनियन” का निर्माण करना होगा। ज़ाहिरा तौर ऐसी ऑटो सेक्टर मज़़दूर यूनियन मज़दूर आन्दोलन से ग़द्दारी कर चुकी केन्द्रीय ट्रेड से स्वतन्त्र होनी चाहिए।

क्या भगवा और नक़ली लाल का गठजोड़ मज़दूरों आन्दोलन को आगे ले जा सकता है?

आज सही क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए पहले क़दम से मज़दूर वर्ग की ग़द्दार इन केन्‍द्रीय ट्रेड यूनियनों के चरित्र को मज़दूरों के सामने पर्दाफाश करना होगा। साथ ही आज के समय में नये क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए मज़दूरों की पूरे सेक्टर (जैसे ऑटो सेक्टर, टेक्सटाइल सेक्टर) की यूनियन और इलाक़ाई यूनियन का निर्माण करना होगा। क्योंकि मज़दूर से छीने जा रहे श्रम-क़ानूनों की रक्षा भी जुझारू मज़दूर आन्दोलन ही कर सकता है।

मारुति सुजुकी मज़दूरों की “जनजागरण पदयात्रा” जन्तर-मन्तर पर रस्मी कार्यक्रम के साथ समाप्त हुई

साफ है कि चुनावी मदारियों के वादों से मारुति मज़दूरों को कुछ हासिल नहीं होने वाला है लेकिन इस घटना ने एम.एस.डब्ल्यू.यू. के नेतृत्व के अवसरवादी चरित्र को फिर सामने ला दिया, जिनके मंच पर मज़दूरों को बिना जाँच-सबूत हत्या का दोषी ठहराने वाले योगेन्द्र यादव को कोई नहीं रोकता लेकिन मज़दूरों का पक्ष रखने वाले पत्रकार-समर्थक को रोक दिया जाता है। शायद मारुति मज़दूरों का नेतृत्व आज भी मज़दूरों की ताक़त से ज्यादा चुनावी दलालों से उम्मीद टिकाये बैठे है। तभी मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन के मंच पर सीपीआई, सीपीएम से लेकर आप के नेता भी मज़दूरों को बहकाने में सफल हो जाते हैं।

जनतंत्र नहीं धनतंत्र है यह

‘‘दुनिया के सबसे बड़े जनतन्त्र’’ की सुरक्षा का भारी बोझ जनता पर पड़ता है। इसका छोटा सा उदाहरण मन्त्रियों की सुरक्षा के बेहिसाब खर्च में देखा जा सकता हैं जो अनुमानतः 130 करोड़ सालाना बैठता है। इसमें जेड प्लस श्रेणी की सुरक्षा में 36, जेड श्रेणी की सुरक्षा में 22, वाई श्रेणी की सुरक्षा में 11 और एक्स श्रेणी की सुरक्षा में दो सुरक्षाकर्मी लगाये जाते हैं। सुरक्षा के इस भारी तामझाम के चलते गाड़ियों और पेट्रोल का खर्च काफी बढ़ जाता हैं। केन्द्र और राज्यों के मन्त्री प्रायः 50-50 कारों तक के काफिले के साथ सफर करते हुए देखे जा सकते हैं। जयललिता जैसी सरीखे नेता तो सौ कारों के काफिले के साथ चलती हैं। आज सड़कों पर दौड़ने वाली कारों में 33 प्रतिशत सरकारी सम्पति हैं जो आम लोगों की गाढी कमाई से धुआँ उड़ाती हैं। पिछले साल सभी राजनीतिक दलों के दो सौ से ज्यादा सांसदों ने बाकायदा हस्ताक्षर अभियान चलाकर लालबत्ती वाली गाड़ी की माँग की। साफ है कि कारों का ये काफिला व सुरक्षा-कवच जनता में भय पैदा करने के साथ ही साथ उनको राजाओ-महाराजाओं के जीवन का अहसास देता है।

चुनावी मौसम में याद आया कि मज़दूर भी इंसान हैं

इस बार चुनावी दंगल में भाजपा मजदूर आबादी को भी अपने झाँसे में लेने के लिए तीन-तिकड़में कर रही है। अभी 10 जुलाई को दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष विजय गोयल ने राजधानी के असंगठित मजदूरों के लिए असंगठित मजदूर मोर्चा का गठन किया है जिसमें रेहड़ी-रिक्शा चालक, ठेका मजदूर, सेल्ममैन, सिलाई मज़दूर से लेकर भवन निर्माण पेशे के मज़दूर शामिल है जो भयंकर शोषण और नारकीय परिस्थितियों में काम करते है लेकिन सवाल उठता है कि इन चुनावी मदारियों को हमेशा चुनाव से चन्द दिनों पहले ही मेहनतकश आबादी की बदहाली क्यों नज़र आती है। दूसरे, भाजपा जिन मज़दूरों का शोषण रोकने की बात कर रही है उनका शोषण करने वाले कौन हैं?

शिवकाशी की घटना महज़ हादसा नहीं, मुनाफे के लिए की गयी हत्या है!!

साथियो! रोज़-रोज़ होने वाली मौतों पर हम चुप रहते हैं। यह सोचकर कि ये तो किसी दूसरे शहर में हुई है, या फिर किसी दूसरे कारख़ाने में हुई है, इसमें हमारा क्या सरोकार है! मगर ये मत भूलो कि पूँजीवादी मुनाफाखोरी का यह ख़ूनी खेल जब तक चलता रहेगा तब तक हर मज़दूर मौत के साये में काम करने को मजबूर है। अगर हम अपने मज़दूर साथियों की इन बेरहम हत्याओं पर इस पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ नफरत से भर नहीं उठते, बग़ावत की आग से दहकते नहीं, तो हमारी आत्माएँ मर चुकी हैं! तो हम भी ज़िम्मेदार हैं अपने मज़दूर भाइयों की मौत के लिए — क्योंकि ज़ुर्म को देखकर जो चुप रहता है वह भी मुज़रिम होता है!

गरीब देश के अमीर भगवान

मन्दिर आधुनिक उद्योग बन चुके हैं क्योंकि इन मन्दिरों में आने वाला चढ़ावा भारत के बजट के कुल योजना व्यय के बराबर है। अकेले 10 सबसे ज्यादा धनी मन्दिरों की सम्पत्ति देश के मध्यम दर्जे के 500 उद्योगपतियों से ज्यादा है। केवल सोने की बात की जाये तो 100 प्रमुख मन्दिरों के पास करीब 3600 अरब रुपये का सोना पड़ा है। शायद इतना सोना रिज़र्व बैंक ऑफ इण्डिया के पास भी न हो। मन्दिरों के इस फलते-फूलते व्यापार पर मन्दी का भी कोई असर नहीं पड़ता है! उल्टा आज जब भारतीय अर्थव्यस्था संकट के दलदल में फँसती जा रही है तो मन्दिरों के सालाना चढ़ावे की रक़म लगातार बढ़ती जा रही है। ज़ाहिरा तौर पर इसके पीछे मीडिया और प्रचार तन्त्र का भी योगदान है जो दूर-दराज़ तक से ”श्रद्धालुओं” को खींच लाने के लिए विशेष यात्रा पैकेज देते रहते हैं। जहाँ देश की 80 फीसदी जनता को शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, पानी जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी मयस्सर नहीं हैं वहीं मन्दिरों के ट्रस्ट और बाबाओं की कम्पनियाँ अकूत सम्पत्ति पर कुण्डली मारे बैठी हैं। सिर्फ कुछ प्रमुख मन्दिरों की कमाई देखें तो इस ग़रीब देश के अमीर भगवानों की लीला का खुलासा हो जायेगा।

पेट्रोल मूल्य वृद्धि लोगों की जेब पर सरकारी डाकेज़नी

यह बजट घाटा इसलिए नहीं पैदा हुआ कि सरकार भारत के मेहनतकशों और मज़दूरों पर ज्यादा ख़र्च कर रही है। यह बजट घाटा इसलिए पैदा हुआ है क्योंकि सरकार बैंकों को अरबों रुपये के बेलआउट पैकेज देती है, कारपोरेट घरानों के हज़ारों करोड़ के कर्जों को माफ करती है और उन्हें टैक्सों में भारी छूट देती है, धनी किसानों को ऋण माफी देती है और देश के धनिक वर्ग पर करों के बोझ को घटाती है। इसके अलावा, ख़ुद सरकार और उसके मंत्रियों-आला अफसरों के भारी तामझाम पर हज़ारों करोड़ रुपये की फिज़ूलखर्ची होती है। ज़ाहिर है, अमीरों को सरकारी ख़ज़ाने से ये सारे तोहफे देने के बाद जब ख़ज़ाना ख़ाली होने लगता है, तो उसकी भरपाई ग़रीब मेहनतकश जनता को लूटकर की जाती है। पेट्रोल के दामों में वृद्धि और उस पर वसूल किये जाने वाले भारी टैक्स के पीछे भी यही कारण है।