दुनिया के मज़दूरों के क्रान्तिकारी नेता और शिक्षक जोसेफ़ स्तालिन की 55वीं पुण्यतिथि (6 मार्च) के अवसर पर
द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर को दरअसल किसने हराया?
स्तालिनग्राद की गलियों में लड़ने वाले लाल योद्धाओं ने!
(पहली किस्‍त)

Stalingrad cityÊ harbour in Summer 1942.दुनिया का पूँजीवादी मीडिया एक ओर नये-नये मनगढ़न्त किस्सों का प्रचार कर मज़दूर वर्ग के महान नेताओं के चरित्र हनन में जुटा रहता है वहीं दूसरी ओर नये-नये झूठ गढ़कर उसके महान संघर्षों के इतिहास की सच्चाइयों को भी उसके नीचे दबा देने की कवायदें भी जारी रहती हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बारे में भी तरह-तरह के झूठ का प्रचार लगातार जारी रहता है। इतिहास की किताबों में भी यह सच्चाई नहीं उभर पाती कि मानवता के दुश्मन, नाजीवादी जल्लाद हिटलर को दरअसल किसने हराया?

अमेरिकी और ब्रिटिश मीडिया ख़ास तौर पर इस झूठ का बार-बार प्रचार करता है कि उनकी फ़ौजों ने हिटलर को मात दी। इस झूठ को सच साबित करने के लिए वे उस तथाकथित ‘कयामत के दिन’ (डी-डे) 6 जून 1944 का बार-बार प्रचार करते हैं जब एक लाख पचास हज़ार की तादाद में ब्रिटिश-अमेरिकी सेनाएँ हिटलर की सेनाओं से लड़ने के लिए नारमैंडी (फ्रांस) में उतरी थीं। जोर-शोर से प्रचार यह किया जाता है कि इसी आक्रमण से यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध का पासा पलट गया था। जबकि सच्चाई यह है कि उस युद्ध का मुख्य मोड़बिन्दु तो वोल्गा नदी के किनारे बसे हुए एक रूसी शहर से आया था। 1942 में स्तालिनग्राद शहर की गलियों में 80 दिन और 80 रात जो लड़ाई चली, तत्कालीन सोवियत संघ के लाल सैनिकों और मज़दूरों ने परम्परागत देशी हथियारों से आधुनिकतम मानी जाने वाली जर्मन नाजी सेना का जिस तरह मुकाब़ला किया, वह विश्वयुद्ध का ऐतिहासिक मोड़बिन्दु था। यह कहानी विश्व इतिहास की एक महाकाव्यात्मक संघर्ष गाथा है जिसे दुनिया की मेहनतकश जनता की यादों से मिटा देने की कोशिशें दिन-रात चलती रहती हैं।

आज विश्व सर्वहारा क्रान्ति के इस नये चक्र में, जबकि नयी क्रान्तियों की तैयारियों का काल लम्बा खिंचता जा रहा है, यह बेहद ज़रूरी है कि नयी पीढ़ी के मेहनतकशों को अतीत के महान संघर्षों की विरासत और उपलब्धियों से लगातार परिचित कराते रहा जाये। यह नये सर्वहरा पुनर्जागरण और प्रबोधन का एक ज़रूरी कार्यभार है। अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक और नेता स्तालिन की पचपनवीं पुण्यतिथि के अवसर पर हम बिगुल के पाठकों के लिए दो अंकों में समाप्त होने वाली यह विशेष सामग्री दे रहे हैं जिससे पाठक यह सच्चाई जान सकें कि हिटलर को दरअसल किसने हराया!-सम्पादक

पहाड़ की चोटी पर बैठकर शेरों की लड़ाई देखना

 

22 जून, 1941 को एडोल्फ़ हिटलर की नाजी जर्मनी ने ऐतिहासिक रूप से एक सबसे बड़ी सेना के साथ सोवियत संघ पर आक्रमण कर दिया। हिटलर को विश्वास था कि वह सोवियत संघ को तीन महीनों में परास्त कर देगा। दुनिया के अधिकतर सैन्य और राजनीतिक विशेषज्ञों की भी यही राय थी।

सोवियत संघ पर हमला करने वाली जर्मन सेनाएं दुनिया की सबसे आधुनिक सैनिक शक्ति थीं। नाजियों की आक्रमणकारी शक्ति तीस लाख फ़ौजियों, 3,300 टैंकों और 7,000 बड़ी तोपों की थी, जिनकी मदद में 2000 विमान थे। जर्मन साम्राज्यवादी सेनाओं ने मात्र दो ही वर्षों में एक-एक करके यूरोप के कई देश-चेकोस्लोवाकिया, पोलैण्ड, फ्रांस, बेल्जियम, हालैण्ड, डेनमार्क और नार्वे-दनादन जीत लिए थे।

Stalin beats up Hitler1941 तक, सोवियत संघ को, साम्राज्यवादियों द्वारा किये गये पिछले आक्रमण के बाद से, शान्ति के मात्र बीस वर्ष ही मिल पाये थे। कम्युनिस्ट पार्टी और जोसेफ़ स्तालिन के नेतृत्व के अन्तर्गत ये दो दशक भी वर्ग-संघर्ष और समाजवादी निर्माण के कठिन वर्ष रहे थे। लेकिन, 1941 तक, तत्कालीन सोवियत संघ महत्वपूर्ण समस्याओं के बावजूद एक सच्चा क्रान्तिकारी और समाजवादी देश बन चुका था। सोवियत क्रान्ति ने मजदूर वर्ग की सत्ता स्थापित कर दी थी, सम्पत्तिवान वर्गों के वर्ग-विशेषाधिकारों और ऐश्वर्य को समाप्त कर दिया था, तथा एक तरफ़ जहां उद्योग के सम्पूर्ण ढाचे और स्वामित्व को रूपान्तरित कर दिया था, वहीं दूसरी तरफ़, विश्व की प्रथम योजनाबद्ध समाजवादी अर्थव्यवस्था और सामूहिक खेती को भी अंजाम दे दिया था। इस दौरान वर्ग-संघर्ष अत्यधिक कठोर था, जो कभी-कभी स्वयं सोवियत संघ के भीतर ही गृहयुद्ध जैसा उग्र हो उठता था।

यद्यपि सोवियत सेना विशाल थी, फ़िर भी उतनी सुसज्जित नहीं थी जितनी कि जर्मन सेना। सोवियत सेना के ऊँचे अधिकरियों की एक भारी संख्या, 1930 के दशक के अन्त के तीखे राजनीतिक विवादों के चलते, निकाल बाहर कर दी गयी थी और उनके स्थान पर अधिकारियों की एक ऐसी पीढ़ी नियुक्त की गयी थी जो अभी नयी थी, बिना जाँची-परखी थी।

संक्षेप में कहें तो, पश्चिमी विशेषज्ञों को यह विश्वास था कि स्तालिन का सोवियत संघ एक गम्भीर रूप से विभाजित देश था जिसकी सेना बुरी तरह से कमजोर हो चुकी थी। उन्हें यह आशा ही नहीं थी कि सोवियत संघ जर्मनी को हरा सकेगा!

वस्तुतः अमेरिकी और ब्रिटिश साम्राज्यवादी तो यह उम्मीद लगाये बैठे थे कि सोवियत संघ पूर्वी मोर्चे पर जर्मन सेना से टक्कर होते ही खत्म हो जायेगा। और जब हिटलर की सेना ने सोवियत संघ पर धावा बोला तो उन्होंने यूरोप में एक दूसरा मोर्चा खोलने में देरी कर दी। अमेरिका और ब्रिटेन की इस योजना को माओ ने कहा कि यह ‘‘पहाड़ की चोटी पर बैठकर नीचे शेरों की लड़ाई देखना’’ था।

हिटलर और पश्चिमी शक्तियों-दोनों ने ही सोवियत समाजवाद की सामर्थ्य को बेहद कम करके आंका था। अकूत आत्म-बलिदान के साथ, सोवियत जनता ने नाजी हमलावरों का मुकाबला करने के लिए एक महान न्यायोचित युद्ध संगठित किया। नदी के किनारे बसे स्तालिनग्राद नामक एक औद्योगिक नगर में एडोल्फ़ हिटलर की तथाकथित ‘‘अपराजेय’’ सेनाएं दृढ़निश्चयी लाल योद्धाओं से सीधी जा भिड़ी थीं।

आज, जब दुनिया के शासक यह दावा करते हैं कि ‘‘कम्युनिज़्म मर चुका है’’, और कि ‘‘समाजवाद के सारे प्रयास किल हो चुके है’’-तब यह बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि स्तालिनग्राद के 1942 के सबकों को याद किया जाये-जहाँ 80 दिन और 80 रात घर-घर में चली लड़ाई ने समाजवाद की श्रेष्ठता और एक सशस्त्र क्रान्तिकारी जनता की शक्ति को प्रमाणित कर दिया था।

तड़ित युद्ध का साम्राज्यवादी तर्क

सोवियत संघ पर जर्मनी का हमला ब्लिट्ज़क्रीग की रणनीति पर आधारित था, जिसका अर्थ है ‘‘तड़ित युद्ध-बिजली की कड़क के समान तेज़ रफ्तार से धावा बोलना’’। ब्लिट्ज़क्रीग का उद्देश्य त्वरित विजय प्राप्त कर लेना था जिससे कि जर्मन जनता के बीच अन्तर्द्वन्द्व तीखे न हो पायें। आक्रमण का उद्देश्य था मज़दूर वर्ग के समाजवादी शासन को उखाड़ फ़ेंकना, सोवियत जनता को गुलाम बनाना, तथा विश्व क्रान्ति के इस सबसे महत्वपूर्ण आधार-क्षेत्र को नष्ट कर देना। इन्हीं प्रतिक्रियावादी उद्देश्यों और रणनीतियों ने नाजी सेनाओं को युद्ध में अपनी विजय के लिए अत्यधिक बर्बर तौर तरीके अख्तियार करने के लिए प्रेरित किया।

आक्रमण के ठीक पहले, हिटलर ने जर्मनी के शीर्षस्थ जनरलों से कहा: ‘‘रूस के विरुद्ध लड़ाई ऐसी होगी जो एक वीरोचित शैली में संचालित नहीं की जा सकेगी। यह विचारधाराओं और जातीय भिन्नताओं का संघर्ष होगा और इसे अभूतपूर्व निर्दयता और बेहिचक बर्बरता के साथ संचालित करना होगा…। कमिसार (सोवियत लाल सेना के सक्रिय कम्युनिस्ट कार्यकर्ता-सं-) ऐसी विचारधाराओं के वाहक हैं जो (नाजीवाद के) सीधे विराधी हैं। अतः कमिसारों का सफ़ाया कर देना होगा। अन्तरराष्ट्रीय कानून तोड़ने के दोषी जर्मन सैनिकों को …माफ़ कर दिया जायेगा।’’

नाजियों ने पूरे सोवियत संघ के सभी शहरों को जला डाला और कत्ल कर डाले गये निवासियों की लाशों को बिना दफ़नाये ही छोड़ दिया। बन्दी बनाये गये सत्तावन लाख सोवियत सैनिकों में से तैंतीस लाख तो भूख, ठंड और प्राणदण्ड के कारण जर्मन जेल शिविरों में ही मर गये। और लगभग तीस लाख सोवियत सैनिकों और असैनिक नागरिकों को जहाजों पर लादकर गुलाम-मज़दूरों के रूप में जर्मनी ले जाया गया।

जनयोद्धाओं ने नाजी रणनीति का प्रतिरोध करना सीखा

आरम्भ में, स्तालिन की लाल सेनाएँ सोवियत संघ के अधिकांश भागों में शिकस्त खाती हुई पीछे हटती रहीं। वे अपने पीछे उदास भाव से अपनी समाजवादी अर्थव्यवस्था के खेतों और रेलमार्गों को नष्ट करती जातीं ताकि हमलावर सेना को कुछ भी मयस्सर न हो सके।

पीछे हटती हुई लाल सेना ने ‘‘अपने ढंग़’ की लड़ाई अर्थात जर्मन सेना की गतिशीलता और सामर्थ्य का प्रतिरोध करने की लड़ाई के तौर-तरीके  विकसित किये। कम्युनिस्ट पार्टी ने जन समुदायों को एक जीवन-मरण के संघर्ष में, ‘‘सिर्फ़ सोवियत जनता के लिए ही नहीं, बल्कि फ़ासीवादी उत्पीड़न के तले कराह रहे सभी लोगों की मुक्ति के लिए लामबन्द किया।

कम्युनिस्टों ने सुदूर जंगलों में ऐसी छापामार सेनाएं गठित कर लीं, जो हमलावरों को हर जगह परेशान करतीं। सोवियत सैनिकों ने टैंकों के मुकाबले ग्रेनेडों और मोलोतोव कॉकटेलों जैसे ‘‘जनता के हथियार’’ इस्तेमाल करना सीखा। सारी फ़ैक्टरियों को हटाकर सुदूर साइबेरिया में स्थानान्तरित कर दिया गया, ताकि दुश्मन की पहुँच से बाहर रहकर वे उत्पादन जारी रख सकें। लेनिनग्राद और मास्को जैसे शहर सैन्य दुर्गों में तब्दील कर दिये गये।

(अगले अंक में जारी )

‘‘क़यामत के दिन का मिथक’’

अमेरिकी सरकार हर वर्ष ‘डी डे’ (क़यामत के दिन) वर्षगाँठ यह मिथक प्रचारित करने के लिए करती है कि ‘‘अमेरिकी सेना और एक विश्वव्यापी गठबंधन का अमेरिकी नेतृत्व ही दुनिया को हिटलर को दृष्टता से मुक्ति दिलाने की कुंजी थे!’’ यह आज दुनिया में उनके अमेरिकी हस्तक्षेपों का समर्थन करने के लिए लोगों को तैयार करने का एक हथकण्डा है।

लेकिन सच्चाई कुछ और ही है:

1. द्वितीय विश्वयुद्ध में, सोवियत लाल सेना दुनिया के प्रथम समाजवादी समाज की रक्षा मे एक न्यायोचित, नाजी-विरोधी युद्ध लड़ रही थी, जबकि अमेरिकी सेनाएं यह सुरक्षित कर लेने के लिए लड़ रही थीं कि युद्धोत्तर विश्व में मचने वाली नोच-खसोट में अमेरिकी पूँजीवाद सबसे फ़ायदे की स्थिति में रहे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, अमेरिका तुरन्त ही यूनान, कोरिया, वियतनाम, फ़िलीपिन्स और कई दूसरे देशों में चल रहे क्रान्तिकारी आन्दोलनों के विरुद्ध युद्धों में कूद पड़ा-जबकि जर्मनी के अधिग्रहीत कर लिए गये अमेरिका-प्रशासित भागों में अमेरिकी सत्ताधारी पूर्व नाजी सत्ता को फ़िर से बहाल करने में लग गये। इसके विपरीत समाजवादी सोवियत संघ हमारी सदी की दूसरी महान क्रान्ति-माओ त्से तुङ के नेतृत्व वाली 1949 की चीनी क्रान्ति के लिए एक महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि बना गया।

2. हिटलर की सेनाएँ मूलतः पूर्वी मोर्चे पर.सोवियत संघ के मैदानी भागों और घिरे शहरों में-ही पराजित कर दी गयी थी। डी-डे आक्रमण तो स्तालिनग्राद में नाजी आक्रमण के उच्च ज्वार के ध्वस्त कर दिये जाने के डेढ़ साल बाद ही शुरू किया गया। इस तथाकथित डी-डे की जर्मन कमान की 259 डिवीजनों और ब्रिगेडें तो पूर्वी मोर्चे पर लाल सेना का सामना कर रही थीं। हिटलर ने उन डिवीजनों में से मात्र 60 डिवीजनों को नये पश्चिमी मोर्चे पर एंग्लो-अमेरिकी सेनाओं से निपटने के लिए भेजा था। आइज़नहावर के डी-डे आक्रमण का मुकाबला करने वाली जर्मन फ़ौज में मुख्यतः अधेड़ वय के सैनिक, किशोर वय के लड़के एवं बलात पकड़कर भेज दिये गये पूर्वी यूरोपियन ही थे। यह तो लाल सेना ही थी जिसने जर्मन सेनाओं के बहुलांश को तहस-नहस किया, और बर्लिन पर कब्जा किया।

3.नॉरमैंडी में अमेरिका के उतरने का मुख्य कारण पूरे पूर्वी यूरोप में पूँजीवाद के विरुद्ध एक क्रान्ति की मुहिम छेड़ देने के लिए आगे बढ़ रही लाल सेना को रोकना था। जर्मनी और सोवियत संघ के बीच चले पूरे युद्ध के दौरान, अमेरिका और ब्रिटेन, पश्चिमी यूरोप में, एक दूसरा मोर्चा खोलने से इंकार ही करते रहे थे। जब उन्हें यह मालूम पड़ने लगा कि अब तो सोवियत संघ अकेले ही जर्मनी को हरा देगा, तब उन्होंने डी-डे आक्रमण के साथ दूसरा मोर्चा खोला। एक प्रतिक्रियावादी पत्रिका ने कुछ समय पहले लिखा था: ‘‘पश्चिमी मित्र राष्ट्रों के सफ़ल नॉरमैंडी आक्रमण के बिना तो सिर्फ़ बर्लिन और वियना ही नहीं बल्कि पेरिस पर भी लाल झण्डा कभी का लहरा चुका होता।’’

 

बिगुल, मार्च 2008

 


 

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