द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर को दरअसल किसने हराया?
स्तालिनग्राद की गलियों में लड़ने वाले लाल योद्धाओं ने!
(दूसरी किस्‍त)

दुनिया का पूँजीवादी मीडिया एक ओर नये-नये मनगढ़न्त किस्सों का प्रचार कर मज़दूर वर्ग के महान नेताओं के चरित्र हनन में जुटा रहता है वहीं दूसरी ओर नये-नये झूठ गढ़कर उसके महान संघर्षों के इतिहास की सच्चाइयों को भी उसके नीचे दबा देने की कवायदें भी जारी रहती हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बारे में भी तरह-तरह के झूठ का प्रचार लगातार जारी रहता है। इतिहास की किताबों में भी यह सच्चाई नहीं उभर पाती कि मानवता के दुश्मन, नाजीवादी जल्लाद हिटलर को दरअसल किसने हराया?

अमेरिकी और ब्रिटिश मीडिया ख़ास तौर पर इस झूठ का बार-बार प्रचार करता है कि उनकी फौजों ने हिटलर को मात दी। इस झूठ को सच साबित करने के लिए वे उस तथाकथित ‘कयामत के दिन’ (डी-डे) 6 जून 1944 का बार-बार प्रचार करते हैं जब एक लाख पचास हज़ार की तादाद में ब्रिटिश-अमेरिकी सेनाएँ हिटलर की सेनाओं से लड़ने के लिए नारमैंडी (फ्रांस) में उतरी थीं। जोर-शोर से प्रचार यह किया जाता है कि इसी आक्रमण से यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध का पासा पलट गया था। जबकि सच्चाई यह है कि उस युद्ध का मुख्य मोड़बिन्दु तो वोल्गा नदी के किनारे बसे हुए एक रूसी शहर से आया था। 1942 में स्तालिनग्राद शहर की गलियों में 80 दिन और 80 रात जो लड़ाई चली, तत्कालीन सोवियत संघ के लाल सैनिकों और मज़दूरों ने परम्परागत देशी हथियारों से आधुनिकतम मानी जाने वाली जर्मन नाजी सेना का जिस तरह मुकाब़ला किया, वह विश्वयुद्ध का ऐतिहासिक मोड़बिन्दु था। यह कहानी विश्व इतिहास की एक महाकाव्यात्मक संघर्ष गाथा है जिसे दुनिया की मेहनतकश जनता की यादों से मिटा देने की कोशिशें दिन-रात चलती रहती हैं।

आज विश्व सर्वहारा क्रान्ति के इस नये चक्र में, जबकि नयी क्रान्तियों की तैयारियों का काल लम्बा खिंचता जा रहा है, यह बेहद ज़रूरी है कि नयी पीढ़ी के मेहनतकशों को अतीत के महान संघर्षों की विरासत और उपलब्धियों से लगातार परिचित कराते रहा जाये। यह नये सर्वहारा पुनर्जागरण और प्रबोधन का एक ज़रूरी कार्यभार है। अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक और नेता स्तालिन की पचपनवीं पुण्यतिथि (6 मार्च) के अवसर पर हमने बिगुल के पिछले अंक में पाठकों के लिए  इस विशेष सामग्री की पहली किस्त प्रकाशित की थी। इस अंक में हम इस लेख की दूसरी किस्त दे रहे हैं। -सम्पादक

(पिछले अंक से आगे)

हिटलर का भाग्य-निर्णायक हमला

1941 का जाड़ा घिर आने तक, जर्मन आक्रमण अपनी प्रत्याशित त्वरित विजय हासिल नहीं कर सका था। जर्मन सेनाओं ने पूर्वी सोवियत संघ के भारी हिस्सों को जीत भले लिया था, लेकिन वे रूसी क्षेत्र में काफी दूर आ फंसी थीं। और जर्मनों को अपनी हजारों मील लम्बी खिच चुकी सप्लाई लाइनों को उफनते छापामार युद्ध से बचाना पड़ रहा था। विकट युद्ध और निष्ठुर जाड़े ने कम से कम पन्द्रह लाख नाजियों की जानें ले लीं।

1942 के मध्य तक, जर्मन सेना, जो हालाँकि अभी भी शक्तिशाली थी, पूरे मोर्चे पर अब और कोई सामान्य आक्रमण कर सकने की स्थिति में नहीं रह गयी थी। हिटलर को अपने ग्रीष्मकालीन आक्रमण हेतु सिर्फ एक ठिकाना चुनना था। उसने 15,00,000 सैनिकों की फौज को दक्षिण-पश्चिम मार्च करने का हुक्म दिया ताकि काकेशस पहाड़ियों में स्थिति रूसी तेल-क्षेत्रों पर कब्जा किया जा सके। उसकी मंशा यह थी कि सावियत तेल सप्लाई को काटकर उसे स्वयं अपनी टैंक-सेना को सप्लाई किया जाये।

battle-stalingrad-ww2-second-world-war-two-russian-eastern-front-unseen-pictures-photos-images.jpeg-soldiers-fightingहिटलर ने अधिकतम सम्भव सेनाएँ जमा कर दी, अपने कई सर्वश्रेष्ठ जनरलों को नियत किया और यहाँ तक कि उत्तरी अफ्रीका के युद्ध मोर्चे पर लगे विमानों और टैंको को भी मँगा लिया। उसने अपनी सेनाओं को आदेश दिया कि पहले वे स्तालिनग्राद पर कब्जा करें, ताकि जर्मनी के उत्तरी बाजू के मोर्चे को सुस्थिर किया जा सके। उसके बाद नाजी योजना यह थी कि दक्षिण में और अधिक महत्व के ठिकानों की ओर बढ़ा जाये।

माओ त्से-तुङ ने इस आक्रमण के बारे में कहा कि यह ‘‘एक ऐसा अन्तिम आक्रमण था जिसपर फासीवाद का भाग्य टँगा हुआ था।’’

23 अगस्त को, जनरल फेडरिख फॉन पाउलस की कमान वाली छठवीं जनरल सेना वोल्गा नदी पार करके स्तालिनग्राद के उत्तर में आ गयी। विमानों द्वारा हज़ारों की संख्या में बम शहर पर गिराये जाने लगे और शहर आग की लपटों में धू-धू करके जलने लगा। एक इतिहासकार ने लिखा ‘‘स्तालिनग्राद ऐसा दिखायी देता था जैसे किसी भयंकर आँधी ने इसे हवा में उठाकर लाखों टुकड़ों में विदीर्ण कर डाला हो। शहर का मुख्य भाग लगभग पूरी तरह ध्वस्त हो चुका था, और लगभग एक सौ भवनखण्ड अभी भी प्रचण्ड आग की ज्वाला में घिरे हुए थे।’’ पानी के मेन लाइनों के टूट जाने के कारण आग बुझाना असम्भव हो गया था। इस आक्रमण में दसियों हज़ार लोग मारे गये। कम्युनिस्ट युवा संगठन के किशोरों ने आग और मलबे में जीवित बचे लोगों की सामूहिक खोजबीन करने के लिए जगह-जगह लोगों को संगठित किया।

इसी बीच नाजी सेना की मोटर-चालित टैंकें और पैदल-सेना ने स्तालिनग्राद पर, जो कि वोल्गा नदी के पश्चिमी क़ि‍नारे की पहाड़ी ऊँचाइयों तक फैला हुआ था, धावा बोल दिया। जर्मनों की योजना यह थी कि सोवियत हथियारबन्द सेनाओं को वोल्गा नदी की ओर ऊँचाइयों तक धकेल कर परास्त कर दिया जाये। उनकी योजना 24 घण्टों में ही विजय प्राप्त कर लेने की थी।

स्तालिन के नाम के शहर में मोर्चा लेना सोवियत नेता जोसेफ स्तालिन और सोवियत हाई कमान की एक भिन्न सोच थी: सोवियत सेनाओं के सुदूर दोन नदी तक पीछे हट जाने के बाद अब उन्होंने तय किया था कि वे स्तालिनग्राद में टिक कर मोर्चा लेंगे। एस. जे. लेनार्ड अपनी पुस्तक ‘न्यायपूर्ण युद्ध, अन्यायपूर्ण  युद्ध: एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण’ में लिखते हैं:

‘‘बहुतों को ऐसा लगता था मानो सोवियत संघ ध्वस्त हो जाने के कगार पर था, लेकिन सुदूर दोन नदी तक पीछे हटने का वस्तुतः ऐसा कुछ भी मतलब नहीं था। इससे तो समय ही मिल गया था कि केन्द्र से सोवियत डिवीजनें दक्षिणी मोर्चे के लिए कूच कर सकें, तथा पूर्वी उराल से भी फौज और साजो-समान की मदद पहुँचायी जा सके। इस पीछे हटने का महत्व इस बात में निहित था कि, आखिरकार, सोवियतें ब्लिट्ज़क्रीग के विरुद्ध लचीले रणकौशल अपनाना सीख रही थीं, बजाय टिक कर मोर्चा लेने की परम्परागत पद्धति अपनाने के, जिसके चलते उन्हें बार-बार घेरेबन्दी में फँस जाना पड़ता था।

Stalingrad victory‘‘अतः कमजोरी के इसी महानतम क्षण में भावी विजय के बीज निहित थे, और इसका महत्व तब समझ में आया जब कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने हजारों सर्वश्रेष्ठ कैडरों को स्तालिनग्राद लाने का अभियान शुरू किया, ताकि उस शहर को, वेरमाख्त (जर्मन सेना) के लिए कठिनतम सम्भव राजनीतिक और सैनिक चुनौती के रूप में तब्दील किया जा सके। ‘‘नेतृत्व की योजना थी कि स्तालिनग्राद को एक ऐसे स्पंज के रूप में तब्दील कर दिया जाये जो अधिक से अधिक जर्मन शहर में फँसे रहते, तब तक सोवियत सैनिक कमान गुप्तरीति से भारी संख्या में सेना को शहर में उत्तर और दक्षिण में जमा कर लेती, वे घेरेबन्दी का एक फन्दा तैयार कर रहे थे-ताकि जर्मनी की समूची छठवीं सेना को घेरकर नेस्तानाबूद कर दिया जाये।

उग्र शहरी लड़ाई इस कम्युनिस्ट योजना की कुंजी थी। कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने हज़ारों सर्वश्रेष्ठ सक्रिय कार्यकर्ताओं को स्तालिनग्राद में भेजना शुरू कर दिया।

आप उन जबर्दस्त तैयारियों और प्रचण्ड राजनीतिक बहसों का अनुमान करें जो तभी से शुरू हो गयी थीं जब शक्तिशाली नाजी सेना सोवियत-सीमा की मोर्चाबन्दियों को तोड़कर घुस पड़ी थी और इस समाजवादी शहर की ओर बढ़ने लगी थी। कम्युनिस्ट संगठनों के नेतृत्व में,मशहूर ‘बैरिकेड’ और ‘लाल अक्टूबर’ ट्रैक्टर फैक्टिरयों एवं शहर के पावर स्टेशन को सैन्य तैयारियों के केन्द्रों में तब्दील कर दिया गया। हजारों मज़दूर बाँहपट्टियों एवं राइफलों से लैस हो युद्ध इकाइयों में संगठित हो गये। प्रथम गृहयुद्ध के पके बालों वाले पुराने अनुभवी सिपाही, ढलाई-मज़दूर, ट्रैक्टर इन्जीनियर, वोल्गा के नाविक, रेलवे मज़दूर, जहाज निर्माता, दफ्तरी कर्मचारी-स्त्री और पुरुष-सभी के सभी नियमित सेना के जवानों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ने के लिए तैयार हो गये। फैक्टरी की दीवारों से चारों ओर मज़दूरों के दूसरे दस्ते मोर्चाबन्दी के लिए खाइयाँ खोदने में लग गये।

जैसे ही जर्मन सेनाएँ आगे बढ़ीं, स्तालिनग्राद की जनता फसल काटने और टैंक-रोधी मोर्चे की खाइयाँ खोदने दौड़ पड़ी, और शहर के 5,00,000 निवासियों में से अधिकांश को हटाकर वोल्गा के सुरक्षित पूर्वी किनारे पर पहुँचा दिया गया। जर्मनी के बमवर्षकों ने लोगों को लेकर नदी पार कर रही कई नावों पर हमले किये तथा नदी के तटों पर बड़ी तादाद में बसे असैनिक नागरिकों पर भी भारी बमबारी की।

एक बुर्जुआ इतिहासकार ने स्तालिनग्राद की खाइयों के बाह्यांचलों में लड़ी गयी पहली लड़ाई के बारे में लिखा: ‘‘यह एक चमत्कार ही था कि रातो-रात संगठन बनाकर रूसी नागरिक सेना ने एक दूसरे से जोड़ती हुई खन्दकें खोद डाली थीं तथा आधुनिक युद्ध कला की मूलभूत बातों को आत्मसात कर लिया था। वे कामगारी वर्दियों या रविवारीय पोशाकें पहनकर मॉर्टर तोपों और मशीनगनों के पीछे घुटने मोड़कर बैठ जाते और दुनिया की सबसे बेहतरीन टैंक-सेना को चुनौती देते। जब (जर्मन सेना का) लड़ाकू ग्रुप क्रुपेन उनकी भयंकर गोलाबारी से लड़खड़ा जाता, तब तो रूसी प्रत्याक्रमण भी चालू कर देते। इसके लिए वे फैक्टरी असेम्बली लाइन्स से तुरन्त निकले बिना रंगे टी.34 टैंक लेकर सीधे जर्मनों पर हल्ला बोल देते।’’

इसी बीच तीखा नीतिगत संघर्ष भी स्थानीय पार्टी के पराजयवादियों और सैनिक नेतृत्व के साथ शुरू हो गया था, जिनका मानना था कि स्तालिनग्राद को बचा पाना असम्भव था और इसीलिए वे चाहते थे कि वोल्गा के उस पार भाग चला जाये। लेकिन स्तालिन ने शहर को छोड़ भागने की किसी भी योजना को इंकार कर दिया और कहा: ‘‘सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भगदड़ न पैदा होने दी जाये, दुश्मन की धमकियों से मत डरो और कि अन्तिम विजय हमारी होगी-इस बात में आस्था रखो।’’ यह नीतिगत संघर्ष पूरे युद्ध-काल तक विभिन्न स्तरों पर जारी रहा। महत्वपूर्ण बात यह थी कि युद्ध का फौरी नेतृत्व करने वाले जनरल चुइकोव को स्तालिन के दृढ़ विजय-संकल्प पर पूरा विश्वास था।

बेशक सैनिकों और मज़दूरों के समुदायों को यह नहीं बताया जा सका था कि नेतृत्व ने जर्मनों को घेर लेने की मुकम्मिल गुप्त योजना तैयार कर रखी थी। लेकिन जब जान की बाजी लगाकर स्तालिनग्राद को बचाये रखने के लिए लड़ाई करने के आदेश आये, तब तो जनसमुदायों को तेजी से समझ में आने लगा कि उनके कन्धों पर एक ऐतिहासिक दायित्व आ पड़ा था। लोगों के दिलों में एक अटूट एकता और दृढ़निश्चय की भावना भर उठी। उनका गर्वीला नारा गूँज उठा: ‘‘स्तालिनग्राद हिटलर की कब्र बनेगा!’’

अब एक ऐतिहासिक नाटक की प्रस्तुति के लिए रंगमंच तैयार हो चुका था।

गली-गली में लड़ाई

जर्मनों ने सैनिकों, टैंकों और वायुयानों की एक विशाल बेहतरीन शक्ति शहर के ऊपर झोंक दी थी। शुरू हुए विकट संघर्ष का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता था कि जर्मन एक दिन में केवल कुछ सौ गज ही आगे बढ़ पाते थे। जब नाजी 10 सितम्बर को दक्षिण में वोल्गा के पास पहुँचे, तो वे बासठवीं सेना को स्तालिनग्राद के भीतर अपना निशाना बना चुके थे, जो कि वोल्गा नदी की ओर पीठ किये थी। गली-गली में विकट युद्ध शुरू हो गया।

13 सितम्बर को जर्मनों ने शहर के मध्य भाग पर अपना सघन आक्रमण चालू किया। वे पामायेव कुरगान नामक एक बड़ी पहाड़ी पर कब्जा कर लेना चाहते थे। इस ऊँचे स्थल से उनकी गोलन्दाज फौज न सिर्फ मज़दूरों की बस्तियों समेत पूरे शहर पर, बल्कि वोल्गा नदी की उन फेरी-नौकाओं पर भी निशाना साधने में समर्थ हो जाती जो बासठवीं सेना के लिए कुमुक और रसद-सामग्री लाने का काम करती थीं। लड़ाई भीषण थी। दो दिनों के भीतर, जर्मनों को 8,000 से 10,000 तक की संख्या में अपने सैनिकों से और 54 टैंकों से हाथ धोने पड़े। इस खूनी संघर्ष में एक प्रमुख ठिकाने पर पाँच दिनों के भीतर पन्द्रह बार कब्जा कर पाने में जर्मन नाकामयाब ही रहे।

जर्मनी में नाजी अखबार अपने विशेष संस्करण निकालकर उनमें पहले ही से यह शीर्षक छाप चुके थे: ‘‘स्तालिनग्राद का पतन हो गया!’’-लेकिन उनका वितरण रोक देना पड़ा। जर्मनों का बढ़ना रोकने के लिए हजारों लाल योद्धाओं ने अपनी जानें गँवा दीं। उनके बलिदान ने ही पूरे शहर में उनके कामरेडों को कई दिनों का बहुमूल्य समय प्रदान किया ताकि वे बार-बार समूहबद्ध हो सकें, और खाइयाँ खोद सकें।

24 सितम्बर तक स्तालिनग्राद का अधिकांश भाग दुश्मनों के हाथ में जा चका था और कई-कई मील तक आग की लपटों में स्वाहा हो चुका था। जर्मनों की छठवीं सेना का भी दस प्रतिशत हिस्सा नष्ट हो चुका था, और अभी भी शहर के उत्तरी फैक्टरी-क्षेत्रों के इर्दगिर्द प्रतिरोध का अटूट सिलसिला जारी था। वोल्गा पार करके आने वाली ज्यादातर सोवियत कुमुकों में सोवियत एशिया के सीमावर्ती क्षेत्र के किशोर शामिल थे।

14 अक्टूबर को जर्मनों ने एक अन्तिम विनाशकारी आक्रमण किया-जिसमें सोवियत ठिकानों पर बमबारी करने के लिए 3,000 बमबारी विमान भेजे गये, और उसी के साथ ही जर्मन पैदल सेना की तीन और टैंक सेना की दो डिविजनों ने भी हमला कर दिया। 30 अक्टूबर तक, बासठवीं सेना के कब्जे में वोल्गा के किनारे के मात्र तीन छोटे-छोटे क्षेत्र ही बच रह गये, फिर भी जर्मन उसे शिकस्त नहीं दे सके।

जर्मन टैंक सेना के एक अधिकारी ने लिखा: ‘‘हम लोगों को मात्र एक घर के लिए पन्द्रह दिनों से मॉर्टर तोपों, ग्रेनेडों, मशीनगनों और संगीनों के साथ लड़ना पड़ रहा है। और तीसरे ही दिन तक स्थिति यह हो चुकी थी कि चौवन जर्मन लाशें तहखानों में, चौकियों पर और सीढ़ियों पर बिखर चुकी थीं। मोर्चा जले हुए कमरों के बीच का एक गलियारा बना हुआ है, यह दो मंजिलों के बीच की एक पतली छत पर है। मदद सिर्फ पड़ोसी घरों के धुंवाकशों और चिमनियों के जरिये ही मिल पा रही है। दोपहर से लेकर रात तक लगातार लड़ाई जारी रह रही है। हम पसीने से धुंधलाये चेहरे लिये, एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर, हथगोलों से एक-दूसरे पर वार कर रहे हैं और उनके फूटने से धूल और धुएँ के बादल उठ रहे हैं…। कोई भी सैनिक बता सकता है कि एक ऐसी लड़ाई में जो आमने-सामने का संघर्ष होता है उसका क्या मतलब है। और जरा स्तालिनग्राद के बारे में सोचिए: 80 दिन और 80 रात आमने-सामने लड़ाई…। अब स्तालिनग्राद एक शहर नहीं रह गया है। यह धधकती ज्वाला और अंधकारी धुएँ का विराट बादल बन चुका है, यह एक ऐसी विराट भट्टी बन चुका है जिससे लपटें उठ रही हैं। और जब रात आती है-जो कि झुलसा देने वाली, चीख-पुकार भरी और खून से नहायी हुई ही होती है-तब कुत्ते वोल्गा नदी में कूद पड़ते हैं और दूसरे किनारे पर पहुँचने की हड़बडी में तैरने लगते हैं। स्तालिनग्राद की रातें तो उनके लिए आतंक ही हैं; जानवर इस नर्क से भाग रहे हैं: कठिन से कठिन तूफान भी उसे लम्बे समय तक नहीं झेल सकता केवल मनुष्य ही झेलते हैं।’’

एक और जर्मन आक्रमण 11 नवम्बर को शुरू किया गया जिसमें एक-एक गज़ भूमि के लिए, एक-एक ईंट और एक-एक पत्थर के लिए लड़ाई चलती रही। एक दिन इसी आक्रमण के दौरान, यानी 12 नवम्बर को ही, जर्मन सेना को यह महसूस हो गया कि महीनों विकट संघर्ष करते-करते उनकी पूरी शक्ति निचुड़ चुकी थी।

(अगले अंक में जारी)

 

बिगुल, अप्रैल 2008

 


 

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