चीनी क्रान्ति की 60वीं वर्षगाँठ पर
बीसवीं सदी की दूसरी महानतम क्रान्ति मेहनतकश जनता के लिए प्रेरणा का अक्षयस्रोत बनी रहेगी!
इस क्रान्ति की शिक्षाओं से सीखकर आज की क्रान्तिकारी राह पर आगे बढ़ना होगा!

Mao Leadsचीनी क्रान्ति की 60वीं वर्षगाँठ पर चीन के वर्तमान पूँजीवादी शासकों ने जिस तरह माओ की तस्वीर और पाँच सितारों वाले लाल झण्डे के साथ अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया उसे 21वीं सदी का सबसे अश्लील मजाक कहा जाना चाहिए। माओ त्से-तुङ के निधन के बाद चीन की सत्ता पर काबिज होने वाले पूँजीवादी पथगामियों के गिरोह ने आज चीन को वहाँ ला खड़ा किया है कि अपने देश के मजदूरों को बुरी तरह निचोड़ने और सस्ती श्रमशक्ति को लूटने के लिए दुनियाभर की कम्पनियों को मौका देने में वह सबसे आगे निकल गया है। इतना ही नहीं, अब चीन के नये शासक मुद्रा पूँजी का निर्यात करके अफ्रीका के कई देशों सहित दूसरे मुल्कों के मजदूरों का भी शोषण कर रहे हैं और साम्राज्यवादी लुटेरों की कतार में शामिल होने के लिए अपनी ताकत का अश्लील प्रदर्शन कर रहे हैं। समाजवाद के दौर की सारी उपलब्धियों को धूल में मिलाया जा चुका है और पूँजीवादी व्यवस्था को अपनी तमाम गलीज बीमारियों के साथ खुलकर पनपने का मौका दिया जा रहा है।

लेकिन चीनी जनता इन नये हुक्मरानों के लुटेरे शासन को चुपचाप बर्दाश्त नहीं कर रही है। चीन के मजदूर और नौजवान लगातार इनके ख़िलाफ लड़ रहे हैं। माओ की यह भविष्यवाणी अक्षरश: सही साबित हो रही है – ”चीन में यदि पूँजीवादी पथगामी पूँजीवाद की पुनर्स्थापना में सफल हो भी गये तो भी वे कभी चैन की नींद नहीं सो सकेंगे और उनका शासन सम्भवत: थोड़े समय तक ही टिक पायेगा, क्योंकि यह उन क्रान्तिकारियों द्वारा बर्दाश्त नहीं किया जा सकेगा, जो पूरी आबादी के 90 प्रतिशत से भी ज्यादा लोगों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।”

आज हम महान चीनी क्रान्ति की 60वीं वषगाँठ ऐसे समय में मना रहे हैं जब चीनी जनता की पीठ पर सवार वहाँ के पूँजीवादी शासक समाजवाद का नाम लेते हुए पूँजीवादी लूट को बढ़ावा देने में बेशर्मी और बर्बरता के सारे रिकॉर्ड तोड़ रहे हैं। फिर भी, अफवाहों, कुत्सा-प्रचारों और झूठ से या आज के चीन के नये पूँजीवादी शासकों के काले कारनामों से उस महान क्रान्ति की आभा मन्द नहीं पड़ी है जिसने सदियों से लूटे और कुचले जा रहे विशाल देश की सोई हुई जनता को एक प्रचण्ड चक्रवाती तूफान की भाँति जगाकर खड़ा कर दिया। एशिया के जागरण की लेनिन की भविष्यवाणी को साकार करते हुए चीन की साम्राज्यवाद-सामन्तवाद विरोधी क्रान्ति ने एशिया-अफ्रीका-लातिन अमेरिका के अधिकांश उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों-नवउपनिवेशों में जारी राष्ट्रीय मुक्तियुध्दों के लिए पथ-प्रदर्शक की भूमिका निभायी। लोकयुध्दों की विजय ने उपनिवेशवाद के दौर को सदा के लिए इतिहास की कचरा पेटी के हवाले कर दिया। जनज्वार ने विश्व-स्तर पर साम्राज्यवाद को पीछे हटने और लूट की नई रणनीति विकसित करने के लिए विवश कर दिया।

तब से लेकर आज तक एक लम्बा समय बीत चुका है। सोवियत संघ और चीन में प्रगति, न्याय, समता और स्वतंत्रता के नये कीर्तिमान स्थापित करने वाली हमारी सदी की दोनों महानतम क्रान्तियाँ मानवता को बहुत कुछ दे चुकने के बाद पराजित हो चुकी हैं। 1976 में माओ त्से-तुङ की मृत्यु के बाद चीन में सत्तासीन पूँजीवादी पथगामी ”बाजार-समाजवाद” के नाम पर पूँजीवाद को अब मुकम्मल तौर पर बहाल कर चुके हैं। इस उल्टी लहर का असर पूरी दुनिया पर हुआ है। मेहनतकश अवाम के ख़िलाफ दुनिया भर के पूँजीपतियों ने अपनी पूँजी की ताकत और आर्थिक नीतियों से तो चौतरफा हमला बोला ही है, विचार और संस्कृति के स्तर पर भी वे हावी होकर लड़ रहे हैं। मेहनतकश जनता से अतीत की सर्वहारा क्रान्तियों की स्मृतियों को, समतामूलक भविष्य के स्वप्नों को और समाजवादी परियोजनाओं को छीनने की हर चन्द कोशिशें की जा रही हैं। क्रान्ति की धारा पर प्रतिक्रान्ति की धारा पूरी तरह हावी दीख रही है। लोगों को यकीन दिलाने की कोशिश की जा रही है कि पूँजीवाद ही मानव-इतिहास के विकास की आखिरी मंजिल है।

”चीनी जनता उठ खड़ी हुई है,” आज से साठ वर्ष पहले 1 अक्टूबर, 1949 को राजधानी पेइचिङ के केन्द्र में स्थित तिएन आन मेन चौक में लहराते विशाल जनसमुद्र के समक्ष इसी उद्धोष के साथ माओ त्से-तुङ ने चीनी लोक गणराज्य की स्थापना की घोषणा की थी। आज दुनिया भर के सर्वहारा क्रान्तिकारियों का यह दायित्व है कि वे इतिहास की उस महाकाव्यात्मक समर-गाथा और शौर्यपूर्ण विजय को न सिर्फ याद करें बल्कि अकूत कुर्बानियों से हासिल इस महान क्रान्ति की शिक्षाओं को आत्मसात् करें, इनसे व्यापक मेहनतकश जनता को परिचित करायें और नयी क्रान्तियों के लिए आवश्यक प्रेरणा तथा जरूरी सबक लें।

अफीम युद्ध से मुक्ति तक

चीन एक शताब्दी से भी कुछ अधिक समय तक साम्राज्यवादी प्रभुत्व और बन्दरबाँट का शिकार रहा। पहले से ही मध्‍यकालीन सामन्ती उत्पीड़न से तबाह और टूटी हुई किसान जनता से साम्राज्यवादी ताकतों ने ख़ून की आखिरी बूँद तक निचोड़ लेने की कोशिश की। 1840 के दशक में ब्रिटेन ने अफीम युद्ध इसलिए छेड़ा कि चीनी अफीम का व्यापार जारी रखें। लाखों चीनी अफीमची हो गये और ब्रिटेन के व्यापारियों-बैंकरों की थैलियाँ मोटी होती रहीं। डा. सुन यात-सेन के नेतृत्व में हुई 1911 की पूँजीवादी जनवादी क्रान्ति ने सामन्ती राजतंत्र का तख्ता तो पलट दिया पर यह क्रान्ति अधूरी रही। साम्राज्यवादी षडयंत्र ने चीन को अलग-अलग युद्ध- सरदारों के प्रभुत्व वाले कई ”राज्यों” में बाँट दिया। चीन के किसान बर्बर सामन्ती उत्पीड़न के शिकार थे। शहरी व्यापारिक और औद्योगिक अर्थव्यवस्था नौकरशाह-दलाल पूँजीपतियों के माध्‍यम से सीधो साम्राज्यवाद के मातहत थी।

मई, 1919 का महीना चीन के इतिहास का एक नया प्रस्थान बिन्दु सिद्ध हुआ। चीन के छात्रों-युवाओं की भारी आबादी चीन पर विदेशी प्रभुत्व – विशेषकर जापानी प्रभुत्व का विरोध करने के लिए उठ खड़ी हुई। ‘4 मई आन्दोलन’ नाम से प्रसिद्ध इस आन्दोलन ने ठहरे हुए चीनी समाज के राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन में उथल-पुथल मचा दी। क्रान्तिकारी जनवादी विचारों से प्रभावित छात्रों के बीच से आगे बढ़कर कई युवाओं ने बाद में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और चीनी क्रान्ति में अग्रणी भूमिका निभायी।

4 मई आन्दोलन के आसपास ही चीनी क्रान्ति के भावी नेता, युवा माओ त्से-तुङ पहली बार माक्र्सवाद के सम्पर्क में आये। जुलाई, 1919 में उन्होंने हुनान से एक पत्रिका निकालनी शुरू की और 1920 की गर्मियों में क्रान्तिकारी विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने एक सांस्कृतिक अध्‍ययन सोसायटी संगठित की। 1920 की शरद में उन्होंने च्याघशा में कम्युनिस्ट ग्रुप कायम किये।

जुलाई, 1921 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। शुरुआती कुछ वर्षों के दौरान चीनी समाज की प्रकृति और चीनी क्रान्ति के विशिष्ट स्वरूप के बारे में गलत धारणाओं के चलते चीनी कम्युनिस्टों को एक के बाद एक कई हारों का सामना करना पड़ा। क्रान्तिकारी सेनाएं प्रतिक्रियावादी सेनाओं से घिर गईं और उनका अन्त करीब लगने लगा। इस कठिन स्थिति से क्रान्ति को उबारकर आगे बढ़ाने में माओ ने नेतृत्वकारी भूमिका निभाई। उस समय से लेकर 1949 में जनवादी क्रान्ति सम्पन्न होने तक, और फिर आगे समाजवादी निर्माण एवं क्रान्ति के कठिन वर्ग संघर्ष और अनूठे प्रयोगों भरे दौर में, 1976 में अपनी मृत्यु होने तक, माओ ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और जनता को नेतृत्व दिया। यही नहीं, चीन की जनवादी क्रान्ति और फिर समाजवादी क्रान्ति के दौर के प्रयोगों – विशेषकर 1966-76 की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के विश्वव्यापी ऐतिहासिक महत्तव को देखते हुए माओ त्से-तुङ को माक्र्स, एंगेल्स, लेनिन और स्तालिन के बाद अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग के पाँचवें शिक्षक और नेता का दर्जा दिया गया। इतिहास में माओ त्से-तुङ का यह स्थान न सिर्फ हमेशा सुरक्षित रहेगा, बल्कि आने वाली सदी की नयी सर्वहारा क्रान्तियाँ दुनिया के मेहनतकशों को माओ की महान अर्थवत्ता के नये-नये पहलुओं से परिचित करायेंगी।

माओ त्से-तुङ ने पहली बार यह बताया कि चीन जैसे बहुसंख्यक किसान आबादी वाले अर्द्धसामन्ती- अर्द्धऔपनिवेशिक देश में क्रान्ति की मुख्य ताकत किसान होंगे। सर्वहारा वर्ग की भूमिका यहाँ नेतृत्वकारी होगी। उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी, लाल सेना और संयुक्त मोर्चा को नवजनवादी क्रान्ति के तीन चमत्कारी हथियारों की संज्ञा दी। रूसी क्रान्ति के सशस्त्र आम बग़ावत के रास्ते से अलग माओ ने दीर्घकालिक लोकयुद्ध के क्रान्ति मार्ग का राजनीतिक एवं सैनिक सिद्धन्त कठिन क्रान्तिकारी संघर्षों के दौरान विकसित किया। उन्होंने बताया कि चीनी क्रान्ति देहातों में लाल आधारों का निर्माण करके, शहरों को घेरकर और इस प्रकार अन्तत: पूरे देश में राजनीतिक सत्ता को जीतकर ही विजयी हो सकती है। अपनी इस प्रस्थापना को उन्होंने व्यवहार में भी सिद्ध कर दिखाया।

भूमि क्रान्ति के कठिनतम दौर में प्रतिक्रान्तिकारी सेना की भारी शक्ति से बचने के लिए लाल सेना ने उस ऐतिहासिक ‘लम्बे अभियान’ की शुरुआत की, जिसकी अतुलनीय शौर्य- गाथा पर दुनिया दंग रह गई। अक्टूबर, 1934 में शुरू हुए इस महा अभियान के दौरान लाल सेना ने प्रतिदिन शत्रुओं से लोहा लेते हुए 6,000 मील की यात्रा 12 प्रान्तों, 18 पहाड़ों और 24 नदियों को पार करते हुए 13 महीनों में पूरी की। 1,60,000 लोगों में से सिर्फ 8,000 लोग ही शान्सी पहुँचने तक बचे रहे। पर यह अकूत कुर्बानी रंग लाई। ‘लम्बे अभियान’ ने क्रान्ति के अग्निमुखी बीज पूरे देश के किसानों में बो दिये। माओ की भविष्यवाणी को चरितार्थ करती हुई करोड़ों किसान जनता एक प्रचण्ड, अदम्य तूफान की तरह उठ खड़ी हुई। जापानी साम्राज्यवादियों को धूल चटाने के साथ ही अमेरिकी साम्राज्यवाद समर्थित च्याघ काइ शेक को हराकर 1 अक्टूबर, 1949 को (ताइवान, हाघकाघ और मकाओ को छोड़कर) पूरे चीन को लाल कर देने का सपना साकार हो गया।

1949 के बाद : चीनी क्रान्ति की उत्तरकथा – एक और नये लम्बे अभियान की शुरुआत

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के उपनिवेशों, अर्द्धउपनिवेशों और नवउपनिवेशों में जारी राष्ट्रीय मुक्ति- युध्दों को प्रेरणा और दिशा देने में 1949 की चीनी जनवादी क्रान्ति ने महती भूमिका निभाई। कोरिया, वियतनाम आदि देशों में सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में सम्पन्न जनवादी क्रान्तियों का रास्ता मूलत: चीनी क्रान्ति का ही रास्ता था। अफ्रीकी देशों में जारी राष्ट्रीय मुक्ति युध्दों ने भी चीनी रास्ते से बहुमूल्य सबक लेकर उपनिवेशवाद को पराजित करने में सफलता पाई।

चीन लोक गणराज्य की स्थापना के बाद माओ ने कहा था, ”देशव्यापी स्तर पर जीत हासिल करना दस हजार ली लम्बे अभियान का पहला कदम मात्र है। चीनी क्रान्ति महान है, लेकिन क्रान्ति के बाद का रास्ता तथा कार्य अधिक महान एवं अधिक कठिन है।”

इन शब्दों में क्रान्ति का स्वागत करते हुए माओ ने एक बेहद पिछड़े देश को समाजवाद के प्रकाश स्तम्भ और विश्व क्रान्ति के आधार-क्षेत्र में रूपान्तरित कर देने के लिए चीनी के सर्वहारा वर्ग और व्यापक जनता को तैयार किया। लोक युद्ध के लम्बे वर्षों और आधार क्षेत्रों में व्यवस्था-संचालन के अनुभवों ने इस नई यात्रा में काफी मदद की। मानव इतिहास में सबसे बड़े पैमाने पर भूमि के पुनर्वितरण और विदेशी तथा दलाल पूँजीपतियों के कारखानों एवं पूँजी के राष्ट्रीकरण के साथ-साथ स्त्रियों को पूरी समानता देने सहित सामाजिक जीवन में भी अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए।

नवजनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को पूरा करने के साथ ही माओ त्से-तुङ के नेतृत्व में चीन की पार्टी और जनता समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देने में – एक ऐसी आत्मनिर्भर समाजवादी अर्थव्यवस्था के निर्माण में जुट गई जो विश्व साम्राज्यवादी बाजार की दमघोंटू और विकलांग बना देने वाली जकड़बंदी से मुक्त हो। और जल्दी ही दुनिया ने यह चमत्कार भी घटित होते देखा। पचास के दशक में चीन की मेहनतकश आबादी के श्रम को प्रकृति के आगे एक अप्रतिरोध्‍य विराट शक्ति के रूप में सृजनशील और उत्पादक बनाकर अकाल, भुखमरी, बीमारियों अशिक्षा और पिछड़ेपन के लिए प्रसिद्ध देश का कायापलट कर दिया गया। दस वर्षों के भीतर बेरोजगारी का खात्मा हो गया। गाँवों से लेकर शहरों तक स्त्रियों की भारी आबादी चूल्हे-चौकठ से बाहर आकर कम्यूनों में सामाजिक उत्पादन से लेकर प्रबंधन एवं राजनीति तक के कामों में शिरकत करने लगी। स्वास्थ्य और शिक्षा की सेवाएं सर्वसुलभ हो गईं। वेश्यावृत्ति, नशाखोरी, जुआ, बाल मजदूरी, भुखमरी आदि का नामोनिशान तक मिट गया। तूफानी नदियों को बाँधकर विनाशकारी बाढ़ों को समाप्त कर दिया गया और नहरों का जाल बिछाकर सिंचाई सुविधाओं का तेज विस्तार किया गया। उत्पादन-टीमों, ब्रिगेडों और कम्यूनों ने दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में भी उपजाऊ सीढ़ीदार खेत बना डाले और सभी तरह की ऊसर-बंजर धरती को अन्नपूर्णा बना दिया गया। सड़कों-रेलमार्गों-पुलों का अभूतपूर्व तेज गति से विकास हुआ। 1960 तक चीन बिजली और लोहा सहित तमाम बुनियादी और ढाँचागत उद्योगों का अपना ताना-बाना खड़ा कर चुका था।

अपने देश और अपनी पार्टी के भीतर ऐसे पूँजीवादी पथगामियों से संघर्ष करने के साथ ही माओ ने सोवियत संघ में समाजवाद की पराजय और खु्रश्चेव के नेतृत्व में नयी पूँजीवादी सत्ता की स्थापना का भी गहन विश्लेषण किया और इसे समझने के बाद उन्होंने रूसी पार्टी के ख़िलाफ ‘महान बहस’ चलाकर विश्व सर्वहारा क्रान्ति के प्रति अपने अन्तरराष्ट्रीयतावादी दायित्वों का तो निर्वाह किया ही, अपने देश में भी समाजवादी क्रान्ति को आगे बढ़ाने के बारे में वे ऐतिहासिक महत्तव वाले नतीजों की दिशा में आगे बढ़ चले। इसी का नतीजा थी – 1966 में शुरू हुई महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति जो न केवल चीनी क्रान्ति की यात्रा का बल्कि विश्व सर्वहारा क्रान्ति की यात्रा का अब तक का अग्रतम मील का पत्थर है।

सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति ने समाजवादी समाज में वर्ग-संघर्ष को जारी रखने की आम दिशा और उसके मार्ग की जो आम रूपरेखा प्रस्तुत की वह पूरी दुनिया के सभी देशों के लिए तबतक प्रासंगिक रहेगी जबतक कि मानवता कम्युनिज्म की मंजिल में प्रविष्ट नहीं हो जाती।

सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान इस बात को और अधिक ठोस रूप में स्पष्ट किया गया कि समाजवादी समाज में वर्ग मौजूद रहते हैं और वर्ग-संघर्ष लगातार जटिल और विकट रूप में जारी रहता है। बुर्जुआ वर्ग को धीरे-धीरे आगे बढ़कर फिर से सत्ता हथिया लेने से रोकने के लिए उसपर सर्वतोमुखी अधिनायकत्व लागू करना होगा और उसके खिलाफ क्रान्ति को सतत् जारी रखना होगा। पूँजीवादी पुनर्स्थापना के भौतिक अधिकार के समूल नाश के लिए बुर्जुआ अधिकारों, भौतिक प्रोत्साहन (लालच देकर काम कराना) और हर तरह की असमानता को कम करते जाना तथा माल-उत्पादन को क्रमश: समाप्त करते जाने के साथ ही माओ ने शिक्षा, संस्कृति, साहित्य, कला, सामाजिक आचार-व्यवहार-संस्था-संस्कार आदि अधिरचना (ऊपरी ढाँचा) के सभी अंगों के सतत् क्रान्तिकारीकरण को अपरिहार्य बताया। चीन में 1966 से 1976 तक जारी सांस्कृतिक क्रान्ति ने न केवल चीन में समाजवाद के विकास को ऊंची छलांगें दीं, बल्कि पूरी दुनिया के सर्वहारा क्रान्तिकारियों को संशोधनवाद और साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए नयी प्रेरणा, नयी युयुत्सा (लड़ने की चाहत), नयी ऊर्जा और नयी दिशा देने का काम किया।

1949 की नवजनवादी क्रान्ति के बाद चीन में समाजवादी क्रान्ति की यात्रा 27 वर्षों तक जारी रही। 1976 में, सांस्कृतिक क्रान्ति के दस वर्षों के युगान्तरकारी प्रयोग के बावजूद, माओ की मृत्यु के बाद वहाँ सर्वहारा क्रान्तिकारी पराजित हो गये और सत्तासीन पूँजीवादी पथगामियों ने समाजवाद में हुई प्रगति के ही आधार पर पूँजीवादी विकास को तेजी से आगे बढ़ाया। आज भी चीनी अर्थव्यवस्था तेज गति से विकसित हो रही है, पर व्यापक मेहनतकश जनता के लिए यह विकास नहीं, विनाश है। पिछले 23 वर्षों के भीतर चीन में धनी-गरीब के बीच की खाई भी अभूतपूर्व गति से बढ़ी है। बेरोजगारों की संख्या 30 करोड़ हो चुकी है। कम्यूनों को तोड़ दिया गया है। निजी स्वामित्व की अनेक रूपों में बहाली कर दी गयी है। विदेशी पूँजी और संस्कृति के लिए देश के दरवाजों को एकदम खोल दिया गया है और चीनी जनता के श्रम से मुनाफा निचोड़कर पश्चिम अपने संकट का बोझ हल्का कर रहा है। आज के चीन में तमाम पुरानी सामाजिक बुराइयाँ वापस लौट आयी हैं, जैसे वेश्यावृत्ति, भीख माँगना, घूसखोरी, चोरी, तरह-तरह के भ्रष्टाचार और स्त्री-विरोधी अपराध। कहावत है कि जब प्रेत आयेगा तो श्मशान के सभी साथियों को साथ लायेगा। पूँजीवादी विकास इन बुराइयों के साथ ही होगा, चाहे वह ”बाजार समाजवाद” के नाम पर ही क्यों न हो!

चीन में क्रान्ति की यह हार चीनी जनता और पूरी दुनिया के सर्वहारा वर्ग के लिए एक भारी धक्का तो है, पर यह इतिहास का अन्त नहीं है। इतिहास का रास्ता ही कुछ ऐसा होता है – चढ़ावों-उतारों से भरा हुआ। अक्सर ऐसा होता रहा है कि रास्ता खोजने वाली महान क्रान्तियाँ हारती रही हैं और आगे की मुकम्मिल विजयी क्रान्तियों के लिए आधार तैयार करती रही हैं। आज की संकटग्रस्त, आक्रामक और मेहनतकश अवाम पर कहर बरपा करने वाली साम्राज्यवादी दुनिया फिर सर्वहारा वर्ग को आमन्त्रण दे रही है कि वह उस पर टूट पड़े और इस बार उसकी कब्र जरा गहरी खोदे। सर्वहारा क्रान्तियों के नये चक्र के लिए – इक्कीसवीं सदी के सर्वहारा यो(ओं के लिए बीसवीं सदी की दोनों महानतम क्रान्तियों – सोवियत क्रान्ति और चीनी क्रान्ति की शिक्षाएँ बहुमूल्य होंगी, ये शिक्षाएं उनका हथियार होंगी।

मगर इसके लिए जरूरी है कि माओ की शिक्षाओं को सही अर्थ में समझकर अपने देश और समाज की परिस्थितियों के अनुसार लागू किया जाये। किसी भी क्रान्ति का अन्धानुकरण नहीं किया जा सकता। माओ ने अपने देश में इस बात को लागू करके ही क्रान्ति का नया रास्ता ढूँढ़ने में सफलता पायी थी। लेकिन आज माओ का अनुयायी होने का दम भरने वाले बहुत से क्रान्तिवादी समूह उनकी इस महत्वपूर्ण शिक्षा को भुलाकर देशकाल परिस्थितियों से कटकर क्रानित के नाम पर जो कार्रवाइयाँ कर रहे हैं, उनसे क्रान्ति की मदद नहीं वरन नुकसान ही हो रहा है। सच्चे क्रान्तिकारियों को याद रखना होगा कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की सफलता की सबसे पहली कुंजी यह थी कि उसने हर-हमेशा क्रानितकारी जनदिशा को लागू किया।

(चीनी क्रान्ति के महत्‍व और उसकी प्रासंगिकता के बारे में विस्तार से जानने के लिए पढ़ें ‘बिगुल’ के अक्टूबर 1999 अंक में प्रकाशित लेख – ‘बीसवीं सदी की दूसरी महानतम क्रान्ति और उसकी प्रासंगिकता’। आप इस लेख को ‘बिगुल’ की वेबसाइट पर पढ़ सकते हैं। – सं.)

बिगुल, अक्‍टूबर 2009


 

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