दूसरे विश्वयुद्ध के समय हुए सोवियत-जर्मन समझौते के बारे में झूठा प्रोपेगैण्डा

डा. अमृतपाल

pactदूसरे विश्वयुद्ध के शुरू होने से बिल्कुल पहले सोवियत यूनियन और जर्मनी के बीच हुआ ‘एक-दूसरे पर हमला न करने का समझौता’ आज तक समाजवाद के दुश्मनों के लिए बेसिर-पैर का प्रोपेगैण्डा करने का मुद्दा बना हुआ है। समूचे विश्व के पूँजीवाद के दलालों, बौद्धिक टुकड़खोरों की पूरी जमात लगी हुई है कि किसी न किसी तरह वह सोवियत समाजवाद को दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत करनेवाला सिद्ध करने में कामयाब हो जायें, कामगार लोगों के सपने को घृणित फासीवाद के समान और स्तालिन को हिटलर के समान पेश कर सकें और अपने आकाओं के फासीवाद के साथ “जायज़ सम्बन्धों” को छिपा सकें, लेकिन इतिहास के तथ्य झूठों के धुँए में दबाये नहीं जा सकते। पहले शीत युद्ध में अमेरिका की अगुवाई वाले साम्राज्यवादी वर्ग और ख्रुश्चेवी सोवियत संशोधनवादियों के लिए समाजवादी दौर के इतिहास को झुठलाना मजबूरी थी, सोवियत यूनियन के टूटने के बाद यह ज़हर पूर्वी यूरोप के “आज़ाद” हुए देशों के हुक्मरानों को निगलना पड़ा। लेकिन  अब आर्थिक संकट की मार झेल रहे और मेहनतकशों की किसी भावी बड़ी राजनैतिक सक्रियता से डरे और साथ ही अपने प्रतिद्वन्द्वी और विरोधी रूस के खि़लाफ़ निन्दा प्रचार करने के लिए विश्वयुद्ध से जुड़े झूठों का प्रचार विश्व पूँजीवाद की ओर से फिर से हो रहा है। हम यहाँ सोवियत-जर्मन समझौते तक हुए घटनाक्रम को तथ्यों सहित देखेंगे, कि फ़्रांस और ब्रिटेन के साम्राज्यवादी हुक्मरान इतिहास के इस काल में क्या कर रहे थे, जिस काल के बारे सभी पूँजीवादी टुकड़खोर ख़ामोश रहते हैं।

हिटलर के सत्ता सँभालने से सोवियत-जर्मन समझौते तक का घटनाक्रम

1933 में जर्मनी में नाज़ियों द्वारा सत्ता पर क़ब्ज़ा करने से पहले ही सोवियत यूनियन लगातार फासीवाद के ख़तरे के बारे में चेतावनियाँ दे रहा था। 1933 में हिटलर जर्मनी का चांसलर बना और उसके सत्ता सँभालने के साथ ही जर्मनी की ओर से जंगी तैयारियाँ शुरू हो गयीं, जिसे साम्राज्यवादी ताक़तों जैसे ब्रिटेन, फ़्रांस और अमेरिका ने अनदेखा किया। जनवरी, 1933 में हिटलर सत्ता सँभालता है और तुरन्त बाद ब्रिटेन और फ़्रांस ने इटली से मिलकर जर्मनी के साथ समझौता करने के यत्न आरम्भ कर दिये। 7 जून को शुरू हुई वार्ताओं के बाद 15 जुलाई, 1933 को इनके बीच चार शक्तियों के बीच समझौते पर हस्ताक्षर हुए। यह उस समय हो रहा था जब पूरी दुनिया में फासीवाद के ख़तरे को लेकर डर था और इसके खि़लाफ़ संघर्ष लामबन्द करने के यत्न हो रहे थे। इटली में बेनिटो मुसोलिनी 1925 से सत्ता में था और फासीवादियों के द्वारा वहाँ के लोगों पर किये जा रहे अकथनीय जुल्मों और क़त्लेआमों से पूरी दुनिया में रोष था। इसके बावजूद फ़्रांस और ब्रिटेन के हुक्मरान इन देशों के साथ चौमुखा समझौता कर रहे थे। लेकिन फ़्रांस और ब्रिटेन का फासीवादियों और नाज़ियों के साथ साझेदारी का स्वप्न पूरा न हो सका, क्योंकि फ़्रांस की पार्लियामेण्ट ने सार्वजनिक दबाव के चलते समझौते की पुष्टि करने से मना कर दिया। इसी समझौते ने बाद में बदनाम म्यूनिख समझौते के लिए भूमिका का काम किया। ऐसा नहीं है कि उस समय तक हिटलर ने अपने काम शुरू नहीं किये थे, नाज़ियों ने तो अपने रंग सत्ता में आने से पहले ही दिखला दिये थे। 20 मार्च, 1933 को जर्मनी का पहला नाज़ी यातना कैम्प क़ायम किया जा चुका था, फिर 23 मार्च को हिटलर ने ख़ुद को जर्मनी का तानाशाह ऐलान दिया, 1 अप्रैल को जर्मन लोगों को यहूदी दुकानों का बहिष्कार करने का हुक्म सुनाया जा चुका था, 26 अप्रैल को बदनाम नाज़ी ख़ुफ़िया पुलिस गेस्टापो की स्थापना की गयी, 2 मई को जर्मनी में ट्रेड यूनियनों पर पाबन्दी लगा दी गयी, 21 जून को बाक़ी सभी राजनैतिक पार्टियों को ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर दिया गया। समझौते के बाद हालत और भी बिगड़ने लगी। नाज़ी विरोधी बुद्धिजीवियों और विज्ञानियों को निशाना बनाया जाने लगा, निष्कर्ष के तौर पर आइंस्टीन जैसे विज्ञानियों को इसी साल जान बचाकर जर्मनी से भागना पड़ा। लेकिन इस सबके बावजूद फ़्रांस और ब्रिटेन के हुक्मरानों ने हिटलर के प्रति अपनी “हमदर्दी” में कोई कमी नहीं होने दी और आज यह साम्राज्यवाद के पिट्ठू यहूदी-प्रेम दिखाते हुए मगरमच्छ के आँसू बहाते हैं और नाज़ियों के जुल्मों और लोकतन्त्र की बर्बादी की बात करते हैं, लेकिन शर्म है कि इनको आती नहीं।

फिर नाज़ी जर्मनी ने पहले विश्वयुद्ध के बाद हुई वर्साय सन्धि की सैनिक धाराओं का सरेआम उल्लंघन करना शुरू किया, उसने बड़ी हथियारबन्द सेना खड़ी करने की योजना पर काम शुरू किया लेकिन किसी भी साम्राज्यवादी ताक़त ने हिटलर का कोई विरोध नहीं किया। ब्रिटेन के हुक्मरान तो इससे भी एक क़दम और आगे गये। ब्रिटेन ने 18 जून, 1935 को जर्मनी के साथ “जलसेना समझौता’ किया जिसके अन्तर्गत हिटलर को अपनी जलसेना खड़ी करने का अिधकार मिला, इससे पहले वरसायी की सन्धि के अधीन जर्मनी पर जलसेना सम्बन्धित बहुत से प्रतिबन्ध थे। ब्रिटेन ने न सिर्फ़ जर्मनी से प्रतिबन्ध हटाये, बल्कि उसने ताक़तवर नौसेना बनाने के लिए जर्मनी की तकनीकी और वित्तीय मदद का भी ऐलान किया। इसके विरोध में फ़्रांस ने सिर्फ़ शाब्दिक जुगाली तो की लेकिन कोई भी क़दम नहीं उठाया। फिर मार्च, 1936 में हिटलर ने हथियार-रहित क्षेत्र फ्राइनलैण्ड में सैनिक तैनाती शुरू कर दी। यह फ़्रांस के लिए ख़तरे की घण्टी था, लेकिन ब्रिटेन और फ़्रांस समेत सभी पश्चिमी ताक़तों ने नाज़ियों को रोकने की जगह शह दी, यहाँ तक कि फ़्रांस ने फ्रांस-पोलैण्ड सैनिक समझौते के अन्तर्गत इस मसले पर जर्मनी के खि़लाफ़ साझी सैनिक कार्यवाही करने की पोलैण्ड की तरफ़ से की गयी पेशकश को ठुकरा दिया, कारण साफ़ था। साम्राज्यवादियों का मुख्य मकसद यूरोप और पूरे विश्व में बढ़ रहे “लाल ख़तरे” के खि़लाफ़ हिटलर को इस्तेमाल करना था, इस मकसद की पूर्ति के लिए वह इतने अन्धे होकर काम कर रहे थे कि हिटलर को हर तरह की छूट देने के लिए तैयार थे, बशर्ते कि वह सोवियत यूनियन पर हमला करे। 1935 के शुरू में सोवियत यूनियन ने फ़्रांस को नाज़ियों के खि़लाफ़ दो-तरफ़ा समझौते की पेशकश की जिस पर फ़्रांस के विदेश मन्त्री लुईस बरथोऊ के नेतृत्व में फ़्रांस की तरफ़ से बातचीत शुरू की गयी लेकिन लुईस बरथोऊ का क़त्ल कर दिया गया। उसके बाद फ़्रांस की तरफ़ से बातचीत में कोई रुचि नहीं दिखायी गयी, फिर जब हिटलर ने ताक़तवर सेना खड़ी करने का ऐलान किया तो एक बार फिर सार्वजनिक दबाव के चलते फ़्रांस की सरकार ने सोवियत यूनियन के साथ बातचीत दोबारा शुरू की। मई, 1935 में फ़्रांस ने सोवियत यूनियन के साथ आपसी सहायता का समझौता किया लेकिन पार्लियामेण्ट की तरफ़ से इसकी पुष्टि मार्च, 1936 में की गयी जब नाज़ी जर्मनी ने राईनलैण्ड क्षेत्र को हथियारबन्द करना शुरू किया। लेकिन फ़्रांस के साम्राज्यवादी हुक्मरान अभी भी जर्मनी के लिए हमदर्दी से भरे हुए थे। उन्होंने सोवियत यूनियन के साथ समझौतों में सैनिक सहायता की धारा शामिल करने से मना कर दिया, जिसके कारण यह समझौता बस नाम का ही था।

ब्रिटेन, फ़्रांस और अमेरिका ने अपने इरादे और स्पष्ट तब कर दिये जब उन्होंने स्पेन की घरेलू लड़ाई में “निष्पक्षता की नीति” अपनाने का ऐलान किया। 17 जुलाई, 1936 को जनरल फ़्रांसिस्को फ्रांको के नेतृत्व के अधीन स्पेनी फासीवादियों ने लोकतान्त्रिक गणराज्य के खि़लाफ़ बग़ावत खड़ी कर दी, जिसके निष्कर्ष के तौर पर स्पेनी घरेलू जंग शुरू हुई। यह जंग वास्तव में दूसरे विश्वयुद्ध का अभ्यास था। हिटलर और मुसोलिनी ने तुरन्त फ़्रांको को अपनी हिमायत का ऐलान कर दिया और सैनिक साजो-सामान समेत हवाई जहाज़, टैंकों और तोपों के साथ सैनिक टुकड़ियाँ और सैनिक माहिर फ़्रांको की मदद के लिए भेजने शुरू कर दिये। दूसरी तरफ़ गणराज्य के समर्थकों को अन्तरराष्ट्रीय मदद देने वाले सिर्फ़ सोवियत यूनियन और मैक्सिको थे। अमेरिका और ब्रिटेन ने पूरी बेशर्मी के साथ लोकतन्त्र- समर्थकों को कोई भी मदद देने से न सिर्फ़ इनकार ही कर दिया, बल्कि निष्पक्षता का दिखावा करते हुए दूसरे देशों को कोई भी मदद भेजने से रोका। फ़्रांस ने शुरू में गणराजवादियों की मदद करने की कोशिश की लेकिन ब्रिटेन और अमेरिका और साथ ही फ़्रांस के घरेलू फासीवादियों ने ऐसी कोई भी मदद भेजने का सख्त विरोध किया। 21 जुलाई, 1936 को ब्रिटेन और अमेरिका ने फ़्रांस को “निष्पक्षता का समझौता” करने के लिए मजबूर किया। इसके बाद इन देशों ने गणराज पक्ष को पहुँचने वाली अन्तरराष्ट्रीय सहायता के रास्ते में भी काँटे बिछाये और कितनी ही सहायता पहुँचने ही नहीं दी। फ़्रांको के फासीवादी टोलों और जर्मनी-इटली की सैनिक जुण्टा ने स्पेन में भयंकर सैन्य अपराधों को अंजाम दिया। इन अपराधों में गुएर्निका शहर पर की गयी बमबारी भी शामिल है जिसकी तुलना ड्रैस्डन शहर पर की गयी “कारपेट बमबारी” और हिरोशिमा पर अमेरिकियों की तरफ़ से फेंके गये परमाणु बम के साथ की जाती है। निहत्थे शहरियों पर योजनाबद्ध हवाई हमलों का यह शायद पहला उदाहरण था। इस बमबारी को देखकर ही मशहूर चित्रकार पाब्लो पिकासो ने अपनी युद्ध-विरोधी अमर कृति बनायी। लेकिन इस सब कुछ के बावजूद “लोकतन्त्र के ठेकेदारों” ने स्पेन के लोकतन्त्र-समर्थकों की कोई मदद करने से इनकार कर दिया, जबकि दुनियाभर से, ब्रिटेन सहित, फ़्रांस और अमेरिका से आम लोग, लेखक, विज्ञानी वालंटियर बनकर फासीवादियों के खि़लाफ़ लड़ने जा रहे थे।

लेकिन साम्राज्यवादियों ने अभी बेशर्मी की और हदें पार करनी थीं। 1938 के साल के दौरान नाज़ी जर्मनी ने एक देश के बाद दूसरे देश पर क़ब्ज़ा किया जिसमें ब्रिटेन, फ़्रांस और अमेरिका ने उसकी पूरी मदद की। दूसरी ओर इटली भी यही काम कर रहा था। 12 मार्च, 1938 को नाज़ियों ने आस्ट्रिया पर क़ब्ज़ा कर लिया और चेकोस्लोवाकिया की घेराबन्दी शुरू कर दी। हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया को कई क्षेत्र जर्मनी के हवाले करने के लिए धमकाना शुरू कर दिया और ऐसा न करने की सूरत में हमले की धमकी दी। लेकिन ऐसा करना जर्मनी के लिए आसान न था, क्योंकि चेकोस्लोवाकिया के साथ फ़्रांस और सोवियत यूनियन का आपसी मदद का समझौता था। दूसरी ओर ब्रिटेन और फ़्रांस किसी भी क़ीमत पर चेकोस्लोवाकिया पर हिटलर का क़ब्ज़ा होने देना चाहते थे, जिससे हिटलर को सोवियत यूनियन के और ज़्यादा से ज़्यादा नज़दीक धकेला जा सके और जर्मनी द्वारा सोवियत यूनियन पर हमलों के रास्ते में ज़मीनी स्तर की सभी रुकावटों को ख़त्म किया जा सके। ब्रिटेन और फ़्रांस ने चेकोस्लोवाकिया पर हिटलर की माँगें मानते हुए समझौता करने के लिए दबाव बनाया जिससे यूरोप में “अमन” बरकरार रह सके। 29-30 सितम्बर, 1938 को म्यूनिख में ब्रिटेन और फ़्रांस ने इटली और जर्मनी के साथ साझा वार्तालाप करके “म्‍यूनिख” समझौते के अन्तर्गत चेकोस्लोवाकिया के जर्मनी की तरफ़ से माँगे जा रहे क्षेत्र हिटलर के हवाले कर दिये। हैरानी इस बात की रही कि चेकोस्लोवाकिया को इस बातचीत में बुलाया ही नहीं गया और न ही सोवियत यूनियन को, बेशक सोवियत यूनियन की फ़्रांस के साथ सन्धि थी। ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री ने पूरी बेशर्मी के साथ म्यूनिख समझौते की “शाश्वत अमन” की गारण्टी कहकर तारीफ़ की। इसी समय सोवियत यूनियन विशाल अन्तरराष्ट्रीय कान्‍फ्रेंस बुलाकर जर्मनी के हमलों को रोकने की अपीलें कर रहा था, लेकिन साम्राज्यवादियों के इरादे कुछ और थे। एक बार चेकोस्लोवाकिया में पैर रखने के बाद हिटलर ने समूचे चेकोस्लोवाकिया पर क़ब्ज़ा करने में देर नहीं की। फ़्रांस ने चेकोस्लोवाकिया के पक्ष में सिर्फ़ बयान दिये, लेकिन सैन्य मदद की कोई पेशकश नहीं की। सोवियत यूनियन ने चेकोस्लोवाकिया में अपनी सेना भेजने की तजवीज़ रखी, लेकिन चेकोस्लोवाकिया के पूँजीपतियों की सरकार ने नाज़ियों के क़ब्ज़े को सोवियत मदद से बेहतर समझा क्योंकि समाजवाद पूँजीपतियों के लिए फासीवाद से बड़ा ख़तरा था। अकेले सोवियत यूनियन ने हिटलर के चेकोस्लोवाकिया पर क़ब्ज़े को क़ानूनी मान्यता देने से इनकार किया। फिर जर्मनी ने रोमानिया को अपने अधीन कर लिया, इटली ने अल्बानिया पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद जर्मनी पोलैण्ड पर हमले की योजना बना रहा था, लेकिन फ़्रांस और ब्रिटेन “निष्पक्ष” थे।

1939 के साल में जब जर्मनी, इटली और जापान की मुख्य शक्तियाँ दुनिया को दूसरे विश्वयुद्ध की तरफ़ खींचने के लिए जीजान से लगी हुई थीं, तो फासीवादी हमलों को रोकने और फासीवादी हमलों के साथ निपटने के लिए सोवियत यूनियन ने छह बार ब्रिटेन, फ़्रांस और अमेरिका को आपसी समझौते के लिए पेशकशें कीं, लेकिन साम्राज्यवादियों ने लगातार इन अपीलों को ठुकराया। दूसरी और इन देशों में जनमत और ज़्यादा से ज़्यादा सोवियत यूनियन के साथ समझौता करने के पक्ष में झुकता जा रहा था। अप्रैल, 1939 में ब्रिटेन में हुए एक मतदान में 92 प्रतिशत लोगों ने सोवियत यूनियन के साथ समझौते के पक्ष में वोट दिया। आखि़र 25 मई, 1939 को ब्रिटेन और फ़्रांस के हुक्मरानों को सोवियत यूनियन से बातचीत शुरू करने के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन यह बातचीत दिखावे की थी, फ़्रांस और ब्रिटेन का सोवियत यूनियन से समझौता करने का कोई इरादा नहीं था, क्योंकि बातचीत के लिए भेजे गये प्रतिनिधिमण्डल के पास कोई भी समझौता करने की अधिकारिक शक्ति ही नहीं थी और न ही फ़्रांस और ब्रिटेन सोवियत यूनियन के साथ आपसी सैन्य सहयोग की धारा को जोड़ने के लिए तैयार थे। निष्कर्ष के तौर पर 20 अगस्त, 1939 को बातचीत टूट गयी।

सोवियत-जर्मन समझौता

Battle-of-Stalingradजर्मनी अप्रैल, 1939 में सोवियत यूनियन के समक्ष “एक-दूसरे पर हमला न करने का समझौता” करने की पेशकश कर चुका था, लेकिन सोवियत यूनियन ने इसको ठुकरा दिया था। 29 जुलाई, 1939 को सोवियत यूनियन ने ब्रिटेन और फ़्रांस की बातचीत की आड़ तले समय गुज़ारने की नीति की अलोचना की और फिर अगस्त, 1939 के मध्य तक यह साफ़ हो गया था कि ब्रिटेन, फ़्रांस और सोवियत यूनियन के बीच समझौते के लिए बातचीत सिरे नहीं चढ़ेगी। बिल्कुल इसी समय ही जर्मनी ने सोवियत यूनियन के आगे एक बार फिर से “हमला न करने का समझौता” करने का प्रस्ताव रखा  और 23 अगस्त को सोवियत-जर्मन समझौते पर हस्ताक्षर हो गये। इस प्रस्ताव को मानना सोवियत यूनियन के लिए ज़रूरी हो गया था, क्योंकि ब्रिटेन और फ़्रांस कोई समझौता करने के लिए राजी नहीं थे। वास्तव में ब्रिटेन और फ़्रांस ने ऐसी किसी हालत के बारे में सोचा तक नहीं था। उनके अन्दाज़े यही थे कि पोलैण्ड पर हमला करने के बाद नाज़ी सोवियत यूनियन पर हमला करने के लिए बढ़ेंगे लेकिन सोवियत-जर्मन समझौता उन पर आसमानी बिजली की तरह गिरा और स्तालिन के इस कूटनीतिक दाव ने साम्राज्यवादियों को अचम्भित कर दिया, उनके सभी सपने धरे-धराये रह गये।

पूँजीपतियों के भाड़े के कलमघसीट यह लिखते नहीं थकते कि सोवियत यूनियन ने नाज़ी जर्मनी के साथ समझौता किया, लेकिन यह नहीं बताते कि सोवियत यूनियन ने जर्मनी से समझौता किन हालात में किया। यह नहीं बताते कि सोवियत यूनियन ने ब्रिटेन और फ़्रांस के साथ हिटलर-विरोधी मोर्चा बनाने की हरसम्भव कोशिश की, लेकिन ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री नेविल चौम्बरलेन और फ़्रांस के प्रधानमन्त्री दालादियर ने सोवियत यूनियन की ऐसी कोशिशों को नाकाम कर दिया। यह नहीं बताते कि सोवियत यूनियन के साथ बातचीत चलाने के लिए ब्रिटेन और फ़्रांस जाली प्रतिनिधिमण्डल भेजते थे, जबकि यही नेता हिटलर के साथ समझौते के लिए ख़ुद जर्मनी जाते थे। भाड़े के कलमघसीट ब्रिटेन और फ़्रांस की तरफ़ से हिटलर की की गयी तरफ़दारी और 1933-1940 तक के समय में फ़्रांस और ब्रिटेन की तरफ़ से किये गये धोखे और कुकर्मों के बारे में नहीं बताते जिनके चलते यूरोप के कितने ही देश और क्षेत्र नाज़ियों के क़ब्ज़े में चले गये। चाहे ये कलमघसीट जितना मर्जी शोर मचायें लेकिन इतिहास के घटनाक्रम ने यह साबित कर दिया कि सोवियत-जर्मन समझौता होने से सोवियत यूनियन को बहुत लाभ हुआ। पहला, अब उसको उस समय एक ही मोर्चे मतलब पूर्व में सिर्फ़ जापान से निपटना था जिसको उन्होंने ख़ूब अच्छी तरह हराया; दूसरा, नाज़ियों के खि़लाफ़ तैयारी के लिए सोवियत यूनियन को अहम दो सालों का समय मिल गया; तीसरा, एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया जो प्रथम विश्वयुद्ध से पहले रूस का अंग थे, को सोवियत गणराजों के तौर पर शामिल करके लेनिनग्राद तक जर्मनी की पहुँच को कुछ कठिन कर दिया; चौथा, घरेलू जंग के समय पोलैण्ड के द्वारा क़ब्ज़ा किये रूसी क्षेत्र को वापस लेने का मौक़ा मिल गया जिसके कारण नाज़ी सेना को काफ़ी बड़े फ़्रण्ट पर हमला करना पड़ना था; पाँचवाँ और सबसे अहम, इस समझौते के साथ लड़ाई में ब्रिटेन और फ़्रांस की तरफ़ से निष्पक्षता रखने की चाल फुस्स हो गयी क्योंकि अब लड़ाई जर्मनी के पश्चिम के मोर्चे से शुरू हुई और साम्राज्यवादियों को मजबूर होकर सोवियत यूनियन से समझौता करना पड़ा और सोवियत यूनियन धुरी शक्तियों के खि़लाफ़ अकेला पड़ जाने से बच गया, चाहे ब्रिटेन-अमेरिका (फ़्रांस पर जर्मनी का क़ब्ज़ा हो गया था) ने सिर्फ़ लफ्ज़ी लड़ाई लड़ी और पश्चिम की तरफ़ से मोर्चा 1944 में खोला जब हिटलर की हार तय हो चुकी थी! लेकिन फिर भी इससे इतना ज़रूर हो गया कि साम्राजयवादी सोवियत यूनियन के खि़लाफ़ हिटलर की मदद करने के योग्य न रहे। इस तरह जिस समझौते के लिए स्तालिन को बदनाम किया जाता है, उसके लिए तो स्तालिन को दाद देनी बनती है। लेकिन साम्राज्यवादियों को इसका सदा दुख रहा है, ज़ाहिर है ऐसा होगा ही।

पोलैण्ड पर जर्मन हमला और पोलैण्ड का बँटवारा

पूँजीपतियों के “विचारकों” की तरफ़ से यह प्रचार किया जाता है कि हिटलर और स्तालिन ने अगस्त, 1939 में हुए सोवियत-जर्मनी समझौते के अधीन गुप्त धाराएँ दर्ज करके पोलैण्ड को पहले ही बाँट लिया था और दोनों ने मिलकर पोलैण्ड पर हमला किया जिसके कारण विश्वयुद्ध शुरू हुआ, लेकिन यह “महान खोजी विचार” भी झूठ से सिवा कुछ नहीं थे। पोलैण्ड पर हमलों का समूचा घटनाक्रम इस बात को साफ़ करता है। नाज़ी जर्मनी ने 1 सितम्बर, 1939 को पोलैण्ड पर हमला किया। नाज़ियों ने 15 लाख की संख्या वाली विशाल सेना, 2500 टैंकों और 2000 बमबार जहाज़ों से पोलैण्ड के ऊपर दो तरफ़ से हमला किया। ब्रिटेन और फ़्रांस का पोलैण्ड से आपसी सहायता का समझौता था। ब्रिटेन और फ़्रांस को इतनी बदनामी मिल चुकी थी कि अब उनको मजबूरी में हिटलर के खि़लाफ़ युद्ध का ऐलान करना पड़ा, लेकिन यह सिर्फ़ ऐलान ही था। सितम्बर, 1939 और मई, 1940 की अवधि के दौरान असल में फ़्रांस और ब्रिटेन ने हिटलर के खि़लाफ़ एक गोली भी नहीं चलायी। इतिहास में इस घृणित काम को “नक़ली युद्ध” कहा जाता है, यह युद्ध की कार्यवाहियों के बिना “युद्ध” था। फ़्रांस ने सरकारी ऐलान किया, “कल या अधिक से अधिक परसों तक फ़्रांस और ब्रिटेन के बमबार जहाज़ जर्मनी पर सख़्त हमला करेंगे और पोलैण्ड में भी जर्मन सेना पर हमला होगा।” लेकिन यह न होना था, न हुआ। हिटलर को इसका पहले ही पता था, “उन्होंने हमारे विरुद्ध हमलों का ऐलान किया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह हमारे खि़लाफ़ लड़ेंगे।” 6 सितम्बर, 1939 को पोलैण्ड की सरकार देश छोड़कर रोमानिया दौड़ गयी और पोलैण्ड का अन्तरराष्ट्रीय क़ानूनों के अनुसार एक देश के तौर पर वजूद ख़त्म हो गया, जर्मन नाज़ी पोलैण्ड में खुला खेल खेल रहे थे। फ़्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका ने अगर मदद देनी थी तो उन्होंने जर्मनी के पश्चिमी मोर्चे पर हमला क्यों नहीं किया? सैन्य मदद का समझौता होने के बावजूद पोलैण्ड की मदद न करना, क्या हिटलर के साथ सीधी मिलीभगत नहीं थी? पूँजीपतियों के दलाल यह सवाल कभी नहीं पूछते, आखि़र पूछें भी कौन सा मुँह लेकर।

सोवियत यूनियन ने पोलैण्ड के इलाक़ों में अपनी सेना 17 सितम्बर, 1939 को भेजी। पोलैण्ड की सरकार उस समय फ़ैसलाकुन तौर पर हौसला पस्त हो चुकी थी और पोलैण्ड का इलाक़ा एक लावारिस क्षेत्र बन चुका था जिस कारण जर्मन नाज़ी सीधा सोवियत यूनियन की हद तक पहुँच सकते थे। इसको रोकने के लिए सोवियत यूनियन के पास नाज़ियों की पेशक़दमी रोकने के सिवा अन्य कोई रास्ता नहीं था। दूसरा, सोवियत यूनियन ने पोलैण्ड के पश्चिमी युक्रेन और बेलोरूस के वही क्षेत्र अपने क़ब्ज़े में किये जो पहले विश्वयुद्ध और अक्तूबर क्रान्ति के बाद छिड़ी रूसी घरेलू जंग के दौरान सोवियत यूनियन की कमज़ोर हालत के चलते रीगा समझौते के अन्तर्गत पोलैण्ड ने हथिया लिये थे। तीसरा, पोलैण्ड पर हमले के बाद नाज़ियों ने वहाँ तबाही मचा रखी थी और आम लोगों का क़त्लेआम किया जा रहा था। सोवियत यूनियन के इस क़दम से हिटलर की पूर्व की तरफ़ से पेशक़दमी अगले दो सालों के लिए रुक गयी। साथ ही 1.3 करोड़ आम लोग जिनमें 10 लाख यहूदी थे, नाज़ियों के जुल्मों से बच रहे। और तो और, उस समय किसी यूरोपीय देश ने, समेत ब्रिटेन और फ़्रांस के और लीग ऑफ़ नेशंज़ ने भी सोवियत यूनियन की इस कार्रवाई को पोलैण्ड पर हमला नहीं कहा। वास्तव में हिटलर और स्तालिन के द्वारा गुप्त समझौते के अन्तर्गत पोलैण्ड को बाँट लेने की कहानी शीत युद्ध के दौरान साम्राज्यवा‍दियों के और कई साम्यवादी-विरोधी प्रोपेगैण्डा झूठों में से एक है जिसकी जुगाली पश्चिमी देशों के नेता और बुद्धिजीवी सचेतन तौर पर करते हैं और भारत के बहुत से बुद्धिजीवी अपनी अनपढ़ता के कारण करते हैं।

दूसरे विश्वयुद्ध के असली कारण

वास्तव में यह सारा झूठा प्रचार एक तरफ़ तो समाजवाद को बदनाम करने के लिए, कामगार लोगों के नेताओं, नायकों को बदनाम करने के लिए होता है जिससे लोगों को भ्रमित किया जा सके। ऐसा करना उनके लिए आज के संकट के दौर में और भी ज़रूरी हो जाता है। दूसरा, यूरोपीय देशों के हुक्मरान हिटलर के उभार और विश्वयुद्ध होने में अपनी भूमिका को और अपने लोगों से की गयी ग़द्दारियों को छिपाना चाहते हैं। तीसरा, वह दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान हिटलर की पराजय की असली वजह यानी सोवियत यूनियन के कामगार लोगों की तरफ़ से समाजवाद के झण्डे के नीचे किये गये बेमिसाल संघर्ष को अँधेरे में रखना चाहते हैं क्योंकि यह हासिल दुनियाभर के कामगार लोगों को पूँजीवाद के खि़लाफ़ संघर्ष में प्रेरणा देता है। चौथा और अहम कारण यह है कि पूँजीपतियों के बौद्धिक चाकर यह सिद्ध करना चाहते हैं कि दूसरा विश्वयुद्ध और लड़ाइयाँ आम रूप में, पूँजीवादी व्यवस्था की देन नहीं बल्कि कुछेक व्यक्तियों की सनक से होती हैं लेकिन इस झूठ को विज्ञान कब का रद्द कर चुका है।

युद्धों का असली कारण साम्राज्यवादी देशों की आपसी होड़ है जो पूँजीवाद के रहते कभी ख़त्म नहीं हो सकती, इसलिए पूँजीवाद के रहते युद्ध भी ख़त्म नहीं हो सकते। पूँजीवादी देश अपना माल बेचने के लिए मण्डियों और कच्चे माल के स्रोतों पर क़ब्ज़ा करने के लिए लगातार एक-दूसरे से उलझते रहते हैं। किसी समय कुछ देश या कोई एक देश ऊपर होता, लेकिन कुछ समय बाद कोई दूसरा देश तेज़ विकास करता हुआ आगे निकल जाता है। फिर यह आगे निकला देश पुराने चौधरी से अपना हिस्सा छीनता है जो पुराना चौधरी देने को तैयार नहीं होता, निष्कर्ष के तौर पर इस झगड़े का हल युद्ध के द्वारा किया जाता है। पहले विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी की हार हुई और कुछ समय के लिए जर्मनी पीछे रह गया लेकिन एक दशक तक पैरों पर खड़ा होकर जर्मनी के पूँजीपति फिर से ब्रिटेन, फ़्रांस और अमेरिका को टक्कर देने लगे। जर्मनी तेज़ विकास कर रहा था, लेकिन उसके लिए मण्डियों और कच्चे माल के स्रोत उतने नहीं थे जितने फ़्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका ने हथिया रखे थे। जर्मनी ने “सूरज के नीचे” अपने लिए और ज़्यादा जगह की माँग की। दूसरी तरफ़ सोवियत यूनियन के कामगार लोगों का राज साम्राज्‍यवादि‍ओं को चुभ रहा था और उनके लिए एक स्थायी ख़तरा बना हुआ था। ब्रिटेन, फ़्रांस और अमेरिका ने नाज़ियों को शह देकर एक तीर से दो शिकार करने चाहे – एक तो वह नाज़ियों को सोवियत यूनियन पर हमला करने और समाजवाद को ढहढेरी करने के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे और दूसरा इससे उनके हित सुरक्षित रहने थे क्योंकि पूर्वी यूरोप और सोवियत यूनियन पर क़ब्ज़े से जर्मनी के पूँजीपतियों को एक बड़ी मण्डी और कच्चे माल का स्रोत मिल जाना था और उनकी अपनी बस्तियाँ सुरक्षित रहती। इस तरह दूसरा विश्वयुद्ध पूँजीवादी व्यवस्था के आपसी विरोध में से फूटा, बिल्कुल यही बात पूँजीपतियों के लिए पचा पाना मुश्किल है।

कुछ समय से भारत के फासीवादी गिरोह ने इतिहास की किताबें जलाने की मुहिम चला रखी है क्योंकि इतिहास उनके कुकर्मों को दिन की रोशनी में ला फेंकता है। लेकिन इतिहास से यह डर विश्वभर के समूचे पूँजीपतियों के लिए और पूँजीपतियों के टुकड़खोरों और कामगार लोगों के प्रत्येक ग़द्दारों के लिए साझा है। दूसरे विश्वयुद्ध और इसके साथ जुड़े घटनाक्रम के बारे में किया जाता झूठा प्रोपेगैण्डा इस बात का सबूत है।

 

मज़दूर बिगुल, जून 2015


 

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