भयानक साज़िश

(आर.एस.एस. ने आज़ादी की लड़ाई में तो कभी हिस्सा नहीं ही लिया, उल्टे उस समय भी वह देश के लोगों को धर्म के नाम पर आपस में लड़ाने में लगा हुआ था। हम यहाँ एक लेख का अंश प्रस्तुत कर रहे हैं जो बताता है कि जब सारी जनता अंग्रेज़ों को देश से बाहर करने के संघर्ष में सड़कों पर थी, 1946-47 के उन दिनों में भी संघ अपने ही देश के लोगों के ख़िलाफ़ कैसी घिनौनी साज़िशों में लगा हुआ था। इसे पढ़ने के बाद आपको इस बात पर कोई हैरानी नहीं होगी कि गुजरात में संघियों ने किस तरह से मुसलमानों के घरों और दुकानों को चुन-चुनकर निशाना बनाया था। इसके पीछे उनकी महीनों की तैयारी थी। हिटलरी जर्मनी के नाज़ियों से सीखे इन तरीकों को इस्‍तेमाल करने में इन्हें महारत हासिल हो चुकी है। इस अंश को प्रसिद्ध पत्रकार और नौसेना विद्रोह के भागीदार सुरेन्द्र कुमार ने ‘दायित्वबोध’ पत्रिका के लिए प्रस्तुत किया था। — सम्पादक)

प्रस्तुति: सुरेन्द्र कुमार

इधर रा.स्व.से.सं. का एक सबसे अधिक लोमहर्षक तथा नग्न चित्र प्रकाश में आया है, जिसे श्री राजेश्वर दयाल (आई.सी.एस., अब स्वर्गीय) ने अपनी पुस्तक ‘‘ए लाइफ ऑफ़ अवर टाइम” (ओरियंट लांगमैन, 1998, पृ. 93-94) में प्रस्तुत किया है। वह 1946-47 की चर्चा करते हैं जब वह उत्तर प्रदेश के गृह सचिव थे। इस मानवद्वेषी संस्था ने किस तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुस्लिम इलाकों में मकानों, सड़कों, गलियों तक के नक्शे तैयार किये थे, जनसंहार का कैसा षड्यंत्र रचा था और कैसे यह सब सम्बद्ध क्षेत्रों में सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर की उपस्थिति में किया गया था, यह पढ़ें राजेश्वर दयाल के ही शब्दों में:

”मैं बहुत ही गम्भीर स्वरूप का एक वृत्तान्त दर्ज करना चाहता हूँ, जब यू.पी. मंत्रिमंडल के टालमटोल और अनिर्णय के भयावह परिणाम निकले।

साम्प्रदायिक तनाव का उन्माद अभी पूरे जोरों पर था कि वेस्टर्न रेंज की पुलिस के डिप्टी इन्सपेक्टर जनरल बी.बी.एल. जेतली, जो बहुत ही तपे-मँजे हुए और सुयोग्य अफसर थे, मेरे निवास-स्थान में अत्यन्त गुप्त रूप से आये। उनके साथ दो पुलिस अफ़सर थे, जिनके पास अच्छी तरह तालाबंद इस्पात के बड़े-बड़े ट्रंक थे। जब ट्रंक खोले गये तो प्रान्त के सारे के सारे पश्चिमी जिलों में साम्प्रदायिक आधार पर नरसंहार करने की कायरतापूर्ण साज़िश उजागर हो गयी। ट्रंक उस विशाल भू-क्षेत्र के हर शहर और गाँव के ऐसे ब्लूप्रिंटों (नक्शों) से सटासट भरे थे, जिनमें किसी भूलचूक की गुंजाइश नहीं थी और जिन्हें बिलकुल पेशेवर ढंग से तैयार किया गया था। इनमें मुस्लिम बस्तियों और मुस्लिम आबादी वाले इलाकों पर खूब मोटे-मोटे निशान अंकित थे। भिन्न-भिन्न लक्षित स्थानों तक कैसे पहुँचा जाये, इस बारे में और दूसरी चीजों के बारे में ब्यौरेवार निर्देश दिये गये थे। ये सब उनके महाअनर्थकारी मन्तव्य पर पर्याप्त प्रकाश डाल रहे थे।
”इस रहस्योदघाटन से अत्यन्त चिन्तित होकर मैं पुलिस पार्टी को सीधे प्रधानमंत्री (उस समय मुख्यमंत्री के लिए प्रीमियर-प्रधानमंत्री शब्द का उपयोग किया जाता था-अनु.) की कोठी में ले गया। वहीं एक बन्द कमरे में जेतली ने अपनी खोज की पूरी रिपोर्ट पेश की, जिसके सारे प्रमाण ट्रंकों में थे। रा.स्व.से.सं के अड्डों पर ठीक वक्त पर छापा मारे जाने से एक विराट षड्यंत्र का भंडाफोड़ हो गया। सारी साज़िश स्वयं संगठन के सुप्रीमो के निर्देशन और संचालन में सामंजस्यपूर्ण ढंग से रची गयी थी। जेतली और मैंने – हम दोनों ने – प्रमुख मुलज़िम, श्री गोलवलकर की फौरन गिरफ़्तारी पर ज़ोर दिया।

”पन्त जी (गोविंदवल्लभ पन्त -अनु.)अपने समक्ष जीते-जागते प्रमाण को स्वीकार किये बिना नहीं रह सकते थे। लेकिन गिरोह के रहनुमा को फौरन गिरफ़्तार करने के बजाय, जिसकी हम अपेक्षा कर रहे थे और जो कि रफ़ी अहमद किदवई, (गृहमंत्री – अनु.) ज़रूर करते, पन्त जी ने मसला मंत्रिमंडल की अगली बैठक में विचार-विमर्श के लिए पेश करने के वास्ते कहा। बेशक, यह राजनीतिक दृष्टि से नाज़ुक मसला था क्योंकि रा.स्व.से.सं. की जड़ें देश के जीवन में गहराई तक पहुँची हुई थीं। इसके अलावा और भी राजनीतिक मजबूरियाँ थीं, जिनकी वजह यह थी कि आर.एस.एस. के प्रच्छन्न तथा प्रत्यक्ष, दोनों प्रकार के हमदर्द खुद कांग्रेस पार्टी, यहाँ तक कि मंत्रिमंडल में भी पाये जा सकते थे। अपर हाउस (विधान परिषद–अनु.) के अध्यक्ष आत्म गोविन्द खेर स्वयं रा.स्व.से.सं. से संलग्न थे और उनके पुत्र रा.स्व.से.सं. के प्रत्यक्ष सदस्य थे, यह बात किसी से छुपी नहीं थी।

”मंत्रिमंडल की बैठक में आम ढंग से टालमटोल होता रहा और अप्रासंगिक बातें की गयीं। पुलिस ने एक ऐसी साज़िश का पर्दाफ़ाश किया था, जो पूरे प्रान्त को आग में झोंक सकती थी। सम्बद्ध अधिकारी हार्दिक प्रशंसा के पात्र थे – इस तथ्य की विचार-विमर्श के दौरान चर्चा ही नहीं हुई। आखिर में जो तय हुआ, वह यह कि श्री गोलवलकर के नाम एक चिट्ठी भेजी जाये, जिसमें जमा किये गये प्रमाणों की अन्तर्वस्तु और उसका स्वरूप उन्हें बताया जाये और इस बारे में उनसे सफ़ाई माँगी जाये। तय हुआ कि अगर ऐसी चिट्ठी मेरे ज़ोर देने पर जारी की जाती है, तो उसे वज़नदार बनाने के लिए खुद प्रधानमंत्री (पन्तजी) के नाम से भेजा जाना चाहिए। पन्तजी ने मुझे मसौदा तैयार करने के लिए कहा, जो मैंने उनकी ही विशिष्ट शैली की नकल करते हुए बनाया। चिट्ठी फौरन भेजी जानी थी। दो पुलिस अफसरों को यह काम सौंपा गया परन्तु गोलवलकर को पहले ही सावधान कर दिया गया था। इलाके (पश्चिमी यू.पी.–अनु.) में कहीं उनका नामोनिशां भी नहीं था। खोजते-खोजते पता चला कि वह दक्षिण की ओर चले गये हैं। वह पीछा करने वालों को चकमा देने में सफल रहे। स्थान-स्थान पर उनका पीछा किया जाता रहा, जिसका कोई फल नहीं निकला और कई हफ़्ते गुज़र गये।

”फिर आया 1948 का 30 जनवरी का दिन, जब शान्ति का सर्वोच्च दूत रा.स्व.से.सं. के एक मतान्ध की गोली का शिकार बना। पूरे त्रासदीभरी प्रकरण पर मुझे उबकाई आने लगी।”

 ‘दायित्वबोध’ पत्रिका से साभार

मज़दूर बिगुल, मार्च-अप्रैल 2016


 

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