Category Archives: विकल्‍प का ख़ाका

महज़ पूँजीवाद-विरोध पर्याप्त नहीं है! हमें पूँजीवाद का विकल्प पेश करना होगा!

लेकिन सवाल यह है कि आज जो पूँजीवाद-विरोध अमेरिका और यूरोपीय देशों की सड़कों पर जनता कर रही है, उसमें किसी क्रान्तिकारी परिवर्तन तक पहुँच पाने की क्षमता है या नहीं? यहाँ पर हम एक समस्या का सामना करते हैं। यह सच है कि आज पूँजीवाद अपने असमाधेय और अन्तकारी संकट से घिरा हुआ है। लेकिन यह भी सच है कि इस संकट के कारण पूँजीवादी व्यवस्था अपने आप धूल में नहीं मिल जायेगी। इस संकट ने उसे जर्जर और कमज़ोर बना दिया है। लेकिन अगर मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में एक संगठित प्रतिरोध मौजूद नहीं होगा, तो पूँजीवादी व्यवस्था जड़ता की ताक़त से टिकी रहेगी। ठीक उसी तरह जैसे अगर कोई बूढ़ा-बीमार आदमी भी कुर्सी को कसकर जकड़ कर बैठ जाये तो उसे वहाँ से हटाने के लिए संगठित बल प्रयोग की ज़रूरत पड़ेगी। आज यही संगठित शक्ति ग़ायब दिखती है।

सुधार के नीमहकीमी नुस्ख़े बनाम क्रान्तिकारी बदलाव की बुनियादी सोच

”भ्रष्टाचार मुक्त” पूँजीवाद भी सामाजिक असमानता मिटा नहीं सकता और सबको समान अवसर नहीं दे सकता। दूसरी बात यह कि पूँजीवाद कभी भ्रष्टाचारमुक्त हो ही नहीं सकता। जब भ्रष्टाचार का रोग नियन्त्रण से बाहर होकर पूँजीवादी शोषण-शासन की आर्थिक प्रणाली के लिए और पूँजीवादी जनवाद की राजनीतिक प्रणाली के लिए सिरदर्द बन जाता है, तो स्वयं पूँजीपति और पूँजीवादी नीति निर्माता ही इसपर नियन्त्रण के उपाय करते हैं। तमाम किस्म के राजनीतिक सुधारवादियों की जमातें बिना क्रान्तिकारी बदलाव के, व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए ”भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन” करने लगती हैं। यह पूँजीवादी व्यवस्था की ‘नियन्त्रण एवं सन्तुलन’ की आन्तरिक यान्त्रिकी है। सुधारवादी सिद्धान्तकारों का शीर्षस्थ हिस्सा तो पूँजीवादी व्यवस्था के घाघ संरक्षकों का गिरोह होता है। उनके नीचे एक बहुत बड़ी नीमहकीमी जमात होती है जो पूरी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की कार्यप्रणाली का अध्ययन किये बिना कुछ यूटोपियाई हवाई नुस्ख़े सुझाती रहती है और जनता को दिग्भ्रमित करती रहती है। ऐसे लोगों की नीयत चाहे जो हो, वे पूँजीवाद के फटे चोंगे को रफू करने, उसके पुराने जूते की मरम्मत करने और उसके घोड़े की नाल ठोंकने का ही काम करते रहते हैं।

21वीं सदी के पहले दशक का समापन : मजदूर वर्ग के लिए आशाओं के उद्गम और चुनौतियों के स्रोत

साफ नजर आ रहा है कि पूरी विश्व पूँजीवादी व्यवस्था अपने अन्तकारी संकट से जूझ रही है और हर बीतते वर्ष के साथ उसका आदमख़ोर और मरणासन्न चरित्र और भी स्पष्ट तौर पर नजर आने लगा है। पूँजीवाद की अन्तिम विजय को लेकर जो दावे और भविष्यवाणियाँ की जा रही थीं, वे अब चुटकुला बन चुकी हैं। दुनियाभर में कम्युनिज्म और मार्क्‍सवाद की वापसी की बात हो रही है। बार-बार यह बात साफ हो रही है कि दुनिया को विकल्प की जरूरत है और पूँजीवाद इतिहास का अन्त नहीं है। आज स्वत:स्फूर्त तरीके से दुनिया के अलग-अलग कोनों में मजदूर सड़कों पर उतर रहे हैं। कहीं पर नौसिखुए नेतृत्व में, तो कहीं बिना नेतृत्व के वे समाजवाद के आदर्श की ओर फिर से देख रहे हैं। जिन देशों में समाजवादी सत्ताएँ पतित हुईं, वहाँ का मजदूर आज फिर से लेनिन, स्तालिन और माओ की तस्वीरें लेकर सड़कों पर उतर रहा है। वह देख चुका है कि पूँजीवाद उसे क्या दे सकता है। यह सच है कि पूरी दुनिया में अभी भी श्रम की शक्तियों पर पूँजी की शक्तियाँ हावी हैं और मजदूर वर्ग की ताकत अभी बिखराव और अराजकता की स्थिति में है। लेकिन इसका कारण पूँजीवाद की शक्तिमत्ता नहीं है। इसका कारण मजदूर वर्ग के आन्दोलन की अपनी अन्दरूनी कमजोरियाँ हैं। लगातार संकटग्रस्त पूँजीवाद आज महज अपनी जड़ता की ताकत से टिका हुआ है।

इक्कीसवीं शताब्दी की पहली दशाब्दी के समापन के अवसर पर

यह महज पहली सर्वहारा क्रान्तियों की हार है जिसकी शिक्षाएँ इन क्रान्तियों के नये संस्करणों की फैसलाकुन जीत की ज़मीन तैयार करेंगी। यह श्रम और पूँजी के बीच जारी विश्व ऐतिहासिक समर का मात्र पहला चक्र है, अन्तिम नहीं। अतीत में भी निर्णायक ऐतिहासिक जीत से पहले विजेता वर्ग एकाधिक बार पराजित हुआ है। कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों ने तब समाजवाद के अन्तर्गत जारी वर्ग संघर्ष, पूँजीवादी पुनर्स्थापना के अन्तर्निहित ख़तरों और चीन की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की शिक्षाओं के आधार पर भविष्य में इन ख़तरों से लड़ने के बारे में भी बार-बार बातें की थीं। वे यह भी बताते रहे कि पूँजीवाद जिन कारणों से अपने भीतर से समाजवाद के बीज और उसके वाहक वर्ग को (अपनी कब्र खोदने वाले वर्ग को) पैदा करता है, वे बुनियादी कारण अभी भी मौजूद हैं।

अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण के निर्माण का रास्ता ही मुक्ति का रास्ता है!

महान अक्टूबर क्रान्ति ने यह साबित कर दिखाया कि दुनिया की तमाम सम्पदा का उत्पादक मेहनतकश जनसमुदाय सर्वहारा वर्ग की अगुवाई में और उसके हिरावल दस्ते – एक सच्ची, इंकलाबी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में स्वयं शासन-सूत्र भी सम्हाल सकता है तथा अपने भाग्य और भविष्य का नियन्ता स्वयं बन सकता है। महान अक्टूबर क्रान्ति ने यह साबित किया कि मालिक वर्गों को समझा-बुझाकर नहीं बल्कि उनकी सत्ता को बलपूर्वक उखाड़कर और उनपर बलपूर्वक अपनी सत्ता (सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व) कायम करके ही पूँजीवाद के जड़मूल से नाश की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है और समाजवाद का निर्माण किया जा सकता है।

इलेक्शन या इंकलाब?

साम्राज्यवादी डाकुओं की बढ़ती लूट,
देशी सरमायेदारों की फूलती थैलियां,
मेहनतकशें की बढ़ती तबाही,
बेरोजगारी, आसमान छूती मंहगाई,

मेहनतकश साथियो! नौजवान दोस्तो! सोचो!

अगर हमने इंकलाब की राह चुनी होती
तो भगतसिंह के सपनों का भारत
आज एक हकीकत होता।

मालिक लोग आते हैं, जाते है

मालिक लोग चले जाते हैं
तुम वहीं के वहीं रह जाते हो
आश्वासनों की अफ़ीम चाटते
किस्मत का रोना रोते; धरम–करम के भरम में जीते।
आगे बढ़ो! मालिकों के रंग–बिरंगे कुर्तों को नोचकर
उन्हें नंगा करो।

स्‍तालिन – मजदूरों का समाजवाद क्या है?

मौजूदा समाज-व्यवस्था पूँजीवादी व्यवस्था है। इसका मतलब यह है कि दुनिया दो विरोधी दलों में बँटी हुई है। एक दल थोड़े से मुट्ठी भर पूँजीपतियों का है। दूसरा दल बहुमत का, यानी मजदूरों का है। मजदूर दिन रात काम करते हैं, परन्तु फिर भी गरीब रहते हैं। पूँजीपति काम कौड़ी का नहीं करते, परन्तु फिर भी मालामाल रहते हैं। ऐसा इसलिए नहीं है कि मजदूरों में बुद्धि नहीं है और पूँजीपति अकल के पुतले हैं। ऐसा इसलिए होता है कि पूँजीपति मजदूरों की मेहनत के फल को हड़प लेते है, मजदूरों का शोषण करते हैं। पर इसका क्या कारण है कि मजदूरों की मेहनत से जो कुछ पैदा होता है उस पर पूँजीपति कब्जा कर लेते हैं और वह मजदूरों को नहीं मिलता? इसकी क्या वजह है कि पूँजीपति मजदूरों का शोषण करते हैं और मजदूर पूँजीपतियों का शोषण नहीं करते?

जरूरी है कि जनता के सामने क्रान्तिकारी विकल्प का खाका पेश किया जाये

आज चुनावों में हमें एक अलग ढंग से भागीदारी करनी चाहिए। चुनावों में उम्मीदवार खड़ा करना अपनी ताकत फ़ालतू खर्च करना है। इसके बजाय हमें चुनावों के गर्म राजनीतिक माहौल का लाभ उठाने के लिए इस दौरान जन सभाओं और व्यापक जनसम्पर्क अभियानों के द्वारा जनता तक अपनी बात पहुँचानी चाहिए, सभी संसदीय पार्टियों का और पूँजीवादी संसदीय व्यवस्था का भण्डाफ़ोड़ करना चाहिए तथा लोगों को यह बताना चाहिए कि किसी पार्टी को वोट देने से कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा, फ़र्क तभी पड़ेगा जब मेहनतकश जनता संगठित होकर सारी ताकत अपने हाथों में ले ले।