Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

घरेलू कामगार स्त्रियाँ: हक से वंचित एक बड़ी आबादी

देश में लाखों घरेलू कामगार स्त्रियों के श्रम को पूरी तरह से अनदेखा किया जाता है। हमारी अर्थव्यवस्था के भीतर घरेलू काम और उनमें सहायक के तौर पर लगे लोगों के काम को बेनाम और न दिखाई पड़ने वाला, गैर उत्पादक की श्रेणी में रखा जाता है। सदियों से चली आ रही मान्यता के तहत आज भी घरेलू काम करने वालों को नौकर/नौकरानी का दर्जा दिया जाता है। उसे एक ऐसा व्यक्ति माना जाता है जो मूल कार्य नहीं करता बल्कि मूल कार्य पूरा करने में किन्हीं तरीकों से मदद करता है। इस वजह से उनका कोई वाजिब मेहनताना ही तय नहीं होता। मालिकों की मर्ज़ी से बख्शीश ज़रूर दी जाती है। यह मनमर्ज़ी का मामला होता है अधिकार का नहीं। मन हुआ या खुश हुए तो ज़्यादा दे दिया और नहीं तो बासी सड़ा भोजन, फटे-पुराने कपड़े, जूते, चप्पल दे दिया जाता है। देश की अर्थव्यवस्था में घरेलू कामगारों के योगदान का कभी कोई आकलन नहीं किया जाता। उल्टे इनको आलसी, कामचोर, बेईमान, गैर-ज़िम्मेदार और फ़ायदा उठाने वाला समझा जाता है।

लुधियाना के टेक्सटाइल मजदूरों के संघर्ष की शानदार जीत

टेक्सटाइल होजरी कामगार यूनियन के नेतृत्व में लुधियाना के लगभग 50 पावरलूम कारखानों के मजदूरों का संघर्ष इस वर्ष 8 से 12 प्रतिशत वेतन/पीस रेट बढ़ोत्तरी और बोनस लेने का समझौता करवाकर जीत से समाप्त हुआ। पिछले पाँच वर्षों से पावरलूम मजदूरों ने संघर्ष करते हुए अब तक वेतन/पीस रेटों में 63 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी करवाई है, ज्यादातर कारखानों में ईएसआई कार्ड बनाने के लिए मालिकों को मजबूर किया और पिछले तीन वर्षों से मालिकों को बोनस देने के लिए भी मजबूर किया है।

पंजाब सरकार के फासीवादी काले क़ानून को रद्द करवाने के लिए क्षेत्रीय स्तर पर तीन विशाल रैलियाँ

पंजाब सरकार सन् 2010 में भी दो काले क़ानून लेकर आयी थी। जनान्दोलन के दबाव में सरकार को दोनों काले क़ानून वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था। रैलियों के दौरान वक्ताओं ने ऐलान किया कि इस बार भी पंजाब सरकार को लोगों के आवाज़ उठाने, एकजुट होने, संघर्ष करने के जनवादी अधिकार छीनने के नापाक इरादों में कामयाब नहीं होने दिया जायेगा।

काले क़ानून के खि़लाफ़ रैली में औद्योगिक मज़दूरों की विशाल भागीदारी

पंजाब सरकार का यह काला क़ानून रैली, धरना, प्रदर्शन, आदि संघर्ष के रूपों के आगे तो बड़ी रुकावटें खड़ी करता ही है वहीं हड़ताल को अप्रत्यक्ष रूप से गैर-क़ानूनी बना देता है। इस क़ानून के मुताबिक हड़ताल के दौरान मालिक/सरकार को पड़े घाटे की भरपाई हड़ताली मज़दूरों और उनके नेताओं को करनी होगी। इसके साथ ही घाटा डालने के ज़रिए सार्वजनिक या निजी सम्पत्ति को पहुँचाये नुक्सान के “अपराध” में जेल और जुर्माने का सामना भी करना पड़ेगा। हड़ताल होगी तो घाटा तो होगा ही। इस तरह हड़ताल या यहाँ तक कि रोष के तौर पर काम धीमा करना भी गैरक़ानूनी हो जायेगा। हड़ताल मज़दूर वर्ग के लिए संघर्ष का एक बेहद महत्वपूर्ण रूप है। हड़ताल को गैरक़ानूनी बनाने की कार्रवाई और इसके लिए सख्त सजाएँ व साथ ही रैली, धरना, प्रदर्शन, जुलूस आदि करने पर नुक्सान के दोष लगाकर जेल, जुर्माने आदि की सख्त सज़ाएँ बताती हैं कि यह क़ानून मज़दूर वर्ग पर कितना बड़ा हमला है। मज़दूर वर्ग को इस हमले के खिलाफ़ अन्य मेहतनकशों के साथ मिलकर सख़्त लड़ाई लड़नी होगी। इसलिए पंजाब सरकार के काले क़ानून के खि़लाफ़ टेक्सटाइल-हौज़री कामगार यूनियन व कारख़ाना मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में लुधियाना के कारख़ाना मज़दूरों का आगे आना महत्वपूर्ण बात है।

हर देश में अमानवीय शोषण-उत्पीड़न और अपमान के शिकार हैं प्रवासी मज़दूर

भारत, नेपाल तथा अन्य देशों से आये प्रवासी मज़दूर खाली जेब, कर्ज़ और घर पर छोड़ आयी ढेरों ज़िम्मेदारियों के साथ खाड़ी देशों की ज़मीन पर कदम रखते हैं। वहाँ पहुँचते ही उनके वीज़ा और पासपोर्ट दलाल जब़्त कर लेते हैं। उन्हें आकर्षक नौकरियों का जो सपना दिखाकर लाया जाता है वह यहाँ पहुँचते ही टूट जाता है। इसके उलट उन्हें घण्टों कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ती है और बदलें में मिलती है बेहद कम मज़दूरी। कइयों को तो बढ़िया नौकरी का सपना दिखाकर ले जाया जाता है और उनसे ऊँट या भेड़ें चराने का काम कराया जाता है। उनके चारों ओर दूर-दूर तक वीरान रेगिस्तान पसरा होता है। बातें करने के लिए एक इंसान नहीं होता। न ढंग से खाना मिलता है और न ही नहाने की इजाज़त। इस त्रासद स्थिति को बहरीन में रहने वाले एक मलयाली उपन्यासकार बेनियामिन ने अपने उपन्यास ‘अदुजीवितम’ (भेड़ के दिन) में दर्शाया है।

वजीरपुर के मज़दूरों के संघर्ष के बारे में

मजदूर साथियो, मेरा नाम बाबूराम हैं, मैं गरम मशीन का ओपेरटर हूँ। मैं वजीरपुर इंडस्ट्रियल एरिया में रहता हूँ। साथियों, मैं वजीरपुर इंडस्ट्रियल एरिया के मजदूरों के हालात के बारे में लिख रहा हूँ।

मजदूर एकता ज़ि‍न्दाबाद

यह बात आज हम लोग शायद न मान पायें मगर सच यही है कि लूट, खसोट व मुनाफे पर टिकी इस पूँजी की व्यवस्था में उम्रदराज लोगों का कोई इस्तेमाल नहीं है। और पूँजी की व्यवस्था का यह नियम होता है कि जो माल(क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था में हर व्यक्ति या रिश्ते-नाते सब माल के ही रूप होते हैं) उपयोग लायक न हो उसे कचरा पेटी में डाल दो। हम अपने आस-पास के माहौल से दिन-प्रतिदिन यह देखते होंगे कि फलाने के माँ-बाप को कोई एक गिलास पानी देने वाला भी नहीं जबकि उनके चार-चार लड़के हैं। फलाने के कोई औलाद नहीं और वो इतने गरीब है कि उनका बुढ़ापा जैसे-तैसे घिसट-घिसट कर ही कट रहा है। फलाने के लड़के नहीं है मगर लड़की व दामाद ने तीन-तिकड़म कर सम्पत्ति‍ पर कब्जा करके माँ-बाप को सड़क पर ला दिया।

वो कहते हैं

राम, कृष्ण, अल्लाह, मसीह की पूजा करो
– अपने धर्म की सेवा करो
तो तुम्हारी जिन्दगी बदलेगी
और नहीं बदली
तो यह तुम्हारे पिछले जन्म के कर्मों का फ़ल है
शायद वो यह नहीं जानते
राम, कृष्ण, अल्लाह, मसीह की पूजा कर.कर के ही
हमारा ये हाल है
पर वो कहते हैं
तुम कुछ नहीं जानते

दिल्ली इस्पात मज़दूर यूनियन की स्थापना

गरम रोला मज़दूर एकता समिति के नेतृत्व में संगठित हुए मज़दूरों ने अपने संगठन को विस्तारित करते हुए उसे वज़ीरपुर व दिल्ली के अन्य इलाकों के मज़दूरों की यूनियन के रूप में पंजीकृत कराने का फैसला किया है। यह फैसला मज़दूरों ने 27 अगस्त को अपनी आम सभा में ध्वनि मत के जरिये पारित किया व दिल्ली इस्पात मज़दूर यूनियन की स्थापना की।

नकली ट्रेड यूनियनों से सावधान!

मज़दूरों के जितने बड़े दुश्मन फ़ैक्टरी मालिक, ठेकेदार और पुलिस-प्रशासन होते हैं उतनी ही बड़ी दुश्मन मज़दूरों का नाम लेकर मज़दूरों के पीठ में छुरा घोंपनेवाली दलाल यूनियनें होती हैं। ये दलाल यूनियनें भी मज़दूरों के हितों और अधिकारों की बात करती हैं पर अन्दरखाने पूँजीपतियों की सेवा करती हैं। ऐसी यूनियनों में प्रमुख नाम सीटू, एटक, इंटक, बी एम एस, एच एम एस और एक्टू का लिया जा सकता है। इनका काम मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को गड्ढे में गिराना तथा मज़दूरों और मालिकों से दलाली करके अपनी दुकानदारी चलाना है। जहाँ कहीं भी मज़दूरों की बड़ी आबादी रहती है ये वहाँ अपनी दुकान खोलकर बैठ जाते हैं और अपनी रस्म अदायगियों द्वारा दुकान चलाते रहते हैं। जब किसी मज़दूर के साथ कोई दुर्घटना हो जाये या उसके पैसे मालिक रोक ले या उसे काम से निकाल दिया जाये तो इन यूनियनों का असली चेहरा सामने आ जाता है। सबसे पहले तो 100-200 रुपये अपनी यूनियन की सदस्यता के नाम पर लेते हैं, उसके बाद काम हो जाने पर 20-30 प्रतिशत कमीशन मज़दूर से लेते हैं। ज़्यादातर मामलों में मज़दूरों को कुछ हासिल नहीं होता है।