पाँच साल में शहरों को झुग्गी-मुक्त करने के दावे की असलियत
आज शहरी ग़रीबों की एक बहुत बड़ी आबादी तो ऐसी है जिसके पास अपनी पहचान या रोजगार का ही कोई प्रमाण नहीं है, तो भला वे पक्के मकान पाने के बारे में सोच भी कैसे सकेंगे। और ये मकान भी सरकार कोई मुफ्त नहीं देगी बल्कि उनकी लागत तो किश्तों में ही सही गरीबों से वसूली जायेगी। किसी तरह दो वक्त क़ी रोटी का इन्तजाम करने वाली ग़रीबों की भारी आबादी ये किश्तें भी भला कैसे चुका पायेगी? दूसरे, इस तरह की योजनाओं में पहले जो मकान बने हैं उनका बहुत बड़ा हिस्सा तो मध्यवर्गीय लोगों और छोटे-मोटे बिल्डरों के क़ब्जे में आ चुका है। इस योजना का हश्र इससे अलग होगा ऐसा नहीं लगता। कुल मिलाकर, शहरी गरीबों की भारी आबादी के मन में एक झूठी उम्मीद पैदा करने और शोषण और तबाही से उनमें बढ़ते असन्तोष की ऑंच पर पानी के छींटे डालने के अलावा इससे और कुछ नहीं होगा। हाँ, मन्दी की मार झेल रहे निर्माण उद्योग, सीमेण्ट कम्पनियों और बिल्डरों को घटिया मकान बनाकर मोटी कमाई करने का एक और रास्ता मिल जायेगा।