Category Archives: मज़दूर बस्तियों से

बिगुल पुस्तिका – 15 : राजधानी के मेहनतकश: एक अध्ययन

यह पुस्तिका, विभिन्न स्रोतों से लिये गये आँकड़ों के माध्यम से राजधानी के मेहनतकशों के बारे जनसांख्यिकीय जानकारियों, उनकी जीवन-स्थितियों और संघर्षों की तस्वीर पेश करने के साथ ही उन्हें संगठित करने के नये रूपों की भी चर्चा करती है। पुस्तिका इस बात की भी तस्वीर पेश करती है कि राजधानी में मेहनतकशों की कितनी बड़ी ताक़त मौजूद है। ज़रूरत है इस बिखरी हुई ताक़त को जागरूक, एकजुट और संगठित करने की। आम मेहनतकशों, मज़दूर संगठनकर्ताओं और अध्येताओं के लिए एक बेहद उपयोगी पुस्तिका।

कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स के लिए सजती दिल्‍ली में – उजड़ती गरीबों की बस्तियां

पिछले एक दिसम्बर को बादली रेलवे स्टेशन से सटी बस्ती, सूरज पार्क की लगभग एक हज़ार झुग्गियों को दिल्ली नगर निगम ने ढहा दिया। सैकड़ों परिवार एक झटके में उजड़ गये और दर-दर की ठोकरें खाने के लिए सड़कों पर ढकेल दिये गये। दरअसल 2010 में होने वाले राष्ट्रमण्डल (कॉमनवेल्थ) खेलों की तैयारी के लिए दिल्ली के जिस बदनुमा चेहरे को चमकाने की मुहिम चलायी जा रही है उसकी असलियत खोलने का काम ये झुग्गियाँ कर रही थीं। दिल्ली का चेहरा चमकाने का यह काम भी इन्हीं और ऐसी ही दूसरी झुग्गियों में बसनेवालों के श्रम की बदौलत हो रहा है, लेकिन उनके लिए दिल्ली में जगह नहीं है।

पाँच साल में शहरों को झुग्गी-मुक्त करने के दावे की असलियत

आज शहरी ग़रीबों की एक बहुत बड़ी आबादी तो ऐसी है जिसके पास अपनी पहचान या रोजगार का ही कोई प्रमाण नहीं है, तो भला वे पक्के मकान पाने के बारे में सोच भी कैसे सकेंगे। और ये मकान भी सरकार कोई मुफ्त नहीं देगी बल्कि उनकी लागत तो किश्तों में ही सही गरीबों से वसूली जायेगी। किसी तरह दो वक्त क़ी रोटी का इन्तजाम करने वाली ग़रीबों की भारी आबादी ये किश्तें भी भला कैसे चुका पायेगी? दूसरे, इस तरह की योजनाओं में पहले जो मकान बने हैं उनका बहुत बड़ा हिस्सा तो मध्‍यवर्गीय लोगों और छोटे-मोटे बिल्डरों के क़ब्जे में आ चुका है। इस योजना का हश्र इससे अलग होगा ऐसा नहीं लगता। कुल मिलाकर, शहरी गरीबों की भारी आबादी के मन में एक झूठी उम्मीद पैदा करने और शोषण और तबाही से उनमें बढ़ते असन्तोष की ऑंच पर पानी के छींटे डालने के अलावा इससे और कुछ नहीं होगा। हाँ, मन्दी की मार झेल रहे निर्माण उद्योग, सीमेण्ट कम्पनियों और बिल्डरों को घटिया मकान बनाकर मोटी कमाई करने का एक और रास्ता मिल जायेगा।

करोड़ों “स्‍लमडॉग” और मुट्ठीभर करोड़पति!

झुग्गियों के जीवन की असली तस्वीर पेश करने के बावजूद यह फ़िल्म झुग्गी में रहने वालों की समस्याओं के बारे में नहीं है। इसके बजाय, यह झूठ के बारे में है कि यह व्यवस्था हरेक को इतना मौक़ा देती है कि एक झुग्गीवाला भी करोड़पति बनने की उम्मीद पाल सकता है। जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ती है, सच्चाई से इसका नाता ख़त्म हो जाता है। सच तो यह है कि भारत में झुग्गियों का कोई निवासी सिर्फ़ अपराध की दुनिया में जाकर ही 1 करोड़ रुपये कमाने की बात सोच सकता है। अगर क़िस्मत से उसकी लॉटरी लग ही जाये, जैसाकि फ़िल्म में दिखाया गया है, तो भी इससे भारत की झुग्गियों में रहने वाले करोड़ों लोगों की ज़िन्दगी पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा जो अब भी इन्सान की तरह जीने के लिए ज़रूरी सुविधाओं से वंचित हैं। सच्चा कलाइमेक्स तो यह होगा कि करोड़ों झुग्गीवासियों की ज़िन्दगी को मानवीय बनाने के लिए व्यवस्था में बदलाव किया जाये न कि करोड़पति बनने के झूठे सपने दिखाये जायें। कई मामलों में यह फ़िल्म उसी पूँजीवादी सोच को पेश करती है जो देश में करोड़पतियों की बढ़ती तादाद पर जश्‍न मनाती है लेकिन इस तथ्य की अनदेखी करती है कि करोड़ों लोग नर्क जैसे हालात में जी रहे हैं। आज के भारत की ही तरह, यह फ़िल्म भी इन्सान बनने के संघर्ष की प्रेरणा देने के बजाय करोड़पति बनने की झूठी आशा जगाती है। हम चाहें या न चाहें, सच तो यह है कि भारत करोड़ों “स्‍लमडॉग” और मुट्ठीभर करोड़पतियों का देश है।

राष्‍ट्रीय राजधानी में ग़रीबों के गुमशुदा बच्चों और पुलिस-प्रशासन के ग़रीब-विरोधी रवैये पर बिगुल मज़दूर दस्ता और नौजवान भारत सभा की रिपोर्ट

दिल्ली आज भी गुमशुदा बच्चों के मामले में देश में पहले स्थान पर है, जिनमें 80 प्रतिशत से ज़्यादा संख्या ग़रीबों के बच्चों की होती है। शायद इसीलिए पुलिस से लेकर सरकार तक कोई इस मुद्दे पर गम्भीर नहीं है। पिछले वर्ष सितम्बर तक दिल्ली में 11,825 बच्चे गुमशुदा थे। राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार हर साल दिल्ली से क़रीब 7,000 बच्चे गुम हो जाते हैं, लेकिन यह संख्या दिल्ली पुलिस के आँकड़ों पर आधारित है। हालाँकि विभिन्न संस्थाओं का अनुमान है कि वास्तविक संख्या इससे कई गुना अधिक हो सकती है क्योंकि ज़्यादातर लोग अपनी शिकायत लेकर पुलिस के पास जाते ही नहीं। पुलिस के पास गुमशुदगी की जो सूचनाएँ पहुँचती भी हैं, उनमें से भी बमुश्किल 10 प्रतिशत मामलों में एफ़आईआर दर्ज की जाती है। ज़्यादातर मामलों को पुलिस रोज़नामचे में दर्ज करके काग़ज़ी ख़ानापूर्ति कर लेती है।

नोएडा की झुग्गी बस्ती की एक तस्‍वीर

मैं नोएडा, सेक्टर–8 की झुग्गी बस्ती में रहता हूं। बस्ती के दक्षिण–पश्चिमी कोने में मेरी झुग्गी है। इस बस्ती में रहना धरती पर ही नर्क भोगने जैसा है। यहां इतनी ज्यादा समस्याएं हैं कि अगर किसी को एक सबसे महत्वपूर्ण और बुनियादी समस्या बताने को कहा जाये तो वह असमंजस में पड़ जायेगा। सुबह से शाम तक हर आदमी इस बस्ती में समस्याओं से ही दो–चार होते हुए जीता है।

समाज बदल सकता है बशर्ते हम एकजुट हों

बिगुल के माध्यम से हम लोगों को इन दलाल नेताओं से सावधान रहने और एकता बनाने का जो संदेश मिला है उससे हमारी स्थिति में थोड़ा बदलाव भी आया है। हम लोगों ने नौजवान भारत सभा की बैठकें शुरू कर दीं और लोगों को जगाना शुरू किया। इतने से ही हमारी बस्ती में अवैध वसूली रुक गयी है। आज इस बात की जरूरत है कि लोगों को एकजुट होना पड़ेगा। मजदूर भाइयों को शोषण करने वालों के खिलाफ जागना है। अगर सभी लोग जाग जाते हैं तो सुधार हो सकता है, समाज बदल सकता है।