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‘बीडीएस इंडिया कन्वेंशन’ में इज़रायल के पूर्ण बहिष्कार का आह्वान

फ़ि‍लिस्‍तीन के विरुद्ध इज़रायल की नस्लभेदी नीतियों और लगातार जारी जनसंहारी मुहिम के विरोध में नई दिल्ली के गांधी शान्ति प्रतिष्‍ठान में आयोजित ‘बीडीएस इंडिया कन्वेंशन’ में इज़रायल के पूर्ण बहिष्कार का आह्वान किया गया। ‘फ़ि‍लिस्‍तीन के साथ एकजुट भारतीय जन’ की ओर से आयोजित बीडीएस यानी बहिष्कार, विनिवेश, प्रतिबंध कन्वेंशन में देश के विभिन्न भागों से आये बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं ने सर्वसम्मति से तीन प्रस्ताव पारित किये जिनमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रस्तावित इज़रायल यात्रा रद्द करने और इज़रायल के साथ सभी समझौते-सहकार निरस्त करने, इज़रायली कंपनियों और उत्पादों का बहिष्कार करने तथा इज़रायल का अकादमिक एवं सांस्कृतिक बहिष्कार करने की अपील की गयी। इस सवाल को लेकर आम जनता में व्यापक अभियान चलाने का भी निर्णय लिया गया। कन्वेंशन के दौरान यह आम राय उभरी कि ज़ायनवाद के विरुद्ध प्रचार उनके वैचारिक ‘पार्टनर’ हिन्दुत्ववादी फासिस्टों का भी पर्दाफ़ाश किये बिना प्रभावी ढंग से नहीं चलाया जा सकता। आम लोगों के बीच जाकर उन्हें यह समझाना होगा कि गाज़ा के हत्यारों और गुजरात के हत्यारों की बढ़ती नज़दीकी का राज़ यही है कि दोनों मानवता के दुश्मन हैं।

हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्ट और बर्बर इज़रायली ज़ायनवादी एक-दूसरे के नैसर्गिक जोड़ीदार हैं!

पिछले साल मोदी के नेतृत्व में हिन्दुत्ववादियों के सत्ता में पहुँचने के बाद से ही इज़रायल के साथ सम्बन्धों को पहले से भी अधिक प्रगाढ़ करने की दिशा में प्रयास शुरू हो चुके थे। गाज़ा में बमबारी के वक़्त हिन्दुत्ववादियों ने संसद में इस मुद्दे पर बहस कराने से साफ़ इनकार कर दिया था ताकि उसके जॉयनवादी भाई-बंधुओं की किरकरी न हो। पिछले ही साल सितंबर के महीने में न्यूयॉर्क में संयुक्‍त राष्ट्र संघ की जनरल असेंबली की बैठक के दौरान मोदी ने गुज़रात के मासूमों के खू़न से सने अपने हाथ को गाज़ा के निर्दाषों के ताज़ा लहू से सराबोर नेतन्याहू के हाथ से मिलाया। नेतन्याहू इस मुलाक़ात से इतना गदगद था मानो उसका बिछुड़ा भाई मिल गया हो। उसने उसी समय ही मोदी को इज़रायल आने का न्योता दे दिया था। गुज़रात के मुख्यमंत्री रहने के दौरान मोदी पहले ही इज़रायल की यात्रा कर चुका है, लेकिन एक प्रधानमंत्री के रूप में यह उसकी पहली यात्रा होगी।

जॉयनवादी इज़रायली हत्यारों के संग मोदी सरकार की गलबहियाँ

हालाँकि पिछले दो दशकों में सभी पार्टियों की सरकारों ने इज़रायली नरभक्षियों द्वारा मानवता के खि़लाफ़ अपराध को नज़रअन्दाज़ करते हुए उनके आगे दोस्ती का हाथ बढ़ाया है, लेकिन हिन्दुत्ववादी भाजपा की सरकार का इन जॉयनवादी अपराधियों से कुछ विशेष ही भाईचारा देखने में आता है। अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान भी भारत और इज़रायल के सम्बन्धों में ज़बरदस्त उछाल आया था और अब नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद एक बार फिर इस प्रगाढ़ता को आसानी से देखा जा सकता है। नरेन्द्र मोदी और बेंजामिन नेतन्याहू दोनों के ख़ूनी रिकॉर्ड को देखते हुए ऐसा लगता है, मानो ये दोनों एक-दूसरे के नैसर्गिक जोड़ीदार हैं। इस जोड़ी की गर्मजोशी भरी मुलाक़ात सितम्बर में संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेम्बली की बैठक के दौरान न्यूयॉर्क में हुई जिसमें नेतन्याहू ने मोदी को जल्द से जल्द इज़रायल आने का न्योता दिया जिसे मोदी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। नेतन्याहू ने यह भी बयान दिया कि “हम भारत से मज़बूत रिश्ते की सम्भावनाओं को लेकर रोमांचित हैं और इसकी सीमा आकाश है।” इज़रायली मीडिया ने नेतन्याहू-मोदी की इस मुलाक़ात को प्रमुखता से जगह दी।

इज़रायली बर्बरता की कहानी – एक डाक्टर की ज़ुबानी

डा. गिल्बर्ट का फिलिस्तीनी लोगों के मुक्ति-संघर्ष से पुराना नाता रहा है। वे 1970 से फिलिस्तीन तथा लेबनान में काम रहे हैं। वे ऐसे डाक्टर हैं जिनके लिए मानवता की सेवा तथा ज़ुल्म के ख़िलाफ़ संघर्षरत लोगों के साथ होकर लड़ने में मेडिकल विज्ञान की सार्थकता है, जिनके लिए मेडिकल विज्ञान जरूरत से ज़्यादा खाने और कोई काम न करने वाले परजीवियों के मोटापे को कम करने का विज्ञान नहीं है, जिनके लिए मेडिकल विज्ञान का ज्ञान पूँजीपतियों के खोले पांच-सितारा अस्पतालों में बेचने की चीज नहीं है और जिनके मेडिकल विज्ञान का ज्ञान समूची मानवता की धरोहर है न कि मुठ्ठीभर अमीरों के घर की रखैल। वे आज के समय में डा. नार्मन बेथ्यून, डा. कोटनिस, डा. जोशुआ हॉर्न जैसे डाक्टरों की परम्परा को बनाए हुए हैं जिन्होंने वक्त आने पर लोगों का पक्ष चुना था। वे और उनके साथ काम करने अन्य कई डाक्टर तथा कर्मी इस बात का उदाहरण हैं कि आज भी ऐसे डाक्टर मौजूद हैं, भले ही अभी इनकी संख्या कम हो, जो बड़े-बड़े पैकेजों, आरामदायक जीवन को छोड़कर आम लोगों और उनके सुख-दुःख से अपने जीवन को लेते हैं और इस लिए सही मायने में डाक्टर कहलवाने के योग्य हैं।

गाज़ा में इज़रायल की हार

गाजा में टनों गोला-बारूद, मिसाइलें और टैंकों की अपनी पूरी ताकत खर्च कर चुकने के बावजूद इजरायल अपने मकसद में नाकामयाब रहा। उसने जिस मकसद से हमले किये थे वह तो कत्तई हासिल हुआ नहीं उल्टे दुनिया-भर में थू-थू करवाने के बाद मुँह पिटा कर वापस लौटने पर मजबूर होना पड़ा। अन्तरराष्ट्रीय विश्लेषकों का मानना है कि इन हमलों से इजरायल राजनीतिक, कूटनीतिक और सैन्य तरीके से नुकसान ही हुआ है। एक जर्मन दैनिक “स्‍युड़यूश” ने शीर्षक दिया – ‘ओल्मर्ट की कथित जीत, हार है।’

गाज़ा पट्टी में बर्बर इज़रायली हमला

पूरा साम्राज्यवादी मीडिया इज़रायल के इस नंगे झूठ का भोंपू बना हुआ है कि उसने यह हमला “आत्मरक्षा” के लिए किया है। फ़िलिस्तीनी संगठन हमास द्वारा इज़रायल में दागे जाने वाले रॉकेटों से ख़ुद को बचाने के लिए ही उसे मजबूरन दुधमुँहे बच्चों, बूढ़ी औरतों और अस्पतालों में भरती मरीजों की जान लेनी पड़ रही है। हमारे देश का मीडिया भी इसी सुर में सुर मिला रहा है या फिर इस भयानक हत्याकाण्ड को मामूली-सी खबर के तौर पर पेश कर रहा है। आतंकवाद के नाम पर दिनों-रात युद्धोन्माद और अन्धराष्ट्रवादी भावनाएँ भड़काने में लगे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को इज़रायल का यह सरकारी आतंकवाद नज़र नहीं आ रहा है।