महज़ पूँजीवाद-विरोध पर्याप्त नहीं है! हमें पूँजीवाद का विकल्प पेश करना होगा!
लेकिन सवाल यह है कि आज जो पूँजीवाद-विरोध अमेरिका और यूरोपीय देशों की सड़कों पर जनता कर रही है, उसमें किसी क्रान्तिकारी परिवर्तन तक पहुँच पाने की क्षमता है या नहीं? यहाँ पर हम एक समस्या का सामना करते हैं। यह सच है कि आज पूँजीवाद अपने असमाधेय और अन्तकारी संकट से घिरा हुआ है। लेकिन यह भी सच है कि इस संकट के कारण पूँजीवादी व्यवस्था अपने आप धूल में नहीं मिल जायेगी। इस संकट ने उसे जर्जर और कमज़ोर बना दिया है। लेकिन अगर मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में एक संगठित प्रतिरोध मौजूद नहीं होगा, तो पूँजीवादी व्यवस्था जड़ता की ताक़त से टिकी रहेगी। ठीक उसी तरह जैसे अगर कोई बूढ़ा-बीमार आदमी भी कुर्सी को कसकर जकड़ कर बैठ जाये तो उसे वहाँ से हटाने के लिए संगठित बल प्रयोग की ज़रूरत पड़ेगी। आज यही संगठित शक्ति ग़ायब दिखती है।