अयोध्या फैसला : मज़दूर वर्ग का नज़रिया (पहली किश्त)
केन्द्र में कांग्रेस नीत संप्रग सरकार किसी भी हालत में मन्दिर मुद्दे को लेकर देश में कोई ध्रुवीकरण नहीं चाहती। इसका कारण कांग्रेस का सेक्युलरवाद नहीं है। वह कितनी सेक्युलर है, यह तो अयोध्या में मन्दिर विवाद का इतिहास ही दिखला देता है! इसका कारण यह है कि अभी चुनावी गणित में कांग्रेस की गोटियाँ अच्छी तरह से सेट हैं। यह सन्तुलन मन्दिर मुद्दे पर शान्ति भंग होने से बिगड़ सकता है, और भाजपा की डूब रही नैया अचानक उबरकर हावी भी हो सकती है। इसलिए कांग्रेस भी हर तरह से इस मुद्दे को गरमाने से बचाने में लगी थी। उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार भी अच्छी तरह इस बात को समझ रही थी कि एक बार जाति की राजनीति पर धर्म की राजनीति हावी होने का ख़ामियाज़ा प्रदेश में जातिगत राजनीति पर निर्भर सभी दलों को उठाना पड़ा था (जिसे टकसाली पत्रकार ‘मण्डल पर मन्दिर के हावी होने’ का नाम देते हैं)। अगर ऐसा फिर होता तो मायावती को मुख्य रूप से इसका राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ता। इसलिए उत्तर प्रदेश में भी मन्दिर मुद्दे को लेकर शान्ति भंग होने से रोकने के लिए मायावती ने अभूतपूर्व इन्तज़ाम किये थे। तीसरी और आख़िरी बात यह कि देश के शासक वर्गों को ऐसे किसी धार्मिक ध्रुवीकरण की फिलहाल कोई ज़रूरत भी नहीं थी। आप याद कर सकते हैं कि जब-जब मन्दिर विवाद को दंगे-फसाद में तब्दील कर जनता को बाँटा गया है, तब-तब देश किसी न किसी राजनीतिक या आर्थिक संकट का शिकार था। 1949 में जब कुछ साम्प्रदायिक फासीवादी तत्वों ने बाबरी मस्जिद के गुम्बद के नीचे राम की मूर्तियाँ रख दी थीं, उस समय आज़ादी के बाद देश की पूँजीवादी सत्ता अभी स्थिरीकरण की प्रक्रिया में थी और देश के कई हिस्सों में किसान संघर्ष चल रहे थे। देश दरिद्रता की स्थिति में था। 1986 में जब मस्जिद का ताला खुलवाया गया और बाद में शिलान्यास हुआ तब भी देश भयंकर आर्थिक संकट से गुज़र रहा था; बेरोज़गारी भयंकर रूप अख्तियार कर चुकी थी, मुद्रास्फीति का हाल बुरा था और विदेशी कर्ज़ से देश की अर्थव्यवस्था चरमरा रही थी।